’माँ’ और मकसीम गोरिकी / अनिल जनविजय

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मकसीम गोरिकी ने ’माँ’ उपन्यास 1906 में अमेरिका में लिखा था। इस उपन्यास का नायक पाविल व्लासफ़ तत्कालीन रूसी मज़दूर नेता प्योतर ज़लोमफ़ का प्रतिरूप है। प्योतर ज़लोमफ़ एक मार्क्सवादी गुट से जुड़े हुए थे, इसलिए ज़ारकालीन रूस की पुलिस उनके पीछे लगी हुई थी। बाद में सोरमफ़ कारख़ाने में खरादिये की नौकरी करते हुए उन्होंने अपने कारख़ाने के मज़दूरों को इकट्ठा करके 1901 में रूसी सोशल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी की सोरमफ़ शाखा की स्थापना की। कुछ समय बाद प्योतर ज़लोमफ़ को रूसी सोशल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी (जो महान समाजवादी रूसी क्रान्ति के बाद सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी कहलाई) की संचालन समिति का सदस्य बना लिया गया।

सन 1902 में रूसी सोशल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी ने मई दिवस के अवसर पर मज़दूरों के एक विशाल विरोध-प्रदर्शन का आयोजन किया। इस जन-प्रदर्शन का मुख्य नारा था — ज़ार की निरंकुशता मुर्दाबाद। इस प्रदर्शन के आयोजन में प्योतर ज़लोमफ़ ने मुख्य भूमिका निभाई थी, इसलिए उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और उनपर ज़ार की सत्ता के ख़िलाफ़ षड़यन्त्र करने के आरोप में मुक़दमा चलाया गया। इस मुक़दमे के दौरान अपना पक्ष रखते हुए अदालत में प्योतर ज़लोमफ़ ने रूस के मज़दूरों के नारकीय जीवन की विस्तार से चर्चा करते हुए रूस में ज़ारशाही का विरोध किया। उन्हें आजीवन निर्वासन की सज़ा दे दी गई और पूर्वी साइबेरिया में निर्वासित कर दिया गया। इसके बाद व्लदीमिर इल्यीच लेनिन ने अपने एक लेख में प्योतर ज़लोमफ़ की विस्तार से चर्चा की और उनकी भूमिका का ऊँचा मूल्यांकन किया।

मार्च 1905 में प्योतर ज़लोमफ़ को निर्वासन से भगाने की योजना बनाई गई। मकसीम गोरिकी ने इस योजना को पूरा करने के लिए 300 रूबल चंदे के रूप में दिए। ज़लोमफ़ साइबेरिया से भागकर कीव पहुँचे और वहाँ से मसक्वा (मास्को) आ गए। बाद में 1905 में उन्होंने बलशिवीकों (बोल्शेविक) द्वारा आयोजित मसक्वा के दिसम्बर विद्रोह का आयोजन किया। इसके बाद 1917 में हुई फ़रवरी क्रान्ति के बाद वे कूर्स्क प्रदेश के सूजन नामक शहर की नगर परिषद के सदस्य चुन लिए गए। फिर 1917 से 1920 तक रूस में चले गृह-युद्ध के दौरान दो बार श्वेत सेना ने उन्हें गिरफ़्तार किया और एक बार तो उन्हें गोली मारने का आदेश तक दे दिया गया था। बाद में वे सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए और उन्होंने सोवियत सहकारी कृषि व्यवस्था की स्थापना में बड़ा योग दिया। 18 मार्च 1955 को 78 वर्ष की उम्र में मसक्वा (मास्को) में उनका देहान्त हुआ।

तो यही प्योतर ज़लोमफ़ ’माँ’ उपन्यास के नायक हैं और उपन्यास में पाविल व्लासफ़ के रूप में उपस्थित हैं। उपन्यास में पाविल व्लासफ़ की माँ पिलअगेया नीलवना को मुख्य भूमिका दी गई है, जो अपने पुत्र की मज़दूर समर्थक गतिविधियों पर गर्व करती है और शुरू में उसका पूरा-पूरा नैतिक समर्थन करती है। बाद में वह ख़ुद भी पुत्र की गतिविधियों में शामिल हो जाती है।

