अगन-हिंडोला / भाग - 12 / उषा किरण खान
"सोचने का वक्त नहीं है, फिर भी आप सोग के समय तक चुनार गढ़ में ही रुके रहें। बिना निकाह पढ़े न जाएँ रोहतासगढ़।"-शेर खाँ ने रहना मान लिया। उन्होंने अपनी शरीके हयात कमानी बीवी को सारा किस्सा लिख भेजा। उनसे मशविरा लेकर लाड मलका से शादी कर ली। शादी की खबर कहीं उजागर न हो जाए इसका इंतजाम कर लिया। लाड मलका ने यही चाहा था। पहले से शेर खाँ के बारे में उन्होंने सुन रखा था कि वे बहादुर जवाँ मर्द हैं, शराबनोशी नहीं करते, पाँच वक्त नमाज अदा करते हैं, रोजे रखते हैं और पराई औरत की ओर आँख उठाकर नहीं देखते। अब वे खुद चालीस दिनों से उनके सामने थे। घोड़े खरीदते, सिपाही बहाल करते, सियासी मुआमलों को सुलझाते, किलेबंदी करते शेर खाँ कैसे शौहर होंगे यह नहीं समझ पा रही थी। सियासत की बातें, गढ़ की फिक्र और हिंदोस्तान के सुल्तान का जिक्र करना इनके लिए आसान था अब अपनी दिली ख्वाहिश यूँ कहें कि दिल की कैफियत बयाँ करना बेहद मुश्किल था। लाड मल्का क्या, सभी अफगान कमसिनों के ख्वाबगाह में शेर खाँ मौजूद थे। वे आरजू थे लाड मलका के. लाड मल्का दिल ही दिल में अल्लाह को याद करतीं-"खुदाया, मैं शरीके हयात तो बन गई अब मिलन कब होगा?" चुनारगढ़ में जंग की तैयारियाँ हो रही थीं। हुमायूँ बादशाह का खौफ तारी था। जब हिंदोस्तान की सल्तनत अफगानों पठानों के हाथों में थी तब वे उसकी फिक्र न कर सके. आपसी झगड़े में गँवा बैठे। अब एक दूसरे की ओर हाथ बढ़ाकर कड़ी बनाना चाहते हैं। मुगल बादशाह को अंदाजा था कि राजपूतों को अपने साथ मिला लेने से हिंदोस्तान की हुकूमत में आसानी होगी। बाबर बादशाह ने महसूस किया था कि इब्राहिम लोदी की ओर से जाँबाज क्षत्रिय राणा सांगा और हेमू ने उन्हें नाको चने चबवा दिए थे। मशक्कत के बाद दिल्ली का तख्तोताज मिल गया तो उसके क्षत्र के नीचे का पूरा इलाका मिल गया। कन्नौज के बाद का सूबा जौनपुर, बिहार, चुनार रोहतास और गौड़ बागी था। सल्तनत के समय से ही ये खुद मुख्तार थे अभी भी रहे। हुमायूँ चुनार से पहले गौड़ फतह करने बढ़ा। शेर खाँ की भी उधर नजर थी।
" महारथ सिंह ने शेर खाँ की अनुपस्थिति का लाभ उठाया। उसने झारखंड की ओर जाकर उराँव, चेरी और खरवार की सेना गठित की। महारथ सिंह का दिल टूटा हुआ था वह न हिंदुओं पर भरोसा कर रहा था न पठानों पर वह खरवार और चेरों की सादगी और भोलपन के अंदाज का मुरीद था। सुदूर चतरा की दुरूह पहाड़ियों में किला बना रहा था। महारथ सिंह की बेटी जगभातो कुँवरि और खरवार सरदार की बेटी झानो सहलियाँ बन गई थीं। झानो तीर धनुष का अभ्यास करती तो जगमातो भी करती। इनकी एक फौज ही तैयार हो गई थी। हाथी घोड़ों की फौज महारथ सिंह और जितन खरवार तैयार कर रहे थे। जंगलों और पहाड़ों के अनुरूप देसी और तिब्बती घोड़े जो छोटे पर तेज भागने वाले होते इन लोगों ने सेना के लिए तैयार किए थे।
जंगल के अंदरुनी हिस्से में रहने के कारण इनके विषय में बाहर के लड़ाके अनजान थे। इनका रसद पानी बाहर से नहीं आता। ऐसे समय में ही कुछ पठान सैनिक राह भटक कर घाटी में आ गए थे। उन्होंने देखा सैकड़ों की तादाद में युवतियाँ तीर कमान चलाकर अभ्यास कर रही हैं। उन्होंने निडर होकर उनके पास जाकर पूछा-"तुम लोग कौन हो, किसलिए इतनी तादाद में तीर कमान से लैस हो? क्या किसी जंग की तैयारी हो रही है?"
