अगन-हिंडोला / भाग - 15 / उषा किरण खान

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"लेकिन तोप के गोले को यह नहीं मालूम कि सामने वाला तलवारबाज है कि तंबू गाड़ने वाला बनजारा। तुझे नहीं जाना।" गुलाब कुँअर धीरे-धीरे खजूर की चटाई बिनना, घाघरे में शीशे टाँकना रंग बनाना, कपड़े रंगना सीख रही थी। गुंजा और रज्जो को करतब करती, नाचती, घूमर लेती देखती। इसे बड़ा मजा आता। जिस दिन जिस पूनम की रात को जीतू और गुलाब कुँअर की सगाई हुई सारे बनजारे बनजारिनें खूब नाचे गाए. गुल्लो ज़रूर अलग थलग खड़ा था जाने क्यों उसे जीतू से बड़ी चिढ़ थी। उसे पता था कि नैना मासी ने जीतू को किसी से गोद लिया है और गुलाब कुँअर पूरनमल की बेटी है जीतू तो इन्हीं की तरह दीखता है पर यह राजकुमारी यह तो बड़ी प्यारी है। आगे चलकर रानी पद्मिनी-सी निखरेगी। ओह सुनाते हैं गा-गा कर बनजारे कि कैसे रानी पद्मिनी ने जौहर कर जान दे दी। पूरनमल के घर की औरतों ने भी वैसा ही तो किया। यह गुलाब नहीं जानती क्या? अभी कुछ-कुछ जान गई होगी लेकिन धीरे-धीरे भूल जायगी। नैना मासी ने जीतू की सगाई क्योंकि इससे? मैं तो उससे अच्छा करतब दिखाता हूँ। मैं सामान भी अच्छी तरह बेचकर ले आता हूँ। यह जीतू तो कुछ भी नहीं कर पाता। उस दिन कस्बे के मेले में जो रस्सी बाँधी थी वह ढीली थी, बाँस भी टेढ़ा लगाया था अगर मैं न होता तो मेरी बहन रज्जो सीधे पथरीली जमीन पर आ गिरती, उसका मुँह टेढ़ा हो जाता। शहद उतारने में इसकी नानी भरती है। एक काम सिरफ आता है शिकार करना। उसमें वह मुझसे आगे है। इस गुलाब कुँअर के साथ इसकी सगाई तो की है देखूँ कैसे निभती है। अभी तो यह बच्ची है बड़ी होने पर क्या होगा कौन जाने। अब कौन-सी ठकुराइन रही और कौन-सी राजरानी। रज्जो और गुंजा फूलदार कुरती शीशे जड़े लहँगे और चाँदी के गहनों में खूब ही खिल रही थी। गुलाब कुँअर के भी चाँदी के बड़े-बड़े गहने सर से पाँव तक पहनाए गए थे। उसे लाल रेशमी शीशे टँकी कुर्नी और हरा घाघरा पहनाया था। वह कुछ नहीं समझ रही थी। रज्जो और गुंजा ने उसे समझाया-"यह जीतू तेरा मंगेतर हो गया, इसके साथ तेरी सगाई हो गई. कुछ दिन बाद जब इसका अपना टप्पर होगा और तू इत्ती बड़ी हो जायगी तब तेरी शादी होगी। तू इसकी लुगाई हो जायगी।" दोनों की बातें आँखें झपका कर सुनी गुलाब कुँअर ने। समझ में कुछ न आया। नाच गाने, उत्सव और लजीज खाने का पूरे कुनबे ने आनंद लिया। बड़ा जशन रहा।

