1970 का युवा लेखक सम्मेलन / नीलाभ

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पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा और एक लम्बी मैत्री की दास्तान


ज्ञानरंजन के बहाने - १३


अधूरी लड़ाइयों के पार- ६


अब इतने वर्ष बाद यह तो याद नहीं कि कौन-कौन किस डिब्बे में सवार हुआ था, लेकिन इतना ज़रूर याद है कि मैं, वीरेन और रमेन्द्र साथ थे। चूँकि ये दोनों तब तक हॉस्टल में ही रहते थे और हॉस्टल स्टेशन से काफ़ी दूर था, इसलिए यह तय किया गया था कि वे दोनों एक शाम पहले मेरे यहाँ आ जायेंगे, रात वहीं रहेंगे और दूसरी सुबह हम सब लोग साथ ही गाड़ी में बैठ जायेंगे।

वीरेन और रमेन्द्र, जैसा कि मैंने पहले कहा, उन दिनों परम अघोरी ज़िन्दगी बिताते थे। तौलिया और साबुन तो दूर रहा, टूथपेस्ट और ब्रश और अन्तःवस्त्रों की इल्लत भी उन्होंने पाल न रखी थी। सो, सुबह अमरूद की टहनी से दातून करके और काक स्नान जैसा कुछ करके, वे दोनों तैयार हो गये। शायद एक बैग था या झोला जिसमें उनका सामान था। या यह भी सम्भव है कि मेरे ही ट्रंक में उनका भी सामान रख लिया गया था। इसका ज़िक्र इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि आज तो सफ़र बहुत हल्के-फुल्के किया जाता है, लेकिन उन दिनों ट्रंक और बिस्तरेबन्द के साथ ही यात्राएँ की जाती थीं। जिन्होंने नरेश सक्सेना को आज भी सफ़र करते देखा है, वे अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि उन दिनों की यात्राएँ कैसे साज़-सामान के साथ होती थीं। बहरहाल, हम लोग स्टेशन पहुँचे और गाड़ी आने पर हमने पाया कि एक डिब्बे से रमेश गौड़ अपनी दाढ़ी हिलाते हुए, सफ़ेद चमकीले दाँत खिलाये, हाथ हिला कर हमें उसी डिब्बे में सवार होने का न्योता दे रहा है। ०० रमेश गौड़ से मेरी पुरानी दोस्ती थी। बात यह है कि हमारे लगभग सभी रिश्तेदार दिल्ली में थे, इसलिए मैं अक्सरहा दिल्ली जाया करता था। मुझे याद पड़ता है, मैं एम.ए. में था जब एक बार बलराज पण्डित इलाहाबाद आया। इलाहाबाद में वह सिर्फ़ दूधनाथ को जानता था और दूधनाथ ने उसे हमारे यहाँ ठेल दिया था। एक दिन मैं कहीं बाहर से आया तो मैंने देखा कि एक साँवला, पतला-छरहरा, लम्बूतरे-से चेहरे वाला युवक हमारे यहाँ मौजूद है। उसने अपना परिचय दिया तो मैंने उसे हस्ब-मामूल कॉफ़ी हाउस चलने की दावत दी। जब हम घर के फाटक की तरफ़ जा रहे थे तो उसने कहा - मैं धावक भी हूँ। और आगे स्पष्ट किया कि वह खेल के मैदान का ज़िक्र कर रहा है। मुझे यों उसका बिना प्रसंग यह सूचना देना कुछ समझ में नहीं आया और मैं थोड़ा अचकचाया, पर मैंने इसे कवियों की सनक समझ कर नज़रन्दाज़ कर दिया।

जल्द ही मुझ पर यह राज़ खुल गया कि बलराज एक ‘चीज़’ है। बस, फिर क्या था - ‘एक ही बालो-पर वाले अन्दलीबों’ की तरह हम घुल-मिल गये। बलराज की आवाज़ बहुत अच्छी थी और उसकी अदाएँ नायाब। वह पल-पल अजीबो-ग़रीब मुख-मुद्राएँ बनाता था और हाव-भाव प्रदर्शित करता था और एक अजीब-सी हँसी हँसता था जो किसी कुएँ से आती जान पड़ती थी। उसने हाल ही में एम.ए. पास किया था और वह आगे की सम्भावनाएँ तलाश रहा था। उसके इलाहाबाद प्रवास के दौरान हमारी अच्छी छनने लगी। मैं भी उन दिनों लिखना-लिखाना शुरू कर चुका था। लिहाज़ा अगली बार दिल्ली जाने पर सबसे पहले मैंने बलराज को पकड़ा। उसने अभी नैशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में दाख़िला नहीं लिया था, चुनांचे उसके पास वक्त-ही-वक्त था। बलराज और मैं शुतुर-बेमुहारों की तरह सारा-सारा दिन दिल्ली की ख़ाक छाना करते और ऐब्सर्ड नाटकों, अस्तित्ववाद, और ऐसी ही चीज़ों पर घण्टों बहस किया करते।

आज की दिल्ली को देख कर 1964-65 की दिल्ली की कल्पना करना भी असम्भव है। दिल्ली न तो इस कदर फैली हुई थी, न इतनी हृदयहीन और निर्मम थी। आज की तरह लेखकों-कलाकारों ने ‘मतलब की लकड़ी’ भी नहीं थाम रखी थी। न उनके दिलों में ओछापन इस तरह आसीन था, जैसे वह आज नज़र आता है (जब बेशतर लेखकों की परिस्थितियाँ तब की बनिस्बत कहीं सुधर गयी हैं)। लिहाज़ा अपनी आवारागर्दी के दौरान हम कभी साहित्य अकादमी में प्रभाकर माचवे के यहाँ चले जाते, कभी भारत जी के यहाँ और कभी ‘योजना’ में गिरिजाकुमार माथुर के यहाँ।

गिरिजाकुमार माथुर उन दिनों गीतों की अपनी पुरानी रविश छोड़ कर अकवियों में जा शामिल हुए थे और चूँकि उन दिनों बलराज भी अकवियों के साथ ख़ूब उठता-बैठता था, इसलिए उसकी रसाई वहाँ भी थी। गिरिजाकुमार माथुर बड़े शौकीन आदमी थे, हमेशा लक-दक रहते। एक बार का वाकया मुझे याद है, मैं और बलराज ऐसे ही लफ़ण्टरी करते हुए दोपहर के वक्त ‘योजना’ के दफ़्तर जा पहुँचे जिसका सम्पादन उन दिनों गिरिजाकुमार जी कर रहे थे। वे बड़ी मुहब्बत से मिले और उन्होंने हम दो आवारों के लिए चाय मँगवायी। इसके बाद उन्होंने कविता या साहित्य या दूसरे किसी मुनासिब विषय की चर्चा करने की बजाय ‘योजना’ का ताज़ा अंक हमारे सामने रखा और बातों का रुख़ इस तरफ़ मोड़ दिया कि उन्होंने ‘योजना’ के सम्पादन में क्या तीर मारे हैं। फिर वे फ़िलिप्स या ऐसे ही किसी बेहतरीन तम्बाकू का गुणगान करने लगे जो वे उन दिनों पाइप में पी रहे थे।

हम लोग इतना चट गये कि जब चाय आने पर उन्होंने बड़े ख़ुलूस के साथ हमें अपने पास से उम्दा तम्बाकू का सिगरेट पेश किया तो महज़ उन्हें बताने के लिए कि महाशय, आप को कुल-मिला कर तम्बाकू पीने का सलीका नहीं मालूम है, हम लोगों ने अपनी वही फटीचर सिगरेट निकाल कर उसका सुट्टा लगाया था और यह ज़ाहिर किया था कि उनका तम्बाकू पीने के नहीं, महज़ दिखाने के काबिल है, असली पीने वाले तो उसे हाथ भी नहीं लगाते। बाद में हम लोगों को अफ़सोस हुआ था कि फ़िज़ूल की हेकड़ी में मुफ़्त हाथ आये उम्दा सिगरेट छोड़ दिये, जबकि उन दिनों हमारी कोशिश होती थी कि चाय-कॉफ़ी-सिगरेट के पैसे अदा करने का पुण्य, जहाँ तक सम्भव हो, दूसरों ही को कमाने देना चाहिए।

प्रभाकर माचवे के यहाँ माहौल दूसरा होता था। माचवे जी को, जिसे इलाहाबादी भाषा में ‘परनिन्दा रस’ कहते हैं, उसमें बड़ा आनन्द आता था। वे इसमें निष्णात भी थे। उन दिनों वे शायद साहित्य अकादमी के अध्यक्ष थे और भारत जी (भारतभूषण अग्रवाल) सचिव। माचवे जी वैसे तो किसी को नहीं बख़्शते थे, लेकिन भारत जी पर उनकी विशेष कृपा रहती थी। किस्सा मशहूर था कि एक बार एक प्रसिद्ध साहित्यकार माचवे जी से मिलने गये। उन्हीं दिनों हिन्दी के सवाल पर बहुत-से साहित्यकारों ने अपने अलंकरण लौटा दिये थे। जब इसकी चर्चा चली तो माचवे जी ने बड़ी मासूमियत से कहा - हाँ, देखिए न, हम भी तो कितने दिन से अपने भारत भूषण को लौटाने की बात कह रहे हैं, पर कोई लेने को तैयार ही नहीं होता।

यों, भारत जी बेहद सरल और प्यारे इन्सान थे और हम नये मुल्लाओं के लिए उनके मन में हमेशा स्नेह रहता था। कई बार वे हमें पास ही ’त्रिवेणी कला संगम’ की कैण्टीन में ले जाते और खुले मन से बातें करते। मैं ये बातें इसलिए याद कर रहा हूँ कि मेरे पिता ने अपनी फक्कड़ई, बड़बोलेपन और टेढ़े स्वभाव के चलते बहुत-से लोगों को समय-समय पर ख़ासा नाख़ुश कर रखा था। इनमें से कुछ नामवर जी जैसे साहित्यकार भी थे जो पतनशील सामन्ती निज़ाम के मूल्यों से परिचालित हो कर बाप का बदला बेटे से लेने में गुरेज़ नहीं करते थे, मगर बहुत-से साहित्यकार ऐसे भी थे जिन्हें सामन्ती निज़ाम के उच्चतर मूल्यों में विश्वास था और मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इन तमाम लेखकों से उस शुरुआती दौर में मुझे बहुत स्नेह मिला। माचवे जी और भारत जी ऐसे ही लेखकों में थे।

यह सब तो ख़ैर दिन की चर्या थी, जिसमें कुछ भी सम्भव था। जैसे, एक दिन हम लोग जाने क्यों दिल्ली कॉलेज के पास से जा रहे थे - शायद जेब में पैसे कम थे, सो पैदल ही कनॉट प्लेस जाने का इरादा था या जाने क्या बात थी - कि बलराज को उसका एक पुराना बरबाद किस्म का परिचित मिल गया जिसकी जेब में थोड़ी-सी चरस थी। मैं तो उन दिनों चरस पीता नहीं था, लेकिन बलराज की आँखें चमक उठीं। और कोई जगह तो थी नहीं, पर गर्मी की छुट्टियों की वजह से दिल्ली कॉलेज का परिसर भायँ-भायँ कर रहा था। हम लोग उसमें घुस गये और वहीं बरामदे में चरस का दौर चला जिसके बाद मैं और बलराज फिर कनॉट प्लेस को चल दिये जहाँ वैसे भी शाम को टी-हाउस और कॉफ़ी हाउस में अड्डेबाज़ी एक रोज़ का शग़ल बन गया था। वहीं टी हाउस में उन्हीं दिनों रमेश गौड़ से मुलाकात हुई थी।

रमेश उन दिनों क्या करता था, यह कहना बहुत मुश्किल है, क्योंकि वह एक अजीब सन्दिग्ध किस्म की ज़िन्दगी जीता था। चुस्त जुमले चस्पाँ करने और साहित्यिक लतीफ़ेबाज़ी में माहिर था। अश्क जी से उसकी कुछ खट गयी थी, क्योंकि जिन दिनों अश्क जी कुछ दिन दिल्ली रहे थे, उसने ’राजधानी के मेहमान’ के शीर्षक से ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में एक लेख लिखा था और अश्क जी पर छींटाकशी कर दी थी, पलट कर अश्क जी ने उसे सी.आई.ए. का एजेण्ट घोषित करते हुए उसकी ठुकाई कर दी थी। लेकिन मेरे और रमेश के बीच इस घटना का कोई असर नहीं था और दिल्ली के जिन लोगों ने उस शुरू के दौर में मेरा भरपूर गर्मजोशी भरा स्वागत-सत्कार किया, उनमें बलराज पण्डित, नरेन्द्र धीर और जगदीश चतुर्वेदी के साथ-साथ रमेश गौड़ भी शामिल था।

यों, एक बार उसने मुझसे भी अपनी आदत के मुताबिक हल्का-सा पंगा लेने की कोशिश की थी। टी-हाउस में कई लोगों के सामने उसने कहा - ’आज मैं एक रद्दीवाले के यहाँ से तुम्हारा संग्रह ले आया हूँ, जो तुमने बच्चन जी को बड़े प्रेम से भेंट किया था।’