"तुझी से जंग है मूरख" झानो ने कहा और उन्हें पकड़कर पेड़ों से बाँध दिया। जगमातो को जानकारी मिली की गोरा चिट्टा नीली आँखों वाला सैनिक अंदर घुस आया है तो तुरंत उसे मार डालने का आदेश दे दिया। "दुश्मनों को जिंदा नहीं रखना चाहिए. हमारे राजा साहेब ने ऐसा किया था। उसी का फल भुगत रहे हैं।"-जगमातो कुँवरि के आदेश का पालन हुआ। यह खबर जब राजा महारथ सिंह और जिनन खरवार के कानों में पड़ी तब उन्हें आसन्न संकट का भय सताने लगा। "राजा भैया, एक पठान आया हो सकता है और कहीं छुपा होगा। हमें सावधान रहना चाहिए."-जिनन खरवार ने कहा। राजा महारथ सिंह ने किलेबंदी के लिए उराँव सैनिकों को लगाया। जंगल की सीमा पर वे तैनात हो गए. जंगल के बाहर हाट-बाजार की ओर जाने वाले रास्तों पर विशेष नजर रखी जाने लगी। महारथ सिंह जानते थे कि तीर धनुष और तलवार से पठानों का मुकाबला कभी नहीं किया जा सकता है। उन्हें यह भी मालूम था कि पठानों की हुकूमत चली गई है वे उसे मुगलों से वापस पाने की जद्दोजहद में लगे हैं। एक छोटा-सा राजा जिसका देसनिकाला हो गया है जिसने जंगल में शरण ले रखी है वह किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता। भोला पर होशियार साथी जिनन खरवार का विचार था कि पठानों का दुर्दिन चल रहा है ऐसे में मुगलों की शरण में जाना चाहिए.
"पर हमारे पास है क्या कि मुगल हमारी सहायता करेंगे?"-राजा महारथ सिंह ने स्वागत ही कहा।
"हमारे पास जंगल है, चश्मे हैं, शिकारगाह है। हाथी हैं, जाँबाज सिपाही उराँव जाति के हैं। हम उनके काम आ सकते हैं पठानों के खिलाफ।"-राजा महारथ सिंह को यह तजवीज पसंद आई. उन्होंने हुमायूँ बादशाह के पास संदेसा भिजवाया।
सादे लिबास में अपनी चहेती लाल घोड़ी की जगह सफेद घोड़े पर चढ़कर शेर खाँ बिहार के पटना की ओर कूच करने से पहले रोहतासगढ़ आए. ऐसे समय में उनका बाज उनके कंधें पर न होता। वह आगे-आगे उड़कर गंतव्य तक पहुँच जाता। बाज को आया देख कमानी बीवी समझ गई शेर खाँ आ रहे हैं। उनके दिल बल्लियों उछलने लगे। कई बार साल-दो साल के जंगी दौर से गुजर कर आते शेर खाँ तब तो ऐसा न था। अभी तो कुछ दिनों के लिए बाजू के चुनार किले में थे फिर क्यों जी इतना अकुलाता रहा। कमानी बीवी ने झट मोगरे मसले पानी से नहा कर अपने को तरोताजा किया लोहबान-अगरू भूसियों के साथ धुआँ कर अपने घुटने तक पहुँचने वाले बाल सुखाए. बालों की पत्तियाँ निकालकर ऊँचा जूड़ा बनवाया सुरमा लाली से लैस हो गई. उनके बालों में बेली का गजरा टाँकती बाँदी ने पूछा "आज कोई खास बात है क्या बीबी?" "खास ही है। मेरा दिल कहता है कि मेरे सरताज आ रहे हैं।"