उपर से सूखी अंदर से गीली बल्कि लबालब आबदार दरिया फल्गू के किनारे बुजू कर फजिर का नमाज पढ़ शेर खाँ का काफिला रोहतास किले की ओर बढ़ा। पीछे से घड़ी घंटों की आवाज, बौद्ध मंत्र सुनाई रहे थे। उमर के इस पड़ाव पर आकर बहुत कुछ बहल जाता है। बदल जाता है तख्त पाने के बाद मिजाज। एक ही इनसान जो लड़ाका सिपाही होता है वह अचानक शहंशाह हो जाता है, उसकी रगों में सुल्तानी सुरसुराने लगती है जो उसे चैन न लेने देती है। कमान बीबी को रोहतास किले तक छोड़ इन्होंने विदा ली, उन्हें चुनार के किले पर जाना था। लाड मल्का इनका इंतजार कर रही थी। लाड मल्का ने बेहद सादे तरीके से इनका इस्तकबाल किया। शेर खाँ ने पहले ही कह रखा था कि दिल्ली की ओर कूच करने से पहले वे बिल्कुल तामझाम न पसंद करेंगे। दिल्ली तख्त पर बैठ कर अपने साथ दोनों बेगमों को बैठाएँगे तब होगा जश्न। लाड मल्का शेर खाँ की ज़िन्दगी की राह आसान करने वाली बेगम थी। उन्होंने ही इन्हें एक ऐश्वर्यशाली ज़िन्दगी दी। पंद्रह साल की अमीरी में तरह-तरह के सुझाव देकर ज़िन्दगी आसान की। चौसा में नदी पर पुल बनाकर सेना उतारने तक शेर खाँ खुद अपनी अक्ल से काम कर रहा था पर एक ओर से खवास खाँ और दूसरी ओर से शेर खाँ के बड़े बेटे आदिल खाँ को पीछे से लाड मल्का ने ही भेजा था। वह जानती थी कि मुगल बादशाह हुमायूँ की सेना बड़ी है लेकिन वे पूरी हरम लेकर चलते हैं सो घेरने पर पस्त हो जाएँगे। उसी लड़ाई में हुमायूँ खुद तो जान बचाकर भागे पर हरम पीछे छूट गया। हरम की निगहबानी में लगे सिपाहियों को अफगानों ने मौत के घाट उतार दिया। शेर खाँ ने सुना तो उसे बेहद तकलीफ हुई. उसने तुरंत पूरे राज्य में मुनादी करवाई कि मुगल बच्चे और औरतें जहाँ कहीं भी हैं उन्हें महफूज रखा जाय। उनके खाने पीने का इंतजाम शाही खजाने से होगा। खुद शाही हरम की बेगमातों के पास पहुँचा और घोड़े से उतरकर उनका सलाम पहुँचाया। उनसे कहा-

