“कोल्या” उम्र के परे संबंधों की मिठास / राकेश मित्तल
प्रकाशन तिथि : 12 जुलाई 2014
डेनेक स्वेराक चेक गणराज्य की सबसे मशहूर सांस्कृतिक हस्तियों में से एक हैं | वे कुशल अभिनेता और लेखक होने के साथ साथ बेहतरीन मंच प्रस्तोता भी हैं | उनके पुत्र जान स्वेराक भी चेक फिल्मों के प्रसिद्द निर्देशक हैं | जान द्वारा निर्देशित १९९६ में प्रदर्शित फिल्म "कोल्या" एक अत्यंत संवेदनशील फिल्म है जिसमे मुख्य भूमिका उनके पिता डेनेक स्वेराक ने निभाई है | डेनेक इस फिल्म के लेखक भी हैं | इस फिल्म को विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का आस्कर तथा गोल्डन ग्लोब पुरस्कार प्राप्त हुआ था | यह एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति की कहानी है जिसकी जिंदगी एक पांच साल के छोटे बच्चे के कारण पूरी तरह बदल जाती है |
फिल्म की पृष्ठभूमि पर रशियन एवं यूरोपियन कम्युनिस्ट राजनीति का प्रभाव है | द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब जर्मनी ने १९५५ में नाटो देशों के समूह की सदस्यता ग्रहण कर ली तो उसकी प्रतिक्रिया स्वरुप सोवियत संघ ने अपनी सामरिक ताकत बढाने के उद्देश्य से मध्य एवं पूर्वी यूरोप के कम्युनिस्ट समर्थित आठ देशों के साथ मिलकर वारसा संधि के तहत एक समूह का गठन किया जिसे "इस्टर्न ब्लाक" के नाम से जाना गया | चेकोस्लोवाकिया भी उन आठ देशों में शामिल था | अस्सी के दशक में जब सोवियत संघ विघटन के कगार पर पहुँच गया तो इस्टर्न ब्लाक समूह भी कमजोर पड़ने लगा | ब्लाक के अनेक सदस्य देशों में क्रांतिकारी आन्दोलन पनपने लगे और विद्रोही समूह यूरोपीय देशों में सोवियत संघ की राजनैतिक दखलंदाजी को चुनौती देने लगे | लगभग यही समय फिल्म की शुरुआत का है |
लुका (डेनेक स्वेराक) एक अधेड़ उम्र का अविवाहित चेक नागरिक है | वह कई वर्षों से उपयुक्त स्त्री की तलाश में भटकता रहा किन्तु उसे सफलता नहीं मिली | वह एक चेलो वादक है जो कभी एक बड़े ऑर्केस्ट्रा में काम करता था किन्तु प्रबंधकों ने उसे 'राजनैतिक रूप से अविश्वसनीय' व्यक्ति करार देते हुए नौकरी से निकाल दिया था | अब वह आजीविका चलाने के लिए प्राग के श्मशान स्थल पर अंतिम संस्कारों में चेलो बजाता है | उसका एक मित्र उसके समक्ष तुरंत ढेर सारा पैसा कमाने वाला एक प्रस्ताव लेकर आता है जिसके तहत उसे एक रूसी महिला क्लारा (लिबुस सफ्रान्कोवा) से कुछ समय के लिए नकली विवाह रचाना है ताकि उसे चेकोस्लोवाकिया की नागरिकता मिल सके | बाद में क्लारा लुका को तलाक देकर चेक नागरिकता के आधार पर अपने जर्मन पुरुष मित्र से विवाह कर जर्मनी बस जाना चाहती थी | इसके पूर्व क्लारा अपने रशियन पति को तलाक़ दे चुकी है जिससे उसे एक पांच साल का बेटा कोल्या (आंद्रेई कालिमोन) भी है | लुका इन सब झंझटों में नहीं पड़ना चाहता था किन्तु पैसों के लालच में वह इसके लिए