अगनपाखी / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ 4

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दिक्कत यहीं शुरू होती है कि मैं उसे भूल नहीं पाता। अपने प्यारे बचपन की तरह वह मैंने सीने से लगा रखी है। अनमोल याद सी मन में बसी है। मैं उसका पिता नहीं, भाई नहीं, पति नहीं, फिर क्या हूँ ? बहन के बेटे का रिश्ता कितने नजदीक होता है ?

मैं बचपन का गुलाम आज तक अपने लगाव की बेड़ियों में जकड़ा, अनेक दुखते निशानों, दागों को देखता रहता हूँ कि देखते रहना चाहता हूँ, ऐसी क्या मजदूरी है ?

भुवन के साथ बीते दिन। जब चोट, दर्द, आँसू भी खेल थे, खेल ही खुशी थी। हार भी जीत थी, जीत राजपाट थी।

भुवन, मेरी ननिहाल शीतलगढ़ी का राजपाट सँभाले रहती। शीतलगढ़ी, जो बरुआसागर से लगभग चालीस मील दूर थी। डेढ़ मील कच्चे रास्ते के बाद आती थी, जिसके पास बड़ा कस्बा मोंठ था। मेरे लिए मोंठ आते ही मानो शीतलगढ़ी शुरू हो जाती, क्योंकि मोंठ के बिसाइती, मोंठ के हलवाई, मोंठ के बजाजों का शीतलगढ़ी से लेनदेन के चलते उधारीवसूली का सबंध था। वे नानी को पहचानते थे। नानी इन दुकानों पर आया करती हैं, मैं बस में से झाँकता। कहीं नानी किसी दुकान पर तो नहीं बैठीं ? में अम्मा से किसी बूढ़ी को दिखाकर कहता-वोऽऽ नानी।

अम्मा बिना गौर किए ही सिर हिलातीं; जैसे वे नानी को बिना देखे ही पहचानती हों। मैं फिर भी बाज न आता, किसी छोटी लड़की को दिखाकर कहता-वो तो भुवन ही है।

‘‘हैऽ सिर्री’’अम्मा मुझे बेवकूफ कहकर छोड़ देतीं; जैसे वे अपनी बहन को भी बिना देखे ही पहचानती हों।

तब मैं कैसे कहूँ कि अम्मा, पहली रात से ही नानी और भुवन मेरे सपनों में डेरा जमाए हुए हैं। तुमसे ज्यादा मैं पहचानता हूँ। नानी सोने के लिए थपकी देती हैं तो भुवन आँखों के भीतर बवण्डर सी उठती है। वह रातभर सोने नहीं देती, ‘पकड़म-पकड़ाई’ खेलती है। मैंने भुवन का सपना देखा है। सपने की दुनिया उसके कब्जे में हैं, इसलिए मैं दिनभर उसके ख्यालों में खोया रहा और पिता के काम नहीं कर पाया। सुस्ती के बदले डाँट-फटकार खाता रहा। अम्मा, अब सपना नहीं, कल्पनाओं में घिरा हूँ और तुम मुझे मूर्ख कह रही हो। कहते हैं कि बच्चों के सपनों में परी आया करती है। पर मेरे सपनों में भुवन है और कल्पनाओं में भी भुवन...भले तुम उसे देवी भवानी और चुड़ैल कहो।

वह बचपन की बात थी, आज इस बात को क्या कहूँ ?...‘परी’ आकांक्षा का दूसरा नाम है। परी ने ही मुझे गड़ीवान बनने के लिए उकसाया था, आज बता सकता हूँ। पर अब यह बात पूछेगा कौन ? वह तो बचपन ही था कि अम्मा और पिताजी हर बात का जवाब माँगते थे-पढ़ेगा कि गाड़ी हाँकेगा ? यह चाव कहाँ से लगा ?

वह भुवन थी, जिसने अपने शलवार शूट पर नया-नया दुपट्टा ओढ़ा था और बड़ी लड़की की तरह बोली थी-लड़का बनता है और गाड़ी हाँकना आता नहीं। हाँ, ठीक तो कहा था उसने। हमारे गाँव के किसानों के लड़कों को गाड़ी हाँकना न आए तो वे खेती क्या खाक करेंगे, ऐसा कहा जाता था। मेरा खिंचाव बैलों की ओर हुआ।

सच में उस दिन की पढ़ाई से जी उचाट हो गया। चिकनी त्वचावाले और ऊँचे पुट्ठों के धौरे काले बैल मन मोहने लगे। मैं उनके सींगों में तेल मलने लगा। गले में पहनी हुई घंटियों को भाँजकर चमकाता। पीठ पर कसीदे वाली झूलें डालता। बैल थकें नहीं सो उनकी पूँछों के बालों को धोकर साफ करता। पिताजी से धीमे और विनम्र-स्वर में कहता-बैलों की नाथें पुरानी हो गयी हैं। रंगीन नाथ मँगा दो। पिताजी ने क्या कहा, मैं सुनना नहीं चाहता, और बैलों को दानापानी देकर उन्हें नमक चटाता।

