31 का महीना / लता अग्रवाल
कान्ता ने अपने कई सुख-दुख मुझसे साँझा किए हैं, मैंने भी जहाँ तक हो सका अपना सखि धर्म ईमानदारी से निभाया है। किन्तु आज जाने क्यों महसूस हुआ कि कुछ तो है जिसे कांता छिपाने का प्रयास कर रही है एक झिझक, संकोच-सा मुझे उसके चेहरे पर दिखाई दिया। वह बार-बार ऊपर चढ़ाव की ओर टकटकी लगा रही थी। तभी पोती रिंकू भोजन की थाली लेकर नीचे आती दिखाई दी। लगा जैसे कांता इसी अनहोनी को रोकना चाहती थी।
"दादी! दादी! मम्मी ने आपके लिए खाना भेजा है, खा लीजिए।"
रिंकू कांता के छोटे बेटे की इकलौती बेटी है जो ऊपर वाली मंज़िल में रहता है। कांता मेरी सखि, रामेश्वरजी की पत्नी जो कभी किराने की दुकान किया करते थे। सुख और शांति से बीतते दिन शायद विधाता को रास न आए, अच्छी भली गृहस्थी में तूफान आ गया। रामेश्वरजी ने बीच गृहस्थी छोड़ बैकुंठ का रास्ता अपना लिया। पति के न रहने पर स्त्री की दशा किसी से छिपी नहीं है, समय बदला है मगर इतना भी नहीं ...घर-घर मिट्टी के सकोरे हैं। मैं कान्ता के चेहरे पर उभरी चिंता की लकीरें भली-भांति देख पा रही थी। वह बात को नज़र अंदाज़ करते हुए बोली-
" रमा! पिछले कुछ दिनों से घुटनों का दर्द काफ़ी बढ़ गया है सो ऊपर जाने-आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही सोचा खाने की थाली यहीं मँगा लूँ। वैसे भी बुढ़ापे में ऊपर-नीचे करने की उम्र तो रही नहीं, अब तो एक जगह बैठकर बस भगवान का नाम ले लूँ और क्या चाहिए। कहने को तो कह गई कांता मगर जाने क्यूँ मुझे ऐसा लग रहा था कि मानो वह गीले आटे पर पलेथन लगा रही है।
"पन्द्रह दिन राजू के यहाँ से थाली आ जाती है, 15 दिन मन्नू के यहाँ से ...बस आराम से समय गुजर जाता है।"
"और जो कहीं 31 का महीना हो तो... मैंने तो हँसी-हँसी में यूँ ही कह दी थी ये बात मगर तभी रिंकू बोल पड़ी।"
"...तो दादी उपवास रख लेती हैं।"
मैं रिंकू का मुँह ताकती रह गई और कांता ...वह तो मानो कोई जुर्म करते पकड़ी गई हो, चेहरा सूख गया लगा किसी ने उसे निर्वस्त्र कर दिया... जैसे बरसों से संजोई पूँजी किसी ने लूट कर उसे कंगाल कर दिया हो। सच भी है, आज तक कांता ने कभी घर और परिवार के बारे में कोई ऐसी बात किसी के सामने नहीं की जिससे भेद खुले कि उसके नसीब में भी मिट्टी के ही सकोरे आए हैं।
किन्तु आज नादान बच्ची ने एक पल में सारे भेद खोल दिए।
कांता के परिवार से हमारा नाता उस समय से है जब वह ब्याहकर आई थी उसके और मेरे ब्याह में चार माह का ही तो अंतर था। दोनों के पति अच्छे मित्र थे तो हम दोनों भी हम उम्र होने से अच्छी सहेलियाँ बन गईं। किन्तु विवाह के पाँच बरस बाद ही कांता के जीवन में वह तूफान आ गया जिसकी उसने कभी कल्पना नहीं की थी। तभी से उसने अपने सारे अरमान, शौक, तख़्ता बेलन के नीचे दबा दिए। अपने ग़मों को छिपा बच्चों के लिए खुशियाँ तलाशती रही। धीरे-धीरे वह वक़्त पर अपनी पकड़ बनाने की कोशिश करती और काफ़ी हद तक सफल भी रही। यह तपस्या का वक़्त था बिना पति के दिन-दूनी रात चैगुनी बढ़ती मंहगाई में दो बच्चों की जिम्मेदारियों को निभाती। सोचती उसके राजू-मन्नू का उचित पालन-पोषण ही उसकी तपस्या है।
