अगन-हिंडोला / भाग - 1 / उषा किरण खान
कांधार के रोह प्रदेश का आकाश महीनों से अपना रंग बदल रहा है। वह रंग नीला नहीं है, धूसर और भूरा है। तेज सर्द हवाओं का झोंका रह रह कर दरख्तों के वजूद को हिला रहा है। ऐसा जान पड़ता है अब बादल घिर आएँगे और बड़ी-बड़ी बूँदे गिरेंगी। सुलेमान पहाड़ की तलहटी में बसा रोह का इलाका नम होगा फिर इतना पानी पी लेगा कि मरी हुई दूब घास की जड़ें हरी हो जाएँगी। अरबी और मुल्तानी घोड़े घास चर कर ज़्यादा से ज़्यादा मजबूत हो जाएँगे। अंजीर औ दाखों में रस भर जाएगा, खजूर बड़े-बड़े निकलेंगे। फसलें भी बोई जा सकेंगी। पर हाय, यह सब ख्वाब ही रहा। मौसम बदलते रहे जाड़ा बीता, बसंत आया, बसंत के बाद तीखी गर्मी पड़ी गर्मी के बाद मनचीता बारिश का मौसम कहाँ आया? औरतें रोते हुए बच्चों को चुप कराने की नाकाम कोशिशें करके हार गईं। अनाज के दानों के लिए तरसते लोग धीरे-धीरे पूरब की ओर बढ़ने लगे। करने को रोह में घोड़े पालने और व्यापार के अलावे कुछ न था। लोगों के देश से निकल भागने के कारण आबादी कम रह गई थी। सूखी नंगी पथरीली पहाड़ियों पर सूखे बेजान दरख्त हवा के झोंके से टूट कर बिखर गए थे अब सुलेमान पहाड़ी जो कभी जड़ी बूटियों से भरी होती थी, जो कभी हिंदूकुश पर्वत श्रृंखला का सरताज हुआ करता था वह आज वीरान है। इसी हिंदूकुश पर्वत श्रृंखला के दर्रे और उसके जंगल भाँति-भाँति के वनस्पति न्यौछावर करते, यहाँ की साफ, स्वस्थ, हवा, ऋषि-मुनियों को वेद लिखने में सहायक हुई. इसी सुलेमान पर्वत पर यती ध्यान धरते। यही वह दर्रा है जहाँ जाँबाज रुस्तम अपने हवा से भी तेज दौड़ने वाले घोड़े पर आता हुआ दीखता।
आसमान की ओर आँखें उठाकर इब्राहिम सूर ने देखा। कहीं साफ-शफ्फाक आसमान नहीं दीखता। दर्रे से दनदनाता रुस्तम और उसका हिनहिनाता घोड़ा आता नहीं दीखता। उसके अस्तबल के घोड़ों की टाप से कभी रोह प्रदेश गूँजता आज गिने-चुने रह गए हैं वे भी निहायत कमजोर। कोई सूरत नजर नहीं आती कि कैसे अपने कुनबे को पाले और कैसे घोड़ों को। सुलेमान पहाड़ का नमक सुलेमानी चाट कर न तो अस्तबल टिक सकते हैं न सूर कबीला। इब्राहिम सूर ने देखा उसका कुनबा फ्रिकमंद है। बेटा हसन जो घोड़ों से ज़्यादा किताब के साथ रहना पसंद करता है, अपने कमजोर बाजुओं से तलवारबाजी की तालीम लेना शुरू कर चुका है। अभी-अभी तो हिंदोस्तान के एक शहंशाह की तरफ से बड़ी जंग जीत कर आया है। सूर कुनबा। शहंशाह ने जागीरी, अमीरी देने की पेशकश की थी पर सूर अपने घोड़ों और शमशीर के साथ बेहद खुश थे। इन्हें अंदाजा भी कहाँ था कि रस टपकाने वाली खूबसूरत वादियाँ इस कदर वीरान परेशान हो जाएँगी, आसमान से आब के बदले आग बरसने लगेगी। इब्राहिम सूर ने देखा हसन का चेहरा सूखकर छुहारी हो गया है। बीवी-बच्चे सींक हो चले हैं। एकबारगी इब्राहिम सूर अपने बचे खुचे घोड़ों पर असबाब लाद पूरब की ओर चल पड़े। रास्ता वही पुराना था। उसी रास्ते से चलकर ये हिंदोस्तान अपने मजबूत पुट्ठों और चमकदार रोयों वाले घोड़ों को लेकर जाते बदले में मुहरें पाते जिससे इनकी घुड़साल चलती, इनके बच्चे पलते। रुखड़े चमड़ों के और कते उन के वस्त्र पहन ये जीवन बसर करते। सुलेमान पर्वत के नीचे बहती गमाल नदी के पानी में घोड़ों के बच्चों के साथ किलकारियाँ भरते रोह पठान बच्चे साथ साथ ही बढ़ते। घोड़ों की खालों को खरहरे से चमकाते अपने हथियारों को जंग न लगने देते। यह गमाल नदी भी कमाल दरिया है। इसी के किनारे बड़े-बड़े जहीन आलिम हुए. दिमागी तौर पर जुबान के इस्तेमाल में अपनी शमशीर के मुकाबले ज़रा भी कम नहीं हुए. सब कुछ होते हुए भी जब आसमान ही रूठ जाए तो क्या किया जाय। ऐसा ही समय आता है जब आबादियाँ पूरब की ओर भागने को मजबूर हो जाती हैं।
