“द ग्रेट एस्केप” मौत को चकमा देने की कोशिश / राकेश मित्तल
प्रकाशन तिथि : 23 अगस्त 2014
नाजी कैम्प से भागने की कोशिश की सच्ची घटना पर आधारित यह फिल्म बेहद सराही गई थी और बॉक्स ऑफिस पर भी सफल रही थी।
द्वितीय विश्व युद्ध की सबसे दर्दनाक स्मृतियों में हिटलर के नाजी कैम्प भी शामिल हैं। वहां पर कैदियों को दी जाने वाली यातनाओं और गैस चेंबरों में ठूंसकर की जाने वाली सामूहिक हत्याओं के बारे में सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन कैम्पों को इतनी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था में रखा जाता था कि वहां से भाग निकलना नामुमकिन था। ऐसे ही एक अति सुरक्षित कैम्प 'स्टेलेग लुफ्ट III" से 23 मार्च 1944 की रात को कुछ कैदियों ने भागने की सफल-असफल कोशिश की थी। इस सच्ची घटना पर अमेरिकी फिल्मकार जॉन स्टर्गेस ने वर्ष 1963 में एक बेहतरीन फिल्म 'द ग्रेट एस्केप" का निर्माण किया। फिल्म में जो कुछ भी दिखाया गया है, वह सब वास्तव में घटित हुआ था। स्टीव मैक्विन, चार्ल्स ब्रॉन्सन, जेम्स गार्नर और रिचर्ड एटनबरो जैसे सितारों से सजी इस फिल्म को देखना बेहद रोमांचकारी अनुभव है। इस फिल्म को ऑस्कर एवं गोल्डन ग्लोब सहित अनेक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए नामांकित किया गया था। बॉक्स ऑफिस पर भी इसने सफलता के कीर्तिमान स्थापित किए थे।
बर्लिन से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर दूर पोलैंड के पास सिलेसिया नामक स्थान पर जर्मनी की नाजी सेना ने 1942 में 'स्टेलेग लुफ्ट III" नामक अभेद्य 'एस्केप प्रूफ" कैम्प का निर्माण किया। कैम्प की लोकेशन पथरीली चट्टानों के बीच चुनी गई थी ताकि वहां कोई सुरंग न बनाई जा सके। पीली मिट्टी की सतह पर जमीन से साठ सेंटीमीटर ऊपर बंकरों का निर्माण किया गया था ताकि किसी भी तरह की खुदाई गतिविध्ाि तुरंत नजर में आ सके। कैम्प के चारों ओर घने कांटेदार तारों की फेंसिंग की गई थी तथा ऊंचे मचानों पर सशस्त्र गार्ड पहरा देते थे। नाजी सेना यहां उन कष्टप्रद और उपद्रवी कैदियों को रखती थी, जिन्होंने पहले कम से कम एक या दो बार किसी भी कैम्प से भागने का प्रयास किया था। हालांकि इस प्रयास में नाजी शायद एक बात भूल गए कि उन्होंने दुनिया के सारे शातिर कैदियों को एक छत के नीचे इकट्ठा कर लिया है, जिनका संयुक्त दिमाग और कोशिश किसी भी तरह के सुरक्षा कवच को भेदने में सक्षम हो सकती थी। कई कैदियों ने तो वहां पहुंचते ही वहां की सुरक्षा व्यवस्था की टोह लेना शुरू कर दिया। अपने-अपने तरीकों से, सुरक्षा गार्डों के साथ मजाक करते हुए या उन्हें जान-बूझकर चिढ़ाते हुए उन्होंने कमजोर कड़ियों का पता लगाना शुरू कर दिया। इस तरह एक-दूसरे की हरकतों को देखते हुए, जो ज्यादा शातिर थे, वे स्वत: ही दोस्त बन गए।
रॉयल एयरफोर्स स्क्वॉड्रन लीडर बार्ट लेट (रिचर्ड एटनबरो) को इस तरह से भागने का दीर्घ अनुभव था। वह एक ऐसी पलायन योजना बनाता है, जिसमें एक-दो नहीं, बल्कि ढाई सौ कैदी एक साथ भाग सकें। वह पूर्व अनुभवों के आधार पर विभिन्ना कैदियों को उनकी योग्यतानुसार जिम्मेदारी सौंप देता है और सभी एकजुट होकर इस अभियान में लग जाते हैं। अमेरिकी कैप्टन हिल्ट्ज (स्टीव मैक्विन), लेफ्टिनेंट वेलिंस्की (चार्ल्स ब्रॉन्सन) और लेफ्टिनेंट हैन्डली (जेम्स गार्नर) को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां मिलती हैं। योजनानुसार अलग-अलग टीमें 'टॉम", 'डिक" और 'हैरी" के नाम से एक साथ तीन सुरंगें खोदने का काम शुरू कर देती हैं ताकि कोई एक या दो सुरंगें पकड़ में आ जाएं या बंद की दी जाएं, तो भी वे तीसरी के माध्यम से भाग सकें।
चारों तरफ कड़ी सुरक्षा व्यवस्था और जरा-सी चूक पर मौत की सजा का खौफ तथा अत्यंत सीमित संसाध्ानों एवं विकल्पों के बावजूद जिस कुशलता, चतुराई, टीमवर्क और अनुशासन के साथ इस पूरे अभियान को अंजाम दिया गया, वह देखने काबिल है। करीब 1200 पलंगों को तोड़कर उनकी सामग्री अलग-अलग तरीके से उपयोग में लाई गई। इसके अलावा 3500 तौलिये, चादरें, रस्सियां और खाने के दौरान गायब किए गए चम्मच, कांटे और छुरियों को खुदाई के लिए प्रयोग में लाया गया। इन सारी गतिविधियों के बीच हर रोज होने वाले निरीक्षण के समय जर्मन सैनिकों की आंखों में धूल झोंकना सबसे बड़ी चुनौती थी। लेकिन तमाम चुनौतियों को धता बताते हुए इन कैदियों ने जमीन से तीस फुट नीचे साढ़े तीन सौ फीट लंबी सुरंगें बना डालीं। बाद में जब इस घटना पर जांच बैठाई गई, तो जर्मन अधिकारी इस अभियान की तैयारियों और मेहनत को देखकर दंग रह गए। इतना सब कुछ उनकी नाक के नीचे हो गया और उन्हें कानो-कान खबर तक न लगी, यह उनके लिए घोर आश्चर्य और विफलता की बात थी। इस फिल्म में स्टीव मैक्विन का मोटरसाइकल से कांटेदार तारों की बागड़ फांदने का सीन बेहद चर्चित हुआ था। एक बेहद रोमांचकारी सच्ची घटना से रूबरू कराती है यह फिल्म।