(मेरा पहला कविता संग्रह ’संस्मरणारम्भ’ 1967 में प्रकाशित हुआ था और तभी एक बार जब बच्चन जी इलाहाबाद यात्रा के दौरान हमारे घर आये थे, तो मैंने उन्हें भेंट कर दिया था। उसके कुछ समय बाद ही वे बम्बई जा रहे थे, सो बहुत-सी किताबों के साथ मेरा संग्रह भी उन्होंने रद्दी वाले को बेच दिया होगा। हालाँकि बच्चन जी को पैसों की ऐसी कोई ज़रूरत न थी और वे अपनी फ़िज़ूल की किताबें किसी को दे भी जा सकते थे। लेकिन कवियों के अपने-अपने ख़यालात होते हैं।)

रमेश का ख़याल था कि मैं हतप्रभ हो जाऊँगा और वह थोड़ा मज़ा ले सकेगा। लेकिन मैंने उससे कहा था - ’अच्छा ही है तुम ले आये, संभाल कर रखो, एक दिन यह दुर्लभ पुस्तक बन जायेगा। इसलिए नहीं कि वह बच्चन जी को दिया गया था, बल्कि इसलिए कि उस पर मेरे हस्ताक्षर हैं।’

रमेश और हम सब ठहाका लगा कर हँसे थे और इससे मेरी और रमेश की निकटता कुछ और बढ़ गयी थी। मुझे याद है, एक दिन अचानक दोपहर को ही वह मुझे गोलचा में ’गाइड’ फ़िल्म दिखाने ले गया था। कभी-कभी रमेश और मैं दरियागंज वाले ’स्टैण्डर्ड होटल’ में बियर पीने चले जाते। वहीं ’गोलचा’ के सामने वाली पट्टी में चित्रकार भूषन रॉय रहता था। कभी उसके यहाँ जा बैठते। लेकिन रोज़मर्रा का मिलना-जुलना शाम को टी हाउस में ही होता, जहाँ किसी मेज़ पर उसका एक ख़ाकी लिफ़ाफ़ा और एक डायरी रखी रहती, यानी रमेश गौड़ ’इलाके में है।’ टी-हाउस के पीछे सरदार का एक ढाबा था, जहाँ अक्सर बानी, महमूद हाशमी, बलराज मेनरा और उर्दू के कुछ तबाह-तबा लोग बैठा करते। रमेश वहाँ भी अपनी हाज़िरी लगाया करता और जब काफ़ी पीने की इच्छा होती तो टी-हाउस चला आता और देर शाम को दारू पीने के लिए सरदार के ढाबे में घुस जाता। कभी-कभार वह सरदार के ढाबे के साथ वाली दारू की दुकान से खाकी ठोंगे में एक बियर की बोतल लिये हुए आता और उसे मिल-बाँट कर ख़त्म करने का न्योता देता। यह काम हम टी-हाउस के सामने रेलिंग के पास खड़े-खड़े अंजाम देते।

उन दिनों दिल्ली में ग्रीन लाइन, ब्लू लाइन और इस किस्म की तेज़-तर्रार और जानलेवा बसें नहीं थीं, और मेट्रो का तो किसी ने सपना भी नहीं देखा था। पुरानी चाल की बसें चला करती थीं और इनमें 36-बी नम्बर की बस सचिवालय से राणा प्रताप बाग़ जाती थी जहाँ रमेश रहता था। चूँकि मैं अपने ताऊ के यहाँ सब्ज़ी मण्डी ठहरता और मुझसे दो स्टॉप पहले पुल बंगश में बलराज पण्डित रहता था, इसलिए मैं और बलराज सारा दिन आवारागर्दी करने के बाद 36-बी से ही लौटा करते। आख़िरी बस रात के 10 बज कर 20 मिनट पर रीगल आया करती थी और दिलचस्प बात यह थी कि शाम भर रमेश गौड़ चाहे जहाँ दुबका होता, इस आख़िरी बस में वह हमेशा सवार मिलता। ०० ज़ाहिर है, अपर इण्डिया एक्सप्रेस के तीसरे दर्जे के डिब्बे से रमेश गौड़ को झाँकते देख कर मुझे बड़ी ख़ुशी हुई और हम सब लोग ताबड़-तोड़ उसी डिब्बे में घुस गये। मेरे, वीरेन और रमेन्द्र के अलावा और भी कोई उस डिब्बे में चढ़ा कि नहीं, मुझे अब याद नहीं। इतना ज़रूर याद है कि दिल्ली के कण्टिनजेण्ट के कई सदस्य रमेश वाले डिब्बे में ही थे। लेकिन ज़्यादा वक्त हमारा रमेश के साथ गुज़रा और हम लोग पटना के युवा लेखक सम्मेलन की बातें करते रहे। इतना भर और याद है कि आयोजकों की ओर से जो परिपत्र जारी हुआ था, उसमें नन्द किशोर नवल और शिव शंकर सिंह के अलावा एक नाम ज्ञानेन्द्रपति भी था। हम सिर्फ़ नन्द किशोर नवल को जानते थे और वह भी ’सिर्फ़’ के माध्यम से। उनसे मिलने का मौका हमें नहीं मिला था। शिवशंकर सिंह को हम लोगों ने नन्द किशोर नवल का कोई सहायक समझा था। उसकी असली ख़ूबियाँ तो पटना जा कर उजागर हुईं। अलबत्ता ज्ञानेन्द्रपति के सिलसिले में हम लोग कयास लगाते रहे कि यह ज़रूर कोई पूँजीपति है, जो आयोजन के ख़र्चे-पानी का बन्दोबस्त कर रहा है।

दिलचस्प बात है कि इलाहाबाद से पटना के उस पाँच-सात घण्टों के सफ़र में रमेश गौड़ ने एक बार भी यह ज़ाहिर नहीं किया था कि युवा लेखक सम्मेलन के परिपत्र के साथ जिस साप्ताहिक पत्रिका की योजना का प्रपत्र सभी लेखकों को भेजा गया था, उसका सम्पादन और कोई नहीं, बल्कि वही करने जा रहा था। रमेश में जहाँ एक स्वाभाविक गर्मजोशी, हाज़िरजवाबी और हरदिल अज़ीज़ी थी, वहीं इस सारे खुलेपन के नीचे एक अजीब-सा ख़ुफ़ियापन भी था, जो उसकी चाबुकदस्ती को एक अतिरिक्त धार दे देता था। यूँ भी सफ़र में हा-हा, ही-ही के अलावा और कोई गम्भीर बात तो सम्भव होती नहीं, सो क्या कुछ कहा-सुना गया, इसकी अब इतने बरस बाद कोई याद नहीं रह गयी है। सच तो यह है कि समूचे युवा लेखक सम्मेलन को याद करते हुए किसी तारतम्य-भरे आख्यान का नहीं, बल्कि छोटे-छोटे दृश्यों के कोलाज या मोण्टाज का-सा प्रभाव ही मन में रह गया है। कुछ दृश्य हैं जो झलक उठते हैं, कुछ बातें जो याद रह गयी हैं और एक समग्र अनुभूति है जो पीछे मुड़ कर याद करने पर मन में उभर आती है।


ज्ञानरंजन के बहाने - १४


अधूरी लड़ाइयों के पार- ७


गाड़ी दोपहर के किसी समय पटना पहुँची थी। स्टेशन से बाहर निकलते ही जिस चीज़ ने हमारा ध्यान खींचा था, वे थे दीवारों पर जगह-जगह लिखे ’प्रऊत ज़िन्दाबाद’ के नारे। बिहार में अभी नक्सलबाड़ी आन्दोलन शुरू ही हुआ था। मुज़फ़्फ़रपुर के पास मुसहरी की घटना हो चुकी थी और कुछ दिनों तक अख़बार इन ख़बरों से अटे रहे थे कि कैसे जे.पी. (जयप्रकाश नारायण) वहाँ कैम्प कर रहे हैं। लेकिन पटना में सार्वजनिक रूप से इसकी कोई सुन-गुन नहीं थी। हल्ला था तो आनन्द मार्ग का और वह नारा - प्रऊत ज़िन्दाबाद - उसी संगठन ने बुलन्द कर रखा था। बाद में चल कर आनन्द मार्ग और उसके किंग-पिन, प्रभात रंजन सरकार अपने कर्मों-कुकर्मों के चलते, उसी राह रुख़सत हुए जिसे अंग्रेज़ी में ’वे ऑफ़ ऑल फ़्लेश’ कहा गया है। मगर अभी इसकी नौबत आने में देर थी और बिहार में आनन्द मार्ग ने अच्छा-ख़ासा चक्कर चला रखा था। मैं इससे पहले कभी पटना नहीं आया था। इसलिए न तो मुझे रास्तों का कुछ ज्ञान था, न मोहल्लों का। इतना ज़रूर याद है कि कोई इलाका छज्जूबाग़ था, जहाँ लाजपत राय भवन नाम की एक इमारत थी, जिसमें नीचे हॉल था और ऊपर कमरे। लाजपत राय भवन उन सैकड़ों इमारतों में से एक जान पड़ती थी जो आज़ादी के बाद बहुविध ढंग से इस्तेमाल की जाने के लिए बनायी गयी थीं। सुदूर पंजाब के एक उस समय तक लगभग विस्मृत कर दिये गये नेता के नाम पर उस भवन के नामकरण के पीछे शायद यह कारण रहा होगा कि भवन के संस्थापक पंजाबी या आर्य समाजी रहे होंगे। इमारत एक कम्यूनिटी हॉल जैसी थी - वहाँ सभाएँ भी होती थीं और शादियाँ भी। नीचे हॉल था जिसमें सम्मेलन की कार्रवाई होनी थी और ऊपर के कमरों में हम लोगों को ठहरना था। जिस कमरे में हमने डेरा जमाया, वह ऊपर जाने वाली सीढ़ियों से चढ़ते ही दायीं ओर को था और उसकी पीछे वाली खिड़की से झाँकने पर पीछे का आँगन दिखायी देता था जहाँ हलवाई बैठा कर सामूहिक चाय-नाश्ते और खाने का प्रबन्ध किया गया था। इसी कमरे में नीचे गद्दे बिछा कर ज्ञान प्रकाश, अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा, वन्दना, अजय सिंह, मैं, वीरेन और रमेन्द्र डट गये थे। इसी से थोड़ा आगे एक खुले छते दालान में बनारस के लोग जमे हुए थे और कुछ आगे बिलकुल अलहदा कमरों में रवीन्द्र कालिया और ममता (पति-पत्नी) होने के नाते और अशोक वाजपेयी टिके हुए थे। ज्ञान और दूधनाथ ठीक-ठीक किस कमरे में थे, यह अब याद नहीं है, लेकिन वे अक्सर हमारे ही कमरे में डटे रहते। ख़ास तौर पर ज्ञान। दूसरे कुछ कमरों में दिल्ली से आये लोग जमा थे। गंगा प्रसाद विमल, जगदीश चतुर्वेदी, बलदेव वंशी की मुझे स्पष्ट याद है और कुमार विकल की भी जो अक्सर जगदीश के गुट में ही अपनी हंगामी उपस्थिति बनाये रखता।

नवल जी ने शायद जोश में या शायद नातजुर्बेकारी की वजह से खचिया भर साहित्यकारों को न्योत रखा था, जो अपनी-अपनी सनकों, ख़ूबियों-ख़ामियों, विचारधाराओं, विद्रोही तेवरों और प्रान्तीय विशेषताओं के साथ माहौल को कुछ इस कदर रंगीन बनाये दे रहे थे कि उसके बदरंग होने का ख़तरा पैदा हो गया था, जो कि वह अन्ततः हो के ही रहा। मिसाल के लिए इब्राहिम शरीफ़ उन दिनों केरल के किसी कॉलेज में पढ़ा रहे थे और कहानी नामक विधा को ठीक-ठिकाने लगाने की चिन्ता में उपमहाद्वीप के दूसरे छोर से बाकायदा एक एजेण्डे के साथ आये थे। यही हाल जितेन्द्र भाटिया, अशोक अग्रवाल और विश्वेश्वर का था, जो ज्ञान, दूधनाथ, कालिया, वग़ैरा साठोत्तरी कहानीकारों से अलग एक छवि बनाना चाहते थे और लगभग साज़िशी अन्दाज़ में यहाँ-वहाँ मिस्कोट करते हुए, नज़र न आने की कोशिश के बावजूद नज़र आने से बच नहीं पाते थे।

