अगन-हिंडोला / भाग - 8 / उषा किरण खान
"चंदा तुम्हें मालूम है न मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ। तुम्हारे बिना नहीं रह सकता। तुमसे निकाह करूँगा।" - फरीद ने इंतिजा की। "हमारा निकाह कैसे होगा मालिक, हमारा धरम अलग है।" - रोती हुई चंदा ने कहा।
"मुहब्बत धरम नहीं देखता। तुम क्या मुझसे मुहब्बत नहीं करती दिल पर हाथ रखकर बोलो।" - चंदा सचमुच फरीद को प्यार करने लगी थी। पर धरम की दीवार और पिता जयसिंह का मान, क्या कहती कैसे कहती। कश्मकश में थी। वह रोती रही। उसके आँसू फरीद से बर्दाश्त न हुए। उसने पहली बार उसे छुआ। उसके आँसू पोंछे, उसे सीने से लगाया। मुहब्बत की खुशबू ने दोनों को अपने में समेट लिया। दो जिस्म दो जान एक हो गए। फरीद ने चंदा को पाकर मानो सब कुछ पा लिया। चंदा ने अपना समर्पण अपनी इच्छा से किया था। वह जानते हुए भी आहत थी। फरीद उसे बार-बार कह रहा था कि वह औरतों की बेहद इज्जत करता है, उससे निकाह पढ़वाएगा। रात भर जय सिंह पिंजड़े में बंद शेर की भाँति छटपटाता रहा। उसका दुर्भाग्य कि उसकी बेटी और बीवी खूबसूरती की मिसाल थी। मारवाड़ से निकलते ही इनका काफिला लूट गया था। काफिले की सभी जवान खूबसूरत औरतें लूट ली गई। जयसिंह की बीवी भी उनमें से एक थी। काफी दिनों तक बच्चे जवान और बूढ़े बूढ़ी कोली बस्ती में शरण लेकर रहे। सुना कि पूरब देश का रोहतास इलाका लुटेरों से महफूज है। बेटी चंदा अब शुक्लपक्ष के चाँद की भाँति बढ़ती ही जा रही थी। पर हाय, यहाँ आकर भी क्या हुआ?
"जय सिंह, ले कुछ खा पी ले और दिमाग लगाकर सोच। फरीद मियाँ यहाँ के जागीरदार के बड़े बेटे हैं, दोनों जागीरों के शिकदार भी हैं। वे बड़े जाँबाज सिपाही हैं, पढ़े लिखे हैं इनका दिल आज तक किसी खातून की ओर नहीं आया था, तेरी बेटी भागोंवाली है। अरे वह उससे मुहब्बत करते हैं हम तो कहते हैं हैं शादी कर दे। तू भी सुख से रहेगा तेरी बेटी भी शान से रहेगी। क्यों नाहक जान देने पर तुला है।" एक सिपाही ने उसे खाना परोसते हुए कहा। "तुम तो हिंदू जान पड़ते हो।" - जय सिंह ने कहा।
"हाँ, तभी तो तेरा खाना लाया हूँ। मालिक ने कहा इसीलिए।"
"हुँह, तेरे मालिक को यह ख्याल क्यों नहीं आया कि मुझ हिंदू की बेटी को उठाकर क्यों ले आया है?"
"दिल का मामला है यार, तेरी बेटी पर दिल आ गया है। वह उससे शादी करना चाहता है।"
"वो कैसे कर सकता है ऐसा? तू ऐसा अपनी बेटी के साथ करने दे सकता है?"
"तो क्या करेगा? उसके वश में है वह जो चाहे करे। शादी करना रखैल बनाने से अच्छा है। फरीद खाँ सूर अच्छा इनसान है। वह रियाया के लिए कितना भला करता है।"
"मैं तो धरम गँवा बैठा। इसीलिए शेखावाटी से चलकर आया था?" -
जय सिंह सर धुनने लगा।
"देख मेरे भाई, जबर्दस्ती अगर रोहतास का किलेदार राजा महारथ सिंह भी बेटी को उठाकर अपनी रनिवास में ले जाए तो भी बुरा है। यह शादी करना उसे जिंदगी भर निभाना चाहता है। आज कई सौ सालों में हजारों क्षत्रियों ने धरम बदला है। इसे तकदीर समझ।"
"क्षत्राणियों ने जौहर भी तो किया है।"
"तू कहीं का राजा है क्या?"
