अगन-हिंडोला / भाग - 7 / उषा किरण खान
"तुम कौन हो?"
"मैं चंदा हूँ।" - फरीद उसके कपड़ों से जान गया कि यह इस जगह की नहीं है। नए आए किसी किसान की बेटी है।
"तुम्हारे वालिदैन कहाँ हैं?"
"सिर्फ पिताजी हैं, वे खेत से नहीं आए हैं अभी तक, मैं अकेली हूँ घर में।"
“क्या नाम है उनका”
"जयसिंह हुजूर" - चंदा को समझ में आ रहा था कि जल की याचना करने वाला यह इनसान कोई साधरण नहीं है ज़रूर कोई खास है। उसने कह कर नजरें नीची कर लीं।
"यूँ अकेली किसी के भी पुकारने पर बाहर नहीं निकलना था समझ गई?" - फरीद ने उसे बरजा और खुद घोड़े पर चढ़ कर चला गया। चंदा ठगी-सी देखती रह गई। फरीद की खूबसूरती से बढ़कर उसका घोड़ा चढ़ने दौड़ाने का अंदाज और उससे भी बढ़ कर उसकी हिदायत कि किसी के पुकारने पर बाहर न निकले। क्यों न निकले? अगर बाहर न निकलती तो उनको पानी कौन पिलाता? ऐसी गरमी की दुपहरी में प्यासे को पानी पिलाना धरम भी है और इनसानियत भी। चंदा को एक खुशबू का एहसास हुआ जिस पेड़ के नीचे वह खड़ा था वहाँ से हवा का एक खुशगवार झोंका आकर उसकी ओढ़नी उड़ाने को आमादा हो गया। चंदा को लगा वह उस इनसान की ओर खिंचती चली जा रही है।
घोड़ा दौड़ाता फरीद एक जोहड़ के पास आया। उतर कर रास ढीली की। उसे पानी पीने को छोड़ दिया। गरमी और प्यास से घोड़ा बेचैन था। फरीद चंदा से पानी माँग कर घोड़े को पिला सकता था पर जाने क्यों वह उसके रूप की आँच सह नहीं पा रहा था मन बेकाबू हो उठा था। वह भाग आया। चंदा के रूप के आँच से भाग आया। एक बार भी मुड़कर नहीं देखा पर अब दौड़कर उसके पास जाने का दिल कर रहा है, अजीब-सी कैफियत है। उसके सुनहरे घने बाल, बड़ी बड़ी नीली आँखें भोला मुखड़ा इसके दिल में उतर गया। पतली कमर और उस पर छलकता जोबन। चोली और चूनर के बीच की दिलकश दूरी जो बेकाबू किए जाता है। उसे कोई गैर न देखे इसी मंशा से फरीद ने कहा कि किसी को पानी पिलाने न निकले। जाने क्यों फरीद ने उसे अपना, निहायत खानगी मान लिया कुछ ही पलों में। घोड़ा पानी पीकर इधर उधर चरने लगा। हरी हरी दूब उसे दीख गई थी। शाम का झुटपुटा होने लगा था। गायें और बकरियाँ जंगल से चर कर घंटियाँ बजातीं गाँवों की ओर लौटने लगी थीं। फरीद भी घोड़े पर चढ़कर हवेली की ओर चल पड़ा। जयसिंह खेत से घर आकर हाथ पैर धेने लगा। घड़े से पानी उँड़ेलकर चंदा उनके हाथ पैर धुलवाने लगी। बिटिया ने चबेने गुड़ के साथ डलिया में लेकर दिए। जयसिंह खाने लगे। खाली घड़ों को लेकर चंदा कुंए पर जल भरने गई। दो चार अधेड़ औरतें वहाँ पहले से खड़ी थीं।