इस उपन्यास का अनुवाद विश्व की दो सौ बीस से अधिक भाषाओं में हो चुका है। मकसीम गोरिकी की इस रचना को समाजवादी यथार्थवाद की पहली और प्रमुख रचना माना जाता है। समाजवादी यथार्थवाद का मतलब है — सामाजिक रूप से जागरूक मनुष्य और दुनिया के आपसी रिश्ते के सौन्दर्यशास्त्र की अवधारणा। समाजवाद के तहत जीवन के आदर्शों का चित्रण और कला के बुनियादी कलात्मक और संरचनात्मक सिद्धांतों का निर्धारण। समाजवादी यथार्थवाद का उद्भव और विकास क्रांतिकारी श्रम आंदोलन के विकास के साथ समाजवादी विचारों के प्रसार से जुड़ा हुआ है।

समाजवादी यथार्थवाद की व्याख्या करते हुए सोवियत लेखकों के पहले अखिल संघीय सम्मेलन में १९३४ में मकसीम गोरिकी ने कहा था — "समाजवादी यथार्थवाद मनुष्यता का एक ऐसा रचनात्मक रूप है, जिसका उद्देश्य मनुष्य की सबसे महत्वपूर्ण वैयक्तिक क्षमताओं का निरंतर विकास करना है और जो मनुष्य को स्वस्थ रखने और उसे लम्बा जीवन प्रदान करने के लिए प्राकृतिक शक्तियों पर उसकी विजय को सुनिश्चित करता है ताकि धरती पर मानव ख़ुश और सुखी रह सके और अपनी आवश्यकताओं का निरन्तर विकास करते हुए मानवजाति को एकजुट करके हमारी इस पृथ्वी को मानवजाति के अनूठे आवास में बदल सके।"

समाजवादी यथार्थवाद का मतलब है कि कला जनता के लिए है, लोक के लिए है और उसकी जड़ें श्रमिक जनता के जीवन में गहराई तक फैली हुई हैं। समाजवादी यथार्थवाद लोक द्वारा लोक के हित में लोक के लिए रचित रचनाओं में ही उभरकर आता है। समाजवादी यथार्थवाद जनता की संवेदनाओं, विचारों और कामनाओं को एकजुट करता है और जनता का विकास करता है। उसमें नए बेहतर जीवन के लिए रास्तों की खोज और सारी जनता को सुखी जीवन उपलब्ध कराने के लिए जनता के सँयुक्त रूप से किए जाने वाले प्रयास मुख्य स्थान रखते हैं।

कहना न होगा कि मकसीम गोरिकी ने इस उपन्यास की रचना सारी जनता के सुख को ही मुख्य ध्येय मानकर की थी। रूस में इस उपन्यास को ’समाजवाद की बाइबिल’ कहा और माना जाता है। 1905 के दिसम्बर विद्रोह के बाद गिरफ़्तारी से बचने के लिए गोरिकी अमेरिका भाग जाते हैं और वहाँ रूस में मज़दूर क्रान्ति के लिए धन इकट्ठा करने की कोशिश करते हैं। उसी दौरान वे ’माँ’ नामक यह उपन्यास भी लिखते हैं। गोरिकी जानते हैं कि मज़दूरों के बीच ईसाई धर्म का गहरा असर है और ज़्यादातर मज़दूर परिवारों में ईसा मसीह को भगवान माना जाता है। इसीलिए गोरिकी इस उपन्यास में ईसाई प्रतीकों का घना इस्तेमाल करते हैं। गोरिकी क्रान्तिकारी मज़दूरों को ईसाई देवदूतों की तरह दिखाते हैं। माँ के मन में पाविल व्लासफ़ और उसके संगी-साथियों की सँयुक्त छवि एक सँयुक्त ईसा मसीह के रूप में उभरती है, बल्कि कभी-कभी तो ’माँ’ अपने बेटे को ही ’ईसा मसीह’ के रूप में देखने लगती है, जिसने मज़दूरों का उद्धार करने के लिए ही इस पृथ्वी पर फिर से जन्म लिया है और वह दुनिया का उद्धार करने के लिए अपने बेटे का बलिदान दे रही है। उपन्यास में दिखाया गया मई दिवस का प्रदर्शन उपन्यास के एक नायक की नज़र में ’नए ईश्वर के नाम पर निकाले गए धार्मिक जुलूस’ में बदल जाता है।

