’युद्ध और शान्ति’ — कैसे लिखा गया यह उपन्यास? / अनिल जनविजय
लेफ़ निकअलायविच तलस्तोय इतिहास, दर्शन और समाज व राजनीति से जुड़े सवालों और समस्याओं में गहरी रुचि रखते थे। तलस्तोय कोई ऐतिहासिक उपन्यास लिखना चाहते थे, जिसमें रूस के इतिहास का विस्तार से वर्णन किया गया हो। वे चाहते थे कि उस उपन्यास में रूसी जनता और समाज के जीवन और रूसी लोगों की मानसिकता का विस्तार से चित्रण किया गया हो। इसके लिए सबसे पहले उन्होंने 14 (26) दिसम्बर 1825 को साँक्त पितिरबूर्ग में सीनेट चौक पर हुए ज़ार विरोधी पहले विद्रोह को चुना और इस घटना के बारे में 1856 में विस्तार से ’दिकब-रीस्त’ नामक एक उपन्यास लिखना शुरू कर दिया। ज़ार की सेना में शामिल कुलीन वर्ग के कुछ युवकों ने इस विद्रोह में भाग लिया था। ये युवक देश में चल रही भूदास प्रथा को ख़त्म करना चाहते थे और रूस की राजनीतिक प्रणाली बदलना चाहते थे। ज़ार निकअलाय प्रथम की सेना ने इस विद्रोह का दमन कर दिया और विद्रोह करने वाले समाज के अभिजात वर्ग के उन युवकों को तीस साल के लिए साइबेरिया में निर्वासित कर दिया। चूँकि यह विद्रोह दिसम्बर (दिकाबरि) में हुआ था, इसलिए विद्रोह में भाग लेने वाले लोगों को रूसी समाज में ’दिकबरीस्त’ यानी दिसम्बरवादी के नाम से जाना जाता है। लेकिन जल्दी ही तलस्तोय ने इस उपन्यास को लिखना बन्द कर दिया। इसका कारण यह था कि जिन दिसम्बरवादियों के बारे में ये उपन्यास लिखा जाना था, उनका बचपन और कैशौर्यकाल 1805 से 1815 के बीच गुज़रा था। यही वह समय था, जब 1812 में रूस पर फ़्राँस के सम्राट नेपोलियन ने हमला किया था और रूस को प्रथम देशभक्तिपूर्ण युद्ध लड़ना पड़ा था। तलस्तोय दिसम्बरवादियों के बारे में सूचनाएँ और जानकारियाँ इकट्ठी करने लगे। 1860-61 में आख़िरकार उन्होंने ’दिकबरीस्त’ उपन्यास लिखकर छपवा दिया। लेकिन बहुत सारी सूचनाएँ और जानकारियाँ उनके पास बच गई थीं, जिनका वे ’दिकबरीस्त’ में इस्तेमाल नहीं कर पाए थे। इनमें ज़्यादातर जानकारियाँ उस हमले से जुड़ी हुई थी, जो 1812 में नेपोलियन ने रूस पर किया था। इस युद्ध के बारे में भी एक बड़ा उपन्यास लिखने की इच्छा तलस्तोय के मन में जगह बनाने लगी। अन्तत:तलस्तोय ने 5 सितम्बर 1863 को अपना यह उपन्यास लिखना शुरू कर दिया।
रूस में बने ’यासनया पलयाना’ नामक तलस्तोय संग्रहालय में इस उपन्यास के कुल पन्द्रह रूप रखे हुए हैं। बारीक और नन्हे अक्षरों में लिखे 5200 से ज़्यादा पृष्ठ। इस उपन्यास का पन्द्रहवाँ रूप ही ’वईना ई मीर’ के रूप में सामने आया। तलस्तोय ने इस उपन्यास को लिखने में सात साल का समय लगाया। यह उपन्यास कुल पन्द्रह बार लिखा गया। तलस्तोय की पत्नी सोफ़िया तलस्ताया ने पन्द्रह बार इस उपन्यास की भाषा और शब्दों का सम्पादन किया और पन्द्रह बार उसे साफ़ लिखाई में लिखा। इसलिए रूस में यह माना जाता है कि यह उपन्यास तलस्तोय के साथ-साथ सोनिया (सोफ़िया नाम का रूसी घरेलू नाम) ने भी लिखा है। शुरू में यह उपन्यास तीन खण्डों में था। लेकिन वे सभी खण्ड बड़े मोटे-मोटे थे। तलस्तोय ने उन तीन खण्डों को छह खण्डों में बाँट दिया। लेकिन अन्तिम तौर पर सम्पादन करने के बाद तलस्तोय ने उपन्यास के चार खण्ड बना दिए। अब ये उपन्यास चार खण्डों में ही सारी दुनिया में प्रकाशित होता है।