"चंदा, मैंने घोड़े की टाप सुनी तो बाहर निकल कर देखा किसी पठान के तुम घड़े से उड़ेल कर पानी पिला रही थी।" - एक स्त्री ने कहा।
"हाँ काकी, एक राहगीर था, आवाज लगाई तो मैं बाहर गई। वह प्यासा था, चुल्लू में ही पानी पीने लगा। घड़ा भर पी गया।" - चकित-सी कहा उसने।
"अरी प्यासा ही था। पर चुल्लू में क्यों? वह कोई बड़ा आदमी दिखाई दे रहा था, उसे लोटे में पानी देना था, गुड़ की भेली भी देनी था।" -
दूसरी ने कहा।
"अब मैं क्या जानूँ, मुझे लगा प्यासा है उसने भी चुल्लू बाँध लिया।"
"ठीक ही किया, अनजाने को क्या पानी पिलाना लोटे में?" - तीसरी स्त्री ने टीप दिया।
"काकी, उसने भी जाते जाते यही कहा।"
"क्या कहा?" - एक जनी थीं।
"कहा कि किसी के पुकारने पर यूँ अकेली नहीं निकलना चाहिए, अब लो, उसे पानी पिलाया, उसकी प्यास बुझाई वही नसीहत दे रहा है।" - हँस पड़ी चंदा "समझदार इनसान होगा।" - दूसरी ने कहा।
"जब से फरीद खाँ तालुका देखने लगे हैं कोई राहजनी चोरी, उठाईगीरी कहाँ होती है। सारे चोर उचक्के साध हो गए हैं।" - तीसरी स्त्री ने कहा
"बिटिया, उसने ठीक कहा।" - घड़े भर गए थे, सभी ने अपने अपने घड़े उठाए और चलती बनी। चंदा एक के उपर एक दो कलसी और एक कमर पर घड़ा लेकर लचकती हुयी आँगन आई। जय सिंह ने बिटिया के सर से घड़ा उतारा औ घिड़ौंची पर रखा। "एक साथ इतने घड़े लेकर जाने की क्या ज़रूरत थी, मैं ले आता। इतना खाली कर रखती है।"
"नहीं बापू, आज की बात ही जुदा है।"
"क्या जुदा है?"
"एक राहगीर प्यासा था, उसने पानी माँगा। मैं पिलाने बैठी तो सारा घड़ा ही पी गया। इनसान नहीं ऊँट था।" - वह खिलखिल हँसने लगी।
"प्यासा होगा बेचारा। कौन था?"
"मैं क्या जानूँ।" अब और जोर से हँसने लगी।
"कैसा था वह पूछ रहा हूँ।"
"अच्छा-सा जवान था।"
"कपड़े कैसे पहने थे?"
"ओहो, उसने बेशकीमती पठानी कपड़े पहने थे, पगड़ी भी वैसी ही थी।"
"वही पूछ रहा था। वैसे तो इस छोटे से तालुके में अमन चैन है पर कौन जानता है किधर से कौन आता है? बुलावे पर बाहर न निकला कर।" - चंदा ने सोचा जैसा उस जवान इनसान ने कहा वैसा ही बापू भी कह रहे हैं काफी लोग भी कह रही थीं। नहीं निकलूँगी। मेरा क्या। दिन भर चक्की चलाकर चने पीसती रही थी चंदा। यहाँ ज्वार बाजरे तो उपजे नहीं गेहूँ खूब उपजे। आज गट्टे की सब्जी और घी चुपड़ी गेहूँ की रोटियों खिलाएगी बापू को। पिता गंभीर मुदा में बैठकर मूँज की रस्सियाँ बँटने लगा खेतों में सब्जियाँ बोई हैं। सारी सब्जियाँ बरसात में फलेंगी उनके लिए मचानें खड़ी करनी पड़ेंगी। मूँज की रस्सी ही काम आएगी। मचानों पर बरसाती लौकी, सतपुतिया और सेम फलेंगे। इस ओर की हरियाली देख जय सिंह को