अगन-हिंडोला / भाग - 3 / उषा किरण खान

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हिसार में एक रात हसन सूर की बेगम सबा जोर से चीखकर उठ बैठी। हसन पास ही सो रहा था "क्या हुआ? क्यों चिल्ला रही हो?" - नींद में खलल पड़ने के कारण नाराज होकर पूछा।

"मैंने एक अजीब-सा सपना देखा है।"

"सो जाओ कल सुनेंगे तुम्हारा सपना। मैं थका हूँ।"

"मेरा ख्वाब बेहद खुशनुमा है, सुन लीजिए। नहीं तो मैं सो न सकूँगी मेरे सरताज।" - सबा ने इल्तिजा की।

"चल सुना।"

"मैंने देखा मैं हरी हरी वादियों के बीच किसी ऊँची पहाड़ी पर बैठी हूँ। ठंडी हवा चल रही है। मेरे घने बाल मेरे दुपट्टे के बीच से निकलकर पेशानी पर फैल गए हैं, मेरी आँखें झिप रही हैं।"

"ओफ्फोह, मैं खो रहा हूँ अब कुछ और कहना है क्या?"

"कहना है मेरे आका, मेरी झिपती हुई आँखों में एक रोशनी भर गई।

मैंने भक्क से खोलकर देखा - क्या देखा जानते है? "

"देखा तुमने मैं कैसे जानूँगा? पहेलियाँ बुझाने का वक्त है यह?"

"मैंने देखा आसमान से सूरज उतर आया है मेरी गोद में, मेरी आँखें चौंधिया गईं - तभी अपना बहार घोड़ा दौड़ता हुआ मेरे करीब आया। वह जोर से हिनहिनाया। मैंने देखा वह सूरज एक बच्चे में तब्दील हो गया।" - हसन सूर उठकर बैठ गया। अपनी बेगम को थोड़ी देर देखता रहा फिर उठा, दीवार पर टँगे अपने कोड़े को उतार लाया और गिनकर तीन कोड़े मारे उसके बदन पर। सबा चीख उठी "मेरा क्या कुसूर मेरे आका?" - वह हिलक कर रो उठी। हसन सूर पास आकर बैठ गए। सबा के गोरे गोल मुखड़े पर सचमुच दर्द की चिलक थी। बड़ी-बड़ी नीली आँखों से आँसुओं का सैलाब उमड़ रहा था। जुल्फें पेशानी से चिपकी हुई थीं। हसन सूर ने अपनी तलहथी में सारे मोती मानो चुन लिए जो बेकार जाया हो रहे थे। वे प्यार से बेगम को पुचकार रहे थे। बेगम सबा हैरत से देख रही थी। "तुम्हें मालूम है कि हमने ऐसी हरकत क्यों की?" - सबा ने ना में सर हिलाया।

