...और बेटी को छत में छुपा दिया / जगमोहन रौतेला
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जगमोहन रौतेला
मेरे चचेरे छोटे भाई मोहन सिंह रौतेला की अल्पायु में ही होली के दिन 24 मार्च 2016 को मत्यु हो गयी। उसके क्रिया-कर्म व पीपलपानी में शामिल होने के लिये मैं गत 31 मार्च को हल्द्वानी से अपने पैत्रिक गाँव नरगोली (पट्टी-कमस्यार), जिला बागेश्वर के लिये चला। रोडवेज की बस जाती नहीं और केएमओयू की बस कोई यात्री न होने के कारण उस दिन नहीं गयी। केवल मैं ही एकमात्र यात्री बस में था जिसके बाद मुझे जीप में जाना पड़ा। जिन लोगों को आये दिन पहाड़ की यात्रा करनी पड़ती है वे लोग आजकल पहचान वाले जीप वालों के नम्बर ले लेते हैं और पहली रात ही अपनी सीट रिजर्व करवा लेते हैं और उसी अनुसार जीप के अड्डों पर पहुँचते हैं या फिर हल्द्वानी के ही किसी मुहल्ले की सवारी होने पर जीप वाले घर से ही यात्रियों को ले लेते हैं। इससे सवेरे-सवेरे जीप अड्डे भागने की परेशानी से मुक्ति मिल जाती है। इसकी वजह से लोग बस की बजाय जीप में ही जाना अधिक पसंद करने लगे हैं। मुझे भी बेरीनाग की जीप मिल गयी। मैंने जब चलने का समय पूछा तो जीप वाले ने कहा ‘लालकुँआ से एक मैडम आने वाली हैं, लगभग एक घंटे बाद चलेंगे।’ थोड़ी देर में जीप वाले के पास एक फोन आया। उससे उसने कहा कि प्रेम टाकिज के पास आ जाओ। तय समय पर मैडम लालकुँआ से आयी तो हम चार लोग हो गये। जीप वाला बोला, ‘चलिये, चलते हैं। तीन सवारी रास्ते में हैं।’ उसके बाद वह एक और मैडम को लेने के लिये मल्ली बमौरी गया। वहाँ जब मैडम घर से बाहर निकली तो पहली वाली मैडम ने कहा, ‘तुम्हारी तो एक बिटिया है शायद? ‘उसने कहा, हाँ।’ इतने में उनकी सास बोली, ‘बेटी को छत में छुपाया है। वह अपनी माँ को जाते हुये देखती तो बहुत रोती। चुप कराना मुश्किल हो जाता है।’ दो सवारी उसने टेढ़ी फलिया से ली जो सड़क के किनारे ही खड़े थे। मुझे छोड़कर सब यात्रियों ने जीप वाले से फोन से ही सम्पर्क साध कर अपने लिये सीट रिजर्व करवा ली थी। रास्ते में दोनों मैडमों की आपसी बातचीत से पता चला कि वे दोनों ही बेरीनाग ब्लॉक (जिला-पिथौरागढ़) में ही अलग-अलग स्कूलों में अध्यापक हैं। दो और लोग भी बेरीनाग ब्लॉक में ही अध्यापक थे। लालकुँआ वाली मैडम के पति रुद्रफर में नौकरी करते हैं। बच्चे अपने पिता के साथ ही रहते हैं। दूसरी वाली मैडम के पति रामनगर में नौकरी करते हैं। रोज हल्द्वानी से आना-जाना करते हैं। घर में अमा-बूबू बच्चों की देखभाल कर लेते हैं। और महिलायें बच्चों व परिवार से दूर पहाड़ में नौकरी कर रही हैं। उनकी आपसी बातचीत से यह भी पता चला कि बच्चों की शिक्षा व सास-ससुर की बीमारी के कारण परिवार हल्द्वानी व लालकुँआ में बसा है। सरकार ने बेसिक स्कूलों को राम भरोसे छोड़ दिया है। इस कारण से पहाड़ के कस्बों व गाँवों से लोग केवल बच्चों को ‘अच्छी’ शिक्षा देने के लिये ही पहाड़ के बड़े शहरों अल्मोड़ा, बागेश्वर, रानीखेत, पिथौरागढ़, पौड़ी, श्रीनगर, गोपेश्वर, उत्तरकाशी या फिर मैदानी शहरों हल्द्वानी, कोटद्वार, देहरादून, ऋषिकेश आदि की ओर पलायन कर रहे हैं। इसके अलावा समुचित चिकित्सा सुविधा के अभाव में भी लोग पहाड़ छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं क्योंकि इलाज के लिये उन्हें हल्द्वानी, देहरादून ही आना पड़ता है। मुनस्यारी ब्लॉक के रहने वाले व उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के वरिष्ठ नेता रणजीत विश्वकर्मा पिछले दो वर्षों से अपना घर परिवार छोड़कर हल्द्वानी में किराये में अकेले रह रहे हैं। वे गुर्दों की बीमारी से पीड़ित हैं। उनका हर तीसरे दिन डायलिसिस होता है हल्द्वानी के बेस अस्पताल में। पिथौरागढ़ के जिला चिकित्सालय में भी इसकी सुविधा नहीं है, जिसकी वजह से वह डायलिसिस करवाने के लिये ही हल्द्वानी में अकेले रह रहे हैं। उक्रांद के महानगर अध्यक्ष प्रताप सिंह चौहान ने अपने घर का एक कमरा उन्हें दिया हुआ है जिस वजह से विश्वकर्मा जी को कमरे का किराया नहीं देना पड़ता है लेकिन बाकी खर्चे तो होते ही हैं। चचेरे भाई मोहन रौतेला की मौत भी समय से उचित चिकित्सा न मिलने के कारण ही हुई। होली के दिन दोपहर को उसके पेट में दर्द उठा। सोचा गैस वगैरह से हो रहा होगा। उसने गैस की गोली भी खाई। पर जब दो घंटे बाद भी दर्द से आराम नहीं मिला तो शाम को चार बजे के बाद उसे डोली व जीप के द्वारा लगभग दस किलोमीटर दूर बेरीनाग के सरकारी अस्पताल पहुँचाया गया। होली की छुट्टी के कारण नियमित डॉक्टर नहीं मिले। संविदा में कार्यरत उत्तर प्रदेश का डॉक्टर मिला। उसने चैक करने के बाद कहा कि कुछ नहीं पथरी का दर्द है। मैं इंजेक्शन लगा देता हूँ। आराम आ जायेगा। चिंता की बात नहीं है। उसने दो इंजेक्शन लगाये। इसके बाद भी उसे कोई आराम नहीं हुआ तो उसे पिथौरागढ़ ले जाया जा रहा था। उसने थल के पास रास्ते में ही दम तोड़ दिया। एक ओर प्रदेश सरकार आये दिन किसी न किसी शहर में मेडिकल कॉलेज खोलने की राजनीति करती रहती है, दूसरी ओर केवल चिकित्सा सुविधा पाने के लिये ही लोग पहाड़ से पलायन करने को मजबूर हैं या फिर प्राथमिक चिकित्सा ही सही समय पर न मिलने के कारण अकाल ही मौत का शिकार हो रहे हैं। यह स्थिति उत्तराखण्ड के लगभग हर जिले की है। क्या यह हमारी सरकारों के लिये शर्म और ग्लानि का कारण नहीं होना चाहिये?