तैयार हो जाता है | परिस्थितियां कुछ इस तरह बन जाती है कि क्लारा को जर्मनी जाते समय कोल्या को लुका के पास छोड़ना पड़ता है | लुका को अनिच्छा और मजबूरी में इस जबरदस्ती गले पड़ी जिम्मेदारी को निभाना पड़ता है जिसके लिए वह कतई तैयार नहीं था | लुका को रशियन भाषा नहीं आती और कोल्या सिर्फ रशियन समझता है | दोनों के बीच संवाद की गंभीर समस्या उत्पन्न हो जाती है | वह किसी तरह कोल्या के साथ सामंजस्य बैठाने की कोशिश करता है | शुरूआती नापसंदगी के बाद धीरे धीरे दोनों एक दूसरे के करीब आने लगते हैं | कोल्या को मेनन्जाइटीस की लाइलाज बीमारी है और उसे सतत देखभाल की जरूरत है | इसी बीच लुका को नकली शादी के जुर्म में गिरफ्तारी का नोटिस मिलता है, बर्लिन की दीवार टूट जाती है, सोवियत सेनाओं की यूरोप से वापसी होने लगती है, राजनैतिक सामजिक हालात तेजी से बदलने लगते हैं और परिस्थितियां लुका और कोल्या को एक नए मोड़ पर ला खड़ा करती है |
यह फिल्म मानव मन की संवेदनाओं को बेहद खूबसूरती से व्यक्त करती है | अकेलेपन के शिकार, कुंठित, खुरदुरे पुरुष व्यक्तित्व को एक कोमल, समर्पित, मातृस्वरूप अभिभावक के रूप में तब्दील होते देखना अत्यंत सुखद है | शायद हर पुरुष के भीतर एक स्त्री छिपी रहती है जो वक्त आने पर अपनी झलक दिखला देती है | लुका और कोल्या के बीच पनपते रिश्ते को निर्देशक ने बहुत कुशलता से उभारा है | उम्र, भाषा, संस्कृति और राजनीति के तमाम अवरोधों से मुकाबला करते हुए ये दो अनोखे व्यक्तित्व एक दूसरे के जीवन में रोशनी भरने की कोशिश करते हैं | डेनेक और जान के बीच बहुत अच्छा सामंजस्य दिखाई पड़ता है | वास्तविक पिता पुत्र द्वारा फिल्म के निर्माण, निर्देशन, लेखन और अभिनय जैसे समस्त महत्वपूर्ण पहलुओं को संभालना भी फिल्म की गुणवत्ता को उभारने में बहुत बड़ा कारक है |
डेनेक के लिए यह लगभग स्वयं की भूमिका करने जैसा है क्योंकि लुका के चरित्र को उन्होंने स्वयं गढ़ा और अभिनीत किया है जिस कारण वे बड़ी आसानी से इस पात्र को जी लेते हैं किन्तु पांच वर्षीय कोल्या की भूमिका में आंद्रेई कलिमोन ने कमाल कर दिया है | उसकी बड़ी सी उदास ऑंखें, छोटे छोटे पैरों में बिना तस्मे बंधे जूते, बेतरतीब से कपड़े और चेहरे के भाव एक अद्भुत प्रभाव उत्पन्न करते हैं | आंद्रेई से पहली ही फिल्म में इतना बेहतरीन अभिनय करवा लेने का श्रेय निर्देशक जान स्वेराक को दिया जाना चाहिए |
फिल्म की सिनेमेटोग्राफी भी देखने लायक है | कैमरामेन व्लादीमिर स्मुतनी ने अपने कैमरे से अद्भुत प्रयोग किये हैं | गहरे लाल और भूरे रंगों का उन्होंने बहुत खूबसूरती से इस्तेमाल किया है |
इस फिल्म को कान सहित युरोप के अनेक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शित किया गया जहाँ दर्शकों और समीक्षकों की इसे भरपूर सराहना मिली | व्यावसायिक रूप से भी यह एक सफल फिल्म रही |