यह बात अलग है कि उनकी ’उलटी हो गयीं सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया’ और उनकी बिछायी टाट-पट्टी पर कमलेश्वर ने अपना ’समान्तर कहानी’ का स्कूल खोल दिया जिसमें मधुकर सिंह के साथ-साथ इन सारे लोगों ने नाम लिखा लिया और अपने संग रमेश उपाध्याय को भी भरती कर लिया। जैसा कि ’वागर्थ’ के जून 2007 के अंक में रमेश ने अपनी डायरी के एक इन्दराज में बताते हुए लिखा है कि समान्तर आन्दोलन की योजना मूलतः "बम्बई में ’नवनीत’ के दफ़्तर में बनी थी, जहाँ मैं सहायक सम्पादक था। एक दिन इब्राहिम शरीफ़ और जितेन्द्र भाटिया मुझसे मिलने आये थे। वे पटना के एक लेखक सम्मेलन से लौटे थे। शरीफ़ मेरा बहुत अच्छा दोस्त था। उसी ने कहा था कि हमें कुछ करना चाहिए। बाद में उस योजना को कमलेश्वर जी ले उड़े और उसके बाद, जैसा कि कहा जाता है, बाकी सब इतिहास है।"

फिर, बरास्ता इलाहाबाद, हैदराबाद से आया हुआ वेणुगोपाल था, जो अपने मझोले कद के गठे हुए शरीर, साँवले रंग, चौड़े-चकले चेहरे, बड़े-बड़े दाँतों और ओवरकोट की वजह से कवि की बजाय सिनेमा के टिकटों का ब्लैकिया जान पड़ता था जब तक कि वह मुस्कुराता नहीं था। उसकी इनोसेण्ट, उजली मुस्कान ही थी जो उसे ऐसा लगने से बचा लेती थी और चूँकि वह कसरत से मुस्कराता था, इसलिए वह निरन्तर बचा भी रहता था। तुर्रा यह कि वह जिस-तिस को पकड़ कर छूटते ही सवाल करता - क्रान्ति के बारे में आपका क्या ख़याल है ? इसके पीछे हो सकता है यह कारण रहा हो कि एक तो वह तेलंगाना आन्दोलन की ख्याति वाले आन्ध्र प्रदेश से आया था; दूसरे, नक्सलबाड़ी के विप्लव की ख़बर तब तक आन्ध्र के कुछ हिस्सों में फैल चुकी थी; और तीसरे यह कि नये मुल्ले और प्याज़ वाला हाल रहा होगा।

(तब तक हमें यह नहीं पता था, और युवा लेखक सम्मेलन के एक इतिहासकार, वाचस्पति उपाध्याय को भी यकीनन नहीं मालूम रहा होगा, कि वेणुगोपाल उर्फ़ नन्दकिशोर शर्मा आन्ध्राइट नहीं, मूलतः राजस्थान का रहने वाला है, जो अपने परिवार का पुश्तैनी पुरोहिताई का धन्धा और मन्दिर वग़ैरा छोड़ कर क्रान्ति को समर्पित हो गया है और यही उसके अतिरिक्त उत्साह का कारण है। क्रान्ति की यही लौ वेणु को आगे मथुरा ले गयी, जहाँ सव्यसाची रहते थे, फिर बरास्ता दिल्ली, भोपाल और विदिशा, जहाँ उसे राजेश जोशी जैसा मित्र और विजय बहादुर सिंह जैसे गुरु मिले। हैदराबाद में वह एक अदद पत्नी उसी पुश्तैनी घर और मन्दिर में छोड़ गया था। मैं जब 1975 में विदिशा गया तो वेणु वहाँ ऐसे रमा हुआ था, मानो उसका जन्म ही उदयगिरि के वन-प्रान्तर में हुआ हो। लेकिन एकाकी जीवन जब ऋषियों को रास नहीं आया तो वेणु को कैसे आता जो कवि था। लिहाज़ा वेणु ने भोपाल में नाटक वग़ैरह में हिस्सा लेते हुए वीरा से शादी कर ली, कुछ दिन तरह-तरह के पापड़ बेले और फिर वह हैदराबाद लौट गया जहाँ वह एक अलग मकान में वीरा और अपनी प्यारी-सी बेटी के साथ रहने लगा। उसकी पहली पत्नी उसके पुश्तैनी मकान और मन्दिर में थी ही, वेणु ने वहाँ भी आना-जाना नहीं छोड़ा और यों एक क्रान्तिकारी की-सी निष्ठा से उसने दीन और दुनिया को साधे रखा है।)

इन अनोखेलालों के अलावा कुछ संजीदा किस्म के लोग भी थे, मसलन, नन्द चतुर्वेदी, नवल किशोर, विजेन्द्र, चन्द्रकान्त देवताले और हरिशंकर अग्रवाल, आदि, जिनकी बदकिस्मती थी (जैसा कि आगे साबित हुआ) कि वे क्रान्तिकारियों और हुड़दंगियों के बीच फंसे हुए थे और जब क्रान्ति का ज्वार और हुड़दंग की हिलोर अपने-अपने चरम पर पहुँच कर एक होने को हुईं तो ऐसे लेखकों के लिए इसके सिवा और कोई चारा न रहा कि वे युवा लेखकों को उनके हाल पर छोड़ कर सम्राट अशोक की राजधानी के सैर-सपाटे को निकल जायें और वर्तमान और भविष्य की माथा-पच्ची करने की बजाय अतीत में त्राण खोजें। मगर यह तो आगे की बात है।

जैसा मैंने कहा, हम लोग दोपहर के वक्त पटना पहुँचे थे और जाते ही साथ हम लोगों ने अपना सामान वग़ैरह जमा लिया था। जहाँ तक याद पड़ता है, दिल्ली, इलाहाबाद और बनारस से आने वाले लोग लगभग साथ-ही-साथ लाजपत राय भवन पहुँचे थे और ऊपर की मंज़िल में अपने-अपने हिसाब से फैल गये थे। बाकी लोग, जो अन्य जगहों से आये थे, मिसाल के लिए राजस्थान या मध्यप्रदेश से या फिर जो अन्य गाड़ियों से आये, वे धीरे-धीरे लाजपत राय भवन आ रहे थे और टिकते जा रहे थे। सम्मेलन 27-28 दिसम्बर - 2 दिन का था। हम लोग 26 की दोपहर ही पहुँच गये थे। लिहाज़ा गहमा-गहमी का माहौल धीरे-धीरे परवान चढ़ रहा था। एक हल्की-सी याद इस बात की भी है कि जहाँ सम्मेलन होना था, वहाँ पहुँचने पर एक गोरे-चिकने, चमकीली आँखों पर चश्मा चढ़ाये, पतले-दुबले युवक ने बड़े तपाक से हमारा स्वागत किया था और यह बताया था कि वह ज्ञानेन्द्रपति है। पहली नज़र में ऐनक के पीछे से चमकती हुई अपनी आँखों की वजह से वह मुझे ऐल्फ्रेड हिचकॉक की प्रसिद्ध फ़िल्म ’साइको’ के नायक एन्थनी परकिन्स की तरह लगा था। उसके चेहरे पर एक अजीब-सी चतुराई-भरी मुस्कान और आँखों में एक ’शिफ़्टी’ भाव था, जो आज तक मौजूद है। प्रकट ही इलाहाबाद और दिल्ली से आने वाले ’दिग्गजों’ की नज़र में उस समय ज्ञानेन्द्रपति कोई ऐसी ऊँची चीज़ नहीं थी। उसका यों सोडे की बोतल से निकलती हुई झाग की तरह उफन कर मिलना भी बहुत-से लोगों को अपनी ओर खींचने की बजाय विकर्षित ही कर गया था। लेकिन उस समय इतने सारे लोग इतनी जगहों से एक जगह आ इकट्ठे हुए थे कि अमूमन लोगों की दिलचस्पी एक-दूसरे से मिलने-मिलाने और पुरानी दोस्तियों को ताज़ा करने या फिर नये परिचय बनाने की तरफ़ थी, सो ज्ञानेन्द्रपति आया और फिर उड़ते हुए पत्ते की तरह किसी और दिशा में कुछ और आगन्तुकों का स्वागत करने बढ़ गया, किसी ने उस पर बहुत ध्यान नहीं दिया।

सामान वग़ैरह रख कर मैं दूधनाथ के साथ ऊपर बने कमरों के इर्द-गिर्द घूमते बरामदे की रेलिंग के सहारे खड़ा था कि नीचे एक रिक्शा आ कर रुका। रिक्शे से उतरने वाले व्यक्ति का चेहरा नज़र नहीं आ रहा था, लेकिन पतली-छरहरी काया और घुँघराले बालों वाले सिर को देख कर दूधनाथ ने कहा देखो रमेश (बक्षी) आ गया है, और ज़ोर-से आवाज़ दी - ’अबे साले, आ गया।’ दूसरे ही पल जब उस व्यक्ति ने सिर ऊपर किया और हमने देखा कि रमेश नहीं, वे तो नन्द चतुर्वेदी थे, तो एक अजीब-सी स्थिति पैदा हो गयी थी। दूधनाथ ने फ़ौरन अफ़सोस ज़ाहिर किया था और माफ़ी भी माँगी। नन्द जी युवा लेखकों की इन हरकतों के अभ्यस्त थे और उन्होंने बुरा नहीं माना था। इस छोटे-से प्रसंग को एक तरह से उस पूरे सम्मेलन की टोन का प्रतीक माना जा सकता है।

ज्ञानरंजन के बहाने - १५


अधूरी लड़ाइयों के पार- ८


इसके बाद सिलसिलेवार ढंग से तो बहुत कुछ याद नहीं है, बल्कि दृश्यों और छवियों का एक गड्ड-मड्ड हुजूम है। इसकी एक वजह तो सम्मेलन में शामिल होने वाले लोगों की संख्या है, जिसने सम्मेलन को सम्मेलन की बजाय एक विराट मेले की सूरत दे दी थी। सम्मेलन के उद्घाटन सत्र के अलावा युवा लेखकों की रणनीति, और कविता, कहानी और आलोचना आदि पर चार लम्बी-लम्बी गोष्ठियाँ आयोजित हुई थीं, जिनमें सौ से अधिक भाषण दिये गये। ज़ाहिर है, इनमें ऐसा कुछ नहीं था जो याद रखा जा सके।

सच तो यह है कि ज़्यादातर बहसें उन्हीं पुराने मुद्दों पर केन्द्रित थीं जो 60 के दशक के बाद से साहित्य में आपसी तू-तू, मैं-मैं और जूतम-पैज़ार को जन्म देते रहे थे। होरी किसान और घीसू चमार की तलाश; महानगर कॉफ़ी हाउस और गाँवों के जीवन का द्वण्द्व; आम आदमी की खोज, भाषा का अवमूल्यन, पीढ़ियों का संघर्ष, नये मठ और पुराने मठ, आदि, आदि। प्रकट ही इन बहसों का कोई मतलब नहीं था। कुछ वैसा ही माहौल था जैसा मुर्ग़ों की लड़ाई में होता है। मुर्ग़े आपस में लड़ते हैं और उन्हें लड़ाने वाले कुछ लोग मज़ा लेते हैं। बाकी तमाशबीनों की हैसियत से खड़े रहते हैं। इसलिए जो मंच पर हुआ, वह उतना उल्लेखनीय नहीं है, जितना वह, जो मंच के बाहर हुआ। तो भी मंच पर कुछ बातें ऐसी थीं, जिन्होंने इस समूचे सम्मेलन की टोन को निर्धारित करने में अपनी भूमिका अदा की।


उद्घाटन सत्र शुरू होते ही कुछ बातें साफ़ हो गयीं। पहली तो यह कि स्थानीय लोग अनुपस्थित थे और यह बात सबको खल रही थी। धीरे-धीरे यह भेद खुला कि शिवशंकर सिंह उन धनपतियों में से हैं, जिन्हें भर्तृहरि ने ’शृंग-पुच्छ विहीन विषाण’ कहा था और उनका काम मेडिकल कॉलेज खोलना और पैसे ले कर वहाँ छात्रों को दाख़िला देना है। आज तो यह एक बिलकुल आम बात लगती है, लेकिन 1970 के दिसम्बर में कोई सोच भी नहीं सकता था कि शिवशंकर सिंह की यह परम्परा एक दिन सारे देश में फैल जायेगी। इसलिए लोगों में थोड़ा-सा रोष भी था कि ये किन असाहित्यिक लोगों के पल्ले वे पड़ गये हैं।

(कई वर्ष बाद जब काँग्रेस पार्टी के पैसा-जुटाऊ जुगाड़बाज़ नेता ललितनारायण मिश्र की एक सभा में उन पर बम फेंका गया था तो यही शिवशंकर सिंह, जो नन्दकिशोर नवल के साथ 1970 में ’जन विरोधी राजनीति का मुकाबला’ करने और ’समाजवाद की ठोस शक्ल सामने रखने’ के लिए साप्ताहिक पत्र की योजना बना रहे थे, विप्लवी पलटी मार कर उन्हीं लोगों में जा शामिल हुए थे जिनके विरोध की योजना वे 1970 में बना रहे थे।)

यह बात दीगर है कि शिवशंकर सिंह और उनके गुर्गों ने लाजपत राय भवन को एक जनवासे में तब्दील कर दिया था और पीछे की तरफ़ हलवाई बैठा कर और मेज़ें और बेंचें सजा कर बढ़िया देशी घी में बनी पूरी-कचौड़ी और जलेबी आदि का प्रबन्ध किया हुआ था जिसे प्रेम से ग्रहण करने में युवा लेखकों को कोई एतराज़ नहीं था, जिनकी क्षुधा मंच पर धुआँधार भाषण देने और उन्हें सुनने से लहक आया करती थी । लेकिन इन तथ्यों के ज़ाहिर होने के बावजूद कोई यह समझ नहीं पा रहा था कि पटना के लेखक इस सम्मेलन में क्यों शामिल नहीं हैं। क्या उन्हें आमन्त्रित नहीं किया गया या उन्होंने सम्मेलन का बायकाट किया ?

