“पैराडाइज नाऊ” जन्नत की तलाश / राकेश मित्तल

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“पैराडाइज नाऊ” जन्नात की तलाश
प्रकाशन तिथि : 30 अगस्त 2014


आत्मघाती आतंकवादी बना दिए गए युवकों की मनोदशा को करीब से जानने का प्रयास करती है ऑस्कर हेतु नामांकित की गई यह पहली फिलिस्तीनी फिल्म।


पिछले कई हफ्तों से गाजा पट्टी पर हमले हो रहे हैं। हजारों निर्दोष नागरिक, विशेष रूप से बच्चे इन हमलों में मारे जा चुके हैं। फिलिस्तीनी-इसराइली संघर्ष ने इस सदी की सबसे भयावह मानवीय त्रासदी का रूप ले लिया है। बमबारी और खून-खराबे का यह सिलसिला रुक-रुककर कई वर्षों से चलता आ रहा है और न जाने कितने मासूम जीवन इसकी भेंट चढ़ चुके हैं। जुल्म और नाइंसाफी सहन करते हुए एक स्थिति ऐसी आ जाती है कि इंसान को अपना जीवन बेमानी लगने लगता है और वह उसे किसी भी मकसद के लिए न्योछावर करने को तैयार हो जाता है। इस सोच पर जब ध्ार्म का मुलम्मा चढ़ जाता है, तो यह प्रक्रिया और आसान तथा जायज लगने लगती है।

जब किसी को मृत्यु का भय नहीं रहता और वह अपने शरीर पर बम लगाकर अपने चिथड़े उड़वाने के लिए भी तैयार हो जाता है, तो उसकी मनोदशा उस समय क्या चल रही होती है? ऐसी क्या परिस्थितियां बन जाती हैं कि व्यक्ति इस हद तक जाने के लिए तैयार हो जाता है? क्या इस अवस्था में भी उसकी मानवीय संवेदनाएं जागृत रहती हैं? वर्ष 2005 में प्रदर्शित लेखक-निर्देशक हनी अबु असद की फिल्म 'पैराडाइज नाऊ" ऐसे ही कुछ सवालों की पड़ताल करती है।

इसराइल में जन्मे फिलिस्तीनी फिल्मकार अबु असद ने इस संघर्ष को और इसे भुगतने वालों को बहुत करीब से देखा है। फिल्म बनाने के दौरान दोनों पक्षों की ओर से उन्हें अनेक ध्ामकियां मिलीं। फिल्म के सेट्स के पास बारूदी सुरंगों से ध्ामाके किए गए। नाबलुस में शूटिंग के दौरान क्रू मेंबर्स की कार के पास इसराइली हेलीकॉप्टर से मिसाइल आक्रमण किया गया। यूनिट के लोकेशन मैनेजर का फिलिस्तीनी अतिवादियों ने अपहरण कर लिया, जिसे बड़ी मुश्किल से फिलिस्तीनी राष्ट्राध्यक्ष यासेर अराफात के दखल के बाद छोड़ा गया। इस सब के बावजूद अबु असद ने पूरी तन्मयता, निष्पक्षता और दृढ़ निश्चय के साथ फिल्म को पूरा किया।

'पैराडाइज नाऊ" पहली फिलिस्तीनी फिल्म है, जिसे ऑस्कर पुरस्कार हेतु नामांकित किया गया। इसराइली सरकार ने इसे ऑस्कर समारोह में प्रदर्शित न होने देने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। इसकी राष्ट्रीय पहचान पर भी सवाल उठाए गए। तमाम विरोध्ाों के बावजूद इसे विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म के गोल्डन ग्लोब पुरस्कार सहित अनेक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में पुरस्कृत किया गया।

यह फिल्म दो फिलिस्तीनी युवकों की जिंदगी के चंद दिनों की कहानी है, जिन्हें आत्मघाती बम वाहक के रूप में चुना गया है। दो दिन बाद उन्हें तेल अवीव में घुसकर सार्वजनिक स्थानों पर पंद्रह मिनट के अंतराल से अपने आप को बम विस्फोट से उड़ा देना है। यह काम करने के पूर्व उन्हें कुछ घंटे अपने परिवार के साथ गुजारने के लिए दिए जाते हैं और इस दौरान निर्देशक उनकी मानसिक जद्दोजहद को बताने की कोशिश करता है। सईद (कैस नासेफ) और खालिद (अली सुलेमान) बचपन के जिगरी दोस्त हैं और वेस्ट बैंक के नाबलुस शहर में एक गैरेज में मैकेनिक की नौकरी करते हैं। वे आतंकवादी नहीं हैं और न ही उनका कोई आपराधिक रेकॉर्ड है। वे आम फिलिस्तीनी नागरिकों की तरह एक नीरस, बंधी-बंधाई निरुद्देश्य जिंदगी जी रहे हैं। उनके मन में इसराइल के प्रति रोष है, खुदा का खौफ है और जन्नात का आकर्षण है। वे इस बात से मुतमईन हैं कि यदि खुदा के मकसद को पूरा कने के लिए जान दे दी जाए, तो निश्चित ही जन्नात नसीब होती है और ऐसा मौका सिर्फ भाग्यशाली लोगों को मिलता है जो इस तरह शहीद होने का दर्जा पाते हैं और समाज में हीरो बन जाते हैं। सुहा (लुबना अज़ाबल) एक आजाद ख्याल फिलिस्तीनी लड़की है और सईद के प्रति आकर्षित है। फ्रांस में जन्मी और मोरक्को में पढ़ी सुहा पश्चिमी सोच से प्रभावित है। वह आत्मघाती हमलों के सख्त खिलाफ है। उसका मानना है कि इन तरीकों से समस्या का समाधान नहीं निकल सकता, बल्कि ये बदले की आग को भड़काते हुए दोनों तरफ के निर्दोष मासूमों पर कहर बरपाते हैं। तीनों किरदारों की कश्मकश एक-दूसरे के सवालों में उलझकर रह जाती है।

सईद और खालिद के रूप में दोनों युवा अभिनेताओं ने कमाल का अभिनय किया है। उनकी आंखों का खालीपन और भाव-विहीनता अंदर तक सिहरा देती है। उनके पथरीले चेहरों के पीछे की उदासी बहुत साफ महसूस की जा सकती है। न्यूनतम संवादों के साथ दोनों कलाकार अपने मनोभाव इतनी कुशलता के साथ व्यक्त करते हैं कि दर्शक उनके साथ एकाकार हो जाते हैं। अबु असद हमें उनकी निजी संवेदनाओं के बहुत बारीक विस्तार में ले जाते हैं। खुदा के नाम पर युवकों को बरगलाकर उनकी कुंठाओं और निराशा को किस तरह आतंकी मकसद में तब्दील किया जाता है, यह देखना बहुत पीड़ादायक है। इन आत्मघाती युवकों के मन की दुविधा को अबु असद ने बहुत कुशलता से पर्दे पर उतारा है।