377 / मनोज शर्मा
कोई ऐसा है या वैसा है या उस जैसा नहीं है पर शायद कुछ तो अलग है। किसी का होना और सब जैसा होकर रहना तो सामान्य-सी बात है पर अलग होने में बात ही कुछ अलग है और फिर कुछ होना कुछ न होने से अधिक बेहतर है किसी का होना ही सार्थकता है और यही सत्य है।
कमरे से बाहर बाॅलकानी की और बढ़ते हुए शार्लिन ने रेलिंग को छुआ और बाहर की ओर ताकने लगा। सिगरेट का कश खेंचते हुए
उसने मेरे उदास चेहरे की ओर को देखते हुए पूछा क्या हुआ?
आज फिर बात हुई क्या? घर वालो से
वासु (मैं) चुपचाप देखता रहा!
कुछ बताओं भी? पूछते हुए शार्लिन ने धुंआ बाहर उड़ेल दिया।
क्या हमारा ऐसा होना कोई पाप है? हमने क्या गुनाह कर दिया?
ऐसा होना! क्या बहुत बड़ी कमी है हममे?
शार्लिन गंभीरता से देखते हुए कमरे में लौटकर बिस्तर पर बैठ गया। डायरी को खोलकर किसी ख़ास पेज पर बने सर्किल को गहराई से देखने लगा।
सिगरेट के अंतिम कश को पीकर उसने पास रखी ऐश्ट्रे में बुझा दिया और मेरी तरफ़ देखकर
वोला!
अच्छा तुम बताओ?
क्या चाहते हो?
सिगरेट के अंतिम ज़र्रे ऐश्ट्रे में दम तोड़ रहे थे कम होता धुंआ कमरे में घिरकर सिमटने लगा था।
मैंने शार्लिन से कहा!
तुम तो खुश हो ना!
ये कैसी बात कर रहे हो? शार्लिन ने डायरी को बंद करते हुए पूछा।
तुम मुझे कितने सालों से जानते हो? शायद सात या इससे भी अधिक?
हाँ हाँ फिर? शार्लिन चौंककर बोला।
नहीं नहीं जाने क्यों लगा कहीं तुम भी मुझसे ख़फ़ा तो नहीं।
कोई बात हुई क्या पापा से कल? शोर्लिन ने मुझे देखते हुए पूछा!
उनका फ़ोन आया था?
हाँ! बात हुई थी!
बल्कि मैंने ही फ़ोन किया था उन्हें। वो मुझसे खुश नहीं है शायद जैसा मैं हूँ उससे!
उन्होंने मुझे नहीं सुना!
मैं जैसा हूँ! उन्हे वैसा नहीं चाहिए। शायद मुझसे कुछ दूसरी ही उम्मीद है!
कैसी उम्मीद
और हाँ!
तुम कैसे हो? मेरे जैसे ही तो हो!
फिर? शार्लिन ने मुझे घूरते हुए पूछा!
शायद उन्हे ऐसा नहीं चाहिए चूंकि मेरे भाई और बहन तो ऐसे नहीं!
मतलब मेरे जैसे!
यार वासु तुम क्यों स्वयं को दूसरे से भिन्न मानते हो! अच्छी शिक्षा है और सबकुछ अच्छा ही तो है।
क्या मेरे से कुछ ग़लती हुई?
जो है वह न होने से बहुत ठीक है उन्हे देखो जिनके पास कुछ नहीं! ना हाथ-पैर न बोलने की शक्ति न कमाने का कोई साधन! बस जीते हैं जैसे तैसे।
और फिर तुम उन सबसे बात ही क्यों करते हो? शार्लिन ने प्रश्न पूछने के अंदाज़ से मुझसे कहा!
जब-जब तुम उन सबसे या उनमें से किसी से भी बात करते हो यही सब होता है। पिछली मर्तवा भी! शार्लिन बोलते-बोलते रूक गया!