यह उपन्यास लिखने से पहले लेफ़ तलस्तोय ने क़रीब साढ़े तीन सौ किताबें पढ़ीं, जिनमें 1812 के युद्ध में भाग लेनेवाले सैनिकों और अफ़सरों के संस्मरण, इतिहासकारों द्वारा युद्ध का किया गया मूल्यांकन और इस युद्ध से जुड़ी अन्य सूचनाएँ शामिल थीं उनका घर जैसे एक लायब्रेरी में बदल गया था। सारी किताबें 1812 के युद्ध के बारे में थीं। रूसी और विदेशी भाषाओं में लिखी इन किताबों से तलस्तोय ने उस युद्ध के बारे में विस्तार से सारी जानकारियाँ जुटाईं और फिर उनका अपने इस उपन्यास में इस्तेमाल किया। तलस्तोय ने लिखा है — "यह युद्ध दो देशों के सम्राटों के बीच नहीं हुआ था। यह युद्ध दो देशों की सेनाओं के बीच भी नहीं हुआ था। यह युद्ध हमारे दो देशों की जनताओं और समाजों के बीच हुआ था। मैंने अपने इस महाकाव्यात्मक उपन्यास में यही दिखाने की कोशिश की है कि जब विदेशी सेनाओं ने रूस पर कब्ज़ा कर लिया तो कैसे रूस की जनता ने एक होकर कब्ज़ावरों का सामना किया। मैंने अभी तक जितनी भी किताबें उस युद्ध के बारे में पढ़ी हैं, सभी में यह जतलाने की कोशिश की गई है कि 1812 का युद्ध दो सम्राटों के बीच हुआ था, जबकि मेरा मानना है कि फ़्रांस के सम्राट नेपोलियन ने अपने अहंकार को तुष्ट करने के लिए रूस पर हमला किया था। नेपोलियन की सेनाओं ने रूस की जनता को हराने की कोशिश की थी। लेकिन वे ख़ुद ही लुट-पिटकर वापिस लौटने को मजबूर हुईं। रूस की सेना ने नहीं, बल्कि रूस की बहादुर जनता ने फ़्रांसीसी हमलावरों का डटकर सामना किया। रूसी लोग सचमुच अपनी धरती, अपनी प्रकृति, अपनी संस्कृति और अपने देश को प्यार करते हैं।"
तलस्तोय ने यह स्वीकार किया है कि उन्होंने कई बार अपने इस उपन्यास को लिखना स्थगित किया। कई बार उन्हें ऐसा लगा कि वे ख़ुद को ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे हैं। कई-कई बार उनकी गाड़ी पटरी-सी उतर गई। लेकिन मन में ऐसी बेचैनी भरी हुई थी कि वे फिर से उपन्यास लिखना शुरू कर देते थे। कई बार उन्होंने उपन्यास को नए सिरे से लिखा। तत्कालीन रूसी साहित्यिक पत्रिकाओं में उनके इस उपन्यास के अंश छपे थे। तब इस उपन्यास का नाम था ’त्रिकाल’। लेकिन बाद में पता लगा कि पत्रिकाओं में छपे वे सौ-सौ, डेढ़-डेढ़सौ पृष्ठों वाले बड़े-बड़े उपन्यास-अंश इस उपन्यास में कहीं शामिल ही नहीं किए गए हैं। लेफ़ तलस्तोय ने ये सात साल बड़े तनाव में गुज़ारे और बड़ी मेहनत की। तलस्तोय से ज़्यादा उनकी पत्नी सोफ़िया ने इस उपन्यास को लिखने में परिश्रम किया। तलस्तोय सुबह तड़के उठकर लिखना शुरू कर देते थे और दोपहर बारह बजे तक लिखते थे। रात नौ बजे के बाद सोफ़िया (या सोनिया) का काम शुरू होता था। उन्हें वे सारे पन्ने रात भर में अपने सुलेख में लिखने होते थे और उनका सम्पादन करना होता था। सुबह उठकर तलस्तोय पहले वो पन्ने पढ़ते थे, जिन्हें सोफ़िया ने फिर से लिखकर रखा है। वे सोफ़िया द्वारा सुलेख में लिखी गई उस प्रति में फिर कुछ बदलाव कर देते थे। सोफ़िया उन पन्नों को फिर से सुलेख में लिखती थी। इन्हीं सात सालों में उनके तीन बच्चे भी हुए। अक्तूबर 1864 में दूसरी बिटिया ततियाना का जन्म हुआ। मई 1966 में तीसरे बच्चे इल्या का और फ़रवरी 1871 में बिटिया मरीया का। इन नन्हें-नन्हें बच्चों की देखभाल के साथ-साथ तलस्तोय को उनके लेखन में सहायता करना और उनकी भी देखभाल करना। कितना कठिन रहा होगा उनका जीवन। मार्च 1888 तक सोफ़िया ने लेफ़ तलस्तोय के लिए कुल तेरह बच्चे पैदा किए।