"मैंने मुगल बादशाह बाबर का और हुमायूँ का नमक खाया है। आपका दास हूँ। जंग हिंदोस्तान के तख्त के लिए है आपको तकलीफ में रखने के लिए नहीं। आप बाइज्जत हमारे रोहतास के किले में पूरे शानो शौकत से रहेंगी। आपको आपकी हैसियत के हिसाब से खर्चे दिए जाएँगे। हुमायूँ बादशाह का सही ठिकाना मिल जाने के बाद आप सबों को उन तक पहुँचा दिया जायगा।" तीन माह बाद जब बरसात खत्म हुई तथा हुमायूँ बादशाह का ठिकाना मालूम पड़ा शेर खाँ ने मरियम मकागी, बाकी बेगमातें और उनकी बाँदियों को अपने खासुलखास साथी सिपहसालार खवास खाँ और राजा टोडरमल के साथ मुल्तान की ओर भेज दिया। पूरे मुल्क में फैले मुगल पठानों की दहशत से छुपे-छुपे थे। उन्हें भी शाही खजाने से खर्च देकर जाने दिया गया। हुमायूँ बेहद हैरत में था। एक ओर उसका सगा भाई कामरान बगावत का बिगुल फूँक रहा था दूसरी ओर जानी दुश्मन शेर खाँ उसके शाही हरम को बाइज्जत उसके पास पहुँचा रहा था। शाही बेगमातें और बांदियाँ खुद हैरत में थीं। रोहतास के किले में बिल्कुल मुगलिया शान के साथ रहती थीं, क्या कोई ऐसा कर सकता है? मरियम मकानी ने सोचा क्या इनसान है यह रूखा-सूखा-सा दीखने वाला पंद्रह सालों से अमीरी करने वाला, अब दिल्ली की तख्त पाने वाला अफगान कैसा नरम दिल है इसका। पास ही रूखे बलुआ पत्थर से एक मकबरा तैयार करवा रहा था। एक दिन इन लोगों ने उसे देखने की पेशकश की। पूरे शाही अंदाज में बेगमातों की डोलियाँ मकबरा देखने गई. उन्होंने देखा कि बाहर लगे खुरदरे पत्थर मानो शेर खाँ का बाहरी रूप ही ओर अंदर चिकने संगेमरर मानो शेर खाँ का दिल हो। 'अल्लाह, तुझे नूर बखशे, तू सुकून पाए'-बेसाख्त कह गई मरियम मकानी। अपने बेटे हुमायूँ की फिक्र तो थी पर इस इनसान ने भी औलाद की तरह ख्याल रखा। कामरान ने मुल्तान पर कब्जा कर लिया था चुगताई अमीरों ने भी बगावत कर रखा थर। हुमायूँ बादशाह को लाहौर में सिमट कर रहना पड़ा। लाहौर में फौज इकट्ठी करते हुए हुमायूँ सोचता रहता कि जिन दिनों शेर खाँ शहंशाह बाबर की सेवा में था वह मुगलों के फौजी तरीके सीख समझ रहा होगा। उसने देखा होगा कि हमारी हुकूमत में क्या कमजोरियाँ हैं। तभी तो कहा करता था कि ये मुगल हिंदोस्तान पर राज कभी नहीं कर पाएँगे। इनमें शाही अंदाज पहले से हैं। ये खुद कुछ नहीं देखते अपने हुक्कामों और अमलों पर यकीन करते हैं। उसकी बातों पर कभी ठीक से गौर नहीं किया, लफफाजी समझा हमने। जब शेर खाँ कहता है कि रियाया से सीधे रिश्ता नहीं रखते, घोड़े खुद देखकर नहीं खरीदते, फौजी परखकर बहाल नहीं करते और किसानों से अनाज खुद गोदामों में नहीं रखवाते। किसानों पर मालगुजारी लगाने का तरीका यक्साँ नहीं है तो शायद सच ही कहता है। मैं पढ़ा लिखा इनसान उस तालीमयाफ्ता, बहादुर, रियाया के खैर ख्वाह शेर खाँ की तजवीज को समझ नहीं पाया। सिर्फ़ यह सोचता रहा कि वह घटिया किस्म का शातिर लोमड़ की तरह छापामार लड़ाइयाँ लड़कर मुझे, आगरा के शहंशाह को क्या शिकरत दे पायगा? पर उसने मुझे आइना दिखा दिया। रियाया पठानों के झगड़ों से ऊब चुकी थी, हमारी मुगल हुकूमत कायम हुई थी तो सचमुच हमने उनसे सीधा ताल्लुक क्यों नहीं रखा तभी तो किसी जंग में हमारे साथ खड़ी नहीं हुई. इस अफगान को सुल्तानी की हवस है इसलिए हमसे जंग कर रहा है लेकिन हमारा भाई कामरान क्यों लड़ रहा है? उसके पास तो मुल्तान पहले से ही था। हमें मिल-जुल कर, फौज इकट्ठी कर शेर खाँ से मुकाबला करना चाहिए पर वह तो उल्टा दाँव खेल रहा है। वह मेरा और मेरे बेटे का काम तमाम करना चाहता है। वह खानदाने मुगलिया का तख्तोताज हासिल करना चाहता है। उस दुश्मन शेर खाँ को चाहिए हिंदोस्तान की सुल्तानी और मेरे भाई को चाहिए खानदान का तख्त। या अल्लाह, मैं तो फँस गया। यह सब सोचता हुआ हुमायूँ लाहौर के किले में बैठा अपने खैरख्वाह दोस्त बैल खाँ और शम्शुद्दीन अतका की राह देख रहा था। मुगल बेगमों को रुखसत कर उनके सही ठिकाने पर पहुँच जाने की खबर सुनकर शेरशाह को सुकून महसूस हुआ। अब वह दिल्ली की दुनिया में रमने को बेताब था। शाही इमारत बन रही थी, शेर शाह ने फौज के लिए घोड़े खरीदने और घुड़सवार बहाल करने की कवायद शुरू कर दी थी। अलाउद्दीन खिल्जी की ओर से घोड़ों पर दाग लगाने की प्रथा शुरू हुई थी जो आगे के लोदी सुल्तानों के वक्त बंद कर दी गई थी। शेर शाह ने उसे फिर से चालू कर दिया। घोड़ों के पुट्ठे जाँच कर उस पर सवारी कर खुद चुनता और अपने सामने दाग लगवाता। फौजी घोड़ों की यह निशानदेही थी। चुनार, गौड़ और बिहार की अमीरी के वक्त शेर खाँ ने अपनी हुकूमत का ढंग बदलना शुरू कर दिया था। अपनी अम्मीजान सबा बेगम के इंतकाल के बाद मुन्नी बाई ने उसे कई तरह से सताया। सताने में सबसे ज़्यादा तकलीफदेह बात थी भूखा रखना। अफगानियों के पसंदीदा शोर बे यख्नी का शौक शेर खाँ को था जिसमें पानी मिलाकर पेश किया जाता वह भी ताने तिश्ने के साथ परोसा जाता। हसन मियाँ देखकर भी अनदेखा कर जाता। उसके पास कोई चारा नहीं था, वह एक तरह से मुन्नी बाई जो जवान औरत थी की कैद में था। तभी उसने सोच विचार कर जौनपुर भेज दिया जहाँ पढ़ने और सीखने की गुंजाइश थी। शेर खाँ अपने खुद के घोड़े पर खाली हाथ जौनपुर के लिए चल पड़ा। लड़के चला था, भरी दुपहरी में भूख प्यास की वजह से इसका गला सूख रहा था, घोड़े की लगाम के पास से फेन निकल रहा था। पत्थरों पठारों के पार इसे हरियाली दिखाई पड़ी और दिखाई पड़ा एक पाकड़ का पेड़। पेड़ बड़ा-सा था, घनी छाया थी उसकी। शेर खाँ ने अनुमान लगाया कि वहाँ कहीं पानी होगा, तभी तो ऐसी हरियाली है। घोड़े को एड़ लगाई, तिलमिलाता हुआ घोड़ा सीधे पेड़ के पास आकर रुका। पेड़ के नीचे कुछ किसान बैठकर खाने पीने का इंतजाम कर रहे थे। इसे देखते ही बोल उठे। "बबुआ, तुम्हारा तो मुँह घाम से लाल हो गया है। आओ सुस्ताओ पानी पीयोगे?"

