अगनपाखी / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ 5
मगर नानी में जितनी ताकत थी, धक्का उतने जोर का ही लगा। उन्होंने देखा, गाँव का मुखिया उन्हें फौजी हवलदार नहीं, किसानों की तरह भी नहीं, परदेसी मानकर जमीन का कुछ हिस्सा हथियाए ले रहा है। वर्दी उतार देने का मतलब ताकत उतार फेंकना नहीं मुखिया इस बात पर गौर नहीं कर रहा। नाना की ताकत तिलमिलाने लगी। उनका खून उबलने लगा। धमनियाँ फटने को आ गयीं...यह उल्टी गिनती का खेल ! वे तो देश के लिए लड़ने गए थे, यहाँ घर छिनने की नौबत है ! गाँव में लोग समर्थों के चलते लूट-खसोट की दर पर हैं, कीड़े-मकोड़े से बिलबिलाकर रह जाते हैं, तो वे मोर्चे पर किसे बचाने गए थे ?
नानी बताया करती है-रोष, ताकत और जोश नाना के भीतर धनुष की तरह तन गए। तूफान ऐसा उठा कि बहादुरी का मतलब बदल गया।
नाना ने मुखिया से कहा था-हमारे लिए यह जीना नहीं, खुदखुशी है। धरती हमारी माँ है, तभी किसानी हमारा मान है। फौज में नौकरी कर ली, तब क्या हम यह बात भूल गए ? तू और हम दोनों बुदेंले हैं। दोनों की माँ ने बचपन में रक्कम दिया था। दोनों माँओं ने गाँव की खेतों की सीमा दिखाकर कहा था-यह धरती तेरी है। यह धरती तेरी है। इसको कोई नुकसान न पहुँचाए। यह गाँव तुम्हारा है, इसकी सीमा की रक्षा तुम करोगे।–यह कहकर बुन्देली माँएँ अपने लड़कों की कमर में रक्कस का काला डोरा बाँधती हैं। धागे के जरिए लड़की की नन्ही तलवार लटकाती हैं। पूरी पपरिया और गुलगुला की पूजा देती हैं कि बेटों को जंग के लिए ललकारती हैं ! जानता है ?
नाना ने मुखिया को याद दिलाया था-यह रिवाज अब की नहीं, तब की है जब मुगलमलेछों ने हमला किया था। हमलावरों को पराई धरती का क्या दर्द, हमें अपनी रक्षा में खड़े हो जाना होगा। यह बात मैं नहीं भूला तो तू भी नहीं भूला होगा मुखिया कि
बारह बरस तक कूकर जीवे, अरु तेरह लों जिए सियार।
बरस उठारह छत्री जीवे, आगे जीवे खों धिक्कार।।
धरती लेकर रहूँगा, पूरी की पूरी-नाना ने एलान कर दिया था।-नानी बताती हैं-नाना खुद से सवाल करते-मुगल कौन ? मलेच्छ कौन ? अंगरेज कौन ?-खुद ही जवाब देते-अन्यायी, अन्यायी, अन्यायी ! नाइंसाफी ही हमलावरी है। अमानसिंह ने छाती ठोंककर अपना पूरा का पूरा खेत जोता, बोया। फसल तैयार कर ली। वे जब लहलहाते खेतों की ओर देखते तो कहते-गेहूँ सरसों की फसल नहीं झूम रही, मेरे पीछे-पीछे जवानों की टोली झूमती चली आ रही है। राइफल की जगह हल-फावड़ा है।
नानी कराहती हैं-गहरा साँस लेकर कहती हैं-उनकी माँ ने भी क्या नाम धरा था-अमान ! अमानसिंह ! -कहते हुए नानी के चेहरे पर चमक तो आती है, साथ ही आँखों में गीलापन छलकता है। अमान राजा के किस्से बुंदेलखंड में सावन महीने में घर-घर गाए जाते हैं। गीत-कथा का नायक राजा अमान सावन में अपनी बहन को लिवाने उसकी ससुराल गया था। बहनोई का नाम था धंधेरे ! धंधरे ने अमान की बड़ी खातिर की। जल झारी और छप्पन भोगों से स्वागत किया। तोषक कतिया पचरंग पलिका बिछवाए। ऊँची अटारी चौपड़ का इतंजाम किया।
बहन कितने सुख मे है, अमान को सन्तोष हुआ। लोग भी कितने भले हैं, यह भी सुख की बात थी। कायदा कद्र जानते हैं, सबसे बड़ी बात यही थी। आपस में खूब बातें हुईं। इलाके के राजाओं के बारे में बहसें हुईं। दोनों एक मत थे, सो खुश थे।
चौपड़ का खेल शुरू हुआ। दाँव लगे। पाँसे पलटे।-राजा अमान हारने लगे। लगा कि बहनोई अपने घर में हैं, मनमानी कर रहा है। बहनोई है बड़े रिश्ते में हैं, क्या किया जा सकता है ? लाँग-डाँट करेंगे तो वह बहन को सताएगा। हमारी चुटिया इसकी एड़ी तले है।
हार पर हार। धेधरे मुस्कराया।
मात पर मात। राजा अमान का चेहरा तमतमा गया। जी इतना दुखा कि दाँव भूल गए। क्या हो रहा है ? जीवन में मिली किसी हार ने अमान को चित्त करने में कामयाबी नहीं पाई। क्या सबंधियों से मात खाना जंग में हार जाने से ज्यादा दुखदायी होता है ? आत्मा कटने लगी...
