...और मैं विशुद्ध आस्तिक हो गया / सिद्धार्थ सिंह 'मुक्त'

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बचपन से ही मैं बहुत धार्मिक वातावरण में रहा हूँ। मेरे माता-पिता धार्मिक स्वभाव के हैं। मेरे घर में प्रतिदिन कई तरह के चालिसाओं, सुन्दरकाण्ड, गीता तथा रामचरितमानस आदि का पठन-पाठन साधारण सी बात है। मुझे रामायण और महाभारत सहित बहुत सी पौराणिक कहानियां सुनने को मिलती थीं। मैं हनुमान जी और भगवान राम पर बहुत विश्वास रखता था, जब भी मुसीबत में पड़ता तो हनुमान जी को याद करता। मुझे लगता कि सचमुच वो मेरी मदद कर रहे हैं। मेरा जीवन अपने घर और पास-पड़ोस तक सीमित था और जिंदगी मुझे अच्छी लगती थी।

धीरे-धीरे मैं बाहरी दुनिया से परिचित होने लगा और देखा कि लोग हमेशा भागदौड़ करते हैं, अपनी इच्छाओं के लिए देवी-देवताओं से प्रार्थनाएं करते हैं और फिर भी प्रायः परेशान रहते हैं। लोगों की प्रार्थनाएं और इच्छाएं एक दुसरे की विरोधाभास थीं। एक के लाभ में दुसरे की हानि छिपी हुई थी। हमेशा से सुना था कि भगवान की दृष्टि में सब समान हैं इसलिए मन में प्रश्न उठा कि भगवान किसकी सुनेगा और किसकी नहीं। आसपास के धार्मिक लोगों से उत्तर मिला कि जो प्रार्थना सच्चे मन से की जाती है वही फलित होती है। कुछ लोगों ने ये भी कहा कि पूर्व जन्म में किये गए कर्मों के आधार पर ही फल मिलते हैं। पुनर्जन्म मेरे लिए एक नयी अवधारणा थी सो मैंने जानना चाहा कि ये कैसे होता है और क्यों होता है। पिताजी ने बताया कि अच्छे जन्म करने पर स्वर्ग मिलता है और खराब कर्म करने पर नरक। स्वर्ग में विविध प्रकार के सुख मिलते हैं और नरक में कष्ट मिलते हैं। यदि कर्म ज्यादा अच्छे या ज्यादा ख़राब न हों तो कोई और जन्म मिलता है, जैसे किसी पशु का, कीड़े का या पक्षी का। उस समय तो मैंने ये मान लिया लेकिन कुछ ही दिनों के बाद मन में सवाल उठा कि कथित ईश्वर को ये अधिकार कहाँ से मिला कि सभी जीवों के ऊपर वो निर्णय ले सके और उन पर नियंत्रण करे? मैंने कई लोगों से ये बात पूछी तो मुझे बताया गया कि ईश्वर आदिकाल से है और अनंतकाल तक रहेगा और हम सब उसकी रचनाएँ हैं। ईश्वर हमारी बुद्धि से परे है इसलिए उसके बारे में तर्क न करो।

अब तक मैंने कई लोगों के दुःख को समीप से महसूस कर लिया था और मैं जान गया था कि जीवन को जितना अच्छा मैं समझ रहा था उतना वो है नही। बहुत धार्मिक लोगों को भी निरंतर किसी न किसी समस्या से घिरे हुए देखकर मुझे ईश्वर पर संदेह होने लगा था। मैंने अपने पिताजी से पूछा कि आखिर ईश्वर कहाँ है ? उसने ये दुनिया क्यों बनायी ? लोग इतने परेशान हैं तो वो उनकी मदद क्यूँ नहीं करता ? और गीता में कृष्ण ने कहा है कि बिना उनकी इच्छा के एक पत्ता भी नही हिल सकता तो ईश्वर ऐसी इच्छा क्यों करता है कि लोग पाप करें और फिर उसके दुष्परिणाम भोगें ? इन सब प्रश्नों के उत्तर तो मुझे नही मिले बल्कि मुझे डांट सुननी पड़ी। वो बोले कि ईश्वर पर जो संदेह करते हैं वो बहुत भटकते हैं। नारद ने शक किया, गरुड़ ने शक किया और पार्वती ने शक किया, क्या तुम जानते नहीं कि वो किस तरह भटके ? इसलिए तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है और ईश्वर में विश्वास रखने में है। मैंने सोचा कि यदि कोई सच्चाई जानना चाहता है तो इसमें कुछ गलत नहीं है। और अगर इसके लिए ईश्वर उसे दंड देता है तो वो एक क्रूर तानाशाह से अधिक कुछ नही है।