कुछ महीने अमेरिका में रहने के बाद गोरिकी इटली के काप्री शहर में आकर रहने लगे। इटली में उन्होंने बेहद सक्रिय जीवन बिताया। अपना लेखन करने के अलावा वे सक्रिय रूप से रूस की राजनीति से भी जुड़े रहे। रूस से विपक्षी नेता लगातार इटली पहुँचकर उनसे मुलाकात करते थे। एक बार तो लेनिन भी गोरिकी से मिलने काप्री पहुँचे थे।

1913 में रूस में राजनीतिक अपराधियों को आम माफ़ी दिए जाने की घोषणा के बाद मकसीम गोरिकी भी वापिस स्वदेश लौट आए। लेकिन तब तक रूस में किसी भी तरह की क्रान्ति के प्रति उनके मन में सन्देह पैदा हो चुका था। हालाँकि पहले की तरह मनुष्य और समाजवाद में उनका विश्वास बना हुआ था, लेकिन उनके मन में यह शक पैदा हो चुका था कि रूसी मज़दूर और किसान समाजवादी विचारों को वास्तव में ग्रहण कर सकते हैं। ’दो आत्माएँ’ नामक अपने लेख में उन्होंने रूसी बहुजन की मन की विशालता की चर्चा करते हुए लिखा कि रूसी लोग स्वप्न देखने के आदी हैं, पर आलसी हैं, उन्हें भड़काना बेहद आसान है, लेकिन उसी आसानी से वे बड़ी जल्दी शान्त भी हो जाते हैं। 1917 की फ़रवरी क्रान्ति के बाद 1918 में प्रकाशित ’असमय के विचार’ नामक अपनी किताब में गोरिकी ने लिखा था — समाज के तर्कसंगत परिवर्तन के रूप में ’क्रांति’ को रूसियों के संवेदनहीन और निर्दयी ’विद्रोह’ से अलग करके देखने की ज़रूरत है, चूँकि अभी क्रान्ति का समय नहीं आया है।

और फिर 1917 के आख़िर में रूसी मज़दूर उठ खड़े हुए और उन्होंने विद्रोह कर दिया। बलशिवीकों (बोल्शेविक) की भीड़ ने रूस की अस्थाई सरकार को उखाड़ फेंका। ज़ार के महल के तहख़ानों तक को बरबाद कर दिया गया। चारों तरफ़ उग्र अराजकता फैली हुई थी। गोरिकी ने विस्तार से इसके बारे में लिखा है। लेनिन और उनके साथियों के साथ गोरिकी के रिश्तों में तनाव पैदा हो गया था। गोरिकी विद्रोही जनता के भी ख़िलाफ़ हो गए थे। ’रूसी किसानों के बारे में’ अपने एक लेख में गोरिकी लिखते हैं — रूसी लोगों के चरित्र में क्रूरता होने की वजह से ही यह क्रान्ति भी क्रूर हो गई। रूसी किसान ही उन सारी मुसीबतों की जड़ हैं, जिनसे रूस इस वक़्त गुज़र रहा है।