अभी यह बात धीरे-धीरे लोगों में एक सुगबुगाहट की शक्ल ले ही रही थी कि मंच पर स्थानीय लोगों में से नन्द किशोर नवल और ज्ञानेन्द्र पति के अलावा रेणु जी नज़र आये। इसमें कोई शक नहीं है कि उन्हें मंच पर देख कर लगभग सभी को एक आश्वस्ति का अनुभव हुआ। लेकिन रेणु जी ने मंच पर आने के बाद अपनी तरफ़ से जो कहा सो कहा, जयप्रकाश नारायण की ओर से लिखा एक पत्र भी पढ़ सुनाया। उन दिनों जयप्रकाश नारायण ने मुज़ज़फ़्फ़रपुर के पास मुसहरी में डेरा जमाया हुआ था, जहाँ वे नक्सलियों के आन्दोलन को शान्त करने का प्रयास कर रहे थे। 1970 तक हालाँकि नक्सलबाड़ी के आन्दोलन ने वह रूप नहीं लिया था जो आगे चल कर उसने अख़्तियार किया, तो भी पटना तक उसकी गूँज सुनायी देने लगी थी और नक्सलबाड़ी आन्दोलन से प्रभावित युवा लेखकों को लगता था कि जयप्रकाश नारायण मुसहरी के विद्रोह को दबा कर शासक वर्गों का ही साथ दे रहे हैं। यूँ भी पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में जयप्रकाश नारायण की छवि भले ही ठीक-ठाक समझी जाती रही हो, लेकिन देश के ज़्यादातर हिस्सों में उस समय उन्हें एक बुझी हुई फुलझड़ी से ज़्यादा की अहमियत नहीं हासिल थी। मुझे याद है कि नये लोगों को रेणु जी द्वारा जयप्रकाश नारायण का यह पत्र पढ़ना नागवार गुज़रा था। उन्हें लगा था मानो युवा लेखक सम्मेलन के पीछे कोई निकम्मी किस्म की राजनैतिक साज़िश चल रही है (जो कि चल भी रही थी) और उसमें उन्हें इस्तेमाल किया जा रहा है।


रही-सही कसर नामवर जी को ले कर उठी शंकाओं ने पूरी कर दी थी, जो पहली गोष्ठी के अध्यक्ष तो थे ही, बाकी गोष्ठियों में भी अपना ’अमूल्य योगदान’ करने के लिए अपनी ’विनम्र सेवाएँ’ अर्पित करने को प्रस्तुत थे और अपने साथ एक लॉबी भी ले कर आये हुए थे जो विरोधियों को उन से ज़्यादा ऊँचे स्वर में चिल्ला कर उन्हें परास्त करने में पारंगत थी। यहाँ यह याद रखने की ज़रूरत है कि यह 1970 का साल था और नामवर जी सागर विश्वविद्यालय छोड़ने के बाद अभी एक तरह से ’विल्डरनेस’ में थे।

(उनके सागर से चले आने के पीछे अनेक प्रकार के प्रवाद उस ज़माने में फैले हुए थे और अभी तक साफ़ नहीं हुए हैं, वरना उस घटना के लगभग 40-45 वर्ष बाद महाश्वेता देवी को ’साहित्य समालोचना के सम्राट नामवर’ के शीर्षक से इस ’सच्चे कम्युनिस्ट’ के बारे में लिखते हुए, ’बताया जाता है’ के अनुमानपरक अन्दाज़ में यह न लिखना पड़ता कि ’... एक अदद अध्यापकी के लिए उन्हें यहाँ-वहाँ भटकना पड़ा। कभी सागर, तो कभी जोधपुर। और अन्ततः दिल्ली। नामवर को सागर विश्वविद्यालय से भी हटा दिया गया। निष्कासन का कारण नहीं बताया गया। वैसे असली कारण यह बताया जाता है कि नन्ददुलारे वाजपेयी को नामवर की बेबाक आलोचना पसन्द नहीं थी। वाजपेयी को यह पसन्द नहीं था कि सभा समारोहों में सरेआम उनसे कोई असहमति जताये। नामवर न सिर्फ़ असहमति जताते थे, उनके सामने पान भी खाते थे। ये सारी बातें नौकरी जाने का कारण बनीं।’ अब, बेचारे नन्ददुलारे जी तो जीवित रहे नहीं कि महाश्वेता जी के सामने दस्तबस्ता पेश हो कर अपने किये-न किये की सफ़ाई दे सकें। उनके भाग्य में तो मृत्यु के बाद ’बताया जाता है’ कहने वालों के हाथ कलंकित होना ही लिखा है। अलबत्ता, अगर कोई परलोक है तो मुझे यकीन है कि ख़ुद पर अटकल-पच्चू मार्का ये कलंक लगते देख कर नन्ददुलारे जी उस घड़ी को ज़रूर कोसते होंगे जब उन्होंने अपने सहकर्मी और नामवर जी के आदरणीय गुरुदेव, आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी का आग्रह शिरोधार्य कर, निराला के शब्दों में कहें तो ’युवकों में प्रमुख रत्न-चेतन, समधीत-शास्त्रकाव्यालोचन,’ नामवर जी को सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में शामिल किया था।)

बहरहाल, सागर का सत्य जो भी हो, इतना सभी जानते थे कि नामवर जी उन दिनों अपने विल्डरनेस से बाहर आने की तगो-दौ में जुटे हुए थे। सागर से छूट कर दिल्ली आने पर ले-दे कर ’जनयुग’ या ’आलोचना’ की सम्पादकी ही का सहारा था। इसलिए उन्हें यह बोध हो चुका था कि वोल्तेयर और दान्ते चाहे जितने तीर मारते रहें, असली खेल तो रोब्सपिएर और मैकियावेली जैसों का होता है। लिहाज़ा उन्होंने डगर बदल कर हिन्दी का मैकियावेली बनने की राह पर कदम बढ़ा दिये थे और आज 80 वर्ष की आयु में वे एक ही साथ ’सम्राट’ और ’सच्चे कम्युनिस्ट’ के विरुद से नवाज़े जाने वाले हिन्दी के एकमात्र साहित्यकार बन गये हैं। क्या इसे ही विरुद्धों का सामंजस्य तो नहीं कहते ?


लेकिन बात 1970 की हो रही है जब नामवर जी 42-43 बरस के थे और अनेक लोग उनका विरोध करने की हिम्मत कर सकते थे। चुनांचे नामवर जी भले ही ’युवा लेखकों की रणनीति’ विषयक गोष्ठी के अध्यक्ष बन गये थे, पर उन्हें ले कर बहुत-से लोगों के मन में यह शंका थी कि वे अपनी मठाधीशी झाड़े बिना न रहेंगे। असहमति को बरदाश्त न करने का दुर्गुण नन्ददुलारे जी पर चाहे जितना मढ़ा जाय, इतना तो मैं भी पिछले 40 बरस के अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि ख़ुद नामवर जी भी हिन्दी के सर्वाधिक असहिष्णु लोगों में से हैं और चूँकि उनकी स्मृति विलक्षण है, इसलिए उनसे असहमति आप तभी जता सकते हैं, अगर आप भी कोई-न-कोई सम्राट हों या फिर निपट फ़कीर। इस पर भी आप उनकी ’कृपादृष्टि’ से बच सकेंगे, इसमें शक है। सो, उद्घाटन सत्र में जो रायता फैलाया गया था, उसकी रही-सही कसर ’युवा लेखकों की रणनीति’ वाली गोष्ठी ने पूरी कर दी। रणनीति के सिलसिले में अर्गल-अनर्गल हर तरह की बातें की गयीं और अपनी सारी कुशलता के बावजूद नामवर जी सभा को काबू में नहीं रख पाये। यहीं से एक अराजकता का माहौल बनना शुरू हो गया था, जो धीरे-धीरे सम्मेलन की अन्य गोष्ठियों की विचारहीन लफ़्फ़ाज़ी की वजह से उदासीनता, खीझ और क्रोध में बदलता चला गया। यहाँ मैं उन सारे लेखों और टिप्पणियों और कार्रवाई को उद्धृत तो नहीं कर सकता, उसके लिए तो सिर्फ़ के अंक ही टटोलने होंगे, लेकिन तीन या चार वक्तव्य ज़रूर उद्धृत कर रहा हूँ -

’हमारे अनुभवों पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे झूठे हैं। वैसा करने वाले को हमारी ’केस-हिस्ट्री’ मालूम करनी चाहिए, क्योंकि अकेलेपन की यात्रा का संसार ही हमारा अपना, सच्चा और अर्थपूर्ण संसार है।’ जगदीश चतुर्वेदी

’साहित्य मेरे करीब एक तात्कालिक अनुभव के रूप में आता है, इसलिए मैं मानता हूँ कि साहित्य के सामाजीकरण या उसके साथ जो एक ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है, उससे हमें बचना चाहिए।’ सौमित्र मोहन

’जिनका कथ्य, अनुभव और प्रक्रिया सम्पूर्ण रूप से अपनी है, उनकी भाषा अपनी होगी और उसमें ऐसा कुछ भी नहीं होगा, जो पुराना हो और कथ्य के अनुकूल न हो। इसलिए सब की अलग-अलग भाषाएँ होते हुए भी वे सबको प्रभावित करती हैं। इस दृष्टि से निर्धारित विषय असत्य-सा है, जिस पर बहस करने की कोई गुंजायश नहीं है। दूधनाथ सिंह

’साहित्य एक ऐसा द्वीप है जिसमें आदमी खड़ा हो कर सिर्फ़ अपने आपको तैयार कर सकता है, किसी-न-किसी रूप में, ’एनार्की ’ या ’फ़ासिज़्म’ को बुलाने के लिए सही।’ गंगाप्रसाद विमल

’यह बात बड़ी सफ़ाई से उभर कर आयी कि समकालीन हिन्दी कहानी में कहानीकारों के दो वर्ग है: एक, जो व्यक्ति के माध्यम से परिवेश को आत्मसात् करना चाहता है और दूसरा, जो इसे गलत मानते हुए परिवेश को परिवेश के माध्यम से चित्रित करना चाहता है। समकालीन आदमी दोनों वर्गों के लिए महत्वपूर्ण है, लड़ाई की बात दोनों करते हैं, पर एक वर्ग जहाँ समकालीन आदमी को, अपने माध्यम से ही सही, ’परिभाषित’ करके लड़ाई को स्थगित रखता है, वहाँ दूसरा वर्ग उसे ’अन्वेषित’ करता हुआ नकली लड़ाई लड़ता है।’ कहानी गोष्ठी का सारांश

’ऐसे सम्मेलनों की किसी निश्चित निष्कर्ष या किसी निश्चित ठहराव पर पहुँचने की न तो कोई इच्छा होती है, न ज़रूरत ही, न हममें से कोई शायद इसके लिए तैयार ही होता है।’ अशोक वाजपेयी

युवा लेखक सम्मेलन के परिपत्र पर तो मैं लिख ही आया हूँ, ये वक्तव्य उसकी आत्मा के अनुरूप ही थे। सो अचरज कैसा!


