“मेन पुश कार्ट” हालत के चक्कों पर चलती जीवन की गाड़ी / राकेश मित्तल

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“मेन पुश कार्ट” हालत के चक्कों पर चलती जीवन की गाड़ी
प्रकाशन तिथि : 28 जून 2014


वर्ष 2005 में प्रदर्शित 'मेन पुश कार्ट" अमेरिका में स्वतंत्र फिल्म निर्माण का एक अनुपम उदाहरण है। परंपरागत हॉलीवुड निर्माण से परे यह एक व्यक्तिगत प्रयास है जो किसी भी अंतरराष्ट्रीय स्तर के सिनेमा के समकक्ष है। यह एक ईरानी अमेरिकी द्वारा एक पाकिस्तानी अमेरिकी पर बनाई गई है जिसमें हमें इटली के नवयथार्थवादी सिनेमा की झलक मिलती है। ईरानी मूल के अमेरिकी निर्माता, निर्देशक, लेखक रामिन बहरानी द्वारा बनाई गई यह फिल्म पाकिस्तान के एक पूर्व रॉक स्टार अहमद रजवी की कहानी कहती है जो हालात का शिकार होकर न्यूयॉर्क में कॉफी-डोनट्स का ठेला लगाने पर मजबूर हो गया।

अहमद (अहमद रजवी) पाकिस्तान का रॉक म्यूजिक स्टार रह चुका है किंतु अब वह मैनहट्टन (न्यूयॉर्क) की सड़कों पर ठेला लगाकर कॉफी, ब्रेड रोल और डोनट्स बेचता है। उसकी पत्नी का निधन हो चुका है। उसका एक छ: वर्ष का बेटा यहां न्यूयॉर्क में उसके ससुराल वालों के यहां रहता है जो उसे अपने बेटे से नहीं मिलने देते। अहमद की ऐसी स्थिति क्यों हुई! वह न्यूयॉर्क क्यों आया! उसका करियर किस तरह नष्ट हुआ! इत्यादि बातों के बारे में फिल्म हमें ज्यादा जानकारी नहीं देती। संभवत: वह पाकिस्तान से न्यूयॉर्क अपने बेटे को लेने आया हो और परिस्थिति वश यहां इस तरह जीवनयापन हेतु मजबूर हो गया हो!! हर रात जब सारा शहर नींद के आगोश में होता है, वह अपनी भारी-भरकम ठेला गाड़ी को खींचकर मैनहट्टन की एक मुख्य सड़क पर ला खड़ा करता है, दिनभर कॉफी-केक बेचता है और देर शाम पुन: उसे खींचकर अपने खोलीनुमा घर तक ले जाता है, अगली सुबह फिर आने के लिए। इतनी मशक्कत के बावजूद वह बमुश्किल अपना गुजारा चला पाता है। यहां उसकी अपनी एक छोटी-सी दुनिया है जिनमें उसके जैसे छोटे-मोटे दुकानदार है, न्यूज स्टैंड की गुमठी वाली महिला है। सड़क पर काम करनेे वाले मजदूर हैं जिनके बीच वह क्षणिक राहत और सुकून की तलाश करता है। उसका एक ग्राहक अमीर पाकिस्तानी उद्योगपति उसे फिर से संगीत की दुनिया में चले जाने के लिए प्रेरित करता है। जब लगने लगता है कि जिंदगी की गाड़ी पटरी पर आने वाली है तब नियति फिर अपना खेल खेलती है और वह पुन: उसी दुष्चक्र में फंस जाता है।

इस फिल्म में अहमद के जीवन को एक रूपक की तरह इस्तेमाल किया गया है जिसके माध्यम से यह वृहद सामाजिक विद्रूपताओं की तरफ इशारा करती है। यह केवल एक व्यक्ति विशेष की कहानी नहीं है बल्कि दुनिया के चकाचौंध भरे बड़े शहरों के उन सभी गरीब, मेहनतकश बाशिंदों की दास्तान है जो दो वक्त के खाने का इंतजाम करने के लिए अपना खून-पसीना एक कर देते हैं। ये सिर्फ ठेलागाड़ी नहीं बल्कि जिंदगी को धकेलने की कहानी है, रोजमर्रा की जद्दोजहद और अस्तित्व के सवाल की कहानी है। रामिन बहरानी ने यह फिल्म मात्र तीन हफ्तों में बना डाली थी। फिल्म की अधिकांश शूटिंग उन्होंने गुप्त कमरे में की है ताकि दुनिया के सबसे संपन्ना और चमकदार कांक्रीट जंगल के कुछ स्याह कोनों की वास्तविकता सामने आ सके। इस तरह की फिल्मों में पटकथा, अभिनय या निर्देशन की बारीकियों की बात करना बेमानी है क्योंकि सब कुछ इतना सहज और वास्तविक है मानो सामने ही घटित हो रहा हो। फिल्म किसी भी तरह का 'दर्शनीय प्रभाव" छोड़ने का प्रयास नहीं करती बल्कि पूरी भावशून्यता और सपाट बयानी से अपनी बात कहती है।

अहमद की भूमिका स्वयं अहमद रजवी ने निभाई है। उन्होंने इसके पूर्व कभी अभिनय नहीं किया था और शायद यहां भी नहीं किया है क्योंकि उस पात्र को उन्होंने स्वयं जिया है। बहरानी को इस फिल्म की प्रेरणा अल्बेयर कामू के उपन्यास 'द मिथ ऑफ सिसीफस" से मिली जो एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसने अपना पूरा जीवन एक चट्टान को पहाड़ के ऊपर धकेलकर ले जाने, वहां से लुढ़काकर नीचे गिराने और फिर पुन: ऊपर चढ़ने में गुजार दिया। वह शायद यह संदेश देता है कि पहाड़ की तलहटी में चुपचाप निरुद्देश्य बैठने के बजाय कुछ न कुछ करते रहना ज्यादा अर्थपूर्ण है। फिल्म का अधिकांश हिस्सा सूर्योदय के पूर्व अंधेरे में या ठंडी गीली सुबह के दौरान फिल्माया गया है। दिन के दृश्य भी बारिश और गहरे काले बादलों की पृष्ठभूमि में लिए गए हैं जो कुल मिलाकर एक धूसर, उदास और नैराश्यपूर्ण वातावरण का निर्माण करते हुए फिल्म की मूल केंद्रीय भावना को प्रभावी ढंग से उभारते हैं। फिल्म का संगीत मशहूर पाकिस्तानी गायक, अभिनेता और संगीतकार आतिक असलम ने दिया है जो बेहद लोकप्रिय हुआ है। एक अलग प्रयोग का साक्षी बनने के लिए यह फिल्म देखी जाना चाहिए।