अगन-हिंडोला / भाग - 2 / उषा किरण खान
“ओह” - इब्राहिम सूर की पेशानी पर बल पड़ गए। दूसरे दिन सुबह होने से पहले ही चल पड़े। दिल्ली अभी भी दो रात-दिन की दूरी पर था। भीतर से सभी रोह पठान डरे हुए थे पर बाहर से सीना मजबूत किए चल रहे थे। अल्लाह मेहरबान होगा तो हम बहलोल लोदी शहंशाह के दरबार तक ज़रूर पहुँच जाएँगे, इसी आशा आकांक्षा के बल पर रास्ता तय करते जा रहे थे। दरियाए जमन का किनारा देखते ही इनके दिल को बेइंतिहा सुकून मिला। इन्होंने सबसे पहले तंबू गाड़ दिए औरतें और बच्चों को तंबुओं में छोड़ा और घोड़ों को दरिया में उतार दिया। जमुना के सलेटी पानी में तांबई रंगों वाले घोड़े लाल दीखने लगे, सफेद और काले घोड़े गहरे रंगों वाले जान पड़े। उतावले तो बहुत थे इब्राहिम सूर कि सीधे घोड़ा ले दरबार में जाया जाय पर पढ़े लिखे बेटे हसन सूर ने कुछ और सलाह दी।
“अब्बा हुजूर, पहले शहंशाह से मिलने का, दरबार में हाजिर होने का बुलावा तो मिल जाय फिर बहार को लेकर जाएँ। वरना रास्ते में ही सेना का कोई ओहदेदार उचक के और शहंशाह के हुजूर में पेश कर हसबाह बन जाय आप क्या करेंगे? “
“तो क्या करना चाहिए? “
“हमें कहना चाहिए कि हम रोह से आए हुए उनके सिपाही हैं उनसे मिलकर कुछ पेश करना चाहते हैं। वे ज़रूर बुलाएँगे। आपने कहा है कि उन्होंने 4-5 साल कबल आप लोगों को हिंदोस्तान में रह जाने की पेशकश की थी।”
“बिल्कुल ठीक कहा आपने बेटे। हमें किसी रोह पठान ओहदेदार से मिलकर शहंशाह से रू-ब-रू होने की इल्तिजा करनी चाहिए। उनके दिल में अपने रोहरी के लिए बड़ा दर्द है।” - पढ़े लिखे बेटे हसन की सलाहियत से इब्राहिम सूर ने शहंशाह बहलोल लोदी से मुलाकात मुकर्रर की। रोह के अपने खैरख्वाह कबीले वालों को देखकर शहंशाह उठ खड़े हुए। दोनों हाथ आगे फैलाकर उनका इस्तकबाल किया। इब्राहिम सूर ने बेहतरीन शलवार और हल्की जरीदार चोंगा पहन रखा था। बड़ा-सा पग्गड़ बाँधे था। उसकी कमर में कटार खुली थी जिसे निकाल शहंशाह के कदमों में रखा और उनके हाथ बोसा लिया।
“तुम्हारी जगह हमारे दिल में है, सीने से लग जाओ।” - शाह लोदी ने कहा। उन्हें सीने से लगा लिया। यह सारा कार्य-व्यापार दरबार में बैठे हुए दरबारियों ने खड़े होकर देखा। “हुजूरे आली, हमारे आका हम आपके लिए मनपसंद तोहफा लेकर आए हैं।” गर्व से कहा इब्राहिम सूर ने। शाहों के शाह बहलोल मोदी तांबई रंग के अरबी घोड़े पर फिदा हो गया।
“वाह" - उसके मुँह से बेसाख्ता निकल गया।
'जनाब की मंशा के लायक मुल्तानी घोड़ा मैं तजवीज नहीं कर सका। यह अरबी नस्ल का घोड़ा ही सँवर सका मेरे आका"- इब्राहिम सूर ने सर झुका कर कहा।"अरे क्या बात है। यह घोड़ा तो इतना सूबसूरत है कि मैं नस्लें भूल गया। मुल्तानी नस्ल से अपनी बिरादरी की लाग-डाट है बस, वरना यह किसी से कम नहीं। शाह बहलोल लोदी ने घोड़े के घने बालों पर हाथ फेरा। रेशम से चमकते बाल गरदन से झूलते से। मुलायम कान आबनूसी रंग के।