ज्ञानरंजन के बहाने - १६


अधूरी लड़ाइयों के पार- ९


चूँकि सम्मेलन ने एक अच्छे-ख़ासे मुर्ग़ों के युद्ध का रूप ले लिया था, इसलिए जो लोग अखाड़े में एक-दूसरे को उखाड़ने की कोशिश कर रहे थे, जो लोग इन्हें उकसा रहे थे और जो लोग अध्यक्ष मण्डल में बैठे-बैठे मज़ा ले रहे थे, उन्हें छोड़ कर बाकी किसी को इन बहसों में बहुत ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी। हॉल में बैठे लोगों में से अगर कोई मंच पर जा कर कुछ कहता भी तो वह इस सारे हुल्लड़ को कुछ और हंगामाख़ेज़ ही बना देता था।

मिसाल के लिए, जब आम आदमी की बात शुरू हुई तो धूमिल ने मंच पर जा कर अपने ख़ास बनारसी अन्दाज़ में कहा कि सम्मेलन में इकट्ठा लेखकों के लिए आम आदमी वे होने चाहिएँ जो हॉल में हम सब को पानी पिला रहे हैं, जलेबी-कचौड़ी परोस रहे हैं। और एक ढेले की तरह यह जुमला फेंक कर धूमिल नीचे उतर आया, लेकिन मैंने पूरे दो दिनों के उस सम्मेलन में धूमिल को उन ’आम आदमियों’ से बात करते नहीं देखा।

इसी तरह अचानक अजय सिंह मंच पर पहुँचा और उसने अपने उस ज़माने के ख़ास अन्दाज़ में सभी लोगों को लताड़ते हुए, आलोकधन्वा की लम्बी कविता ’जनता का आदमी’ पढ़ कर सुनायी और फिर जैसे अपना कर्तव्य पूरा करके वह नीचे आ गया और हम सब के साथ हॉल के बाहर चला आया, जहाँ एक बेहद पतला-दुबला शख़्स नीला कम्बल सिर और कन्धों पर ओढ़े खड़ा था। अगर इस शख़्स ने नीली जीन्स और जीन्स की जैकेट न पहन रखी होती तो अपने लम्बे बालों और बकरे जैसी दाढ़ी की वजह से वह कोई सँपेरा जान पड़ता। अजय ने परिचय कराया तो पता चला कि यही आलोकधन्वा है।

आज तो ख़ैर आलोकधन्वा और उसकी सनकों से दिल्ली, भोपाल, इलाहाबाद, पटना और कलकत्ता के सभी लोग परिचित हो गये हैं, लेकिन उन दिनों वह जान-बूझ कर अपने गिर्द एक रहस्य-सा बनाये रखता था। उन दो दिनों में भी उसने कुछ ऐसा ही ज़ाहिर किया कि मानो वह एक भूमिगत नक्सली नेता है, जिसके पीछे पुलिस लगी हुई है, जिसकी जीन्स की जेब में ग़ैरकानूनी और ख़ुफ़िया तौर पर हासिल की गयी एक पिस्तौल मौजूद रहती है और जो पुलिस से छुपता फिर रहा है और इसीलिए उसने यह नीला कम्बल अपने सिर और कन्धों पर ओढ़ रखा है। चूँकि हम इलाहाबाद वाले लेखक और कवि इन बाँकी, तिरछी अदाओं के अभ्यस्त ही नहीं, बल्कि उनके कायल भी थे, इसलिए कुल मिला कर आलोक ने हम सब को आकर्षित ही किया। यूँ भी जब आलोक चाहता है तो वह किसी को भी अपनी तरफ़ खींच सकता है और बड़ी गर्मजोशी से पेश आ सकता है। उस समय वह किसी को यह भनक भी नहीं लगने देता कि मौका पड़ने पर उसके अन्दर का सामन्त किन-किन विकट रूपों में प्रकट हो सकता है।

आलोक के अलावा एक और व्यक्ति जिससे नया-नया परिचय करने की मुझे याद है, वह अनिल सिन्हा था जो उन दिनों’ विनिमय’ नाम की एक पत्रिका निकालता था, कदम कुआं पर रहता थाया शायद अभी महेन्द्रू से कदम कुआं नहीं गया था; और डुआर्स ट्रान्सपोर्ट नाम की किसी कम्पनी में काम करता था और बहुत नरमो-नाज़ुक लहजे में बात करता था। अनिल में एक स्वभावगत भलापन था जो आज तक चला आया है और जिसने उसे इस काबिल बनाया है कि वह हम जैसे सनकी उपद्रवियों को बिना खीझे बरदाश्त कर सके और अपनी असहमति दृढ़ता से प्रकट भी कर सके।

हम लोगों का मन सम्मेलन के चूतियापे से वैसे ही उचटा हुआ था, लिहाज़ा हम लोग ज़्यादा समय आलोक और अनिल के साथ महेन्द्रू पर टहलते रहे और बीच-बीच में गोष्ठियों का हाल-चाल जानने के लिए हॉल में या फिर भोजन के समय पीछे के आँगन में जाते रहे। 0 सम्मेलन में जो सौ के करीब लेखक आये हुए थे, उन्हें कई ख़ानों में बाँटा जा सकता था। कुछ लेखक तो ऐसे थे, जिनके लिए 1970 का युवा लेखक सम्मेलन बज़ातेख़ुद काफ़ी अहमियत रखता था। ये ऐसे लोग थे जो साहित्य को एक पूजा भाव से देखते थे। कोई बहुत महत्वपूर्ण और पवित्र गतिविधि। कुछ ऐसे भी थे जिनके लिए साहित्य कुछ नाम और शोहरत पाने की चीज़ थी। (इसमें मैंने पैसे का ज़िक्र नहीं किया है, क्योंकि 1970 तक साहित्य और पैसे का वैसा गठजोड़ नहीं दिखायी देता था, जैसा आज दिखायी देता है।) इन लेखकों को सबसे पहली फ़िक्र इस बात की थी कि बहस चाहे जो दिशा ले, मगर वे अपना झण्डा गाड़ दें। फिर कुछ ऐसे लेखक थे जो किसी ख़ास एजेण्डा के तहत काम कर रहे थे। इनमें ज़्यादातर तादाद ऐसे असन्तुष्ट लेखकों की थी जो महसूस करते थे कि उनकी वाजिब चर्चा नहीं हो रही है। कुछ ऐसे लेखक भी थे जो सचमुच युवा लेखक सम्मेलन के परिपत्र में दी गयी प्रस्तावना पर विश्वास करके सम्मेलन में भाग लेने आये थे। और अन्तिम झुण्ड ऐसे लेखकों का था जो सिर्फ़ मेले का आनन्द लेने आये थे। जिन्हें मालूम था कि ये सब बहसें वग़ैरह कहीं नहीं ले जातीं और असली खेल लेखक की मेज़ और उसकी जनता के बीच खेला जाता है और रचना ही असली कसौटी होती है। इलाहाबाद के बहुत-से लेखक इसी आख़िरी कोटि में थे। ज़ाहिर है कि मंच पर जो नौटंकी हो रही थी, उससे इन लोगों के मन में एक खीझ पैदा हो रही थी और वह बढ़ती जा रही थी और उसने एक ख़ास किस्म की अराजकता को भी जन्म दिया। ऐसे दो-तीन अराजक प्रसंगों का ज़िक्र यहाँ करना चाहँूगा।


कुछ लेखक जो नाम और शोहरत के चक्कर में सम्पर्क बनाने के लिए पटना आये हुए थे, वे अपनी किताबें भी साथ लाये थे और सबको बाँटते फिर रहे थे। इनमें जगदीश चतुर्वेदी और बलदेव वंशी अपनी-अपनी किताब ’इतिहास हंता’ और ’उपनगर में वापसी’ बड़ी मिस्कीनी से साथी लेखकों को देते घूम रहे थे। इसके अलावा मुज़फ़्फ़रपुर से शान्ति सुमन भी आयी हुईं थीं और हमारे पुराने मित्र पंकज सिंह, जो छैला बने रहते थे और ख़ुद भी मुज़फ़्फ़रपुर से आते थे, उन्हें साथ लिये सबसे मिला रहे थे। शान्ति सुमन तब मीठे-मीठे गीत लिखा करती थीं और अपनी बड़ी-बड़ी आँखों और गोल चेहरे के साथ बड़ी भली जान पड़ती थीं। वे भी अपना संग्रह चुनिन्दा लोगों को देती फिर रही थीं। प्रकट ही यह सारा व्यापार इलाहाबाद के उस जत्थे को - जो सीढ़ियों के साथ लगे कमरे में ठहरा हुआ था, और जो आयोजकों की असलियत की शिनाख़्त के अवसाद, मंच पर नामवर जी के ताल-तिकड़म, इब्राहिम शरीफ़ और जितेन्द्र भाटिया द्वारा साठोत्तरी कहानीकारों के ख़िलाफ़ साज़िशी गुटबाज़ी और विश्वेश्वर जैसे लेखकों के हूल-पैंतरों से ऊबा हुआ था - ख़ासा नागवार लग रहा था। सम्मेलन की खीझ को आयोजकों की बेहतरीन भोजन व्यवस्था भी कम नहीं कर पायी थी और यह सारा सम्मेलन उत्तरोत्तर अजीब-से-अजीबोग़रीबतर होता चला जा रहा था।

ऐसे ही में जब शाम को सब लोग कमरे में इकट्ठा हुए, शायद कुछ जने दारू का एक छोटा-मोटा दौर चला चुके थे, तो यह सारी खीझ उन कविता पुस्तकों पर उतरी। पहले तो उनका मज़ाक उड़ाया गया और फिर मुझे याद पड़ता है कि शान्ति सुमन के संग्रह को चिन्दी-चिन्दी करके कमरे में बिखेर दिया गया। अभी यह काम सम्पन्न ही हुआ था कि दरवाज़े पर खट-खट हुई और पंकज सिंह के साथ ख़ुद शान्ति सुमन प्रकट हुईं। कमरे में, मुझे याद पड़ता है, उस समय वीरेन, रमेन्द्र, अजय सिंह, मैं, ज्ञान रंजन और शायद ज्ञान प्रकाश मौजूद थे। अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा और वन्दना भी शायद एक कोने में पसरे हुए थे। हम लोगों ने शान्ति सुमन को बड़े तपाक से अन्दर बुलाया और एक ट्रंक पर बैठा दिया। इसके बाद कुछ इधर-उधर की बातें होने लगीं। शायद शान्ति सुमन के कविता पाठ की भी फ़रमाइश की गयी।

लेकिन तभी उस हल्ले-गुल्ले के माहौल में, जो कमरे में बरपा था, ट्रंक पर बैठी शान्ति सुमन की नज़र नीचे फ़र्श पर गयी। फ़र्श के ज़्यादातर हिस्से पर तो बिस्तरेबन्द या दरियाँ बिछी हुई थीं जिन्हें लेखक अपने साथ लाये थे (नवल जी के पर्चे में यह स्पष्ट लिखा हुआ था कि आने वाले लेखक बिस्तर अपने साथ लायें), बाकी हिस्से पर शान्ति सुमन के कविता संग्रह की चिन्दियाँ बिखरी हुई थीं। जैसे-जैसे शान्ति सुमन ने अपनी पुस्तक की इन चिन्दियों के ज़रिये उसके हश्र को पहचाना, उन्होंने अपने पैरों को उन चिन्दियों पर से हटाने की कोशिश की, मगर चिन्दियाँ इस कदर कमरे भर में फैली हुई थीं कि लाख कोशिशों के बावजूद पैरों के नीचे आये न रह पातीं। शान्ति सुमन की बड़ी-बड़ी आँखों में पानी भर आया और इससे पहले कि यह पानी बहता, महफ़िल बरख़ास्त हो गयी और शायद मामले की नज़ाकत को देखते हुए पंकज उन्हें किसी दूसरे कमरे में ले गया और थोड़ी देर में प्रकृतिस्थ होने के बाद उधर से उनके कविता पाठ का स्वर सुनायी देने लगा। ज़ाहिर है कोरज़ौक इलाहाबादियों की तुलना में वे दूसरे श्रोता शान्ति सुमन को बेहतर लगे होंगे। लेकिन अभी पारा उतरा नहीं था। फिर यह भी शायद लगा कि अगर सज़ा दी जानी है तो सबको एक ही तराज़ू पर तौलना उचित होगा। चुनांचे किसी का ध्यान जगदीश चतुर्वेदी और बलदेव वंशी के संग्रहों पर गया और उन्हें उठा कर उनके फ़्लैप वग़ैरह बाँचने की प्रक्रिया शुरू हुई। तान वहीं टूटी, जहाँ टूटनी थी। दोनों संग्रहों को बीच से चीरते हुए कमरे के फ़र्श पर फेंक दिया गया। तभी किसी ने बताया कि जगदीश नीचे आँगन में खाना खा रहा है। मैंने झपट कर वे संग्रह उठाये और ऊपर की खिड़की से नीचे झाँका जहाँ खाने की मेज़ पर जगदीश चतुर्वेदी खाना खा रहा था। खिड़की से आवाज़ दे कर मैंने एक ही झटके में दोनों संग्रह जगदीश की तरफ़ फेंक दिये।

