03 फ़रवरी, 1946 / अमृतलाल नागर
"सेवा शारीरिक-मानसिक दोनों रूप से करनी चाहिए" - मैं इसी मंत्र में अपने ध्यान को एकाग्र करूँगा। मुझे गांधीजी के इस मंत्र में आज पहली बार प्रकाश दिखाई पड़ रहा है।
कल से पंतजी के पैरों में मालिश कर रहा हूँ। पंतजी को बहुत आराम मिल रहा है। उनके आराम से मुझे आराम मिल रहा है। तब दरअसल आराम किसे मिल रहा है? -मुझे। पंतजी कहेंगे : 'मुझे।' दोनों तरफ से कह लो, सुख मुझे ही मिला। इस विचार को मैं अनेक रूपों में अब तक सोच तो चुका था। दिमाग की ऊपरी सतह में fix भी समझ लो। मगर मौके पर दिमाग से slip भी हो जाता था। अंतर्चेतन में तो 'मैं' fix है। मेरा चेतन अब प्रायः चेतन में dubbed हो चला है - बल्कि यों समझूँ कि उसके ऊपर छा गया है। इसलिए ऊपरी विचार ढँक जाते हैं। उन्हें अंतर्चेतन की पर्त में जमा लेना चाहिए। शायद जम भी जाएँगे - जम रहे भी हैं। लेकिन इस समय प्रयत्न भी आवश्यक है ! प्रयत्न सेवा द्वारा ही होगा। आत्म-सेवा से ही यह संभव है। आत्मसेवा को fix कर लूँ । कर लूँगा।
मैं कारण तो नहीं दे सकता, परंतु एक अनुभव अवश्य कर रहा हूँ। आज का अंतर्चेतन दरअसल चेतन कस ही (b) भाग है। अंतर्चेतन जिसे कहना चाहिए वह उससे परे है। वह बुद्धि पर संस्कारी प्रभाव है। इन संस्कारों को भी खोजना पड़ेगा।
श्री अरविंद आश्रम, पांडिचेरी