मैं क्या करूं? शार्लिन अब ऐसा होने में मेरी क्या ग़लती है ज़रा बताओ अब तो सरकार ने भी हमें और हम जैसे सभी को जीने की मंजूरी दे दी! और यहाँ तक कि तुम्हारे साथ अच्छे से जी रहा हूँ बिल्कुल विनय और रिया कि तरह फिर उन लोगों को मुझे ऐसा स्वीकारने में क्या हर्ज है और फिर ना भी स्वीकारें मेरी बला से!
मेरा हक़ तो मुझे दें जैसे विनय और रिया को दे रहे हैं और शायद ज़िन्दगी भर देंगे।
हर बार तुम जब भी बात करते हो ना वही पुरानी चूं-चूं शुरू हो जाती है कभी तुम्हारे पिता कि ओर से तो कभी भाई-बहन की तरफ़ से! शार्लिन ने सहानुभूति भरे शब्दों में मुझे छूते हुए कहा।
वासु अब जो है यही है इसे नहीं बदला जा सकता है हम अपने आचरण को बदल सकते हैं पर किसी की सोच को नहीं और फिर उन सबने
तो यह सोच बना ही रखी है कि तुम्हें नहीं स्वीकारना फिर भी तुम?
शार्लिन के शब्दों में मानो यथार्थ छिपा हो जैसे बंद कमरों में नीली रोशनी फैल गयी हो।
वो खिड़की से बाहर झांकने लगा कमरे में चुप्पी पर अंतर्मन में गहरा द्वंद्व!
खिड़की से बाहर पक्षियों का झुंड पंक्तिबद्ध इधर से उधर दौड़ रहा है बिना किसी ठौर के यहाँ से वहाँ। बादलों के बड़े पठार छोटे खंड़ों को मिटाते आगे बढ़ रहे हैं कुछ भी एकसमान नहीं पहले-सा।
फोन की घंटी सुनता हुआ शार्लिन फ़ोन उठाता है
हेलो!
शार्लिन!
यस! आप कौन?
शार्लिन मैं वासु का फादर! आवाज पहचानने की कोशिश करते हुए शार्लिन ने कहा!
ओ अंकल! आप
गुड़ मार्निंग!
हाँ बोलिए ना!
क्या वासु से बात करना चाहेंगे?
वासु मुहं हिलाकर मना कर देता है शार्लिन उसके चेहरे को देखते हुए!
हाँ अंकल मैं वासु को मैसेज देता हूँ!
यस यस आपको काॅल के लिए बोलता हूँ!
हाँ ओके।
यस ऑल ओके!
जी! फोन कट करते हुए वासु के कंधे पर हाथ रखता पुनः पूछता है।
बताओ क्या हुआ इस बार!
क्यों नहीं तुम्हारे फ़ोन पर काॅल किया उन्होंने!
मुझे लग रहा है वह गुस्से में थे! किसी वकील बगैरह की बात उनके मुहं पर ...!
ख़ैर छोड़ो तुम बताओ क्या हुआ!
शार्लिन ने ज़ोर देते हुए पूछा
क्या कह रहे हो किसी वकील की बात कर रहे थे?
मैं अभी काॅल करता हूँ ठहरो!
वासु रूको पहले मुझे बताओ। क्या बात बढ़ गयी थी क्या ज़्यादा ही।
हाँ शार्लिन वह बोलते हैं तुम हमारी काॅम्युनिटी के नहीं हो इसलिए तुम मेरे परिवार का हिस्सा भी नहीं हो! तुम गे हो और तुम हम जैसे नहीं हो इसलिए तुम्हारा हमारा अब कोई लिंक नहीं।
शार्लिन गंभीरता तोड़ते हुए बोला!
मतलब हम इंसान नहीं है क्या हमारे अंदर दिल नहीं कोई ज़ज़्बात नहीं। वह वकील की बात कर रहे थे? क्या यही बात थी क्या?