बहनोई ने कटे पर नमक छिड़का-अमान राजा, तुम बुन्देला हो भी, या नहीं ? तुम तो किसी लोंडी बाँदी के जाए लगते हो।
गीत की कड़ी-अमान जू प्रान अंधेरे कौ राछरौ...
सचमुच राछरा ही कर डाला अमान ने। रगों में बहता खून था या आग ? माथा था या अंगार ? आँखें थीं कि बिजलियाँ ?-जो हम हुइहैं असल बुन्देला, लैलैहैं धंधेरे कौ मूँड़।–बहन ने सुना, सुहाग की भीख के लिए आँचल बिछा दिया।
-माँ से बड़ा बहन का सुहाग नहीं-कहकर अमान ने बहनोई का सिर उड़ा दिया।
अमान राजा का रूप अमानसिंह ! नानी बताती हैं, नाना कहते थे-धरती माँ से बड़ा कोई नहीं, उन्होंने मुखिया के लिए ताल ठोंक दी।
मुखिया भी अपमान जैसा रुतवा रखता था, धरती या धरती के बेटे से भला क्यों डरता ? खड़े-खड़े खेत से कटवा ली।
नाना की आगे कुछ न सूझा। अमानसिंह और सोच भी क्या सकते थे, सिवा इनके कि-जो हम हुइहैं असल बुंदेला लैलैहैं मुखिया कौ मूँड। किसी हथियार की तरूरत न पड़ी। हाथ हथौड़ा हो गए। लोहे का शिकंजा बन गए। गले का फंदा...मौंत के जितने साधन हो सकते थे, नाना के शरीर से ही बने। नानी बताती हैं-मुखिया ने दुनिया से विदा ली। सच ने अपना भाँडा खुद फोड़ा, नाना खुद ही कबूल गए-हाँ मैंने मारा है, क्योंकि मारने के काबिल था। अन्याय किसे अच्छा लगता है ? मैं कायर नहीं।
गाँव में हाहाकार मच गया। लोग कहने लगे-जंग में ऐसा जौहर दिखाते तो उन्हें बीरता के लिए, बहादुरी के लिए, साहस के लिए मातृभूमि के रक्षक बेटे की जगह खड़े करके पदक दिया जाता। देश के लिए बैरी को मार गिराना उनकी शानदार भेंट मानी जाती, मगर मुखिया बेईमान था पर था तो गाँव का ही। देश और गाँव का यह अन्तर नानी बताती हैं-वे गुनाह की जगह खड़े थे, कानून सामने था। कानून ने नाना कस लिए। बेईमानी को जड़ से उखाड़ना चाहते थे, खुद पर ही बन आई, सो घबराने लगे।
पड़ोस के भगवानदास के बाप समझाने लगे-अमान, अपने हक के लिए लड़ने से बड़ी कोई जंग नहीं। जाल में फँसे हो, ज्यों-ज्यों निकलना चाहोगे, उलझते जाओगे।
जाल क्या कटता, जवाब तक बन न पा रहा था। देवता नहीं थे सो अलोप हो जाते, भगवान भी नहीं कि रूप बदल लेते। साधुसंत चोला-बाना पहनकर असलियत छिपा लेते हैं और कुछ भी करते हैं। वे कहते-आदमी की जिदंगी मिली है, आदमी की तरह ही मरूँगा। मौत संग-संग चल रही है तो मैं भी पीछे नहीं हट रहा।
नानी बताती हैं-सामने वाले घर के पिरथीसिंह ने कहा था-अमान, तुम हाजिर हो जाओ, केस चलेगा, हम मुकदमा लड़ेंगे। यार, माना कि तुम फौज में रहे हो, पर किसान भी ऐसे कमजोर नहीं कि भेंड़ों की तरह कोई हाँक ले, आजमा लो हमें भी। सैसन से हाईकोर्ट तक जाएँगे, हाईकोर्ट तक हौसला न हारेंगे।
नाना बोले-यह जंग कचहरी का मुकदमा नहीं, सच्ची लड़ाई है। वकीलों की बकवास के दम पर अपना विश्वास नहीं हारना चाहता। अपील पुकार तो बुन्देला तब करता है, जब खुद पर से हौसला हार जाता है। मेरा अरमान पूरा हुआ, बाकी सबक लेंगे।