यूँ भी पिता की छत्र-छाया से महरूम बेटे समय से पहले ही बड़े हो जाते हैं। कांता के बेटे भी जल्द ही समझदार हो माँ की जिम्मेदारियों को साझा करने लगे। अब कान्ता केवल शाम को किराने की दुकान पर बैठती अन्यथा सारा दिन घर की सार सम्हाल में लगी रहती। बेटों के बड़े होने से कान्ता के सपनों के दायरे भी बड़े होने लगे। उसे लगा उसका परिवार भी अब बड़ा होना चाहिए। उसका घर भी पोते-पोतियों से आबाद होना चाहिए। आख़िर अपनी आँखों के टूटते सपनों को उसने अपने बेटों की आँखों में ही तो संजोया था।
वक्त सम्हलते ही रिश्ते ख़ुद ब ख़ुद सम्हलने लगे। कान्ता के बेटे भी कामयाबी की सीढ़ी चढ़ने लगे थे। जवान भी हो गए और कमाऊ भी। जिनकी नजरों में कभी उपेक्षा की पात्र रही कांता और उसके बेटे आज उन्हीं की निगाहें उन पर जमने लगी। इन सबसे बेख़बर कांता की निगाह एक ऐसी लड़की तलाश रही थी जो उसके घर की मान-मर्यादा को सलामत रखते हुए कुल की ज्योत को जलाए रख सके। बच्चे अभी तक माँ के दामन से बंधे थे सो रोज़ की आमदनी कांता के हाथों में आती वह दमड़ी-दमड़ी जोड़कर आने वाली बहुओं के लिए गहने बनवाती। अपने रंगों का संसार तो उसने उसी दिन त्याग दिया था जब रामेश्वरजी ने उससे नाता तोड़ा था अब तो उसकी बस यही मंशा थी कि उसके हिस्से के सारे रंग उसके दोनों बेटों के संसार में सिमट आएँ।
बड़े चाव से कांता ने एक-एककर दोनों बेटों का ब्याह कर दिया। दो बहुओं के आते ही घर की परिभाषा बदलने लगी। कभी श्री और समृद्धि का प्रतीक कांता का घर अब कभी मौन द्वंद का अखाड़ा बन गया, कभी आस-पड़ौस के तमाशे का कारण, खाना बनाने को लेकर तो कभी छोटी-छोटी बातों को लेकर सदा किच-पिच मची ही रहती अब कांता करे तो क्या करे। किसके लिए कहे जिसकी गलती बताए उसी से बुरी। छोटे-मोटे झगड़े तो राज-मन्नू के बीच होते ही रहे हैं और वह उन दोनों को डाँट भी देती थी अधिकार से ...आखिर उसके अपने बेटे थे ... प्यार के साथ मार-फटकार पर भी उसका अधिकार था। ये तो पराए घर की अमानत है जिन्हें कांता ने भले ही दिल से स्वीकारा मगर संजना और वर्षा की आँखों में उसे कभी अपने लिए वह अपनापन दिखाई नहीं दिया सो वह भी उन्हें अधिकार से कुछ कहने में डरती थी।
बड़ी मुश्किल से परिवार की गाड़ी पटरी पर आई थी, एक बार फिर पथरीली राहों में हिचकोले लेने लगी। रामेश्वरजी के जाने के बाद भी इतनी अशांति नहीं आई थी घर में जितनी अब आई ...क्योंकि उस वक़्त सदबुद्धि ने साथ नहीं छोड़ा था। बेटे माँ की हर आज्ञा का पालन करते थे। अब वही बच्चे पति हो गए हैं इसलिए कांता बेटों से भी कुछ कहते भय खाती थी। शायद अब उसे बच्चों की आँखों में अपने लिए वह श्रद्धाभाव नज़र नहीं आता था। वह अपनी ओर से बराबर रिश्तों को नमी देती रही मगर बेटों और बहुओं के व्यवहार से घर की ज़मीं पर आए रूखेपन को रोक न सकी देखते ही देखते घर द्वंद स्थल बन गया, कई विद्रोह के केक्टस वहाँ उग आए, अब तन की ही नहीं मन की भी दूरी बढ़ती जा रही थी। रहा सहा दोनों बेटों की ससुराल वालों का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा था। उस कुरूक्षेत्र में अब कांता का मन लगता भी नहीं था मगर करती भी क्या...? जाती भी तो कहाँ जाती...? कोई और जहाँ उसने बसाया भी नहीं उसका मंदिर...तीर्थ ...समाज...सभी कुछ तो इन्हीं दो बेटों के आस-पास ही थी।