शेर खाँ ने घोड़े की ओर इशारा किया। किसानों ने निकट के कुँए से पानी निकाल घोड़े को पिलाया फिर उसे खेत के धूर पर से एक मुट्ठी घास लाकर ओगार दिया। शेर खाँ ने अपने हाथ पैर मुँह धोये पानी पीने के लिए दोनों हाथों की ओक बनाया कि किसान ने कहा "ना बेटा, खाली पेट पानी पीयोगे तो पेट दुखेगा। पहले हमारे साथ सत्तू खा लो।" नमक से गूँथा हुआ सत्तू खिलाया किसान ने फिर मिट्टी के सकोरे में पानी पीने दिया, कई सकोरे पानी पी गया शेर खाँ। "ऐसा लजीज निवाला मैंने कभी नहीं तोड़ा ये मेरे भाई"-भावुक होकर शेर खाँ ने कहा। "कहाँ कुछ खास मैंने पेश किया बबुआ, ई तो सतुआ है घरनी निमक मरिचाइ से गूँथकर गमछी में बाँध के घर देती है, ई कुइयाँ दू-चार सै बरिस का है, निर्मल मिट्ठा पानी है, है कि नहीं?" "बहुत मिट्ठा, बिल्कुल मिश्री की डली और सतुआ बेहद लजीज इसे मैं सुल्तान बनूँगा तो पूरे हिंदोस्तान का खास खाना शुमार करूँगा। मैं सुल्तान बनने लायक हूँ न चचा?"-शेर खाँ मौज में आ गया था। "तुम्हारे कपाल पर लिखा है कि कुछ तो बनोगे। कहाँ जा रहे हो?"

"अभी पढ़ने सीखने जा रहा हूँ।"

"कहाँ जौनपुर का?"

"जी चचा।"

"हे तुम्हारा घोड़ा खूबे ऊँचा है तुम ज़रूर किसी अफगान के बेटे हो। फिर खाली झोली अकेले क्यों जा रहे हो?"

"आपने ठीक पहचाना, मैं अफगान हूँ पर किसी बड़े आदमी से ताल्लुक नहीं है। घोड़ा बचपन से पाला है।"

"किसका बचपन बबुआ?"

"मैं भी बच्चा था हमारे दादा हुजूर घोड़े के व्यापारी थे, यह घोड़ा भी बीमार बच्चा था। मैंने इसे और इसने मुझे पाला है। मुझको बड़ा अजीज है यह चचा।"

"जिनावर इनसान से जादे सगे होते हैं। तुम जो करोगे उसी में कामयाब रहोगे, ऐसा मिट्ठा सुभाव जो है, बोलते हो तो लगता है शहद चू रहा है।"

"आपका शुक्रिया भी अदा नहीं कर सकता। चचा, मैं आपको याद रखूँगा आप खेतिहर हैं न?"