बहलोल लोदी दिल्ली की गद्दी पर बैठा था बढ़े सुकून से कि जौनपुर का सुलतान महमूद अपनी बड़ी सेना लेकर चढ़ आया। लोदी को ऐसे ही समय अपना रोह मुल्क याद आया। उन्होंने वहाँ के जाँबाज पठानों को याद किया। पठान भाई आए और महमूद को जौनपुर की ओर धकेल कर बहलोल लोदी के राजपाट को निश्चिंत कर दिया। इब्राहिम सूर को अब भी याद है कि शहंशाह बहलोल लोदी ने बड़े भरे दिल और रुँधे गले से उनके सरदार का शुक्रिया अदा किया था। फजिर की नमाज के बाद उनसे इल्तिजा की कि वे यहीं रुक जाएँ उन्हें उचित मान-सम्मान मिलेगा। जागीरें दी जाएँगी सरदार ने कहा था कि मैं अपने साथियों की ओर से यह कहना चाहता हूँ कि किसी लालच से यहाँ नहीं आया था, आया था तो अपने मुल्क के बाशिंदे, अपने कबीले के भाई जो हिंदोस्तान का शहंशाह था उसके बुलावे पर। फिर भी यह कहना हमारा फर्ज है कि जिन रोह पठानों का दिल यहाँ रहने का है वे रहें बाकी लौट चलें। - शहंशाह ने इक्के-दुक्के रुके हुए पठानों को जागीरें दी और जाने वालों से कहा - हम भारी दिल से आपको रुखसत करते हैं पर यह न समझना कि फिर कभी इधर आना न होगा। जब जी चाहे आना ज़रूर। "माईबाप, आते रहेंगे। जब कभी मजबूत पुट्ठों वाला, खूबसूरत घोड़ा तैयार होगा हम आपके हुजूर में पेश होने आएँगे।" याद रखना, शहंशाह को पके हुए दाख की खाल के रंग का मुल्तानी घोड़ा बेहद पसंद है जिसके कान सीधे खड़े हों। "हम याद रखेंगे शहंशाह।" - सरदार ने इज्जत से पास आकर उनके हाथों के बोसे लिए और चल पड़े।
इब्राहिम सूर जो सबसे सूबसूरत घोड़े तैयार करता था, बुरे दिन में भी एक शानदार अरबी घोड़े पर खरहरा करने लगा। कुछ ही दिनों के बाद घोड़े की खाल चमक कर तांबई हो गई उसके खड़े कान का ऊपरी सिरा आबनूस-सा काला था। ज्यों-ज्यों उसकी चमड़ी तांबई होती जाती त्यों-त्यों कान का आबनूसी रंग चटख होता जाता। तीखी रोशनी में कभी-कभी उसके रोएँ गहरे नीले दिखाई पड़ते। उसकी चाल मस्तानी होती जा रही थी। इब्राहिम सूर ने बड़े चाव से घोड़ों के झुंड को साथ किया और सारे माल असबाब लादकर पूरब की ओर बढ़ गया। गमाल दरिया पीछे छूट गई. रावी और सतलज का किनारा आन पहुँचा। इब्राहिम सूर का अपना कुनबा और तकरीबन दस सगेवालों के कुनबों ने रावी के किनारे तंबू गाड़कर चंद दिन गुजारे। रावी के साफ-शफ्फाक पानी में घोड़ों को नहलाया धुलाया, खरहरे किए, नौजवानों ने घोड़े फेरे, वादियों में चरने छोड़ दिया। थोड़ी ही देर में हसन सूर उस अरबी घोड़े की रास पकड़े इब्राहिम सूर के पास आ गया। वह हाँफ रहा था। उसकी पेशानी पसीने से भीगी थी। इब्राहिम सूर ने बेटे की ओर टेढ़ी नजरों से देखा। - "क्या बात है मेरे आलिम बेटे, इस बहार ने आपको खूब दौड़ाया। यह बहार भी खासी मुसीबत है, बड़ा तेज दौड़ाता है मियाँ यह आपका काफिया नहीं है जिसे आप आराम से बैठकर झूला झूलते हुए रटते हैं।"
"अब्बा हुजुर, गुस्ताखी माफ हो, मैं बहार के दौड़ाने से थका नहीं हूँ। एक बड़ी-सी लाव-लश्कर वाले तिजारती ने मुझसे इसकी कीमत पूछी। मैंने कहा यह बिकाऊ नहीं है। उसने कहा दुनिया में हर चीज बिकाऊ होती है यह तो घोड़ा है। हम तिजारती है, खरीद-फरोख्त की बात करते हैं वरना कहीं डाकू मिल जाएँ तो छीन कर ले जाएँगे। कहकर वह हँसने लगा।"
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