हम ट्रैक्टर लेने की सोच रहे हैं, तू बैलों की टहल में लगा है।

मैं सोचता बैलों को अपने इशारे पर चलाना आसान है, लोहे का क्या भरोसा कब ठण्डा पड़ जाए ? रंगदार पहिए और नोकदार पैनिया लेकर बैलगाड़ी पर चढ़ता तो लगता, आसपास खड़ी फसलें मुझे झुक-झुककर जोहार कर रही हैं। मैं गैल पर नहीं, पानी पर गाड़ी को नाव की तरह तैरा रहा है। बैलगाड़ी नहीं, यह बस थी। ब्रेक लगा और धक्के के साथ रुकी। झाँसी आ गया। मुझे उतरना है। विराटा जाने के लिए बस बलदनी है। हड़बड़ाता हुआ अपना बैग उठाने लगा, धोखे में किसी दूसरे का उठा लिया ! वह चिल्लाया-एऽऽ भाईसाब, उठाईगीरी और हमारी आँखों के सामने ? मैं अपनी भूल पर शरमाया। कैसे बताता कि मैं गाड़ी के सपनों में खोया गाड़ीवान बना गीत गा रहा था-

‘गाड़ी वाले मसक दै बैल इतै पुरवइया के बादर झुकि आए’

पुरवइया माने भुवन।

बादर...कि उसकी आँखें !

सोलह साल का होते-होते मैं ऐसी मनोहारिणी कल्पनाएँ करने लगा था।

मैं अब विराटा जानेवाली बस में बैठा हूँ, भुवन की ससुराल पहुँचने तक का सफर...मगर संग-संग शीतलगढ़ी चल रही है, क्योंकि शीतलगढ़ी न होती तो भुवन न होता, तो मेरी माँ भी न होती और मैं भी न होता। हमारा होना हमारे गाँव का होना है, या हमारे गाँव का होना हमारा होना है ? इस समय शीतलगढ़ी गाँव और हम संग-संग थे।

माना कि हम तीन भाई, मैं, बिरजू और लल्लू पिताजी के गाँव बरुआसागर में पैदा हुए हैं, लेकिन अम्मा का संबंध तो इस गाँव से है। लोग मेरा गाँव बरुआसागर बताते रहें, मैंने शीतलगढ़ी को भी उसी दर्जे पर माना है। क्यों माना है, इस मुद्दे पर मैं गच्चा खा जाता हूँ। जन्मभूमि ही अपनी गाँव होती है, मैं यही मानकर चलता था, वह तो शैतान भुवन थी, जिसने एक दिन बहस में मुझे हराने के लिए कहा-लल्लू का जन्म अस्पताल में हुआ था, लल्लू की जन्मभूमि अस्पताल हुई। हुई न ?

भुवन उन दिनों पाँचवी कक्षा में पढ़ती थी और अपने मास्साब से तमाम सवाल-जवाब करती थी। उन्हीं सवाल-जवाबों में उसने मास्साब के साथ यह खोज निकाला था कि मातृभूमि सबसे बड़ी चीज है, जो माँ से जुड़ी होती है। माँ की तरह हमारे पालन-पोषण में शामिल होती है। यही बात उसने ठोक-ठोककर मेरे दिमाग में भर दी। मातृभूमि माने शीतलगढ़ी।

उसे बहस की बुरी आदत पड़ती जा रही है। मास्टर के मुँह लगती-लगती, वह नानी के मुँह लगने लगी है, यही देखकर नानी ने उसे स्कूल से बिठा लिया था, कहने को मास्टर जी ने उसे छठी कक्षा में दाखिल करने के लिए कहा था, मगर नानी राजी नहीं हुईं और यह कहकर मास्टर को चुप कर दिया कि-हमारे घर में हम दो ही हैं। भुवन पढ़ेगी तो काम कौन करेगा ? मैं घर में भी करूँ और खेत में भी ?

नानी की बात का काट किसके पास था ? खेत में काम करने वाले नाना आज होते तो नानी भुवन की पढ़ाई पर ऐसी कुल्हाड़ी न चलातीं। नाना तो बीच रास्ते क्या, भुवन का जीवन शुरू होते ही अपनी अंतिम यात्रा पर निकल गए। गाँव में कहावत है-‘कहाँ गए राजा अमान, जिनखों रोबें चिरइयां।’ नानी की कहावत को अपने आप से और भुवन से जोड़ती हैं।

राजा अमान के नामराशि नाना अमानसिंह कुछ दिन फौज में रहे, उनके पिता ने खेती सँभाली। नाना अपने पिता के मरने पर फौज से छुट्टी लेकर उनका क्रिया-कर्म करने आए थे, मगर लौटकर नहीं जा सके। इस्तीफा दे दिया और मजबूरी दिखाई-कच्ची गृहस्थी है, खेती है, पिता स्वर्ग सिधार गए हैं। नाना किसान बनकर रह गए। किसान के शरीर में फौजी का बल था। बलशाली शरीर में हौसलेमन्द मन था। बुलन्द हौसला-मन में कोई भय न था।