“जेड” निर्मम राजनीति का क्रूर चेहरा / राकेश मित्तल
प्रकाशन तिथि : 09 अगस्त 2014
कई बार कुछ हादसे उतने सहज और सपाट नहीं होते, जितने दिखाई पड़ते हैं। गौर से देखने पर या उनकी तह में जाने से मालूम होता है कि ये किसी गहरे आपराधिक षड़यंत्र का हिस्सा हैं और धीरे-धीरे एक सामान्य दुर्घटना हत्या के मामले में तब्दील हो जाती है। वर्ष 1969 में प्रदर्शित मशहूर ग्रीक-फ्रैंच फिल्मकार कोस्टा गावरस की मास्टरपीस फिल्म 'जेड" (Z) ऐसी ही एक साजिश की पड़ताल करती है। कोस्टा अपनी राजनीतिक थीम पर बनी फिल्मों के लिए जाने जाते हैं। यह उनके करियर की श्रेष्ठतम और सर्वाधिक चर्चित फिल्म है।
'जेड" को दर्शकों और समीक्षकों का जबर्दस्त प्रतिसाद मिला और यह अनेक पुरस्कार जीतने के साथ-साथ उस वर्ष की सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्मों में से एक रही। यह पहली फिल्म है, जिसे ऑस्कर हेतु 'सर्वश्रेष्ठ फिल्म" तथा 'विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म" दोनों श्रेणियों में एक साथ नामांकित किया गया था। फिल्म के अमेरिका विरोधी होने के चलते इसके खिलाफ अमेरिका में प्रदर्शन भी हुए किंतु फिर भी हॉलीवुड द्वारा इसे विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ऑस्कर दिया गया, जो एक तरह से इस पुरस्कार की निष्पक्षता और महत्ता को प्रतिपादित करता है।
इस फिल्म को समझने के लिए हमें ग्रीस की राजनीतिक पृष्ठभूमि में जाना होगा। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ग्रीस गृह युद्ध की चपेट में आ गया था। कम्युनिस्टों और दक्षिणपंथियों के बीच जोरदार झड़पें होने लगी थीं। सोवियत संघ के बढ़ते कम्युनिस्ट प्रभाव से अमेरिका बेचैन था और उसने ग्रीस, टर्की, ईरान जैसे देशों में कट्टरपंथियों एवं सैन्य तानाशाहों की मदद कर उन्हें सरकार बनाने का मौका दिया। ये देश अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण अमेरिका के लिए सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण थे। इसलिए वह किसी भी कीमत पर वहां कम्युनिस्ट प्रभाव को बढ़ने नहीं देना चाहता था। इसके चलते ग्रीस में 1974 तक अमेरिका समर्थित दक्षिणपंथी तानाशाह सैन्य शासकों का राज रहा। 22 मई 1963 को ग्रीस के मुख्य वामपंथी विपक्षी दल के उपनेता ग्रिगोरिस लेम्ब्रेकिस एक 'सड़क दुर्घटना" में बुरी तरह घायल हो गए और बाद में चल बसे। दुर्घटना की परिस्थितियां, समय और साक्ष्य स्पष्ट रूप से किसी साजिश की ओर इशारा कर रहे थे। सरकार ने विपक्ष को संतुष्ट करने के लिए एक सीनियर मजिस्ट्रेट क्रिस्टोस सारझेत्किस को जांच अध्ािकारी के रूप में नियुक्त कर दिया। क्रिस्टोस की नियुक्ति उनकी दक्षिणपंथी समर्थक विचारधारा के कारण हुई किंतु वे एक बेहद ईमानदार, निष्पक्ष जज भी थे। सरकार के निर्देशानुसार उन्हें कुल मिलाकर यह साबित करना था कि यह एक सामान्य दुर्घटना थी। मगर जांच के दौरान उनके सामने जो तथ्य और साक्ष्य प्रस्तुत हुए, वे इस बात का पुख्ता सबूत थे कि यह एक दुर्घटना नहीं, बल्कि सरकार के इशारे और सहयोग से की गई पूर्व नियोजित हत्या है और इस साजिश में सरकार के वरिष्ठ अध्ािकारी शामिल हैं। तमाम दबावों के बावजूद इस तथ्य को उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। इसके बाद असली खेल की शुरूआत होती है और राजनीति का क्रूर एवं विद्रूप चेहरा हमारे सामने आता है। यह जानना रुचिकर होगा कि इस घटना के बाईस वर्ष बाद 1985 के लोकतांत्रिक चुनावों में क्रिस्टोस सारझेत्किस ग्रीस के राष्ट्रपति चुने गए।
ग्रिगोरिस लेम्ब्रेकिस की हत्या के घटनाक्रम पर 1967 में वेसिलिस वेसिलिस्को ने 'जेड" नाम से एक उपन्यास लिखा, जो इस फिल्म की पटकथा का आधार है। ग्रीक भाषा में 'जेड" का अर्थ होता है: 'वह अब भी जिंदा है"। तानाशाही सैन्य शासन के दौरान इस घटना पर फिल्म बनाना आसान नहीं था और ग्रीस में तो इसे बनाना बिल्कुल असंभव था। अत: इसकी पूरी शूटिंग अल्जीरिया में की गई और इसे फ्रैंच भाषा में बनाया गया। फिल्म में कहीं भी ग्रीस का उल्लेख नहीं है किंतु फिल्म की हर फ्रेम, पात्रों की वेशभूषा, गीत-संगीत आदि सभी स्पष्ट रूप से उस घटनाक्रम की ओर इशारा करते हैं। पूरे विश्व में इस फिल्म को सराहना मिली लेकिन जिन देशों में तानाशाही शासन था, वहां इसके प्रदर्शन पर प्रतिबंध्ा लगा दिया गया। ग्रीस में भी यह फिल्म प्रतिबंध्ाित कर दी गई। निर्देशक कोस्टा गावरस सहित इसके लेखक, संगीतकार, अभिनेता, अभिनेत्री, यहां तक कि अकेले 'जेड" अक्षर के उपयोग तक पर ग्रीस में प्रतिबंध लगा दिया गया।
फिल्म कई स्तरों पर हमें उद्वेलित करती है। इसे देखते हुए मन आक्रोश से भर जाता है। कोस्टा गावरस ने पूरी ईमानदारी, तल्खी और निर्ममता के साथ सच्चाई बयान की है। फिल्म में ग्रिगोरिस की भूमिका इटैलियन अभिनेता वेस मोन्टाद ने की है तथा मजिस्ट्रेट क्रिस्टोस की भूमिका वरिष्ठ फ्रैंच अभिनेता ज्यां लुई टिन्टीग्नेंट ने निभाई है। उन्हें हमने गत वर्ष ऑस्कर पुरस्कार प्राप्त फिल्म 'आमोर" में मुख्य भूमिका में देखा था।
हालांकि यह फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है किंतु उस घटना के परे यह हर समय, काल और परिस्थिति की फिल्म है। इस फिल्म को देखकर लगता है कि कुछ भी नहीं बदला है और आज भी यही कुछ आसपास घटित हो रहा है। विरोध की आवाज को कुचलने के लिए रचे गए षड़यंत्र, सत्ता और सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग, गवाहों की हत्या, भ्रष्ट आधिकारियों की पदोन्नाति, सरकार समर्थित गुंडों को प्रश्रय, पुलिस का मूक दर्शक बने रहना आदि सब कुछ सालों-साल से इसी तरह चलता आ रहा है और शायद आगे भी चलता रहेगा। इन अर्थों में यह फिल्म हमेशा सामयिक बनी रहेगी।