मतलब अब वह हमें जेल भिजवाएंगे चूंकि हम उन जैसे नहीं। और क्योंकि हम गे हैं केवल इसलिए। उन जनाब को इतना नहीं मालूम शायद हम आज़ाद देश के वाशिन्दे हैं हम भी वकील कर सकते हैं और अपने अधिकारों से उन्हें अवगत करवा देंगे।
वही तो! वासु चुप्पी तौड़ता बोला!
वो मेरे दादा जी की सम्पत्ति में से बेदखल कर रहे हैं और बोलते हैं कि मैं उस परिवार का हिस्सा ही नहीं हूँ अब चूंकि मैं एक गे हूँ तो मेरा उनकी सम्पत्ति में कोई हिस्सा नहीं!
शार्लिन प्लीज वकील साहब को फ़ोन लगाओ मैं तो कहता हूँ एक बार आज मिल ही लेते हैं उनसे!
शार्लिन चुप होकर कुछ सोचने लगता है!
तुम क्या सोच रहे हो शार्लिन?
अब क्या हम अच्छे से जी भी नहीं सकते!
बचपन से बारह तेरह साल जब हम उनके साथ थे तब सबकुछ उन्हें सही लगता था हम पर नाज़ करते थे। रोज़ नये खिलोने कपड़े मिठाइयाँ आदि मुहैया कराई जाती थी पर जैसे ही हमारे गे होने का पता चला उन सब लोगों ने हमें ऐसे दूर कर दिया जैसे दूध से मक्खी दूर की जाती है।
शार्लिन एक कुशल वक्ता कि भांति बोलता रहता है!
हम क्या बीमार हैं?
अपराधी हैं?
बलात्कारी है?
या सड़कों पर नंगे घूमते हैं दूसरों को तंग करते हैं।
हमें भी जीने का हक़ है दूसरों की तरह!
पर शायद उन्हें इस बात का एहसास नहीं!
हम भी वकील के सहारे अपना हक़ ले सकते हैं और वह लोग सब हंसकर देंगे।
कहे देता हूँ वासु घबराओं नहीं तुम!
अगर तुम्हारा बाप न होता तो अभी ही बता देता। पर ...! इनको जितनी इज़्ज़त दो उतना ही हमें बेइज़्ज़त करते है। सब साले छोटी सोच वाले हैं जिसे देखो हमे बेइज़्ज़त करने पर तुला है और अब तो अपने घर वाले ही!
सामने खुंटी पर लटके तौलिये को समेटता शार्लिन चुप होता है पल भर तौलिये को हाथ में लेकर देखता है और फिर बाथरूम की ओर बढ़ते हुए वासु को कहता है!
मैं शाम को अमरकांत जी से मिलता हूँ
कौन अमरकांत? वासु रोकते हुए पूछता है।
अरे वही अपने वकील साहब जो पहले भी हम लोगों के लिए लड़ थे जब मकान मालिक हमें घर छोड़ने के लिए बाध्य कर रहे थे?
भूल गये क्या?
ओह अच्छा उनका नाम अमरकांत है?
साॅरी मेरे दिमाग़ से नाम फिसल गया था।
बिल्कुल मैं भी शाम को आ जाता हूँ वासु शार्लिन को देखते हुए बोलता है।
शार्लिन पल भर में बाथरूम में घुस जाता है।
बाथरूम के शावर से निकलते छींटे बाहर के सूनेपन में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। वासु बाहर चुप है और अंदर बाथरूम में शार्लिन!
बीच में केवल एक दीवार और दीवार के उसपार शावर और सन्नाटा तौड़ती बूंदे!
