“टोक्यो सोनाटा” जापानी मध्यम वर्ग का सार्वभौमिक आईना / राकेश मित्तल
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यह फिल्म केवल जापान के एक परिवार की कहानी नहीं है, बल्कि पूरे जापानी मध्यमवर्गीय समाज का आईना है। निर्देशक की पैनी निगाहों ने बड़ी कुशलता के साथ छोटी-छोटी बातों और मनोभावों को विस्तार दिया है। एक छोटे-से कस्बे की स्थानीयता कब सार्वभौमिक बनकर छा जाती है, पता ही नहीं चलता।
जापान के युवा फिल्म निर्देशक, लेखक, समीक्षक तथा टोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ आर्ट्स के प्रोफेसर कियोशी कुरोसावा अपनी 'हॉरर" फिल्मों के लिए जाने जाते हैं। जापान के विश्वविख्यात महान फिल्मकार अकीरा कुरोसावा से उनका कोई रिश्ता नहीं है। 1997 में पहली बार उन्हें विश्व स्तर पर पहचान मिली, जब उनकी क्राइम थ्रिलर फिल्म 'क्योर" प्रदर्शित हुई। फिर एक के बाद एक उन्होंने कई रहस्य, रोमांच और भय से परिपूर्ण फिल्मों का निर्देशन किया। वर्ष 2008 में प्रदर्शित फिल्म 'टोक्यो सोनाटा" उनकी पिछली फिल्मों के बरअक्स एकदम अलग मिजाज की फिल्म है। यह फिल्म हमें उनके गंभीर और संवेदनशील स्वरूप से परिचित करवाती है।
'टोक्यो सोनाटा" जापान में आर्थिक मंदी के दौर में एक मध्यमवर्गीय परिवार के संघर्ष की कहानी है। घर का मालिक यानी फिल्म का नायक रुहेई सासाकी (तेरुयुकी कगावा), जो एक बड़ी कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत था, एक दिन अचानक नौकरी से निकाल दिया जाता है क्योंकि चाइनीज उन कार्यों को काफी कम कीमत पर करने को तैयार हैं। इस आकस्मिक वज्रपात से उसकी पारिवारिक अर्थव्यवस्था चरमरा जाती है। अपनी पत्नी और परिवार से वह नौकरी चली जाने की बात छुपाता है और रोज नियमित रूप से ऑफिस जाने के समय पर निकलता है तथा दिन भर नौकरी की तलाश में भटककर शाम को घर लौटता है। दिन-ब-दिन वह काफी चिड़चिड़ा होने लगता है। पत्नी मेगुमी सासाकी (क्योको कोझुमी) को ध्ाीरे-ध्ाीरे शक होने लगता है कि उसकी नौकरी छूट गई है। यह शक विश्वास में बदल जाता है, जब एक दिन बाजार से लौटते हुए वह अपने पति को मुफ्त में खाना खाने वाली लाइन में खड़ा देखती है। हालांकि वह भी इस बात का जिक्र उससे कभी नहीं करती किंतु एक दिन रुहेई जब अपने बच्चे को प्यानो सीखने के मसले पर पीट रहा होता है, तो वह तंग आकर कह देती है कि तुम बेरोजगार हो तो अपनी कुंठा दूसरों पर क्यों निकाल रहे हो! इस बात से रुहेई के अहम् को बड़ी चोट लगती है और स्थितियां बद से बदतर होती जाती हैं।
यह फिल्म केवल जापान के एक परिवार की कहानी नहीं है, बल्कि पूरे जापानी मध्यमवर्गीय समाज का आईना है। निर्देशक की पैनी निगाहों ने बड़ी कुशलता के साथ छोटी-छोटी बातों और मनोभावों को विस्तार दिया है। रुहेई सिर्फ एक प्रतीक मात्र है। उसके जैसे सैंकड़ों-हजारों लोग आर्थिक मंदी में बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं और किसी तरह अपना आत्मसम्मान बचाने की कोशिश कर रहे हैं। रुहेई का एक निकट मित्र भी इन्हीं परिस्थितियों से गुजर रहा है। उसने अपने मोबाइल में एक फीचर ले रखा है, जिसके चलते थोड़ी-थोड़ी देर में उसके मोबाइल की घंटी बजने लगती है और वह झूठमूठ फोन उठाता है ताकि लोगों को लगे कि वह बेहद व्यस्त है और अभी भी नौकरी में है। फिल्म अनेक उतार-चढ़ावों के बाद अंतिम समय में एकदम अनेपक्षित मोड़ लेती है।
फिल्म का शुरूआती दृश्य कमाल का है और इस पहले दृश्य से ही निर्देशक की फिल्म पर पकड़ मालूम पड़ जाती है। मधुर संगीत के बीच बाहर बारिश हो रही है। घर का दरवाजा खुला है और बारिश की फुहारें अंदर आ रही हैं। घर की मालकिन दौड़ती आती है, फिर पोछा लेने भागती है। पोछा लेकर वह दरवाजे के पानी को साफ कर रही है और दरवाजा बंद कर रही है। इसी दौरान एक क्षण के लिए उसकी नजर बाहर पड़ती है और वह मंत्रमुग्ध हो जाती है। शानदार बारिश और भीगती पेड़ की पत्तियों को देखने के लिए वह दरवाजा पूरा खोल देती है। बारिश और तेज हवा का शोर घर में घुल रहा है, नायिका की पीठ दिखाई दे रही है और अखबार फड़फड़ा रहा है। यह एक मिनिट का दृश्य जिस तरीके से फिल्माया गया है, वह फिल्म पर रीझ जाने के लिए काफी है।
यह फिल्म जापान की हताशा और टूटन के साथ-साथ वहां के नागरिकों की जिजीविषा और विपरीत परिस्थितियों में भी उठ खड़े होने की संघर्ष क्षमता की ओर भी इंगित करती है। एक छोटे-से कस्बे की स्थानीयता कब सार्वभौमिक बनकर छा जाती है, पता ही नहीं चलता।
इस फिल्म को अनेक पुरस्कार मिले हैं। कान के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ज्यूरी पुरस्कार दिया गया था। इसके अलावा एशिया और मध्य-पूर्व के लगभग सभी फिल्म समारोहों में इसे उस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ फिल्म माना गया।