(इतने वर्षों बाद इस कृत्य को याद करते हुए एक अजीब-सा एहसास होता है। आज तो, ख़ैर, ऐसा करने की कोई आसानी से सोचेगा भी नहीं, लेकिन उस ज़माने में अराजकता के साथ-साथ एक अजीब-सी हिंसा भी जुड़ी रहती थी। किताबें फाड़ने की वह हरकत यकीनन बेवकूफ़ाना थी, लेकिन चूँकि वह सम्मेलन की खीझ का परिणाम थी, इसलिए उस समय किसी ने उस पर बहुत ग़ौर नहीं किया था। अराजकता-भरे उस दौर में किसी ने भी न तो यह सोचा था, न किसी ने यह सुझाया ही था कि आक्रोश को प्रकट करने के दूसरे, और ज़्यादा कारगर ढंग हो सकते हैं। अलबत्ता, जगदीश की मैं तारीफ़ करूँगा कि उसने मन में चाहे बुरा माना हो, बाहर बड़ी बेपरवाही से इस प्रसंग को एक किनारे कर दिया था। यूँ भी तमाम अकवियों में जगदीश के भीतर मैंने एक अजीब-सा कैण्डर और जीवट देखा है। बलदेव वंशी अलबत्ता बहुत हिल गया था। उस समय तो उसकी प्रतिक्रिया की कोई याद नहीं, लेकिन कुछ वर्ष बाद मैं एक दिन दिल्ली में शक्ति नगर से पैदल सब्ज़ी मण्डी की तरफ़ जा रहा था तो कमला नगर के पास बलदेव मुझे अचानक मिल गया। वह मुझे एक होटल में ले गया, उसने कैम्पा कोला की दो बोतलें मँगवायीं और फिर देर तक पंजाबी में मुझसे यह पूछता रहा कि मैंने उसका संग्रह क्यों फाड़ा था। मैंने उसे लाख समझाने की कोशिश की कि वह हरकत सम्मेलन की खीझ का नतीजा थी, एक बेवकूफ़ी थी और हम सब को बाद में उस पर खेद भी हुआ था, गो हममें से कोई भी व्यक्ति किसी अपराधभाव से ग्रस्त नहीं रहा था और उस बेवकूफ़ी को भुला कर उससे निजात पाना ही हम सब को श्रेयस्कर लगा था।। लेकिन बलदेव वंशी को अन्त-अन्त तक हमारी वह हरकत समझ में नहीं आयी थी। तमाम कुरेदने के बावजूद और मेरे समझाने के बाद भी उसकी आँखों में एक बाल-सुलभ आश्चर्य और सन्देह-सा बना रहा था।)


ज्ञानरंजन के बहाने - १७


अधूरी लड़ाइयों के पार- १०


दूसरी अराजकता भी उन्हीं दो दिनों में से किसी शाम की थी। हो सकता है, उसी शाम की रही हो। सम्मेलन की दिन भर की बहसें ख़त्म हो चुकी थीं। लोग अपने-अपने हिसाब से छोटे-छोटे झुण्ड बनाये, लाजपत राय भवन में अपनी ’रणनीतियों’ को और माँज रहे थे या गप्पिया रहे थे, कुछ लोग पटना के स्थानीय लोगों से मिलने निकल गये थे। तभी हमारे कमरे के आगे की तरफ़, जहाँ खुले दालान में बनारस के लोग डटे हुए थे, कुछ हल्ला-सा सुनायी दिया। हम सब लोग उठ कर उधर की तरफ़ चले गये। पता चला कि दिल्ली वाले भी कुछ गला तर करके पहुँचे हुए हैं और एक हंगामा-सा बरपा है। कुमार विकल अपनी लहीम-शहीम देह और चेचक के दाग़ों से भरे गोल चेहरे पर मुस्कान खिलाये, किसी मदमस्त भालू की तरह उछल-उछल कर नाच रहा है और ’सारी बीबियाँ आइयाँ, हरनाम कौर ना आयी’ गा रहा है। इस गाने में उसका साथ कौन दे रहा था, यह अब याद नहीं, लेकिन कुछ दिल्ली वाले ज़रूर ’मिले सुर मेरा तुम्हारा’ की तर्ज़ पर ठेका लगा रहे थे और कभी हरनाम कौर की जगह मोना गुलाटी का नाम उछाला जाता, कभी किसी और ’बीबी’ का।

ज़ाहिर है, हम भी उस गाने में शामिल हो गये और तब ज्ञान का एक और रुख़ मेरे सामने उजागर हुआ। बिना किसी बात की चिन्ता किये, उसने भी कुमार विकल की आवाज़ में आवाज़ मिलानी शुरू कर दी। इतना ही नहीं, उसने अपने भण्डार से भी कुछ चुनिन्दा गीत भी वहाँ बुलन्द किये, जिनमें हम इलाहाबाद वालों ने और फिर बाद में दिल्ली वालों ने भी सुर लगाये। ज्ञान का गला उन दिनों बहुत अच्छा था। इसका ज़िक्र में पहले कर आया हूँ। वह फ़ैज़ की ग़ज़लें, केदारनाथ अग्रवाल और ठाकुर प्रसाद सिंह के गीत एक अपने ही अन्दाज़ में गाया करता था। लेकिन ज्ञान का एक दूसरा पहलू भी था, जहाँ एक बिलकुल बोहीमियन, अल्हड़ फक्कड़पना तारी रहता। उन दिनों ज्ञान का एक ख़ास नारा था - ’बंग भग भंग, चमू संग, चतुरंग, जय बजरंग।’ हो सकता है, इसके पीछे लूकरगंजी बंगालियों को चिढ़ाने की मंशा रही हो या फिर हिन्दी की मध्यकालीन कविता, विशेष रूप से भूषण की पंक्ति ’साजि चतुरंग बीर रंग पै तुरंग चढ़ि सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत हैं’ की पैरोडी करने का इरादा -- इलाहाबाद की सड़कों पर साथी-संगियों के साथ टहलते हुए या मुरारी में उधम मचाते हुए कई बार वह अचानक प्रसंग होने या न होने पर यह नारा बुलन्द करता था। इस नारे को ज्ञान मण्डल के हम सब लोगों ने भी अपना लिया था, जो ज्ञान को उन दिनों ’गुरु’ मानते हुए उस पर निछावर होते रहते थे और ’गुरु’ को प्रसन्न करने के लिए गाहे-बगाहे यह नारा हवा में उछाल दिया करते थे। इसके अलावा ज्ञान को कुछ ऐसे गीत भी याद थे, जिन्हें आज भी अश्लील ही कहा जायेगा। उनमें से एक गीत का शीर्षक था - ’बाबर्चीखाने में’। इस गीत में कुछ ऐसा आर.डी.एक्स. है कि बड़ा-बड़ा अस्सी का खस्सी भी उसे गाते हुए इस बात का ख़याल कर ले कि आस-पास कोई महिला तो नहीं है। उसे अगर उद्धृत करना हो तो उसका रूप कुछ ऐसा होगा: -- देइहो कि चलिहो थाने में हम -- बबर्चीखाने में अरे आगा -- पीछा -- -- बाँध के तागा अरे आधी रात का -- लागे चूहा -- लै भागा कि -- देइहो कि चलिहो थाने में हम -- बबर्ची खाने में

आगे भी कुछ बन्द थे शायद, पर मुझे अब इतना ही स्मरण है। यह गीत अपनी निपट अराजक अश्लीलता की वजह से तो मुझे याद रह ही गया है, इसलिए भी स्मृति में टँका रहा आया है, क्योंकि इसकी अश्लीलता की एक समाजशास्त्रीय अहमियत भी थी जो इलाहाबाद जैसे शहरों की बँगलों वाली संस्कृति के कुछ तलछटिया पहलू भी उजागर करती थी।

एक और गीत था जिसकी मुझे सिर्फ़ दो पंक्तियाँ याद रह गयी हैं -- ’बेर से हते, बेर से हते, मल मल के भये सवा सेर के।’

चूंकि हम सब ज्ञान के इस पहलू से वाक़िफ़ थे, इसलिए जब कुमार विकल की आवाज़ के थोड़ा मद्धम होने पर ज्ञान ने ज़ोर से गीत शुरू किया -- ’बम भोले नाथ’ के नारे के साथ -- तो सब जैसे फड़क उठे। गीत कुछ यों था --

बम भोले नाथ, बम भोले नाथ तेरी बहन के साथ हम काटेंगे रात बम भोले नाथ, बम भोले नाथ आजा जानी अन्दर में कोई नहीं है मन्दर में साधु-सन्त सब सोये पड़े हैं बम भोले नाथ, बम भोले नाथ

ज्ञान और हम सब लोग बहुत लहक-लहक कर ये सारे गीत गा रहे थे और मुझे इतना याद है कि उस खुले दालान में बनारस का जत्था अपनी-अपनी रज़ाइयाँ ओढ़े हुए, विस्फारित नेत्रों से यह मंज़र देख रहा था। बाद में वाचस्पति उपाध्याय ने ’सिर्फ़’ के अगले अंक में युवा लेखक सम्मेलन की रिपोर्ट प्रकाशित करते हुए इन सारी घटनाओं का ज़िक्र कुछ ऐसे किया कि प्रतीत हो, इलाहाबाद वाले सारे गम्भीर लेखकों का शील भंग करने के लिए आये हुए थे। लेकिन तब तक वाचस्पति ने दुनिया देखी ही कितनी थी।


ज्ञानरंजन के बहाने - १८


अधूरी लड़ाइयों के पार- ११


इतने वर्ष बाद 1970 के युवा लेखक सम्मेलन और उसके हुड़दंग को याद करते हुए, मुझे बेसाख़्ता वाचस्पति उपाध्याय की उस टिप्पणी की याद हो आयी जो उसने पटना से लौट कर सम्मेलन का जायज़ा लेते हुए लिखी थी --

’दिल्ली डूब रही है! बचाओ! इलाहाबाद गया! बचाओ! बचाओ!! हावड़ा किधर है ? हापुड़ ? कऽ रज्जा बनारस! और केरल से आये इब्राहिम शरीफ़, उड़ीसा से आये प्रभात कुमार त्रिपाठी, आन्ध्र प्रदेश से आये वेणु गोपाल और मध्य प्रदेश से आये हरिशंकर अग्रवाल-जैसे अकेले पड़ गये अनेकों रचनाकार हैरत में थे! ऊँचे मंच पर बिछे नर्म कालीन पर खड़े हो कर मेरे समकालीन लेखक बड़ी गर्मजोशी से चौराहे पर खड़े आम आदमी का दर्द, कविता-कहानी-आलोचना पर बहस करते हुए, संसदीय भाषण-प्रणाली से नापते रहे। भाषणों, विरोधी भाषणों और बहिर्गमन का संसदीय नाटक ख़ूब चलता रहा। लेखकों की आपसी बातचीत का अन्दाज़ गोष्ठियों की परिचर्चा में कहीं नहीं मिला।...... (रात के सोने के वक़्त) ’अज्ञातकुलशीलवाला’ बड़ा लेखक-समूह बग़ल के कमरे में किन्हीं शान्ति सुमन का कवितानुमा गायन सुनता रहा। जगदीश चतुर्वेदी, सौमित्र मोहन और रमेश गौड़ आदि राजधानी के लेखक कुमार विकल के नेतृत्व में ’सारियाँ बीवियाँ आईंया, हरनाम कौर ना आईं’ कोरस बीच-बीच में मोना गुलाटी तथा अन्य अनेक अनुपस्थित लेखिकाओं के नाम डाल कर गाते रहे। इस पियक्कड़ जमात से टक्कर लेती हुई दूसरी टोली ज़्यादातर इलाहाबाद के लेखकों की थी जिसने अपने पूरे नशे में ’बम भोलेनाथ, बम भोलेनाथ’ की समवेत धुन में माँ-बहन की गालियों का तालियों के ठेके के साथ भरपूर इस्तेमाल किया। लेखक-सम्मेलन के आयोजक तो उतने नहीं, पर कार्यकर्ता इस सबको बहुत ही चकित-व्यथित हो कर देखते रहे। और अलग एक कमरे में पड़े राजस्थान से आये नन्द चतुर्वेदी, विजेन्द्र और नवलकिशोर आदि पटना में दिन भर के सैर-सपाटे के बाद मुश्किल से रात-भर के लिए आयी हुई ग़फ़लत की नींद में बाधा होने से अन्यमनस्क होते रहे।’

मैंने ’सिर्फ़’ का वह अंक निकाल कर उस टिप्पणी को फिर से पढ़ा और देर तक मन-ही-मन हँसता रहा कि कैसा अराजक ज़माना था। वैसी अराजकता सार्वजनिक और सामूहिक रूप से न तो पहले कभी देखी गयी थी, न बाद में कभी नज़र आयी। 0 इन अराजक घटनाओं के अलावा एक और घटना मुझे याद आती है। दिन का कोई वक़्त था या शाम का, एक कमरे में धूमिल, वीरेन, रमेन्द्र, अजय सिंह, मैं और कुछ और लोग बैठे हुए हैं। अचानक चर्चा मधुकर सिंह की होने लगती है।

(क्षेपक के तौर पर यहाँ एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। घटना मेरी देखी नहीं, सुनी हुई है, इसलिए कितनी सच्ची है, इसके बारे में कुछ नहीं कह सकता, लेकिन चूँकि उसका कई बार उल्लेख होने पर किसी ने खण्डन नहीं किया, इसलिए सही ही जान पड़ती है। जहाँ तक मुझे याद है, यह घटना दूधनाथ ने सुनायी थी। क़िस्सा कुछ यूँ है कि मधुकर सिंह काशीनाथ सिंह के यहाँ दो-चार बार गये होंगे और वहाँ उन्होंने शायद खाना भी खाया होगा। काशी को तो मालूम था कि मधुकर सिंह कोइरी हैं, लेकिन घरवालों को शायद मधुकर के आगे लगे ’सिंह’ से यही अन्दाज़ा हुआ होगा कि वे भी क्षत्रिय हैं। काशीनाथ सिंह की माता जी मधुकर सिंह को ’मधुरी सिंह’ कहती थीं। एक बार काशी ने भण्डा फोड़ दिया तो उनकी माता जी ने मधुकर सिंह से कहा कि वे अपने बर्तन ख़ुद माँज कर रखें। घटना बहुत मामूली है, लेकिन इलाहाबाद में रहने वाले हम नौजवान लोगों को जिन्हें उत्तर प्रदेश के गाँवों के जातिवाद का प्रथम दृष्टया अनुभव नहीं था, यह घटना बड़ी अजीब लगी थी। मेरा अपना ख़याल है कि अगर ऐसा घटित हुआ भी था तो उस हालत में काशीनाथ को मधुकर सिंह की थाली-कटोरी ख़ुद माँज देनी चाहिए थी और अपने अतिथि को अस्वस्ति और अनपेक्षित अपमान की पीड़ा से बचाना चाहिए था।)