"दिल का राजा हूँ।"
"बड़ा जिद्दी है भाई, पर शेर के मुँह लगे शिकार को किसी युक्ति से ही निकाला जा सकता है।" - रात भर समझने और समझाने का दौर चलता रहा। जयसिंह ने मुँह जूठा किया और जल पीया। मन ही मन कुछ संकल्प लिए। चंदा और फरीद एक दूजे के हो चुके थे। इनकी मुहब्बत का प्याला लबालब भरा हुआ था जितना पीते उतना छलक रहा था। फरीद के इश्क की चाशनी में चंदा ऐसी डूबी कि उसके पंख न रहे साबुत। कोई शिक्वा शिकायत नहीं कोई नया अरमान नहीं। बस फरीद ही फरीद। दोनों का पहला पहला प्यार था वह भी कमसिनी का इश्क। कहीं, कोई पेचोखम नहीं। फरीद ने सुनाया कि जयसिंह खुश है वह किले की सेवादारी करना चाहता है। अब चंदा का मन स्थिर हो गया था। उसे अपने महबूब से निकाह करने से भी इनकार नहीं था। उसे क्या मालूम धरम करम वह तो फरीद की सच्ची सुच्ची मुहब्बत की गिरफ्त में थी।
जयसिंह अब फरीद के साथ रहता। वह अच्छा तलवारबाज था। उसके दिल में आग धधक रही थी। किसी तरह भूल नहीं पा रहा था कि किजिलवाश लुटेरे उसकी बीवी को लूट ले गए और आज जिस तालुके में शरण ले कर अपने को महफूल समझ रहा था उसके शिकदार ने जो तालुकेदार का वारिस है उसकी फूल-सी बेटी को बंदी बनाकर रख छोड़ा है। उसके जहन में इश्क मुहब्बत की जगह नहीं है। वह अपने आपको दुनिया का सबसे बदनसीब इनसान समझता है। वह अपनी स्त्री और बेटी की अस्मत नहीं बचा सका। फरीद के आस पास वह नफरत से लबरेज डोलता रहता। "लाइए मालिक मैं आपके सर को तेल लगाकर मालिश कर दूँ।" - थक कर आए फरीद से जयसिंह ने कहा।
"ठीक है रहने दो। हमारे जैसे सिपाही को मालिश नहीं सोहता।" -
फरीद तीमारदारी करवाने का कायल नहीं था। उसने देखा जय सिंह का चेहरा उतर गया। कहा -
"चलो कंधे दबा दो।" - जयसिंह आगे बढ़ आया।
"शमशीर बाँधे हुए कंधे दबाओगे क्या?" - फरीद ने कहा और टेक लगाकर आँखें मूँद लीं। जयसिंह ने अच्छा मौका देखा। तलवार कमर से निकाल सीधे फरीद की गरदन पर वार कर दिया कि चीते-सी तेजी से फरीद उछला और उसी की तलवार से उसका गर्दन काट दिया। यह सब कुछ ही पल में गुजर गया। पास खड़े अमले सिपाही सकते में आ गए। यह क्या हो गया या खुदा। हे ईश्वर जय सिंह ने यह क्या कर डाला इसकी शंका तो मुझे भी न थी उसके सदा निकट रहने वाले सिपाही ने सोचा और काँप गया कि कहीं फरीद इस पर न रुष्ट हो जाय। चाँद कुँअर को जब यह खबर लगी तो वह पागल-सी हो गई। इधर उधर भागने लगी। फरीद आकर उसे समझाने लगा वह सुनने को भी तैयार न थी। उसे अनुभव हो रहा था कि यह सब उसके कारण ही हो रहा है। उसने देखते ही देखते अपने शरीर में आग लगा ली। फरीद बचाने दौड़ा। उसके अमलों ने उसे कसकर पकड़ लिया। "ऐ नीच दुष्ट फरीद अफगान तूने मेरा धरम भ्रष्ट किया मेरे पिता को मार डाला। कभी सुख नहीं पायगा। जो मिलेगा वह तुझसे यूँ ही छिन जायगा जैसे मैं जलकर मर रही हूँ तू भी ताजिंदगी जलता रहेगा और मरेगा। अरे विधर्मी, मेरे तो किसी पूर्वजन्म का कृत्य होगा जो मैंने भोगा तुझे इसी जन्म में सब कुछ मिल जाएगा।" चंदा ने दम तोड़ दिया। फरीद दीवाना हो चुका था। यह क्या हो गया... उसने ऐसा तो कभी नहीं सोचा था। किसी खातून के लिए मन में बुरा ख्याल नहीं लाया। आज इस नियामत की तरह आई मुहब्बत ने कयामत बरपा दिया। एक तो अपनी अजीज दिलवर का कोयला होना दूसरे घिनौने अपराध की तरह उसके पिता का सरकलम कर देना मुआफी के काबिल नहीं है। कहाँ गया उसका पत्थर जैसा ठोस इरादा और कहाँ गया बड़े से बड़ा इनसान बनने का सपना। सब चूर चूर हो गया। वह बेचैन होकर भाग निकला परकोर्ट से। भागता चला गया जंगल की ओर। एक ऊँची पहाड़ी पर चढ़कर अपनी जहर बुझी कटार निकाल ली। अब मैं अपना कलंकित चेहरा लेकर जीकर क्या करूँगा। न जिंदगी में मुहब्बत रही न इज्जत। कटार उठाकर अपने सीने को चाक करने ही जा रहा था कि एक आवाज आई।