शावर की ठंडी बूंदें जैसे-जैसे शार्लिन के बदन पर गिरती है उसके वहाँ होने और सिसकियों से सिमटने की आवाज़े मानो नेपथ्य में नाद कर रही हो।
वासु संपूर्ण कमरे में झांकता हैं जैसे सबकुछ अनजाना हो बिल्कुल नया-सा। जैसे सात-आठ साल पहले हो गया था बिल्कुल तन्हा-सा। जब घर छोड़ने के लिए उसे विवश किया जा रहा था। वो घर में ही किसी अपराधी की भांति हो गया था। ना कोई बात करता था ना संग रहता था और फिर एक दिन भाई-बहन ने भी उसे अपने कमरे से निकाल दिया था। माता-पिता ने भी उनको समझाने की जगह मुझे ही निकल जाने के लिए बाध्य कर दिया था। पहले दो रोज़ बीते फिर तीन चार और महीने साल पर किसी ने मेरी कोई सुध नहीं ली।
अगर शार्लिन न मिलता तो शायद आत्महत्या ही कर लेता। शायद कोई किसी का नहीं सब मतलबी है दंभी है घृणित है। हर और दिखावे से भरी ज़िन्दगी है सबके हृदय कुत्सित है।
शार्लिन ऑफिस के लिए तैयार हो जाता है नाश्ते के बाद वह वासु के करीब आकर उसकी आंखों में झांकता है और उसके माथे को चूम लेता है। उसको प्रेमवश गले लगाकर कहता है वासु तुम बिल्कुल भी चिंता न करो! मैं तुम्हारे साथ हूँ। हम दोनों एक हैं ज़्यादा न सोचो! अब मैं सब ठीक कर दूंगा। अच्छा मैं ऑफिस चलता हूँ शाम को अमरकांत से मिलना है! हो सके तो तुम साढ़े छह उनके निवास पर पहुँच जाना। एड्रेस डायरी में है और दूध पी लेना गर्म है ध्यान से दो टोस्ट भी साथ है प्लेट में!
अब मेरे भाई हंस भी दो मेरी जान हो ना?
शार्लिन ने मुस्कुराते हुए कहा!
उसकी अंगुलिया दबाता दरवाजे से बाहर निकलता है!
वासु दरवाजे से बाहर आकर शार्लिन को सीढ़ियों की ओर बढ़ते देखता है। दोनों के हाथ हवा में लहराते हैं होठ चुप हैं पर शार्लिन की आंखे मुस्कुरा रही है। वासु की उद्गिनता पहले से कम दिख रही है।
ठीक साढ़े छह बजे अमरकांत के घर के पास ही शार्लिन वासु को करीब देखकर खुश हो जाता है जैसे दफ्तर के बाद की सारी थकावट छूमंतर हो गयी हो। वासु ने अपनी हथेलियाँ शार्लिन के हाथों में रख दी। दोनों के क़दम अमरकांत के घर की ओर बढ़े और वह दरवाजे को खटखटाने लगे।
लंबे गलियारे से गुजरती एक आकृति सामने प्रकट हुई। चश्मा साफ़ करके हुए उस आकृति ने
दरवाजा खोला।
उम्र करीब पचपन चेहरे पर मोटी मूछ और मोटा चश्मा दायीं और ठुड्डी पर गहरा काला मस्सा!
लंबे मुड़े बाल और सिर के बीच के कुछ बाल गायब।
दोनों को देखते ही!
शार्लिन आ गये!
व्हअट ए प्लीजैंट सरप्राइज?
टाइम के पक्के हो! बिल्कुल पंचुअल
अरे वासु तुम भी!
नाइस टू-सी बाॅथ ऑफ यू।
वैलकम डयूडस
कम इनसाइड बाॅय!
तीनों अंदर बढ़ते हैं सोफे पर बैठते हुए शार्लिन ने अमरकांत को पहले बैठने का आग्रह किया।
ओ सिट माई सन
प्लीज सिट।
कहो सब ठीक-ठाक?
ओके वेट! बताओ क्या लोगे?
टी ओर काॅफी?
वासु शार्लिन की और देखता है फिर दोनों अमरकांत की ओर देखकर मुस्कुराते हुए बोले।
नो नो अंकल! कुछ नहीं प्लीज तक्कल्लुफ न कीजिए।
बहादुर?
बहादुर?