"शहंशाह, इस तरह का घोड़ा आपके दादा हुजूर के पास था। लाल घोड़ा काले आबनूसी कानवाला। कान के ऊपरी हिस्से को छेदकर हीरा पिन्हाया हुआ। दूर से चमकता हीरा। रात को शफ्फाक ओर दिन में सतरंगा।" - मुँहलगे अमीर जुम्मानी ने कहा "जुम्मानी साहब, बजा फरमाया आपने। मैं कान न छेदूँगा। कान छेदने से उसी पर अटका रहेगा। इनसान और जानवर में इस मुआमले में कोई फरक नहीं है।"
"हुजूर की बातों में वजन है।" - अमीर जुम्मानी ने आँखें नचाई।
"खान साहेब, आप हमारे मुल्क में रह जाइए। अपने कुनबे को भी ले आइए।" - इब्राहिम सूर से शाह लोदी मुखातिब थे। “हमारे घोड़ों का कुनबा तिजारत के लिए नहीं है। आपकी नजर के लिए है। हुजूर" - इब्राहिम सूर ने दुहरे होते हुए कहा।
बहलोल लोदी को याद आया कि कैसे एक ही बुलावे पर रोह से सारे पठान भागते हुए आए थे और इनकी दिल्ली की गद्दी बचा दी थी। इन्होंने उनसे बड़ी फराखदिली से कहा था - "हमारा यह मुल्क है नदियाँ हैं अच्छी पैदावार होती है, क्यों न आप लोग यहीं रह जाएँ।" अपने अमीरातों से कहा "मेरा हुक्म है कि रोह पठान जागीर देकर बसाए जाएँ सुख से रखे जाएँ। यदि मैं यह जानूँगा कि किसी अमीर का रोह जगीरदार भूखा नंगा होकर रह रहा है या, रोह की ओर लौट रहा है तो मुझसे बुरा कोई न होगा। याद रखें ये अफगान पठान हमारी खून के हैं।" - कुछ अफगान रुक गए थे बाकी लौट गए। आज शायद रोह में ये तकलीफ में हैं, यही कारण है कि यहाँ आकर रहना चाहते हैं। शाह बहलोल लोदी ने तत्काल जमाल खाँ सारंगखानी जो हिसार फिरोजा के अमीर थे के हवाले इब्राहिम सूर को कर दिया। अपनी ओर से मुहरों से भरी थैलियाँ दी।
जमाल खाँ ने नारनौल परगने के कुछ गाँव की जागीरदारी और चालीस घोड़े के सवार इब्राहिम सूर को दी। इब्राहिम सूर अपने बेटे हसन सूर और बहू के साथ नारनौल में रहने लगा। शहंशाह के सलाहकार आजम खाँ की सेवा में हसन सूर लग गया। पढ़ा लिखा हसन सूर कभी-कभी अपनी उक्तियों से आजम खाँ को हैरत में डाल देता। हसन सूर के अल्फाज जब आजम खाँ अपनी जुबान से शाह बहलोल लोदी को सुनाता तो तारीफ ही तारीफ होती। हसन सूर के दिन पुरसुकून थे और रातें रोशन कि तभी बेहद मिहनती, ईमानदार और संजीदा उनके अब्बा हुजूर इब्राहिम सूर गुजर गए। एक बड़ा कुनबा उन पर, उनकी कमाई पर चलता था। हसन सूर ने जब यह सुना तो अपने मालिक आजम खाँ से फुरसत चाही।
"हुजूर, अब्बा हुजूर के गुजर जाने के बाद हमारे घर की हालत अच्छी नहीं है। हम वहाँ जाकर हाल-चाल लेना चाहते हैं।" - आजम खाँ ने गौर से सुनकर कहा - "आपकी तकलीफ से हम भी फ्रिकमंद हैं हसन सूर, लेकिन आप सारा कुनबा यहाँ न ले आइएगा। हमारे पास कोई अमीरी नहीं है। जितना कुछ था उसी में से मिल-जुल कर खाते थे।" -हसन सूर से आजम खाँ की हालत छिपी नहीं थी। लेकिन यह भी सच था कि रोह के अफगान मदद करने को हर वक्त तैयार रहा करते। आजम खाँ ने शहंशाह बहलोल लोदी के सेना के मसनदे आली से हसन सूर की तारीफ करते हुए कहा कि - "यह हसन सूर बेहद जहीन, पढ़ा लिखा अफगान है। साथ ही यह अच्छा शमशीरबाज भी है। इसकी सहायता करोंगे तो मेरे ऊपर उपकार करोंगे।" मसनदे आली उमर खाँ ने हसन सूर को सरोपा और घोड़े देकर इज्जत बख्शी साथ ही जमाल खाँ से उसके वालिद का इलाका और सकर भी दिलवाए। हसन खाँ सूर की आजम खाँ ने इतनी तारीफ की थी कि वह सबकी आँखों का तारा बन गया था।