सोचती जाने किस की नज़र लग गई उसके परिवार को...मनोयोग से लगाई उसकी फूलों भरी बगिया में जाने कहाँ से खरपतवार उग आई। कांता ने अपनी ओर से पूरा प्रयास किया इन दूरियों को मिटाने का मगर पास आने की संभावनाएँ सभी समाप्त हो चुकी थी। संभावनाएँ भी तभी पनपती है जब उनके लिए दिल से प्रयास भी हो। कांता ने हार कर मान लिया कि अब उसके घर रिश्तों की दीवारों में दीमक लग गई है वह भीतर ही भीतर खोखली हो चुकी है कोई वस्तु होती तो वह धूप में सुखाकर दीमक को नष्ट करने हेतु कुछ जतन भी करती मगर यह तो मन की खाई है इसे पाटना अब उसके बस में नहीं। मन पर बोझ रख उसने दोनों का चौका चूल्हा अलग कर दिया संजना और वर्षा को मानो मांगी मुराद मिल गई। मगर कांता समझ नहीं पा रही थी कि अब वह क्या करे तभी दोनों बेटों ने कहा,
"तू क्यों चिंता करती है माँ! तू तो बस आराम से बैठ कर भगवान का नाम ले, दोनों बहुएँ हैं ना... तेरे खाने-पीने का ध्यान रखने के लिए।"
क्या कहती कांता खाने की भूख रही ही कहाँ, अब तो बस इस तन को जीवित रखने के लिए खाना है। तभी झट वर्षा बोल पड़ी,
"हाँ मांजी! सच ही तो कह रहे हैं ये...आप क्यों परेशान होती हैं बस पन्द्रह दिन बड़े भैया के यहाँ खाना और पन्द्रह दिन हमारे यहाँ, अब आपको ऊपर आने की तकलीफ भी नहीं करनी होगी ...मैं यहीं आपकी थाली भिजवा दिया करूँगी।"
...सुनते ही कांता को अपनी जमीनी हक़ीक़त का एहसास हो गया। सामने खड़े बेटे माँ को बंटते देख रहे थे और मौन थे इससे बड़ा दुर्भाग्य एक माँ का और क्या होगा...? जिन बच्चों को अपने हिस्से के निवाले खिलाकर पाला आज वही बच्चे माँ के निवालों के हिस्से कर रहे हैं।
परंपराएँ समय के साथ बनती और पलती चली जाती हैं। इस घर में भी अब नई पीढ़ी ने नई परंपराएँ चलन में ला दी। पन्द्रह दिन कांता राजू के यहाँ से थाली आने का इंतज़ार करती पन्द्रह दिन मन्नू का ... पति ने मझधार में छोड़ दिया, बेटों ने बहूओं के भरोसे छोड़ दिया, किन्तु कांता ने अपना स्वाभिमान नहीं छोड़ा था सो फिर कभी बहुओं की रसोई में झाँकने नहीं गई। फिर आया इक्कतीस का महीना... आज सुबह से दोपहर हो आई अभी तक न तो संजना ने थाल भिजवाया न ही वर्षा ने...पता नहीं शायद भूल गई हो। कांता ने पोते-पोतियों को आवाज़ लगाई।
"क्या हुआ दादी...?"
विजय का बेटा रजत और संजय की बेटी रिंकू झट से आ पहुँचे, कांता ने पूछा,
"बच्चों खाना खा लिया...?"
"हाँ! दादी कभी का...और आपने...? आज तो वर्षा चाची ने खीर बनाई है रजत बता रहा था। बड़ी अच्छी खीर होगी न दादी...?" तभी रजत बोला,
"अरे! नहीं आज तो संजना ताई की बारी थी दादी को खाना देने की...?"
कांता दोनों बच्चों के मुँह ताकती रह गई। स्वयं को बेआबरू महसूस कर रही थी ...बच्चों से निगाहें मिलाते उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। मानो गुनाह उसी ने किया है। वह झट से बोली,
"बच्चों आज मुझे खाना नहीं खाना है।"
"क्यों दादी...?"