’मीर शब्द के रूसी भाषा में दो मतलब होते हैं — ’दुनिया’ यानी समाज और ’शान्ति’। तलस्तोय ने इस उपन्यास का नाम रखा था — ’वईना ई मीर’ यानी युद्ध और दुनिया (या समाज)। 1885 में ’वईना ई मीर’ सबसे पहले फ़्रांसीसी भाषा में अनुवाद हुआ।फ़्रांसीसी में इसका पहला संस्करण 500 प्रतियों का था। लेकिन 1886 में जब क्लारा बैल (Clara Bell) ने पहली बार फ़्रांसीसी भाषा से इस उपन्यास का अँग्रेज़ी में अनुवाद किया तो उन्होंने उसे नाम दिया — ’वार एण्ड पीस’ यानी ’युद्ध और शान्ति’। अनुवाद करते हुए उन्होंने न केवल उपन्यास का नाम बदल दिया था, बल्कि उपन्यासकार लेफ़ तलसोय का नाम भी बदल दिया था। रूसी भाषा में ’लेफ़’ शब्द का मतलब होता है शेर। उन्होंने रूसी शेर को अँग्रेज़ी शेर बना दिया और ’लेफ़’ शब्द का भी अँग्रेज़ी में ’लियो’ अनुवाद कर डाला। बस, तभी से अँग्रेज़ी और सारी दुनिया के पाठकों के लिए लेफ़ तलस्तोय "लियो टॉलस्टॉय’ बन गए। शायद तब तक अँग्रेज़ी पाठकों की दुनिया लेफ़ तलस्तोय से परिचित नहीं थी। लेकिन ’वार एन्ड पीस’ ने छपने के बाद अँग्रेज़ी के पाठकों के बीच धूम मचा दी। एक ही साल में उस अनुवाद के चार संस्करण प्रकाशित हुए और सारी दुनिया में पहुँच गए। बीस से पच्चीस साल तक ’वार एन्ड पीस’ अँग्रेज़ी का बेस्टसेलर उपन्यास बना रहा और पाठकों के बीच ये फ़ैशन हो गया था कि जिसने ’वॉर एण्ड पीस’ नहीं पढ़ा है, उसने कुछ नहीं पढ़ा है। अँग्रेज़ी से ’वार एण्ड पीस’ के अनुवाद दुनिया भर की भाषाओं में हुए। मूल रूसी भाषा से ’वाईना ई मीर’ का पहला अँग्रेज़ी अनुवाद 1899 में सामने आया, जिसे अमेरीकी अनुवादक नैठन हैसकल डोल (Nathan Haskell Dole) ने प्रस्तुत किया था। लेकिन उन्होंने भी उपन्यास का नाम ’वार एण्ड पीस’ ही रखा और लेखक का नाम भी लियो टॉलस्टॉय ही रहने दिया।प
1909 की बात है। एक पत्रकार ने लेफ़ तलस्तोय से पूछा — आपको अपनी रचनावली के 90 खण्डों में से कौनसी रचना सबसे ज़्यादा पसन्द है। 1890 में तलस्तोय की 90 खण्डों में पहली रचनावली छपी थी, जिसका सम्पादन सोफ़िया तलस्ताया ने किया था। पत्रकार के सवाल का जवाब देते हुए लेफ़ तलस्तोय ने कहा -- वईना ई मीर। मैंने सबसे ज़्यादा मेहनत ’वईना ई मीर’ को लिखते हुए ही की है और यही उपन्यास मेरा सबसे प्रिय उपन्यास है। ’वईना ई मीर’ उपन्यास की रचना के साथ ही तलस्तोय ने विश्व कथा साहित्य में ’महाकाव्यात्मक उपन्यास’ नामक एक नई शैली को भी जन्म दिया। दुनिया की बहुत सी भाषाओं मे ’वईना ई मीर’ को उपन्यास नहीं, बल्कि महाकाव्य ही माना जाता है।
लेकिन हिन्दी के पाठकों को यह उपन्यास सिर्फ़1985 में ही पढ़ने को मिला। लिखे जाने के 115 साल बाद। हाँ, यह ज़रूर हुआ कि उन्हें ’युद्ध और शान्ति’ सीधे रूसी से हिन्दी में किए गए अनुवाद में ही उपलब्ध हो गया। डा.मदनलाल मधु ने भी इसका नाम रूसी वाला नहीं, बल्कि अँग्रेज़ी अनुवाद वाला ही रखा क्योंकि तब तक सारी दुनिया में यही नाम चल निकला था। 1985 में रूस के रादुगा प्रकाशन ने पाँच हज़ार प्रतियों की संख्या मे ’युद्ध और शान्ति’ का प्रकाशन किया था। हिन्दी के पाठकों ने उसे हाथों-हाथ लिया और कुछ ही वर्षों मे वह संस्करण समाप्त हो गया। आज भी हिन्दी के पाठकों के बीच ’युद्ध और शान्ति’ की बड़ी माँग है।