इस बीच मैंने कुछ विज्ञान कथाएं पढ़ीं जिनमें ये दिखाया गया था पृथ्वी के जीवों का नियंत्रण दुसरे ग्रहों पर रहने वाली सभ्यताएं करती हैं। ये कथाएं पौराणिक कथाओं से अधिक ग्राह्य थी इसलिए मुझे विश्वास होने लगा। मैं जैसे-जैसे विज्ञान के सिद्धांतों को पढता गया, प्रकृति के कई रहस्यों के परदे हटने लगे... बहुत सी घटनाओं के तार्किक कारण जानने को मिला। मैं ये सोचने लगा कि शरीर भी एक मशीन की तरह है जिसके मरने बाद कोई अस्तित्व नहीं है। अब मैं किसी ईश्वर या आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता था। मेरे भीतर ब्रम्हांड के रहस्य को जानने की जिज्ञासा हुई तो मैंने पिताजी से पूछा। वो बोले कि सब ईश्वर की माया है, आज तक कोई नहीं जान सका तो तुम कैसे जानोगे। बस भगवान की भक्ति करते रहो, उसी से कल्याण होगा। यदि मैं कोई तर्क करता तो मुझे डांट पड़ती थी कि तर्क न करो, आस्था तर्क का विषय नहीं, बस विश्वास होना चाहिए। लेकिन मुझे जितना रोका गया मेरे मन में उतने तर्क उठने लगे। मैंने खुले तौर पर विद्रोह कर दिया कि मैं ईश्वर की उपासना नहीं करूँगा। मुझे बहुत समझाया गया लेकिन मैंने साफ़ मना कर दिया और विज्ञान पर मेरा विश्वास बढ़ने लगा।लेकिन यहाँ पर मैंने एक गलती कर दी। अभी तक मैं पौराणिक गाथाओं में आँख बंद करके विश्वास करता था और अब विज्ञान में आँख बंद करके विश्वास करने लगा। जब मैं कहीं सुनता/पढ़ता कि किसी वैज्ञानिक ने कुछ कहा है तो मैं तुरंत उसे मान लेता और जब ये पढ़ता या सुनता कि किसी ऋषि या मुनि ने कुछ कहा है तो मैं उसे सिरे से खारिज कर देता।