1917 में गोर्की और बलशिवीकों के विचारों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क दिखाई देने लगा। 1917 के अक्तूबर में बलशिवीकों के नेतृत्व में किसानों और मज़दूरों के विद्रोह को गोरिकी ने ’राजनीतिक जोख़िम’ का नाम दिया। 1917-18 की घटनाओं पर उन्होंने ’नोवया झीज़्न’ नामक समाचारपत्र में लेखों की एक बड़ी शृंखला लिखी, जिसमें उन्होंने पितराग्राद में (आज के पितेरबूर्ग में) बलशेविक नैतिकता की बर्बरता के भयानक चित्रों को चित्रित किया और इस बर्बरता को ’लाल आतंक’ की संज्ञा दी। बाद में 1918 में गोरिकी के ये सारे लेख "असमय के विचार : क्रान्ति और संस्कृति पर कुछ टीपें" नामक पुस्तक में एक संकलन के रूप में सामने आए।

नई क्रान्तिकारी-सरकार ने गोरिकी के ये लेख छापने की वजह से समाचारपत्र ’नोवया झीज़्न’ को क्रान्तिविरोधी मानकर उसके प्रकाशन पर रोक लगा दी। हालाँकि गोरिकी को इस सिलसिले में कुछ भी नहीं कहा गया। क्रान्ति के ’तूफ़ानी पितरेल पक्षी’ के रूप में उनकी प्रसिद्धि और लेनिन के बेहद क़रीबी लेखक होने की जानकारी ने उनकी जान बचा ली।

अगस्त 1918 में मकसीम गोरिकी ने ’विश्व साहित्य प्रकाशनगृह’ की स्थापना की। यह प्रकाशनगृह क्रान्तिकारी सरकार का था। भुखमरी और अकाल के उन वर्षों में इस प्रकाशनगृह ने बड़ी संख्या में लेखकों से सम्पादन और अनुवाद का काम कराया और इस तरह लेखकों और कवियों को भूखों मरने से बचाया। गोरिकी की पहल पर वैज्ञानिकों और विद्वानों के जीवन को और जीवन-स्थितियों को सुगम बनाने के लिए एक समिति की भी स्थापना की गई।

लेकिन क्रान्ति के बाद के उन वर्षों में बढ़ते हुए ’लाल आतंक’ की पृष्ठभूमि मे गोरिकी के मन में यह सन्देह गहराता चला गया कि इन परिस्थितियों में रूस में समाजवाद और साम्यवाद की स्थापना करना संभव है। नई कम्युनिस्ट सरकार के राजनैतिक नेताओं के बढ़ते हुए असर में गोरिकी का प्रभाव और अधिकार घटने लगे। 1920 में मक्सीम गोरिकी ने ’शब्दों की बौछार करने वाला श्रमिक’ के नाम से एक राजनैतिक व्यंग्य नाटिका लिखी, जिसमें पितरोग्राद के सर्वाधिकार सम्पन्न राजनैतिक नेता ग्रिगोरी ज़िनोव्येफ़ की गतिविधियों पर कड़ा व्यंग्य किया गया था। ग्रिगोरी ज़िनोव्येफ़ ने गोरिकी की इस व्यंग्य नाटिका पर तुरन्त प्रतिबन्ध लगा दिया और वह गोरिकी से बदला लेने का मौक़ा ढूँढ़ने लगा। अब गोरिकी की जान पर आ बनी थी। अपनी किताब "असमय के विचार : क्रान्ति और संस्कृति पर कुछ टीपें" की वजह से वे पहले ही बहुत से क्रान्तिकारी नेताओं की आँख की किरकिरी बने हुए थे। रूस में गोरिकी का जीवन कठिन होता जा रहा था।

16 अक्टूबर, 1921 को मकसीम गोरिकी चुपचाप रूस छोड़कर चले गए। शुरू में कुछ महीने उन्होंने जर्मनी में बिताए। फिर वहाँ से वे चेकोस्लोवाकिया में रहने चले गए और फिर 1924 में वह सोरेण्टो (इटली) में बने एक बंगले में बस गए। इसके बाद वे स्तालिन के आग्रह पर 1928 में ही रूस वापिस लौटे। स्तालिन तब तक क्रांतिकारी सरकार के सर्वेसर्वा बन चुके थे और सत्ता की कमान उनके हाथों में थी।

 — अनिल जनविजय