"अल्लाह उनको लंबी उमर बख्शे, आपका दिल कहता है तो मियाँ शेर खाँ साहब ज़रूर आएँगे।" शेर खाँ ने आते ही कमानी बीवी पर गौर फरमाया। खाना-खाने के बाद जब वे इक्ट्ठे हुए तो उनके भरे-भरे चेहरे को अपनी हथेलियों के बीच लेकर पूछा-"आज तो आप कयामत ढा रही हैं मेरी जान।"-शेर खाँ कभी उनकी सुरमई आँखों में झाँकते कभी गेसुओं से खेलते। बीवी की कोशिश रंग लाई. शेर खाँ उनके वजूद के कोने तलाशने में मसरूफ हो गए. रात जब ढलान पर थी तो शेर खाँ ने अपनी शरीके हयात से कहा कि-"जाने अब कब मिलना हो जंग छेड़ने से पहले-आपसे ही सिर्फ़ मिलने आया था। आप खुश तो हैं" बीवी ने उसके चौड़े सीने में मुहै छुपाते हुए उमंग में भरकर कहा-"आपने ऐसी मुहब्बत तो कभी न की थी। जंग की तरह मुहब्बत की। जान पड़ता है लाड मल्का से सीखा है।"
"वह निकाह पढ़ने तक बीवी थी अभी तक शरीके हयात नहीं बनाया है। बना भी नहीं सकता, मैं यह नहीं कर सकता।"
"क्या? आपने उन्हें अब तक सही मानी में बीवी नहीं बनाया! यह ठीक नहीं है मेरे सरताज"
"क्या ठीक है क्या नहीं मैं नहीं जानता। मेरे सामने एक ही काम है वह है हिंदुस्तान की गद्दी। वह मैं लेकर रहूँगा। यह शादी उसी की एक कड़ी है। लाड मल्का ने खुद आगे बढ़कर कहा कि उनके धन का उपयोग करने के लिए, हिंदुस्तान के तख्त पर फिर से किसी अफगान को बिठाने के लिए और सबसे बड़ी बात कि उसके खुद की, चुनार गढ़ की हिफाजत के लिए निकाह पढ़ना ज़रूरी है। शरीयत के लिहाज से वह मुझे अपना रखवाला तक्सीम करना चाहती थी। उन्हें मालूम है कि मैं उनका शौहर नहीं बन सकता।"
"बड़ी अजीब बात है लाड मलका बड़ी बदनसीब खातून है। ताज खाँ जैसे बूढ़े की बीवी थी अब जब उनके लायक शौहर मिले, तो भी कुछ नहीं। उनके लिए मेरे दिल में बड़े दर्द का अहसास है।"
"आप नहीं समझेंगी हुकूमत का नशा क्या होता है। लाड मलका मियाँ ताज खाँ की बीवी बन कर तमाम चुनारगढ़ की मालकिन थीं आज भी हैं। उनको हुकूमत का नशा है। वे खुश हैं।"
"मुझे ऐसा कतई नहीं लगता।"-कमानी बीवी जिन्होंने सभी अमीरों, सुबेदारों यहाँ तक की मुकद्यमों के भी कई-कई बीवियाँ देखीं उन्हें यह अचरज की बात लगती। इस मुल्क में हरम और रनिवास का रिवाज था। उधर शेर खाँ ने अपना दिमाग सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंदोस्तान के तख्त की ओर लगाए रखा था। हुमायूँ बादशाह गौड़ की ओर निकल गया था। गौड़ की पृष्ठभूमि यह थी कि कहाँ के सुबेदार महमूद खाँ शेर खाँ से मित्रता कर चुके थे। शेर खाँ के वे इतने मुरीद हो चुके थे कि मातहत की तरह ही रहते। बिहार के नाबालिग सुबेदार जलाल खाँ की सरपरस्ती का सीधा मतलब था कि बिहार के असली सूबेदार ये ही थे। बंगाल के अभियान में मुंगेर के पास बड़ी जंग हुई थी जिसमें कुतुब खाँ मारा गया था। शेर खाँ के हाथ अकूत धन आया, चार हजार लाल घोड़े आए. धन को शेर खाँ ने नदी की पार पर उगे जंगल में गड्डा खोद कर गाड़ दिया कि गाढ़े वक्त पर काम आए. निशानदेही के लिए पाँच तरह के पेड़ लगाए. अपने साथियों से हाथ में पाक कुरान देकर कसमें खिलाई.