एक छोटे कद का युवक दौड़ता हुआ प्रकट होता है!
जी सर! पहले शार्लिन की ओर देखता है पर फिर अमरकांत की तरफ़ देखकर यस सर! बोलता है।
जल्दी तीन काॅफी ले आओ
और हाँ मेरी काॅफी में दुध कम हो।
बहादुर सुनकर लौट जाता है।
सोफे पर लगभग फिसला हुआ अमरकांत
सिगरेट को दियासलाई से सुलगाकर होठ के दायिने सिरे पर रख लेता है धुंआ बाहर फेंकता हुआ पूछता है कहो वासु क्या इश्यू है। खुलकर बताओ! कुछ भी ना छिपाना मुझसे।
ओके सर! वासु अमरकांत को देखकर बोलना आरंभ कर देता है।
वकील अंकल एक बात बताइये?
सिगरेट का अगला हिस्सा लाल गर्त से भरा है अमरकांत के लंबे कश खींचते ही वह गर्त कमरे में सफेद धुएँ में बह गयी सिगरेट का अगला कोर सुर्ख लाल होता चला गया हवा में चुटकी बजायी और वासु को देखकर बोले!
यस वासु!
क्या हम इंसान नहीं? या किसी आदमी की औलाद नहीं?
क्या हमारा होना एक कलंक है हमारे समाज पर?
अमरकांत गंभीरता से देखता रहा।
क्या यह ज़रूरी है कि ज़िन्दगी मनमाफिक हो सामान्य हो या दूसरों की सोच के अनुरूप हो।
क्या हमारा जीना कोई जीवन नहीं है! हमारा होना या ना होना कब तक और किसके लिए है केवल हमारे समाज तक?
क्या कोई किसी को लाभ पहुँचाएँ बच्चे पैदा कर सके या माँ बाप बन सके बस इनका ही धरती पर आस्तित्व है, हमारा कुछ नहीं?
बहादुर सामने टेबल पर काॅफी रख देता है! अमरकांत काॅफी की तरफ़ देखकर उसे वहाँ से जाने को बोल देता है। बहादुर तीनों को देखता हुआ लौट जाता है।
काॅफी के कप को उठाने का निर्देश देते हुए अमरकांत वासु को कान्टीन्यू करने को बोलता है।
वकील अंकल बताइये क्या हम विनय रिया कि तरह नहीं है हमारी भी परवरिश उन जैसी ही तो
हुई है? फिर मेरे साथ ऐसा वर्ताव क्यों?
विनय रिया कौन है?
अमरकांत ने सिगरेट की राख झटकते हुए उत्सुक्ता से पूछा!
विनय रिया मेरे भाई बहन! वासु ने शालीनता से दोहरा दिया।
ओह यस-यस तुमने एक मर्तवा बताया था!
आई नो! आई नो! हंसते हुए
हाँ हाँ बेटे आप भी वैसे ही हो! बोलते हुए इस बार अमरकांत ने हंसी के साथ कंधे उचका दिये।
बेटा 377 के बाद सब एकसमान है वैसे भी ये कुछ लोगों की मानसिक विकृति है जो समलैंगिक जोड़े को हेय मानते हैं ग़लत समझते हैं। मुझसे अपने पिताजी की बात करवाओ प्लीज मैं समझाता हूँ उन्हें। अमरकांत उन्हें आश्वस्त करता हुआ बोलता है।
नहीं अंकल वह आपसे भी लड़ पड़ेंगे! वासु ने काॅफी की घूंट भरकर कहा! इसमें लड़ने की क्या बात है! तुम उनके बेटे हो एक समय तक उनके साथ भी रहे हो। तुम क्या चाहते हो? बात करें या सीधा मुकदमा चला दें उनपर! अमरकांत एकटक देखते बोले!