मैं पूरी तरह जड़वादी हो गया और शरीर को ही सब कुछ समझने लगा।मैं लोगों से कहता था कि, "जब आपकी कार खराब हो जाती है तो क्या उसका कहीं जन्म होता है ? इसी तरह शरीर बस एक उच्च स्तरीय यंत्र भर है... मरने के बाद कहीं कुछ नहीं होता", लोग कहते कि कार तो ठीक हो जाती है, लोग क्यूँ नहीं जिन्दा होते ? मैं उन्हें उत्तर देता कि, "मेडिकल साईंस विकसित हो रही है और एक दिन ये भी संभव होगा।" इस पर लोग मुझे नास्तिक कहते और मुझे डराते कि इसके बुरे परिणाम हो सकते हैं, लेकिन मुझे कोई परवाह नहीं थी। मेरी दृष्टि में जीवन का उद्देश्य अधिक से अधिक भौतिक विकास और अमरत्व प्राप्त करना हो गया। इस सबके बीच कभी कभी मुझे लगता कि मैं खुद को बेकार की चीजों में उलझा रहा हूँ, एक घुटी सी चीख मुझे सुनाई देती, लगता कि सब अपनापन खो रहा है और मैं एक मशीन होता जा रहा हूँ। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं बेचैन क्यों रहता हूँ। तर्क की अधिकता ने जीवन को शुष्क बना दिया था। इस बीच मैंने गौतम बुद्ध पर आधारित पुस्तक 'द लाईट आफ दि एशिया' पढ़ी और तब मैंने महसूस किया कि सचमुच मैं खुद को दबा रहा था क्योंकि विभिन्न यंत्रों के विकास और दुसरे ग्रहों पर रहने वाली सभ्यताओं से हमें क्या मतलब यदि हम संतुष्ट न हो सकें। हम जीवन भर भौतिक विकास के लिए दौड़ते रहते हैं और फिर मर जाते हैं... किस काम का ऐसा भौतिक विकास? चारों तरफ मौत का नंगा नाच हो रहा है, यदि हम किसी तरीके से मृत्यु पर विजय पा भी लें तो क्या लाभ? जीवन से विरोधाभास, घृणा और इर्ष्या कैसे दूर करेंगे? असली परेशानियाँ तो यही हैं। ऐसे ही और जाने कितने प्रश्न मन में आने लगे और मैं सोच-सोचकर बीमार पड़ गया। मैं एक नयी समझ के साथ फिर से बचपन की ओर मुड़ा... फिर से रामचरितमानस, फिर से महाभारत। एक रात को मेरी तबियत ज्यादा बिगड़ गयी, पुरे शरीर में दर्द हो रहा था। मैं अपनी माँ के पास जाकर लेट गया और वो प्यार से मेरे सर पर हाथ फेरने लगी। मुझे बहुत अच्छा लगा लेकिन अचानक मैं मेरे मन में ये ख्याल आने लगा कि माँ भी तो एक दिन दूर हो जायेगी, मैं चाहकर भी उसके पास हमेशा नहीं रह सकता। सब एक दिन दूर चले जाते हैं... तो क्या ये सपना है जो एक दिन टूट जाता है, मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर हम किसलिए और किसके लिए जीते हैं। अगर हम मरने के लिए जीते हैं तो ७०-८० साल बर्बाद क्यों करें? अभी क्यूँ न मर जाएँ? अगर कोई ईश्वर नहीं है तो जो लोग अपने फायदे के लिए दूसरों का शोषण करते हैं वही सबसे बड़े बुद्धिमान हैं और जो प्यार का सन्देश देते हैं वो मूर्ख हैं क्योंकि अपना जीवन में उन्हें बस दुःख ही मिलता है। तभी मुझे लगा कि कोई ईश्वर हो चाहे न हो, ये शरीर रहे या न रहे और हो सकता है कि पूरा संसार एक मायाजाल हो, लेकिन माँ के सानिध्य से जो प्रेम की वर्षा मुझ पर हो रही है वो झूठ नहीं हो सकती, मेरा शरीर नश्वर हो सकता है लेकिन ये प्रेम तो शाश्वत रूप से विद्यमान है जिसको हम हर बार इसके स्तर तक पहुँच कर अनुभव कर सकते हैं। मेरे बालों में घूम रहे माँ के हाथ से प्रकट होता प्रेम यांत्रिक नहीं हो सकता। इतने दिनों से मैं इसी प्रश्न को लेकर परेशान था कि क्या कुछ है जो नश्वर नहीं है और आज माँ के मौन सानिध्य से मुझे वो मिल गया था। मैं समझ गया कि संसार में बस प्रेम ही है जिसका अहसास मनुष्य को एक स्वस्थ शांति देता है। उस दिन से मुझे अपने अस्तित्व में विश्वास हो गया और मैं अपने उस वास्तविक स्वरुप 'प्रेम' को उपलब्ध करना चाहता हूँ। जीवन का एक खूबसूरत सत्य ये भी है कि प्रेम के जो अलग अलग नाम हमने रख दिए हैं जैसे- माँ का प्रेम, प्रेमिका का प्रेम, पत्नी का प्रेम, बहन का प्रेम या पिता का प्रेम आदि, ये सब वस्तुतः एक ही हैं जिनका मूल है- मौन सानिध्य से उपजने वाली असीम शान्ति। अब मैं अस्तित्व में विश्वास रखता हूँ और इस विषय पर मुझे कोई तर्क नहीं करना... बस महसूस करना ही पर्याप्त है... प्रत्यक्ष अनुभव ही सार्थक होता है, तर्क तो बचपना है जो अधिक दूर नहीं ले जा सकता। आखिरकार माँ के मौन सानिध्य ने मुझे आस्तिक बना दिया।