हुमायूँ बादशाह गौड़ बंगाल की ओर फतेह करने चला कि रास्ते में शेर खाँ से मुलाकात हो गई. शेर खाँ ने हुमायूँ बादशाह से इल्तिजा की, उन्हें अपने तरीके से समझाया-"हे हिंदुस्तान के मुगल शहंशाह, आपका इकबाल बुलंद हो। आप बंगाल गौड़ की ओर जा रहे हैं तो मैं एक अर्ज करूँ?"-शेर खाँ ने बिना सर झुकाए, बिना तलवार की मूठ पर से हाथ हटाए एक हाथ से ही सलाम करते हुए कहा।
"शेर खाँ, मुझे मालूम है कि तुम बड़े बहादुर हो, काफिया वगैरह किताबें पढ़ रखी हैं। शायद इसी लिए माबदौलत की जानिब अकड़ कर खड़े हो।"-रतजगे से मुगल बादशाह हुमायूँ की आँखें गुलाबी रंगत लिए थीं। अर्जी सुनने की कुव्वत नहीं थी। शेर खाँ ने हुमायूँ बादशाह के बारे में सुन रखा था। उनका निजी कुनबा, लाव लश्कर देखकर हैरान था। बाबर बादशाह की सेवा में काफी दिन रह चुका था। यह सच था कि शाही अंदाज उनका भी था। उनके साथ भी लाव लश्कर चला करते थे। मुगलों की एक आदत थी कि बेगमों का लश्कर साथ चलता। बाँदियाँ, ख्वाजासरा सबों के हुजूम चलते। अमलों, ओहदेदारों की फौजें साथ चलतीं। शेर खाँ ने इब्राहिम लोदी के लश्कर को भी देखा था। उनका मुँहबोला था सो तंज भी कसता था-"हुजूर सुल्ताने आजाम, जब तक पीकदान साथ चलेगा खुदा मेहरबान न होगा।"-सुल्तान हँस पड़ते। कहा करते-"तुम्हें सुल्तानी दी गई तो तुम यह रिवाज न रखना। रखोगे भी कैसे कोई अमल तो है नहीं।" हुमायूँ बादशाह ने एकतरफा जलीकटी सुनाई शेर खाँ को। शेर खाँ ने देखा आसमान चूमता तंबू शाही दरबारे खास बना है जिसमें तमाम झाड़ फानूस लटक रहे हैं। मखमली कालीन है तो जरीदार परदे हैं। दरबारे खास के बाजू बाले तंबू में किताबों गट्ठर रखे हैं जिसे शहंशाह पढ़ते रहते हैं। वह सब हाथियों पर लाद कर साथ लिए चलते। कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे जियारत पर जा रहे हैं या जंग के मैदान में। हुमायूँ बेहतरीन शमशीरबाज थे। सारी नियामतें इकट्ठी थी फिर भी इतना घमंड क्यों? शेर खाँ सूरी को अगर हो तो कोई बात थी क्योंकि घोड़े के छोटे व्यौपारी के खानदान का था। बहलोल लोदी की इनायत पर रोटी जुटी थी पर इन्हें क्या हुआ? शेर खाँ ने माहौल की नजाकत भाँप कर दिल की दिल में ही रखी और कहा-"शहंशाह, हम रूखे रोह हैं हमें तहजीब नहीं आती। आप बड़े दिल वाले बड़े बादशाह हैं, अर्जी सुन लें फिर जैसा जी चाहे वैसा करें चाहे तो ठुकरा दें।"
"कहो क्या कहना है। हमारा दस्तरखान बिछा है जल्दी करो।"