काॅफी का अंतिम घूट पीकर कप रखते हुए शार्लिन बोला अंकल सुनो! अमरकांत शार्लिन को देखने लगा।
अंकल सुनो! वासु के दादा जी वासु से बहुत प्यार करते थे करीब दस ग्यारह साल तक वासु उनके साथ रहा वह अपनी हर चीज यहाँ तक अपनी संपत्ति का एक हिस्सा भी वासु को देना चाहते थेपर वासु की उम्र अठारह की हो जाए तब।
अन्फार्च्यूनैट जैसे ही उनकी मृत्यु हुई और कुछ वर्ष बीते इनके माता पिता को वासु के गे होने की जानकारी हो गयी उन्होंने तभी वासु को घर से भगा दिया या ऐसी यातनाएँ देनी प्रारंभ कर दी कि ये स्वयं ही घर छोड़ दे।
शार्लिन किसी खुफ़िया ऐजेंसी के ऐजेंट की भांति उन्हें सबकुछ बताता रहा।
वासु ने कभी दोबारा बात नहीं की अपने दादा जी या हिस्से के सिलसिले में? अमरकांत ने चश्मे के शीशों पर सांस लगाकर चश्मा साफ़ करने लगा।
क्यों नहीं की बट हर बार सेम!
आप लोग मेरी बात कराइये अभी! अमरकांत गुस्से से।
शार्लिन ज़रा फ़ोन लगाइये वासु ने शार्लिन को देखते हुए निर्देश दिया।
हेलो अंकल?
फोन पर से आवाज़ आई!
यस शार्लिन कहाँ हैं वो! जो हिस्सा मांग रहा था?
अंकल सुनिये! अमरकांत जी बात करेंगे आपसे।
अमरकांत पेशेवर नामी वकील था उसका नाम ही नहीं काम भी बोलता था सारा शहर उसके नाम से परिचित था। अमरकांत का नाम सुनते ही
वासु के पिता झुंझला से गये!
अमरकांत यानी वह वकील अमरकांत!
जी अंकल शार्लिन ने पुनः दोहराया। और फ़ोन अमरकांत को दे दिया।
हेलो श्रीभगवान जी नमस्कार!
कैसे हैं?
377 की क्या ख़बर है आपको!
377 यानी समलैंगिक...? फोन पर आवाज़ आई।
हाँ पता है या तफ्सील से बताऊँ।
अमरकांत जी मैं आपसे कल बात करूं?
श्रीभगवान ने रिक्वैस्ट भाव में कहा। फिलहाल फ़ोन कट कर दिया!
वासु तुम घवराओ नहीं तुम्हारे पापा ख़ुद ही तुम्हारा हिस्सा देंगे! मुझे उनका नं0दे जाओ मैं कल फिर बात करता हूँ।
बहादुर कप उठा लो! अमरकांत का तेज स्वर कमरे में गूंजता है।
अच्छा वकील अंकल अब हम लोग भी निकलते हैं। शार्लिन दोनों हथेलियों के बल पर सोफे से खड़े होने की मुद्रा में कहता है।
अरे नहीं आज का डिनर यहीं होगा! मेरे साथ
अमरकांत मुस्कुराते हुए नयी सिगरेट उठा लेता है।
नहीं नहीं अंकल आज नहीं! आज कुछ और काम भी है! दोनों खड़े हो जाते हैं।
दोनों ने घर से बाहर निकलते हुए-हुए अमरकांत जी का शुक्रिया अदा किया। अमरकांत कुछ देर मुस्कुराते रहे और फिर दरवाज़ा बढ़ा दिया।
घर से बाहर आते ही दोनों प्रसन्न थे आश्वस्त थे चूंकि अंदर शाम चुप थी पर घर के बाहर आते ही बोलने लगी चहकने लगी और शहर के साथ-साथ खिलने लगी चलने लगी। वो दोनों खुश थे जैसे कोई छोटा बालक भूख से निजात पाकर खेलने बोलने लगता है।