बहरहाल, यह घटना कितनी सच्ची है और किस रूप में घटी, इसके बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम, लेकिन इसी के बाद यह भी पता चला कि ’दिनमान’ के बहुत ही प्रतिभाशाली पत्रकार रामधनी, जो दलित थे, एक बार जब धूमिल के घर गये तो उनके जाने के बाद धूमिल ने उस पटिया को पानी से धुलवा दिया था जिस पर रामधनी बैठे थे। यह घटना भी हमें मधुकर सिंह वाली घटना के सन्दर्भ में ही बतायी गयी थी और इससे हमें कोई कम आघात नहीं पहुँचा था। इसलिए जब उस कमरे में मधुकर सिंह वाली चर्चा हुई तो किसी ने रामधनी वाली घटना का भी ज़िक्र किया। धूमिल ने इस घटना की तसदीक की और ठठा कर हँसा। तब वीरेन ने बहुत ही गम्भीर लहजे में मानो धूमिल को फटकारते हुए कहा, ’यह कोई हँसने की बात नहीं है।’ ज़ाहिर है इसके बाद एक बड़ा अप्रिय सन्नाटा छा गया था और महफ़िल भंग हो गयी थी।


ज्ञानरंजन के बहाने - १९


अधूरी लड़ाइयों के पार- १२


युवा लेखक सम्मेलन का सबसे यादगार पहलू उसका समापन है।

समापन तक आते-आते वहाँ इकट्ठा साहित्यकारों की सारी गैस निकल चुकी थी, जो-जो समीकरण बनने-टूटने थे, वे बन-टूट चुके थे और अब बहुत कुछ बाक़ी नहीं था। 28 दिसम्बर की शाम को अभी सम्मेलन की इति नहीं हुई थी कि आयोजकों की तरफ़ से नवल जी और दूसरे लोगों ने यह प्रस्ताव रखा कि अगली सुबह जो लोग राजगीर (राजगृह) की सैर पर जाना चाहें, वे बता दें, उन्हें आयोजक गण गाड़ियों पर वहाँ घुमाने ले जायेंगे। मुझे नहीं मालूम कि इस प्रस्ताव पर कितने लोगों ने हामी भरी और अपने नाम आयोजकों के यहाँ दर्ज कराये, इतना ज़रूर मुझे मालूम है कि इलाहाबादियों का बोहीमियन जत्था राजगीर जाने का इच्छुक नहीं था। हम लोग जब सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर जा रहे थे तो मैंने ज्ञान से कहा कि हमें आने-जाने का किराया आयोजकों से ले लेना चाहिए। नवल जी ने तृतीय श्रेणी स्लीपर के तीन टिकटों का ख़र्च देने का आश्वासन दे रखा था। इतने बरस बाद यह याद नहीं कि परिपत्र में किये गये वादे के मुताबिक आधा ख़र्च हमें अग्रिम मनीऑर्डर द्वारा मिला था या नहीं। शायद नहीं ही मिला था। बहरहाल, वापसी के किराये को वसूलने का काम तो बाक़ी ही था। इसलिए मैंने वक़्त रहते ही ज्ञान पर ज़ोर दिया था कि हमें किराया-भाड़ा नवल जी से ले लेना चाहिए। यह मुझे अच्छी तरह याद है कि जब हम सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे तो मेरे साथ ज्ञान के अलावा अजय सिंह भी था। ज्ञान ने बेपरवाही से कहा था कि किराये का क्या है, कल सुबह ले लिया जायेगा। अजय ने भी इसी बात की ताईद की थी।

हालाँकि एक मन मेरा यही कह रहा था कि किराया उसी शाम वसूल लिया जाना चाहिए, बाद में मिले-न मिले, क्योंकि सम्मेलन का डेरा-डण्डा तो उठ ही चुका था, तो भी मैं चुप हो गया था। शाम चूँकि अपनी थी, इसलिए उन्मुक्त भाव से शग़ल-मेला शुरू हो गया। रात के खाने से पहले कई लोग दरवाज़े को खटखटा कर ज़रा-सा खोल कर, सिर अन्दर ढुकाते हुए पूछते घूम रहे थे - ’राजगीर चलिएगा ?’ हर बार हम उन्हें किसी और जत्थे की तरफ़ रवाना कर देते। मैं कुछ और मुतमईन हो गया कि पिछले दो-तीन दिनों से जिस प्रेम से बरातियों की तरह हम लोगों की आव-भगत हो रही है, उसी प्रेम से किराया-भाड़ा दे कर हम लोगों को विदा भी किया जायेगा।

बहरहाल, अगली सुबह जब हम उठे तो न तो नवल जी का कोई अता-पता था, न ज्ञानेन्द्र पति का और न उन दो सन्दिग्ध किस्म के लोगों का जिनके नाम परिपत्र पर छपे हुए थे, यानी शिवशंकर सिंह और शिवदेव। अलबत्ता आयोजकों के कुछ मुस्टण्डे किस्म के गुर्गे बड़ी शाइस्तगी से हम लोगों को स्टेशन पहुँचाने की जुगुत बैठा रहे थे। किराये-भाड़े की चर्चा करने पर उन्होंने कहा कि हम लोग स्टेशन चलें, वहीं सब कुछ हो जायेगा। लेकिन दूसरी तरफ़, जिधर दिल्ली, पंजाब और राजस्थान के लेखक ठहरे हुए थे, मुस्टण्डों में शाइस्तगी कुछ कम रही होगी, इसीलिए उधर के लोगों को बड़ी बेरुख़ी से कमरे ख़ाली करने के लिए कहा जा रहा था और बिना इस बात की परवाह किये कि वे निवृत्त हुए हैं या नहीं, शौचालय वग़ैरह बन्द कराये जा रहे थे।

(यह भी दिलचस्प है कि रमेश गौड़, जो तीन दिन से फिरकी की तरह सम्मेलन भर में नाच रहा था, सम्मेलन ख़त्म होते ही पिछली शाम से नदारद था। बाद में पता चला कि वह तो नवल जी को भी धता बता कर शिवशंकर सिंह और शिवदेव के साथ उस साप्ताहिक को अवतरित करने की ’तपस्या’ में जुटा हुआ था। रमेश की फ़ितरत को जानने के कारण मुझे पूरा यकीन है कि बाक़ी लेखकों के साथ जो भी गुज़री, शिवशंकर सिंह द्वारा मेडिकल कॉलेज से अर्जित धन का कुछ हिस्सा ज़रूर रमेश ले मरा होगा, क्योंकि कुछ ही दिनों बाद उस साप्ताहिक ’दशा दिशा’ का एक अकेला अंक निकला था जो अब भी उस सारे प्रकरण की याद दिलाता हुआ मेरे पास महफ़ूज़ है। उसके बाद रमेश से तो दिल्ली में कई बार मुलाकात हुई, मगर शिवशंकर सिंह यकसर ग़ायब-गुल्ला हो गये और फिर उनका नाम सिर्फ़ एक बार उछला जब ललित नारायण मिश्र वाली घटना हुई।)

ख़ैर, हम लोग सुबह ही तैयार हो चुके थे, इसलिए समय खोये बिना स्टेशन पहुँचे। इस बीच कुछ ख़ास-ख़ास लेखक या तो आयोजकों की गाड़ी पर या फिर एक काली अम्बैसेडर पर सवार हो कर ’नयी धारा’ कार्यालय की ओर चले गये थे - शिवा जी से मिलने। पता चला कि शिवा जी राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह के पुत्र उदय राज सिंह का बुलाने का नाम है। पटना के स्थानीय लेखकों की तरह वे भी सम्मेलन में नहीं आये थे। या तो बुलाये नहीं गये थे, या फिर शायद उन्हें यह अपेक्षा थी कि उनकी राजसी प्रतिष्ठा को देखते हुए कोई उन्हें बुलाने जाय तो वे आयें। जो भी हो, अब वे नामी-गिरामी लोगों को अपने दरबार में बुला कर उनकी ख़ातिर-तवाज़ो कर रहे थे और अपने प्रताप का प्रदर्शन। ज़ाहिर है, यह बुलावा सिर्फ़ बड़वार किस्म के लेखकों को था। जैसे अशोक वाजपेयी, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, दूधनाथ सिंह, आदि। इसलिए हम लोग जो इन बड़े लोगों में शुमार नहीं किये जाते थे, आयोजकों की गाड़ियों पर लद-फंद कर स्टेशन पहुँचे। अभी तक ज्ञान हमारे ही साथ था।

स्टेशन पहुँच कर जब हम लोगों ने किराये-भाड़े की बात की तो आयोजकों के गुर्गों की तरफ़ से टाल-मटोल शुरू हुई। इस बीच मैंने देखा कि गंगा प्रसाद विमल, सौमित्र मोहन और दिल्ली से आये और बहुत-से लोग अपने-अपने सामान के साथ स्टेशन के बाहर की सीढ़ियों पर ऐसे मुँह लटकाये बैठे हुए हैं मानो कोई उन्हें वहाँ आ कर कचरे की तरह फेंक गया हो। पता चला कि उन्हें भी किराया-भाड़ा कुछ नहीं मिला है और नवल जी, ज्ञानेन्द्र पति और उनके दो साथी-आयोजक दिल्ली वालों को भी दग़ा दे गये हैं।

सम्मेलन के दो दिनों की अराजकता और कहा जाय कि विचारगोष्ठियों के चूतियापे का ग़ुस्सा एकबारगी उबल पड़ा। हम लोगों ने आयोजकों के गुर्गों को पकड़ लिया और किराये-भाड़े को ले कर उनके साथ शुद्ध ’मातृ भाषा’ में बातचीत शुरू कर दी। ज़ाहिर है, वे लोग जो दो-तीन दिन से इस प्रकार हम लोगों की आवभगत कर रहे थे मानो हम किसी साहित्यिक कार्यक्रम में आये लेखक नहीं, बल्कि जनवासे में ठहरे बराती हों, ठेठ हिन्दी के इस ठाठ पर अवाक थे। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि ये लेखक लोग जो कल तक होरी किसान और घीसू चमार की फ़िक्र में ग़लतान थे, कविता-कहानी की बात कर रहे थे, अचानक इतने उग्र और हिंसक क्यों हो रहे हैं। लेकिन वहाँ एकाध आदमी की बात होती तो ग़म खाया जा सकता था, लेकिन इकट्ठा 25-30 लोग इस तरह अपने हाल पर छोड़ दिये गये थे जिस तरह लावारिस मवेशी सड़कों पर छोड़ दिये जाते हैं।

जब मातृ भाषा पूरी न पड़ी तो भौतिकवाद का सहारा लिया गया और एक गुर्गे को बन्धक बना लिया गया। दूसरे से कहा गया कि वह जाये और जहाँ से भी पैसा लाना हो, पैसा लाये और हम लोगों को किराया-भाड़ा दे, वरना हम बन्धक बनाये गये गुर्गे को छोड़ेंगे नहीं। इस ’छोड़ेंगे नहीं’ में कई तरह की ध्वनियाँ और व्यंजनाएँ थीं और यह बात उन गुर्गों को फ़ौरन समझ में आ गयी। लगता है, वे मुस्टण्डे अपने मालिक से राग धमकौवल के इन्हीं सुरों में आदेश सुनने के आदी थे, क्योंकि एक मुस्टण्डा उसी दम ताबड़तोड़ अम्बैसेडर गाड़ी पर पैसे लेने के लिए भागा गया। हम लोगों को यह तो पता चल ही चुका था कि गाड़ियाँ तो सारी निकल चुकी हैं और शाम से पहले कोई गाड़ी नहीं है। इसलिए हम लोगों ने पहले से ही यह फ़ैसला कर रखा था कि हम स्टेशन पर गाड़ी का इन्तज़ार करते हुए ख़राब होने की बजाय राजेन्द्र नगर जायेंगे, जहाँ उन दिनों नरेन्द्र घायल रहता था और एक छोटी पत्रिका ’पतझड़’ प्रकाशित किया करता था। ख़याल यह भी था कि वक़्त मिला तो वहीं राजेन्द्र नगर में ही रेणु जी से भी मिल लिया जायेगा।