खेती करने का उत्साह दुगुना हो जाता है। अपनी कुटिया की दीवार पर टँगे तीर तलवार को देख आहें भरता कि कब वह एक सिपाही का रूप धरण करेगा। कब किसी सेना की भर्ती होगी और इसकी तलवार बोलेगी। खेती में मन रमता है, बिना माँ की बेटी को देख देख जी भी तो जलता है। अपने मारवाड़ से दूर बिरादरी में लड़का देखना भी मुश्किल है। साथ आए बुजुर्ग लोग सांत्वना देते कि कुछ कमा धमा ले, अनाज पानी और ढोर डंगरों से फिर ब्याह के लिए सब मिलकर कोई न कोई बिरादरी वाला ढूँढ़ ही लेंगे। रोहतास से भोजपुर, भोजपुर से पटना तक सैकड़ों मारवाड़ी आए होंगे, उनमें से कोई न कोई मिलेगा। अगर न मिले तो इधर के क्षत्रिय से बेटा माँगेंगे। जय सिंह-सा उच्च कुलीन क्षत्रिय और चंदा-सी बिटिया देखकर कौन इनकार करेगा। सब कुछ होते हुए भी जय सिंह का पिता वाला हृदय केले के पत्ते की भाँति जरा-सी बयार से डोल उठता। न दिन को चैन न रात को नींद। सुना हैं और अनुभव भी किया है कि यहाँ किसी प्रकार की लूट मार नहीं है फिर भी विधर्मियों का क्या भरोसा।
फरीद लौटकर आए तो ऊपर धुले परकोटे पर कपड़े बदल लेट गए। एक नौकर बड़ा-सा हाथ पंखा लेकर झलने लगा। थके फरीद को झपकी आ गई। नींद में उन्होंने चंदा को देखा। हाथ बढ़ाकर उसे छूने लगे कि वह खिलखिलाकर हँसने लगी और दूर भाग गई। लंबी चोटी उसकी पीठ पर लोट रही थी। उसके भागने से नागिन-सी बल खा रही थी। फरीद हाथ बढ़ाकर पकड़ना चाह रहा था कि किसी ने आवाज दी - हुजूर, आप गिर जाएँगे।"- नींद टूट गई सपना गायब हो गया। उन्होंने नौकर की ओर गुस्से से देखा। वह सकपका गया। उसे समझते देर न लगी कि उसका नौजवान मालिक किसी हसीन सपने की गिरफ्त में था। सपना टूट जाने की वजह से नाराज हो गया। उसके हाथ पंखे सहित ज्याद तेजी से चलने लगे। फरीद ने फिर आँखें बंद कर लीं पर वह चुलबुली हसीना फिर लौटकर पलकों के बीच नहीं उतरी। फरीद उसका रूप याद कर आहें भरने लगा। दूसरे दिन आप से आप फरीद के पाँव चंदा के दरवाजे पर पहुँच गए। अबके सीधे उसके आँगन में पहुँच गया। चंदा चौंकी पर घबड़ाई नही। उसके पिता खेत की ओर गए थे। उसने अभी अभी खाना तैयार किया था और लेकर खेत जाने वाली थी। पोटली बाँध रही थी।"तुम अपने वालिद के लिए खाना खेत ले जा रही हो? "
"जी हाँ खाँ साहेब।" - उसने आदर से कहा।
"क्या बनाया है?"
"रोटी और साग। आपको प्यास लगी है क्या? तनिक रुकिए" दौड़ कर गुड़ की भेली और लोटे में पानी लेकर आई। फरीद अपलक उसे देखता रहा फिर कहा -
"तुम मुझे रोटी नहीं खिलाओगी?" - वह हँस पड़ी "आप पठान हैं, मालिक दीखते हैं हमारे घर की सूखी रोटी और साग खाएँगे?"