आज यहाँ आना सही रहा बेहद फायदेमंद! शार्लिन ने वासु के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा। हाँ अब इन लोगों को पता चलेगा किसी की ज़िन्दगी को मज़ाक बनाने का सिला। शार्लिन तुम न होता मैं कब का रूख़स्त हो चुका होता! पर आज मन हल्का हो गया है यकीनन! वासु ने शार्लिन की आंखों में आंखे डालकर कहा! मोसम रात के बढ़ने साथ-साथ जवां होता जा रहा था। सारा शहर मानो सड़को पर निकल आया हो! सामने नीली जींस वाली लड़की आइस्क्रीम अपनी समलैंगिक साथी के संग उन्मुक्त है वह बेहद खुश है जिसकी चमक उसकी आंखों में स्पष्टतः देखी जा सकती है।
सारी मार्केट महक रही है दुकानों की चमकीली रोशनी सारी सड़कों को रंगीन कर रही है। पास ही पब है जहाँ से लोग निकलते बहक रहे हैं हंसी-ठट्ठा प्रेम क्रीडा हर तरफ। कोई साथी संग मस्त है तो कोई खाने पीने साज-सज्जा सामान खरीदने में पर अभी भी बहुत कुछ बंद कमरों में सिमटा है। होटलों रैस्ट्रा कि बाॅलकानियों पर से झांकते चेहरे खुशनुमा आकृतियाँ और नशे में लिपटे थके मांदे बदन।
शार्लिन मुझे बर्फ का गोला गाना है! वासु ने शार्लिन के गाल पर चिकोटी काटते हुए प्यार से कहा!
पर यहाँ गोला कहाँ है! शार्लिन ने दायें बायें दूर तक देखते हुए जवाब दिया।
अब जैसे भी हो मुझे चाहिए कहीं से भी लाओ!
वासु का अंदाज़ एक प्रेयसी की भांति था जिसे देखकर शार्लिन भाव विभोर हो गया और सामने खड़ी रेहड़ियों की तरफ़ तेजी से चल पड़ा मानो अपने पार्टनर के लिए जान देने को भी तत्पर है।
गोला खाते हुए वासु ने शार्लिन को देखा और दो पल लगातार देखते रहने के बाद उसकी आंखे नम हो गयी! आई लव यू! शार्लिन वासु के हिलते होठों को देखते ही शार्लिन की आंखों में गहरी चमक थी!
दोनों झूमते ख़ुशी से घर लौटे ही थे कि वासु का फ़ोन बजा! पिता का नंबर देखते ही उसके चेहरे पर फैली सारी ख़ुशी मानो छूमंतर हो गयी हो! अब उठाओ भी वासु! शार्लिन ने वासु को समझाते हुए कहा!
यस पापा!
मुझे पापा ना कहो!
तुम मेरे लिए मर चुके हो! पापा ने फ़ोन पर दांत पीसते हुए कहा!
और अमरकांत का सहारा ले रहे हो ना! मैं तुम दोनों को छठी का दूध याद दिला दूंगा!
और हाँ! उस शार्लिन को भी कह देना वह भी बड़ा वकील बनता है ना! उसकी तो!
पापा प्लीज! जो कहना है मुझे कहो!
शार्लिन को क्यो! वासु चिल्लाया!
वही भड़का रहा है ना तेरे को! पापा गुस्से से!
वासु फ़ोन कट कर देता है! वो कुछ देर शून्य में ताकता है पर फिर रो देता है!
हे वासु! वाय कराइंग?
आई एम विद यू!