"आज मेरा उपवास है।"
अबोध बच्चे शब्दों की गहराई भला क्या जानते। सो हँसते-खलते आगे बढ़ गए।
कांता को लगा एक बार फिर वह बेवा हो गई। बल्कि उस वक़्त इतनी जिल्लत का सामना तो नहीं किया था। जितना आज...दो-दो बेटों की माँ होकर भी आज उसकी दो वक़्त की रोटी का हिसाब किया जा रहा है। बहुओं को क्या दोष दूँ वे तो पराई हैं... बेटे तो अपने हैं जो कभी माँ के बगैर खाना नहीं खाते थे क्या आज उन्हें इतनी भी चिंता नहीं कि जान सके माँ ने खाना खाया या नहीं ...?
धीरे-धीरे कांता को हर 31 वे दिन उपवास रखने की आदत-सी हो थी।
आज उसी कांता का बारहवां है। घर में व्यंजनों की महक आ रही थी। दोनों भाई दौड़-दौड़कर पंड़ितों की फरमाइश पूरी कर रहे हैं जग के बनाए संस्कार निभा रहे हैं। उस पर महान आश्चर्य कि दोनों बहुएँ आज हर बात पर एक मत हो सारे लड़ाई-झगड़े बिसराकर काम में लगी है। कांता के नाम से ब्राहमणी जिमाई जा रही हैं। उनकी इसी एकता को देखने के लिए कांता की आँखें तरस गई। सच! यह मुर्दों का देश है जहाँ जीते इंसान को मरने के लिए विवश किया जाता है और मरने के बाद उसके नाम से सारे ढ़ोग दिखावे किए जाते है जीते को डरे मरे को बरे। यह कहावत शायद किसी ने जीवन के गहरे अनुभवों से कही है।
पंड़ितों के आदेश पर दोनों बहुओं ने गौ-ग्रास और कौवे के ग्रास पत्तल पर लगाए। मैं चूंकि कांता की सबसे करीबी सखी मानी जाती थी सो बहुएँ और बेटे जो कभी संभव है मुझे आँखों की किरकिरी मानते रह हों आज मासीजी! कुछ कमी रह गई हो तो बताइए... हमने अपनी ओर से पूरी कोशिश की है कि मम्मीजी को जो चीजें अच्छी लगती है वह सब बनवाई है। वहीं राजू-मन्नू भी मासीजी! कोई कमी हो तो बता देना ...मैं क्या कहती बेटा जो कमी रही है उसे तुम अब कभी पूरा नहीं कर सकते। जिस औरत ने तुम्हें अपने आँचल की छाँह दी, अपने हिस्से की नींद दी, अपनी खुशियाँ निछावर कर अपने सारे निवाले तुम्हारे नाम कर दिए। उन सबसे बड़ी बात इस दुनिया में तुम बिन बाप के होकर भी अपने कदमों पर चल सके। ...उस औरत की बदौलत जिसको तुमने जीते जी दो वक़्त की रोटी में बाँट दिया। मगर चाहकर भी कुछ नहीं कह पाई। बस इतना ही कहा,
" राजू! मन्नू! बेटा दोनों भाई मिलकर ये पत्तल ऊपर ले जाओ और कौओं को बुलाकर खिला आओ। कौओं का पत्तल झुठाना बहुत ज़रूरी है और संजना और वर्षा तुम ये गौ ग्रास बाहर जाकर गाय को खिला आओ। मान्यता है कि इससे मृत व्यक्ति को तृप्ति मिल जाती है। वह परलोक में भोजन पाता है। संजना और वर्षा पूरी गली में घूम आईं ...
"मासीजी! गली में दूर-दूर तक कहीं गाय नज़र नहीं आ रही।" वहीं दोनों बेटे भी ऊपर से उतर आए बोले बहुत आवाज़ लगाई कांव...कांव...मगर एक भी कौआ नज़र नहीं आया। पंडितजी कह रहे थे,
"अरे! यह तो अच्छा शगुन नहीं कि न तो गाय ने ग्रास खाया न ही कौए ने।" इसका मतलब है मृत व्यक्ति ने भोजन नहीं स्वीकारा।
तभी रिंकू और रजत जो काफ़ी देर से सभी की बातें सुन रहे थे बोले,
" अरे! नहीं पंडितजी आज 31 तारीख है ना! ...आज न दादी का उपवास रहता है इसलिए... ।