"वो इसलिए मेरी शरीकेहयात कि तुमने जो सपना देखा है वह बड़ा मानी रखता है। नजूमियों ने कहा है कि जब कोई हामिला औरत ऐसा सपना देखती है तो मतलब यह होता है कि कोई तख्तो-ताजदार आने वाला है। कहते है कि इतना हसीन ख्वाब देखकर सोना नहीं चाहिए। आप कहीं सो न जाएँ सो मैंने कोड़े मार कर आपको तकलीफ दी। मुआफ कीजिएगा।" - हसन सूर ने सबा को अपने सीने से लगा लिया। बाँहों में भरकर उन्हें चूमते हुए पूछा - "बेगम आप हामिला तो हैं न? कि वह नेक काम भी आज की रात के लिए मैंने छोड़ रखा था?" हसन सूर का मुस्कुराता हुआ चेहरा चमकती हुई नजरें और ललस भरे ओठ को बरजने की ताव न थी सबा में। उसने अपने आपको बिल्कुल शौहर के हवाले कर दिया। हसन सूर ने एक-एक कर कपड़े उतारे और कोड़े से उधड़ी चमड़ी पर ओठ रख दिए। "मुझे मुआफ करना बेगम" - हसन बेगम के इश्किया पेचोखम में गर्क हुए जाते थे। आह, कोड़े ने चाँद पर अपना कहर न बरपाया। सच गदबदे बदन पर मानो दो चाँद उग आया हो। कभी हसन सूर ने गौर कहाँ फरमाया। आज की पूरी रात मानो शहद भीगी थी जिसे बूँद बूँद पी रहे थे, साकी बनी सबा जाने कब अपन दर्द भूल प्यार की पींगे भरने लगीं। रात गुजर गई, आँखों-आँखों में, ओठों-ओठों में जिस्मानी और रूहानी पुरसुकून रात बीत गई। बेगम सबा की खूबसूरती दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती गई, उसकी सेवा के लिए मुन्नी बाई नाम की दासी रखी गई। मुन्नी बाई सबा बेगम की दिल से देखभाल करती, उसे अपने गँवार लतीफों से खूब हँसाती। समय पर उन्होंने एक खूबसूरत गदबदे बेटे को जनम दिया। उसकी नीली-नीली आँखें अपनी अम्माँ सबा बेगम जैसी थीं, काले-काले घुँघराले बाल भी अम्माँ जैसे थे पर लंबे-लंबे हाथ पैर अब्बा सरीखे। जनम के समय भारी आवाज में जो रोया तो पूरी हवेली गूँज गई। हसन सूर उसे देखने को उतवाले हो उठे। मुन्नी बाई ने जब उनकी गोद में फरीद को दिया तब उनके शरीर में झुर-सी उठी। उन्हें ऐसा लगा मानो वे सुलेमान पहाड़ के नीचे खड़े हैं। गमाल नदी के शफ्फाक पानी को छूकर आती हवा उनके पोर-पोर सहला रही है। हिंदोस्तान की धरती पर यह पहली पीढ़ी का जनम हुआ है। यह हिन्दी है, हिन्दी अफगान या अफगानी हिंदी। इसके हाथ पैर मजबूत होंगे। यह बढ़िया लड़ाका होगा। इसकी हथेलियों की रेखाएँ गहरी हैं यह जहीन होगा। इसकी जुल्फें और आँखें कशिश से भरी हैं यह दिलदार होगा। मेरा यह बेटा जिसने मुझे आज बाप बनने की इज्जत बख्शी है ज़रूर कुछ खास होगा। इसकी अम्माँ ने सपना जो देखा था कि गोद में आफताब उतर आया है। शायद इसी की आमद होने वाली थी कि हम गमाल दरिया के किनारे से उठकर दरियाए गंगजमन के मुल्क में आ गए। हमारे हमवतन हमदम तो सालों से यहाँ थे। हसन सूर ने बच्चे को मुन्नी बाई की गोद में डाला और अल्लाह का शुक्रिया अदा करने लगे। जाने क्यों इस बच्चे को गोद में लेते ही उन्हें ऐसा लगा मानो वे सातवें आसमान पर हैं। अपने खानदान पर हमेशा अल्लाहताला की इनायत याद आई। हजरत मुहम्मद साहब सल्लाहल्लाहु अलैही वसल्लम ने इनके पुरखे को चुना था मक्का छड़ी ले जाने को। यह सब यूँ ही तो नहीं हुआ होगा? शायद उसी पाक परदिगार ने हमारे इस बेटे को फिर से कोई बड़ा काम करने के लिए चुना हो। पर कैसे? हसन सूर ने सोचा - हम तो कुछ भी नहीं हैं। चंद गाँव की जागीर और चंद घुड़सवार। फिर उन्हें अपनी ही सोच पर हँसी आ गई, क्या यह कोई छुपी हुई बात है कि अल्लाह की मर्जी... वह चाहे तो जर्रा आफताब हो जाता है, अंधा आँखों वाला हो जाता है और लंगड़ा सुलेमान पहाड़ी तो क्या हिंदूकुश का हर दर्रा पार कर जाता है। हमारे खानदान के पास पाक हजरत की दी गई पदवी 'कैसे तो है' वही जिसने छड़ी मक्का पहुँचाई।

हिसार की वादियों हरियाली से भरी हुई थीं। बरसात शुरू होने वाली थी, छिटपुट फुहारें पड़ने लगी थीं तभी हसन सूर की मसरूफियतें बढ़ने लगी थीं। जमाल खाँ ने इन्हें कई छोटी बड़ी जिम्मेदारियाँ देने लगे थे। जिम्मेदारियाँ लगान का हिसाब किताब और बही खाता सही करने की अधिक थी। समय पर लगाकर उड़ने लगा था। नए जन्मे बच्चे का नाम छोटे-मोटे जलसे में रख दिया गया। जिस पाक फकीर ने बच्चे का नाम फरीद रखा उसने उसकी पेशानी छू कर कहा कि यह जिंदगी भर पहाड़ों, तराइयों और जंगलों की खाक छानता रहेगा, घोड़ों और लाव-लश्करों के बीच इसकी सुबह और शाम होगी। कुछ ज़्यादा पोशीदा वाक्यात भी जिंदगी के रू-ब-रू होंगे जिसे आहिस्ता-आहिस्ता मुकद्दर अंजाम तक पहुँचाएगी।