...और द्वार से क्यों नही आया / जयप्रकाश चौकसे

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...और द्वार से क्यों नही आया

प्रकाशन तिथि : 10 जुलाई 2012

आमिर खान के 'सत्यमेव जयते' की ताजा कड़ी में जातिवाद और छुआछूत के मुद्दे को प्रभावशाली ढंग से उठाया गया। कार्यक्रम देखते समय याद आई मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित सत्यजीत रे की ओमपुरी अभिनीत टेलीफिल्म 'सद्गति', जिसमें एक दलित एक ब्राह्मण परिवार के अहाते में कठोर परिश्रम करते हुए मर जाता है। उससे भूखे-प्यासे घंटों अनवरत काम कराया गया। ब्राह्मण दंपति को एक व्यक्तिके मर जाने का कोई दु:ख नहीं, उन्हें केवल यह चिंता सता रही है कि इस दलित की मृतदेह को हाथ लगाएं या नहीं। उन्हें अपने 'धरम' की चिंता है। दरअसल सत्यजीत रे यह बात रेखांकित करते हैं कि सदियों से अवचेतन में जमी बातें मनुष्य को किस तरह संवेदनहीन बना देती हैं। उस ब्राह्मण दंपति को अपने अन्याय का बोध ही नहीं है। वे दलित से काम कराने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं।

आमिर खान ने ही याद ताजा कर दी गिरीश कर्नाड की फिल्म 'संस्कारा' की, जिसमें दो ब्राह्मण मित्रों की कथा है। वे बचपन से एक साथ पढ़े-लिखे व खेले-कूदे हैं, परंतु जवानी में एक मित्र को एक दलित कन्या से प्रेम हो जाता है और वह दलित टोले में ही बस जाता है। कुछ वर्ष पश्चात उस क्रांतिकारी ब्राह्मण की मृत्यु हो जाती है और गांव के सामने प्रश्न यह है कि क्या इस जन्मना ब्राह्मण का शवदाह एक ब्राह्मण की तरह किया जाए या दलित की तरह। इसका निर्णय गांव के श्रेष्ठ ब्राह्मण और उसके बचपन के मित्र पर छोड़ दिया जाता है। वह पसोपेश में है कि मृत व्यक्तिका जन्म तो उच्च कुल में हुआ है, परंतु एक दलित स्त्री के प्रेम में पड़कर उसने अपने 'धरम' को भ्रष्ट कर दिया। क्या अब उसे ब्राह्मण माना जाए? इस उधेड़बुन में वह नदी में स्नान करने जाता है। दूर वह उस दलित स्त्री को नदी से बाहर निकलते देखता है और स्वयं उसके हृदय में उस मादक सौंदर्य के लिए इच्छा जाग्रत होती है। वह नदी से बाहर आई, उस मादक लहर में बह जाता है और अब उसे अपने मित्र को समझने में आसानी होती है। वह अपना निर्णय सुनाता है कि शवदाह ब्राह्मण की गरिमा के अनुरूप किया जाएगा।

शरतचंद्र की 'अभागी का स्वर्ग' पर भी टेलीफिल्म बनी है। अनेक क्षेत्रों में दलितों के शव नदी में बहा दिए जाते हैं। उन्हें अग्निदाह का अधिकार नहीं है, क्योंकि 'अग्नि' देवता है।

बहरहाल, आमिर के इस कार्यक्रम में मदुरै की एक दलित स्त्री ने बताया कि नदी के निचले हिस्से में उन्हें पानी लेने का हक है और उच्च वर्ग की महिलाएं उस क्षेत्र में कांच के टुकड़े डाल देती हैं। क्या प्रकृति प्रदत्त जल के इस विभाजन के कारण ही अब पूरी मानव जाति अभिशप्त हो गई है कि धरती के भीतर जल का स्तर घट रहा है, नदियां सूख रही हैं और बादल रूठ गए हैं?

महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही कुरीतियों से संघर्ष किया और उनकी 'हरिजन' में प्रकाशित एक सत्य घटना के आधार पर भारती साराभाई ने उस दौर में एक पद्य नाटक लिखा था, जिसमें एक उच्च वर्ग की विधवा अपाहिज हो जाने के कारण तीर्थ यात्रा पर नहीं जा पाती। एक दिन वह अपनी तीर्थयात्रा के लिए आरक्षित धन से गांव में हरिजनों के लिए एक कुआं खुदवाती है। वह कहती है 'मैं शायद काशी नहीं देख पाऊंगी, ईश्वर मेरे इस काया रूपी जर्जरित पात्र को नहीं भेजेगा सांसारिक तीर्थ स्थानों पर, परंतु मुक्तहंस से मेरी आत्मा, ला सकेगी इस धरती पर वापस, एक नन्हे कुएं में, मां गंगा के पवित्र जल के साथ, खोई हुई मेरी सामथ्र्य।'

दरअसल आमिर खान ने अपने सारे कार्यक्रमों में वे ही मुद्दे उठाए हैं, जिनके लिए महात्मा गांधी ने संघर्ष किया था। ये ही वे सारी समस्याएं हैं, जिनके लिए सदियों से संघर्ष किया जा रहा है, परंतु धर्म के नाम पर जो बातें जनमानस के अवचेतन में समाई हैं, वहां परिवर्तन की सारी लहरें अपना माथा फोड़ लेती हैं। उलटे घड़े पर लाखों टन पानी डालने पर भी वह खाली ही रहता है। कुरीतियों के खिलाफ हर संघर्ष हथौड़े की उस मार की तरह है, जो चट्टान पर आकृति गढऩे के लिए किया जाता है और प्रारंभ में लगता है कि यह मेहनत बेकार है, परंतु कालांतर में चट्टान पर छवि उभरती है। अत: उम्मीद नहीं छोड़ी जा सकती। नई दिल्ली में ए महिला अपने पति की अकारण मार-पीट से तंग आकर पति का घर छोड़ चुकी है, परंतु उसके मन में अनावश्यक अपराधबोध रहा है और उसके पति के मित्र उसे लौटने का अनुरोध करते रहे, परंतु आमिर खान के कार्यक्रम के बाद अनावश्यक अपराधबोध समाप्त हो गया और पति के मित्रों ने भी उसकी वापसी की बात बंद कर दी। इस तरह के सूक्ष्म परिवर्तन लोकप्रियता के किसी मीटर पर नजर नहीं आते।

राजस्थान के समस्तीपुरा के रामपाल ने जोखिम उठाकर अपने पुत्र की बरात में दूल्हे को घोड़े पर बैठाने का निर्णय लिया और क्षेत्र के पुलिस अधिकारी मानवेंद्र सिंह ने उनकी सहायता की। ज्ञातव्य है कि ऊंची जात वाले इसे प्रतिबंधित करते रहे हैं। जेपी दत्ता की फिल्म 'गुलामी' के एक दृश्य में एक पुलिसवाले के पुत्र को घोड़े पर बैठते ही गोली मार दी जाती है।

इस कार्यक्रम के प्रारंभ में ही दिल्ली विश्वविद्यालय की डॉ. कौशल पंवार ने अपने संघर्ष की बात कही। वे दलित वर्ग की हैं और सारा जीवन उन्होंने त्रास भुगता है। दलित बच्चों को नीले रंग का यूनिफॉर्म पहनने के लिए बाध्य किया जाता था, उन्हें पानी पीने को नहीं दिया जाता था। आज भी शिक्षण संस्थाओं के होस्टल में दलित छात्रों को रैगिंग के नाम पर पीटा जाता है। कार्यक्रम में बनारस के बटुकप्रसाद शास्त्री डंके की चोट पर कहते हैं कि वे भारतीय संविधान को नहीं मानते और उनके लिए उनके वेद ही परम सत्य है। कार्यक्रम में स्टेलिन के. पद्मा का वृत्तचित्र 'इंडिया अनटच्ड' की झलकियां दिखाई गईं। न्यायमूर्ति धर्माधिकारी ने प्रेरणा दी कि जन्मना उच्चता निरर्थक है। दरअसल सभी मनुष्य में समान रक्तप्रवाहित है, परंतु जाति के नाम पर अन्याय का खेल खत्म नहीं होता, वह जाती नहीं शायद इसलिए उसे जाति कहते हैं। यह कुरीति सभी धर्मों में मौजूद है। कबीर कहते हैं 'तू बामन बामनी जाया, और द्वार से क्यों नहीं आया।'