इस बीच उदय राज सिंह उर्फ़ शिवा जी की वही काली अम्बैसेडर गाड़ी पटना स्टेशन पर आ खड़ी हुई और ड्राइवर ने सूचना दी कि वह ज्ञान को ’नयी धारा’ ले जाने के लिए आया है। हम लोगों को थोड़ा-सा धक्का लगा, क्योंकि हम यह मान कर चल रहे थे कि बाक़ी सब भले ही साथ छोड़ दें, लेकिन ज्ञान हमारा साथ नहीं छोड़ेगा। लेकिन, ज्ञान उस गाड़ी पर बैठा और यह कह कर कि वह वहाँ से आ कर बाद में कहीं हम लोगों में शामिल हो जायेगा, ’नयी धारा’ कार्यालय चला गया। हम लोग मानो ठगे-से वहीं स्टेशन के बाहर खड़े रह गये।

उधर, जो आदमी गाड़ी पर पैसे लाने के लिए गया था, वह दस मिनट के अन्दर दस-दस रुपये की गड्डियाँ ले कर लौटा। फिर किराया-भाड़ा बाँटने का क्रम शुरू हुआ और थोड़ी देर के बाद नौबत यहाँ पहुँची कि हमने एक गड्डी उसके हाथ से ले ली कि बाक़ी लोगों को हम बाँट देंगे। वे दोनों गुर्गे सुख की साँस ले कर ऐसे दफ़ा हो गये मानो उनके पीछे साँप लगा हो। अब जब पैसे हाथ में आ गये तो थोड़ी राहत मिली। चूँकि ज्ञान के जाने से पहले ही राजेन्द्र नगर का कार्यक्रम बन चुका था, इसलिए हम लोग भारी दिल लिये, रिक्शों में राजेन्द्र नगर पहुँचे। पहले सामान नरेन्द्र के कमरे में फेंका गया और उसके बाद वहीं एक ढाबे में हम लोग दाल-चावल खाने बैठ गये। अभी खाना परोसा भी नहीं गया था कि हमने ज्ञान को बाहर खड़े देखा।

अब यह तो याद नहीं है कि वह उसी काली अम्बैसेडर से लौटा था, जो उसे ले कर ’नयी धारा’ गयी थी या रिक्शे से उतरा था, पर इतना मालूम है कि वह अपने सामान के साथ बाहर नज़र आया था। हम लोगों ने पेट्रोलावासियों की तरह ज़ोर का नारा बुलन्द किया और इसके बाद ज्ञान से उसका हाल-चाल पूछा। ज्ञान ने बताया कि हम सब को छोड़ कर अकेले वहाँ ’नयी धारा’ कार्यालय जाने को उसका मन नहीं माना और वह बीच रास्ते से ही लौट आया है। इस छोटी-सी घटना ने युवा लेखक सम्मेलन के दो दिनों के दौरान जमा हुई खीझ और ग़ुस्से को एकबारगी धो कर साफ़ कर दिया। हम लोगों को लगा कि ज्ञान अब भी अपने पेट्रोला और पेट्रोला के बाशिन्दों के साथ नत्थी है। सभी के चेहरे खिल उठे, ढाबे वाले को एक और पत्तल लगाने का आदेश दिया गया और खाना-वाना खा कर हम सब लोग रेणु जी से मिलने चल दिये।

रेणु जी मुझे तो बचपन से ही जानते थे, आलोकधन्वा उस ज़माने में उनके लिए लगभग शिष्यवत था और जहाँ तक मुझे याद पड़ता है कि ज्ञान से भी वे परिचित थे। सो, हम लोगों का स्वागत-सत्कार मेहमानों की तरह नहीं, बल्कि घर के छोटे सदस्यों की तरह हुआ। एक गहमा-गहमी, एक चहल-पहल राजेन्द्र नगर के उस फ़्लैट को गुलज़ार कर गयी और कई बार रेणु जी ने लतिका जी को बुला कर दिखाया कि देखो, यह वही लड़का है, अश्क जी का बेटा, जो उन दिनों जब हम लूकरगंज में कुछ समय के लिए रहे थे, तो हमारे घर आया करता था और अब इतना बड़ा हो गया है।

सब कुछ के बावजूद रेणु जी में एक आत्मीय पुरानापन था। वे राष्ट्रीय ख्याति के साहित्यकार थे और कुछ बेजोड़ कहानियाँ और दो अविस्मरणीय उपन्यास लिख चुके थे, एक बहुत रोमांचकारी जीवन बिता चुके थे और कहा जाये कि ’लेजेण्ड्री फ़िगर’ थे। हम लोग उनसे इस बात पर भी झगड़ते रहे कि उन्होंने युवा लेखक सम्मेलन के मंच से जय प्रकाश नारायण का पत्र क्यों पढ़ कर सुनाया, और जब वे जानते थे कि युवा लेखक सम्मेलन की बागडोर एक ठेकेदार किस्म के ग़ैर साहित्यिक और भ्रष्ट व्यक्ति के हाथ में है तो वे मंच पर ही क्यों गये और उन्होंने सब को असलियत से अवगत क्यों नहीं कराया ? रेणु जी मन्द-मन्द मुस्कराते हुए अपनी सफ़ाई देते रहे और चूँकि वे जानते थे कि इस तरह के सम्मेलनों से साहित्य का कुछ होना-हवाना नहीं है, इसलिए वे हमें भी इस पूरे प्रकरण को नज़रअन्दाज़ करके आगे बढ़ जाने की राय देते रहे। हमारा उनसे झगड़ा लगभग वैसा ही था, जैसा घर के बड़े-बुज़ुर्ग से छोटे सदस्यों का होता है - जिसमें मान-मनुहार के साथ राग-अनुराग की धारा भी बहती रहती है। जब शाम हो चली तो हम लोगों ने रेणु जी से विदा ली और अपना सामान नरेन्द्र घायल के कमरे से लेते हुए वापस स्टेशन आ गये जहाँ से हम सब ने रात की गाड़ी पकड़ी और घर को लौटे बुद्धुओं की तरह इलाहाबाद का रास्ता लिया।


ज्ञानरंजन के बहाने - २०


अधूरी लड़ाइयों के पार- १३

आज इतने वर्ष बाद युवा लेखक सम्मेलन को याद करते हुए कुछ बातें ज़रूर मन में उठती हैं। उस सम्मेलन में जो अराजक दृश्य देखने को मिले (जिनमें से कुछ में हम लोग बतौर कर्ता शामिल थे) और मंच पर जो गाल बजाये गये, वैसा कुछ भी इससे पहले के किसी सम्मेलन में देखने को नहीं मिला था।

इससे पहले 1957 के दोनों सम्मेलन हों या 1964-65 की इलाहाबाद, कलकत्ता और चण्डीगढ़ की कहानी परिगोष्ठियाँ, या फिर ’परिमल’ का रजत पर्व -- सब में साहित्यकार बड़ी गम्भीरता से जुटते थे, गम्भीर बातें करते थे (भले ही उनका कोई अर्थ निकले या न निकले) और सारा आयोजन ’गरिमापूर्ण’ ढंग से सम्पन्न होता था। 1970 के युवा लेखक सम्मेलन में इस सारे ढाँचे में एकबारगी पलीता लगा दिया गया। यहाँ तक कि हम लोगों में सीनियर, आदरणीय डॉ. नामवर सिंह, जो जहाँ तक मुझे याद पड़ता है 1957 के ’प्रगतिशील लेखक संघ’ के सम्मेलन के एक सत्र के संचालक भी रहे थे, यहाँ सिवा अपने ताल-तिकड़म के (जिसकी शिकायत एकाधिक लोगों ने नन्द किशोर नवल को लिख कर की जो ’सिर्फ़’ के अगले अंकों में छपी भी) और कुछ नहीं कर पाये। न तो अराजकता को काबू में कर सके, न बहसों को किसी गम्भीर दिशा में मोड़ सके और न अन्य किसी प्रकार से सम्मेलन में अपनी मेधा का योगदान कर सके। जब उनका यह हाल था तो बाकियों की तो गिनती ही क्या।

लेकिन यह सब लिखने के बावजूद इतना ज़रूर दर्ज करना आवश्यक है कि 1970 का यह युवा लेखक सम्मेलन अपनी सारी अराजकता और अगम्भीरता के बावजूद, या कहें कि उसकी वजह से, एक महत्वपूर्ण मोड़, एक प्रस्थान बिन्दु, एक ’डिपार्चर’ साबित हुआ। हो सकता है कि उस दौर की अराजकता के इस चरम पर पहुँच कर धारा फिर पलटी और एक नया युग शुरू हुआ। अकारण नहीं है कि अगले कुछ वर्षों के दौरान अनेक महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं। वे सारे लोग जो विचारशून्यता में ऊभ-चूभ कर रहे थे, धीरे-धीरे सामाजिक सरोकार और एक सच्ची प्रतिबद्ध राजनीति की ओर बढ़ने लगे। यह ठीक है कि जितेन्द्र भाटिया, विश्वेश्वर, मधुकर सिंह, इब्राहिम शरीफ़, आदि कुछ लेखक कमलेश्वर के साथ मिल कर सचेतन कहानी और समान्तर कहानी जैसे आन्दोलनों की ओर मुड़ गये, लेकिन ज़्यादातर लेखक इस आयोजन के बाद एक तरीके से आत्म-मन्थन की प्रक्रिया से गुज़रे और पिछले दौर की अराजकता और विचार शून्यता को झटक कर यथास्थिति के सच्चे विरोध की दिशा में आगे बढ़े। यह एक तरीके से इस सम्मेलन का एक पॉज़िटिव परिणाम था।

अकारण नहीं है कि इसी के बाद 1972 में प्रगतिशील लेखकों का एक बड़ा जमावड़ा बाँदा में हुआ, जहाँ कुछ और शिकनें सीधी की गयीं। इस बीच देश के हालात भी एक दूसरी दिशा की ओर बढ़ रहे थे जो अन्ततः आपातकाल में परिणत हुई। इन नयी स्थितियों से जूझने के लिए भी छोटे-बड़े पैमाने पर लेखक आपस में मिल-बैठने लगे। ’परिमल’ तो 1970 में ही दिवंगत हो चुकी थी, लेकिन ’परिमल से जुड़े लेखक तब भी मौजूद थे और उनके लिए इन नयी स्थितियों से अकेले दम मुकाबला करना सम्भव नहीं था। इसीलिए 1974 में इलाहाबाद में आपातकाल से ठीक पहले जो सम्मेलन हुआ, उसमें ’परिमल’ के सदस्य और प्रगतिशील लेखक बराबर से शरीक हुए, क्योंकि अब जो स्थिति विकसित हो रही थी, उसमें दोनों के ही अस्तित्व ख़तरे में थे।

1974 के इस सम्मेलन में मुझे याद पड़ता है कि कांग्रेसपरस्त लेखक, मिसाल के तौर पर राजेन्द्र अवस्थी और रवीन्द्र कालिया और उनके कुछ अन्य साथी, बिलकुल अलग-थलग पड़ गये थे। मगर वह एक अलग ही प्रसंग है और उसकी चर्चा फिर कभी। लेकिन इतना ज़रूर है कि 1970 के युवा लेखक सम्मेलन ने नन्द किशोर नवल के परिपत्र की उस स्थापना को पूरी तरह झुठला दिया था कि ’विभिन्न विचारों के लेखकों में भी एकता या समानता है’ और इसीलिए 1970 के बाद के युग में हमें धीरे-धीरे लेखकों के एक एमॉर्फ़स समुदाय की बजाय विचारों के हिसाब से एक ध्रुवीकरण नज़र आने लगता है। इसी दौर में भोपाल का घराना ’परिमल’ का स्थानापन्न बन कर उभरता है और धीरे-धीरे प्रगतिशील लेखकों के भी तीन संगठन उभर कर सामने आते हैं। ’नयी कहानी’ और ’नयी कविता’ ही नहीं, ’अकविता,’ ’अकहानी,’ ’समान्तर कहानी,’ ’सचेतन कहानी’ और भूखी पीढ़ी, नंगी पीढ़ी, आदि, सब-के-सब ताक पर धर दिये गये। बाद में जनवाद और रूपवाद जैसे कुछ शब्द भले ही इस्तेमाल हुए, मगर अब साहित्यिक सरोकारों की अहमियत बढ़ चली। ’वाद’ और ’आन्दोलन’ किनारे छूट गये और साहित्यिक परिदृश्य एक बार फिर समाज की तरफ़ उन्मुख हुआ, तीन प्रमुख और बुनियादी चिन्ताएँ, जो मध्यकाल से ही हमारे साहित्य का प्रमुख सरोकार रही थीं - धर्म यानी साम्प्रदायिकता, वर्णव्यवस्था यानी जातिवाद, और स्त्रियाँ -- एक बार फिर केन्द्रीय चिन्ताओं में शामिल हो गयीं। एक दूसरे तरीके से कहा जाय तो 1970 से पहले की दुनिया पुरानी दुनिया थी और उसकी तरफ़ लौटना सम्भव नहीं था। रास्ता सिर्फ़ आगे जाता था और थोथी आदर्शवादिता और भाववाद की जगह एक ज़्यादा यथार्थवादी दृष्टिकोण इस दौर में विकसित हुआ।