शार्लिन उसकी आंखे पौंछता कहता है।
कोई नहीं अब तो ये जंग लड़नी ही होगी! कैसे भी हो! चाहे हिस्सा ना भी मिले पर इन लोगों के होश ज़रूर ठिकाने लगाने होंगे।
शहरों की शाम देर तक रहती है पर रात नाममात्र की ही होती है। कहीं रंगीन रात तो कहीं अवसादपूर्ण अंधेरा।
377 को तुम अच्छे से समझ लो हमारा हकषहै कि हम भी समाज का हिस्सा है दूसरों की तरह। हम समलैंगिक है और अपने हक़ के लिए लड़ेगे अंत तक! अमरकांत जी को साथ लेना होगा तभी इस मुहिम में जंग जीती जा सकती है। सारे काग़ज़ात और पुरानी बाते जो भी तुम्हारे दादाजी द्वारा तुम्हें कही गयी हो और न भी कही गयी हो तो भी तुम बराबर का हक़ रखते हो। शार्लिन एक कुशल प्रशिक्षक की भांति वासु को बता रहा है वासु की आंखे नम है।
शार्लिन क्या हम कभी अपना घर ले सकेंगे जो केवल अपना हो केवल हम दोनों का! वासु दुःखी अंदाज़ में बोला। हाँ-हाँ जैसे ही अमरकांत जी हमारे हक़ के लिए लड़ेंगे और जीतेगे सब अपना हो जाएगा! शार्लिन ने वासु की अंगुलियों को चूमते हुए कहा! काश मम्मी होती शायद मुझे कुछ समझती! पहले दादु गये और फिर ममा और उनके जाते ही सब लुटता गया छुटता गया। वासु की आंखे अभी भी रही थी। रूंधे गले से दबी आवाज़ में वासु आगे बोलता रहा! मैं क्या अपराधी हूँ या कोई गुनाहगार हूँ जिसकी सज़ा मुझे रोज़ मिलती है किसी का कोई मरता है तो वह रोकर स्वयं को हलका कर लेता है पर मैं तो रो भी नहीं सकता जानो कोई मानससिक व्याधियों से त्रस्त हो और अपनी पीड़ा को भी बताने में असमर्थ हो।
शार्लिन चुपचाप सुनता रहा! तुम चिंता न करो और फिर बंद आंखो से वासु की पेशानी पर एक चुंबन अंकित कर दिया।
रोज़ कवायदें चलती रही हर एक बात को रिकाॅर्ड किया जाने लगा पिता का पक्ष कमजोर होता गया। आवश्यक दस्तावेज़ व पुरानी डायरियाँ अदालत की ज़िरह में लाभदायक सिद्ध हुई। अमरकांत के सामने वासु के पिता के वकील की एक न चली और वह मुकदमा हार गये। यद्यपि थोड़ी चूं-चूं होती रही पर एक नतीजे के बाद वासु को दादु की सम्पत्ति का हिस्सा मिल गया। केस जीतते ही शार्लिन ने वासु को गले लगा लिया। अमरकांत वकील पूरे शहर में मशहूर हो गये।
शाम को मेरे घर आना होगा खाने पर! अमरकांत ने वासु और शार्लिन को न्योता देते बोले! हाँ-हाँ वकील अंकल क्यों नहीं! आपकी मेहनत से ही तो हम लोग जीते हैं पर आपको एक छोटा-सा उपहार स्वीकारना होगा! तभी आयेंगे हम दोनो! शार्लिन ने मुस्कुराते हुए कहा!
हाँ बिल्कुल! अमरकांत ने कपड़े से चश्मा साफ़ करते हुए जवाब दिया। शाम को स्वादिष्ट खाने के उपरांत अमरकांत जी को प्रेमवश बंद लिफाफे में सौगात दी गयी जिसे सहजता से उन्होंने स्वीकार कर लिया।
आज शार्लिन-वासु के पास सपनों में बसा घर है सुन्दर आशियाने के साथ-साथ वासु ने अपना कोरियर का धंधा आरंभ कर दिया है जिसमें शार्लिन ही सारे कामकाज को सलीके से आगे बढ़ा रहा है। अमरकांत के कहने पर कुछ अन्य समलैंगिक काॅम्यूनिटी से जुड़े लोग भी इस व्यवसाय से जुड़ते जा रहे हैं। अदालत के बहुत समझाने के बाद वासु के पिता का रवैया काफ़ी बदल गया और इन दिनो हर सप्ताह वासु शार्लिन से हंस-हसकर बात कर लेते है।