“इन टू द वाइल्ड” प्रकृति की खोज में / राकेश मित्तल
प्रकाशन तिथि : 14 जून 2014
मनुष्य और प्रकृति का रिश्ता सदियों पुराना है। रोजमर्रा की दौड़भाग और तनाव भरी जिंदगी में सुकून के लम्हें खोजने के लिए प्रकृति का आंचल ही एकमात्र सहारा है। ईश्वर की इस अद्भुत अनंत रचना के कई रूप हैं जिनके आकर्षण में हजारों साल से अनगिनत लोग विचरण कर रहे हैं। प्रकृति के माध्यम से अपने आपको खोजने की यह कोशिश संभवत: अनंत काल तक चलती रहेगी। ऐसी ही एक कोशिश की झलक हमें वर्ष 2007 में प्रदर्शित फिल्म 'इन टू द वाइल्ड" में देखने को मिलती है। अमेरिकी अभिनेता, लेखक, निर्माता, निर्देशक सोशल एक्टिविस्ट एवं राजनायिक सीन पेन की यह फिल्म क्रिस्टोफर मैकेन्डलेस नामक 22 वर्षीय युवक के जीवन की सच्ची कहानी पर आधारित है जिसने प्रकृति का सान्निाध्य पाने के लिए अपनी पूरी दुनिया को त्याग दिया था। इस फिल्म को दो ऑस्कर एवं दो गोल्डन ग्लोब सहित लगभग तीस से अधिक अंतरराष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के लिए नामांकित किया गया था।
क्रिस्टोफर मैकेन्डलेस अमेरिका के वर्जीनिया में अपने माता-पिता और छोटी बहन के साथ रहता था। बचपन से ही उसे प्रकृति से बेहद लगाव था। अक्सर वह चुपचाप घर से निकलकर जंगलों में घूमता रहता और नदी, तालाब, झरनों, पहाड़ों के बीच अपना समय बिताता। स्कूल के दिनों से ही वह अत्यंत मेधावी, दृढ़ निश्चयी और आदर्शवादी छात्र था। उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा सपना अलास्का की निर्जन खूबसूरत घाटियों और वादियों में घूमना था। 1990 में कानून की स्नातक परीक्षा उच्चतम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद उसके सामने सुनहरे भविष्य और चमकदार करियर की अपार संभावनाएं थीं किंतु उसका मन तो प्रकृति में ही रमता था। मई 1990 में उसने अपनी सारी संपत्ति, जो लगभग पच्चीस हजार डॉलर थी, एक समाजसेवी संस्था को दान दे दी। उसके बाद वह अपने साथ कुछ कपड़े, थोड़ा खाने का सामान तथा छोटी-मोटी अत्यावश्यक यात्रा सामग्री साथ लेकर चुपचाप घर वालों को बिना बताए एरीजोना के जंगलों की तरफ निकल पड़ा। वह जितनी दूर कार से जा सकता था गया। फिर कार वहीं छोड़कर पैदल, लिफ्ट मांगते हुए, कहीं काम करके थोड़े पैसे कमाते हुए अलग-अलग साधनों से लगभग दो वर्ष की यात्रा के बाद अंतत: अलास्का पहुंच गया। प्रकृति के चरम वैभव को देखकर वह भाव-विभोर हो गया। शून्य से बीस डिग्री नीचे तापमान की ठिुठरा देने वाली सर्दी में वह अलास्का की निर्जन बर्फीली वादियों में घूमने निकल पड़ा। घूमते हुए उसे एक पुरानी टूटी-फूटी बस का ढांचा दिखाई देता है जिसे वह अपना घर बना लेता है। वहां मीलों दूर तक किसी इंसान की उपस्थिति की कोई संभावना नहीं थी। बस चारों ओर बर्फ से ढंके खूबसूरत पहाड़, झीलें, नदियां और कुछ पशु-पक्षी। किसी भी तरह की मानव सभ्यता, संस्कृति, छल-कपट, द्वेष और भेदभाव से दूर एक निर्मल, अनछुआ, अनभिज्ञ, सुरम्य निसर्ग!!
उसके लिए यह यात्रा स्वयं की खोज थी, प्रकृति और ईश्वर से एकाकार होने का एक जरिया भी और अपने माता-पिता के आपसी कड़वे रिश्तों तथा एकांकी बचपन की स्मृतियों को भुलाने का माध्यम थी। हालांकि इस तरह की कठिनतम परिस्थितियों में लंबे समय तक जीवनयापन के लिए न तो उसके पास कोई पूर्व अनुभव था और न ही पर्याप्त साधन सामग्री, किंतु तमाम कठिनाइयों के बावजूद वह अपने अस्तित्व की तलाश में भटक रहा था। क्रिस्टोफर की इस कहानी को लेखक यानक्रेकर ने अमेरिका की प्रसिद्ध यात्रा वृतांत पत्रिका 'आउट साइड" में भेजा जो पत्रिका के जनवरी 1993 के अंक में प्रकाशित हुई जो इस फिल्म का आधार है। क्रिस्टोफर की भूमिका में एमिल टिर्श ने अद्भुत अभिनय किया है। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी कमाल की है। अधिकांश दृश्य बर्फीली पृष्ठभूमि में फिल्माए गए हैं जिनमें प्रकाश संयोजन एवं प्रतिबिंबों का बहुत खूबसूरती से प्रयोग किया गया है। क्रिस्टोफर की यात्रा के माध्यम से हमें स्थानीय संस्कृति, भावनाओं और रिश्तों की भी झलक मिलती है।
फिल्म कई स्तरों पर हमारे दिल को छूती है और बेचैन करती है। इंसान की जीजीविषा और प्रकृति के विराट स्वरूप का बेहतरीन समन्वय फिल्म को दार्शनिक ऊंचाइयों पर ले जाता है।