"मैं कुम्हार हूँ, बरतन गढ़ता हूँ, आँवा लगाता हूँ, अपना यह सामने वाला जिरात है, गेहूँ काटकर धान बोया है। उस ओर नदी है वहाँ से नहर खींच कर लाया गया है। आवाज सुन रहे हो उत्तर वाले जिरात में रहट चल रहा है। इसी लिए थोड़ी देर निराई-गुड़ाई कर बैठा हूँ। उनका खेत पूरी तरह से पटा दिया जाए तो हम अपना नाला खोदेंगे।"-किसान ने तफसील से बताया।

"खेत रहट से कैसे पटाते हैं आप लोग, नाला कहाँ तक जाता है क्या आप मुझे दिखाएँगे चचा?"-शेर खाँ ने कहा। किसान ने उसे लेकर पूरा खेत दिखाया, धान का खेत मकई का खेत नाला जिससे रहट का पानी क्यारियों में आता। सब्जियों की लतरें पहचानी, पौधे देखे, दिन ढलने तक किस मौसम में क्या और कौन-सी सब्जी लगाई जाती है तफसील से सुनता रहा शेर खाँ। अपनी तकलीफ से समझ में आई बात कि राह चलने वालों के लिए तो कही कोई जगह ही नहीं है। भूखा प्यासा इनसान किसी बाज़ार की आस घर कर चलता है वरना कुछ भी भोगता है। यह कुम्हार इसे एक नया नजरिया दे गया। इसने पहली बार किसानों को गौर से देखा। पटना जाते वक्त ठठेरों को देखा था, तब वह सूबेदार बहादुर के साथ था। अकेले कहीं भी निकल जाने की शेर खाँ की आदत ने भी इसे बहुत कुछ समझा दिया।

बिहार की एक यात्रा वैसी ही थी, शेर खाँ ने देखा हुमायूँ की मुगल फौज गौड़ जा रही थी, दूरी बना कर इसकी फौज भी चल रही थी। जब आगे पहुँचा तो देखा किसान कलेजा कूट-कूट कर रो रहे हैं सामने उजाड़ गन्ने का खेत पड़ा था सारी फौज ने गन्ना लूट लिया था एक-एक गन्ना एक-एक सिपाही उखाड़ कर चूसते, खुशी से झूमते चले जा रहे थे। इसका गुस्सा सातवें आसमान पर चला गया था। शहंशाह हुमायूँ के लिए और ज़्यादा नफरत से भर उठा। भगोड़े मुगल, काफिरों से भी बदतर, बड़ा पढ़ा लिखा कहा जाता है यह नहीं जानता कि उसके सिपाही, सिपहसालार क्या करते हैं, खेत उजाड़ते हैं, कारीगरों और मंडी वालों से बात-बात पर रिश्वत लेते हैं, अपनी तिजोरियाँ भरते हैं। जंग में लूट का माल छुपा के रखते हैं थोड़े से शाही खजाने में जमा करने हैं, खूबसूरत औरतों को नजर करते हैं। रंगरलियों में मस्त रहने वाला शहंशाह शराब और शबाब में डूबा रहता है। ऐसे अगर किसानों कारीगरों और व्यापारियों को लूटते रहे तो क्या शमशीर के साए में हुकूमत चला पाएँगे? इन्हें हुकूमत का इल्म ही नहीं है। काश कि सारे पठान अफगान अपना बैर भुलाकर एक हो जाएँ तो कभी मुगल जम न सकेंगे। पठानों को सीख लेनी चाहिए इस मुल्क के पुराने बाशिंदों के बहादुर होने पर किसी को कोई शक नहीं है। शक है तो यह कि वे भी निहायत बेअक्ल हैं। दूसरे से मिलकर नहीं रहते, मूँछों की लड़ाई लड़ते रहते हैं, रियाय को समझा नहीं पाते कि जमीन को किस हद तक अपने कब्जे में रखना चाहिए. यह मुगल बादशाह तो उन से भी बढ़ है।

उधर हुमायूँ बादशाह अपनी अम्मीजान से शेर खाँ की तारीफ सुन-सुन कर परेशान हो चुके थे। आजिज आकर अम्मी जान से कहा-"आप लोगों को आराम से रखा यहाँ बाइज्जत पहुँचा गया, अच्छी बात है। वह एक सच्चा मुसलमान है इससे ज़्यादा कुछ नहीं। आपको क्या पता कि ऐसा करने के पीछे उसकी मंशा क्या है? वह निहायत चालाक, लोमड़ी जैसा इनसान है। आगे से भी और पीछे से भी वार करता है। हाथ में बाज लिए चलता है, बाज की तरह गाफिल कर जोरों का हमला करता है। उसका मारा हुआ हूँ अम्मी जान।"

"यह सब सियासत है, अपना-अपना जंग है। जहाँ पैदा हुए वहाँ से इतनी दूर आने का सबब क्या था? उसे छोड़ो सिरफ इबादत का तरीका एक है बाकी कौन-सा तुम्हारी और उसकी कौम एक है? अपने भाई कामरान को देखो, वह भी तख्त पर बैठना चाहता है।"