"बिल्कुल खाएँगे। जो तुम खिलाओगी वह खाऊँगा।"
"लीजिए" - आगे बढ़कर पोटली खोलने लगी कि फरीद ने उसका हाथ पकड़ लिया।
"रहने दो, फिर कभी।" - फरीद उठकर जैसे ही आया था वैसे ही चला गया। हाथ पकड़ लेने की प्रतिक्रिया दोनों के ऊपर हुई पर अलग अलग। फरीद की आग अधिक भड़क उठी। इस आग से उसका आमना सामना कभी नहीं हुआ था। वह या तो काफिया के अरवी पाठ से जूझता रहा या तीरंदाजी, तलवारबाजी के दाँव पक्के करता रहा। इतिहास पढ़ते वक्त सियासत के बारे में जानकारियाँ मिलीं, इश्क के पेचोखम से कहाँ गुजरा। किसी पुरसुकून माहौल में कभी रहा नहीं, किसी के गेसू सँवारने का चाव कहाँ से पैदा होता। उसके दिल में एक बेचैनी थी ज़रूर पर औरत पाने की ललक नहीं थी कभी। उसने सिर्फ दो स्त्रियों को नजदीक से देखा था एक उसकी अपनी अम्माँ सबा खातून और दूसरी सौतेली अम्माँ मुन्नी बाई। इसकी नजर में एक निहायत नेक सताई हुई औरत की जो उसकी सगी अम्माँ थी दूसरी सताने वाली थी जिसने सबा खातून की बाँदी बनकर हवेली में दाखिला लिया और सौत बन गई। फरीद के दिल में पहली बार जज्बात जागे वह इस शिद्दत से कि इसकी अक्ल को कुंद कर दिया। वह रोज बरोज चंदा के घर पहुँचने लगा। पूरी बस्ती में कानापूफसी होने लगी। जय सिंह बेहद डर गया। उसने चुपचाप तीरथ के बहाने वहाँ से निकल जाने की योजना बना ली। दो घोड़ों का इंतजाम हो चुका था। नदी किनारे घोड़े छोड़ देने का इरादा था। नाव से रात में ही नदी पार कर दूसरे के जागीर में पहुँच जाएँगे। फरीद वहाँ न पहुँच सकेगा। नदी किनारे चंदा और जय सिंह पहुँचे ही थे कि चंद घुड़सवारों सहित फरीद वहाँ पहुँच गया। उन्हें घेर कर अपने किले में ले आया। "जय सिंह, मैं आपकी बेटी चंदा से मुहब्बत करता हूँ। आप इसे मुझसे दूर नहीं ले जा सकते।" - चीखकर कहा फरीद ने। जय सिंह का चेहरा क्रोध से लाल भभूका हो गया। उसने हाथ तलवार की मूठ पर चले गए। फिर अपने को उसने जब्त किया। उसे पता चल चुका था कि वह शिकारी की गिरफ्त में है। चंदा रोए जा रही थी। अब उसे सब कुछ समझ में आ गया था। कोने में चुपचाप भीगी गौरैया-सी दुबकी बैठी थी। जय सिंह जानता था कि रहम करने को कहेगा भी तो सुनवाई नहीं होगी। सो खून का घूँट पीकर चुप रहा। फरीद ने जयसिंह और चंदा के रहने का इंतजाम किले में ही कर दिया। फरीद अब बेकाबू हुआ जा रहा था। उसने चंदा को अपनी कोठरी से कहीं नहीं जाने दिया। इसके सामने अभी न पठानों अफगानों को एक करने का मसला था न तालुकेदार से सूबेदार बनने और सूबेदार से शहंशाह बनने का ख्वाब था। वह अमीर की पदवी भी नहीं चाहता था। उसे तो सिर्फ और सिर्फ यह हसीना जो इसके दिल की धड़कन बन गई थी उसे हासिल करना था। उतावला हो गया फरीद। आहिस्ते से अगर जय सिंह से बात करके चंदा उसकी बीवी हो जाती तो सब कुछ बड़ी आसानी से हो जाता पर अब जब वे अपनी खेती बाड़ी अपने जीने की आरजू छोड़कर भाग जाना चाहते थे तो यह बेहिस हो गया।