“ऑलिवर टि्वस्ट” साहित्यिक कृति का बेहतरीन रूपांतरण / राकेश मित्तल

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“ऑलिवर टि्वस्ट” साहित्यिक कृति का बेहतरीन रूपांतरण
प्रकाशन तिथि : 02 अगस्त 2014


ऑलिवर इस कहानी का केंद्रीय पात्र है किंतु उसके माध्यम से समाज की विसंगतियों को केंद्र में लाया गया है। एक तथाकथित सभ्य समाज में किस तरह अमीरी और गरीबी के बीच फैली गहरी खाई में बदहाली, लालच, अन्याय और शोषण ने अपने पैर पसार रखे हैं, यह देखकर मन विचलित हो जाता है।

महान ब्रिटिश साहित्यकार चार्ल्स डिकेन्स की अमर कृति 'ऑलिवर टि्वस्ट" पर अब तक कई फिल्में बन चुकी हैं। सन् 1838 में प्रकाशित इस उपन्यास का आकर्षण आज लगभग पौने दो सौ साल बाद भी उसी तरह बरकरार है। विश्व के अनेक फिल्मकारों को इसकी कहानी और पात्रों ने आकर्षित किया है। यह एक ऐसे अनाथ बच्चे की कहानी है, जो हालात का शिकार होकर जेबकतरे गिरोह के शिकंजे में आ जाता है। सबसे पहले 1909 में स्टुअर्ट ब्लेकटन नामक फिल्मकार ने इस उपन्यास पर अंग्रेजी उपशीर्षकों के साथ एक मूक फिल्म का निर्माण किया था। अगले बीस वर्षों में इस पर चार और मूक फिल्में बनीं। सवाक फिल्मों का युग शुरू होने के बाद 1933 से 2005 के बीच इस उपन्यास और शीर्षक के साथ सात फिल्में बनाई गईं, जिनमें डेविड लीन तथा रोमन पोलांस्की जैसे महान निर्देशकों की फिल्में भी शामिल हैं। वर्ष 1948 में प्रदर्शित डेविड लीन की फिल्म को इस उपन्यास का सर्वश्रेष्ठ रूपांतरण माना जाता है। चार्ल्स डिकेन्स ने अपने उपन्यास में ऑलिवर के चरित्र के माध्यम से उन्नाीसवीं शताब्दी में इंग्लैंड की दशा और सामाजिक-आर्थिक परिवेश का बहुत कुशलता एवं बारीकी से चित्रण किया है, जिसे डेविड लीन ने हूबहू पर्दे पर उतार दिया है। किसी भी साहित्यिक कृति का इतना बेहतरीन फिल्मी रूपांतरण अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है।

ऑलिवर इस कहानी का केंद्रीय पात्र है किंतु उसके माध्यम से समाज की विसंगतियों को केंद्र में लाया गया है। एक तथाकथित सभ्य समाज में किस तरह अमीरी और गरीबी के बीच फैली गहरी खाई में बदहाली, लालच, अन्याय और शोषण ने अपने पैर पसार रखे हैं, यह देखकर मन विचलित हो जाता है। ऑलिवर (जॉन हावर्ड डेविस) को जन्म देते ही उसकी मां का देहांत हो जाता है। उसके पिता का कोई पता नहीं है। अनाथ ऑलिवर की परवरिश एक ईसाई वर्कहाउस में होती है। उन दिनों इंग्लैंड में चर्च द्वारा वर्कहाउस चलाए जाते थे, जहां गरीब, बेसहारा और अनाथ बच्चों से रहने-खाने की सुविध्ाा के बदले में कठोर श्रम कराया जाता था। सख्त कानून-कायदों और कठोर मेट्रनों के नियंत्रण के कारण वहां रह पाना आसान नहीं था। लगभग दस साल वहां कष्टप्रद जीवन जीने के बाद उसे एक घर में नौकर के रूप में बेच दिया जाता है, जहां से तंग आकर एक दिन वह लंदन भाग जाता है। लंदन की सड़कों पर भटकते हुए वह कुछ आवारा लड़कों की निगाह में आ जाता है, जो पेशेवर जेबकतरे हैं। फेगिन (एलेक गिनिज) उनका सरदार है, जो उन्हें पॉकेटमारी के तरीके सिखाकर बाजार में भेजता है और उनकी चुराई हुई चीजों को हड़प लेता है। ऑलिवर के पास उनके साथ रहने के अलावा कोई चारा नहीं है। तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच कहानी अनेक रोचक मोड़ों और उतार-चढ़ाव से गुजरती हुई अंजाम तक पहुंचती है।

भोले-भाले, मासूम ऑलिवर के रूप में जॉन हावर्ड डेविस ने कमाल का काम किया है। उसके खूबसूरत, मासूम चेहरे पर बलिहारी हो जाने को मन करता है। ऑलिवर के चरित्र के लिए शायद उससे उपयुक्त बालक नहीं मिल सकता था। उसका सधा हुआ अभिनय और भाव-भंगिमाएं चकित कर देते हैं। फेगिन की महत्वपूर्ण भूमिका में एलेक गिनिज ने भी जबर्दस्त अभिनय किया है।

फिल्म के टोन को स्थापित करने में उसकी फोटोग्राफी का जबर्दस्त योगदान है। ग्रे ग्रीन ने अपने कैमरे से कमाल किया है। चेहरों के क्लोज-अप शॉट्स हों या लंदन की संकरी गलियों के लांग शॉट्स, हर दृश्य में अँधेरे-उजाले का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है। यदि यह फिल्म श्वेत-श्याम माध्यम में न बनाई गई होती, तो शायद इतनी प्रभावी नहीं हो पाती।

हालांकि यह फिल्म 1948 में इंग्लैंड में प्रदर्शित हो चुकी थी किंतु अमेरिका में प्रदर्शन के लिए इसे तीन साल इंतजार करना पड़ा। फेगिन के रूप में एक दुष्ट यहूदी को दिखाए जाने के कारण इसे वहां यहूदी समाज के घोर विरोध्ा का सामना करना पड़ा, जो बाद में निर्माताओं के स्पष्टीकरण के बाद शांत हो पाया।

ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट ने इसे सदी की महानतम फिल्मों में से एक निरूपित किया है। सिनेमाई भाषा के हर पहलू से यह एक उत्कृष्ट फिल्म है।