“बीजिंग बायसिकल” सायकल के बहाने वर्ग-संघर्ष की कहानी / राकेश मित्तल
प्रकाशन तिथि : 25 अक्टूबर 2014
इस फिल्म में एक सायकल को केंद्र में रखकर निर्देशक ने बड़ी कुशलता से समकालीन चीनी समाज के अंतर्द्वंद्व, विषमताओं तथा ग्रामीण और शहरी समाज के बीच की खाई को दर्शाया है। सायकल को यहां एक रूपक के तौर पर इस्तेमाल कर कई वृहद विषयों को छुआ गया है।
चीन में सिनेमा का प्रादुर्भाव और विकास लगभग अन्य योरपीय देशों के साथ ही हुआ किंतु बाद के वर्षों में बदलते राजनीतिक, सामाजिक, वैचारिक परिदृश्य ने वहां के फिल्म उद्योग पर भी गहरा असर डाला। चीनी भाषा का सिनेमा हांगकांग और ताईवान तक फैला है तथा कई दशकों से हॉलीवुड और बॉलीवुड के बाद हांगकांग दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा फिल्म निर्माण केंद्र रहा है। 1990 के बाद का समय चाइनीज सिनेमा में 'सिक्स्थ जनरेशन सिनेमा" के नाम से जाना जाता है। इस दौरान कई शौकिया फिल्मकारों द्वारा बेहद कम बजट और कम समय में उत्कृष्ट फिल्मों का निर्माण किया गया। इनमें से कई फिल्मों को विश्वव्यापी ख्याति मिली। वांग झियाओशुई ऐसे ही एक प्रतिभाशाली 'सिक्स्थ जनरेशन" निर्देशक हैं, जिनकी वर्ष 2001 में प्रदर्शित फिल्म 'बीजिंग बाइसिकल" अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेहद चर्चित रही। इस फिल्म का प्रीमियर बर्लिन के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में किया गया था, जहां इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ज्यूरी पुरस्कार दिया गया।
इस फिल्म को हम विटोरियो डी सीका की महान फिल्म 'द बायसिकल थीफ" का विस्तार कह सकते हैं, जिसे समकालीन संदर्भों के अनुरूप ढाल दिया गया है। सायकल मानव सभ्यता का एक अद्भुत आविष्कार है। दुनिया का कोई अन्य वाहन इसकी जीवंतता की बराबरी नहीं कर सकता। सायकल से चलते हुए हम दृश्यों, लोगों और विचारों के बीच से होकर उन्हें छूते हुए गुजरते हैं। अन्य किसी सवारी में यह 'कनेक्टिविटी" संभव नहीं है। यह बात इस फिल्म में भी प्रतिपादित होती है। यह फिल्म दो किशोर वय बालकों की अस्मिता के संघर्ष की कहानी है, जिसके केंद्र में एक सायकल है।
सत्रह वर्षीय गुई (कुई लिन) काम की तलाश में गांव से बीजिंग शहर आता है। उसे एक कोरियर कंपनी में काम मिल जाता है, जहां उसे घर-घर जाकर पत्र एवं अन्य सामग्री का वितरण करना है। कंपनी इस काम के लिए एक नई सायकल प्रदान करती है, जो उस कर्मचारी की मिल्कियत हो सकती है, यदि वह निर्धारित अवधि में एक निश्चित संख्या में पत्रों का वितरण कर दे। गुई यह लक्ष्य पूरा कर लेता है। जिस दिन उसे सायकल का मालिकी हक मिलने वाला होता है, उस दिन उसकी सायकल कोई चुरा ले जाता है। गुई पर दोहरा वज्रपात होता है, जब कंपनी का मैनेजर उसे लापरवाही के कारण नौकरी से निकाल देता है। गुई के मिन्नातें करने पर वह उसे पुन: रखने को तैयार हो जाता है, बशर्ते वह उस सायकल को ढूंढकर वापस ले आए।
शहर के दूसरे छोर पर एक अन्य किशोर जिआन (ली बिन) है, जिसे बड़ी शिद्दत से एक सायकल की दरकार है ताकि उस पर वह अपनी प्रिय सहपाठिनी झियाओ (गाओ युआन) को बैठाकर स्कूल जा सके। मगर उसके पिता सायकल खरीदने से मना कर देते हैं। जिआन घर से पैसे चुराकर पुरानी वस्तुओं की दुकान से एक सेकंड हैंड सायकल खरीद लेता है। यह गुई की ही सायकल है, जो चोर ने इस दुकान पर बेच दी थी। गुई किसी तरह अपनी सायकल ढूंढते-ढूंढते जिआन तक पहुंच जाता है, किंतु अब परिस्थितियां अजीब हो चुकी हैं, जो अंतत: एक लंबे दुखद संघर्ष में परिवर्तित हो जाती हैं।
बढ़ते वैश्वीकरण के इस दौर में जब हर व्यक्ति पद, प्रतिष्ठा और पैसे के पीछे भाग रहा है, सफलता का पैमाना भौतिक वस्तुओं के स्वामित्व पर सिमटकर रह गया है। अधिक से अधिक महंगी वस्तुओं का संचय समाज में प्रतिष्ठा का सूचक है। इस फिल्म के कालखंड यानी इस सदी की शुरूआत में एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के बालक के लिए स्वयं की सायकल होना प्रतिष्ठा की बात थी। एक सायकल को केंद्र में रखकर निर्देशक ने बड़ी कुशलता से समकालीन चीनी समाज के अंतर्द्वंद्व, विषमताओं तथा ग्रामीण और शहरी समाज के बीच की खाई को दर्शाया है। सायकल को यहां एक रूपक के तौर पर इस्तेमाल कर कई वृहद विषयों को छुआ गया है। दोनों बालक तकनीकी तौर पर सायकल के स्वामी हैं और दोनों उसे अपने पास रखना चाहते हैं। दोनों के बीच का संघर्ष उनकी पृष्ठभूमि और कुंठाओं के साथ मिलकर और भी उत्कट हो जाता है। शहर के निवासी, जो पहले ही गरीबी और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं, दिन-प्रतिदिन गांवों से काम की तलाश में आने वाले लोगों से नाराज हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये ग्रामीण उनके सीमित अवसर भी छीन रहे हैं। यह फिल्म पूरे चीनी समाज का आईना है, जो तेजी से बदलते परिवेश में, बढ़ती आधुनिकता और शहरीकरण की होड़ में अपनी जड़ों से छूटता जा रहा है। जहां गरीब-अमीर और ग्रामीण-शहरी विभाजन रेखाएं दिन प्रतिदिन अध्ािक गहरी होती जा रही है।