"रुको फरीद, ये क्या कर रहे हो" - संसार क्या है अलग अलग इनसानों की कहानी है। इसी तरह के भाँत-भाँत के खेल होते हैं। जैसा डर था वैसा ही हुआ। इसी की मानिंद एक दिन सबको मिट्टी में मिलना है। जान जाने के बाद रोने से वापस नहीं आते, हमें पता नहीं यह किस इम्तिहान का फल है।" - फरीद उनके पैरो पर गिरकर रोने लगा।
"दुनिया बनाने वाले अल्लाह कहो या ईशपिता के सिवा कोई धरती पर रहने नहीं आया है। वही है जो सदैव रहता है। कुराने पाक के अनुसार सारे संसार का अंत होगा एक दिन। हमेशा रहने वाला है खुदा जिसने इक्तकाल को दुनिया का नियम बना रखा है। इसलिए तुम्हें चाहिए कि तुम अपने दरदे दिल को सँभालो। तुम्हारे जिम्मे परवरदिगार ने ढेर सारे काम दे रखे हैं।" - फरीद को उठाकर नजूमी ने सीने से लगा लिया।
"बाबा, तुम वही हो न जिसने मुझे हिसार में रेवड़ियों के लिए पैसे दिलवाए थे?"
"हाँ मैं वही हूँ।"
"तुमने अपनी नसीहत से दो बार मेरी इज्जत और जान बचाई है। तुम्हारे उपकार का बदला देना मेरी औकात में नहीं है।"
"मुझे नहीं चाहिए कुछ भी। मैं तो अपने परवरदिगार की इबादत करता रहता हूँ। वही जहाँ जहाँ जाने को कहते हैं जाता हूँ, उन्होंने ही इनसानी चक्कर की पहचान दी। इसीलिए मैं कहता हूँ जैसे तेरे खानदान की नियामत घोड़े ही रहे वैसे ही तुझे भी उसकी जीन हमेशा कसी रहे यही करना पड़ेगा। यही तो इशारा है उस पाक परवरदिगार का।"
फरीद का मन ठंडा इुआ। वह आकाश की ओर हाथ उठाकर मालिक से बाकी जिंदगी का वादा कर रहा था। जान बूझकर किसी खातून का बुरा नहीं चाहेगा। बेवजह किसी को सताएगा नहीं, दुश्मनों को बख्शेगा भी नहीं। जो तू चाहेगा मेरे मौला मैं वही करूँगा। आसमान से आँखें धरती की ओर की तो देखा नजूमी गायब है। उसका घोड़ा पास ही चर रहा है। उसे हैरत हुई वह तो दौड़कर निकला था घोड़ा पीछे से आया है शायद। बरसात के बाद जैसे आसमान साफ हो जाता है वैसे ही दिलो-दिमाग साफ हो गया था। दिल हल्का हो गया था पर एक गहरे घाव की पीर पसरी थी। घोड़े पर चढ़कर अपने परकोटे में आया परकोटा धुला पुँछा था, गुलाब अतर की खुशबू फैली थी। एक सिपाही ने इक्तिला दी कि अब्बा हुजूर ने बुला भेजा है। फरीद उल्टे पैर उनके पास चला गया। "यह मैं क्या सुन रहा हूँ। तुमने किसी औरत की खातिर खून-खराबा किया है? यही है तुम्हारे इतने पढ़े लिखे होने की निशानी जाहिलों जैसा काम करते हो? अरे जिंदगी की शुरुआत ही इतनी नाकाम हो तो कैसे आगे बढ़ोगे। मसें भीगनी शुरू नहीं हुई कि इश्क का भूत चढ़ गया। हमने जौनपुर में तुम्हारी सगाई बहाव अफगन की बेटी बीबी कमानी से कर दी थी। अभी सोचा था कि निकाह पढ़वाकर रुखसती करा लाओ पर ना... इधर गुल खिला दिया। अब सिर झुकाए क्यों खड़े हो, जवाब दो?" बीमार हसन सूर बेहद खफा थे।
"आपने बजा फरमाया अब्बा हुजूर, आपका हक है जो सजा दें कुबूल है।"
"आपको यहाँ की शिकदारी से छुट्टी दी जाती है। जौनपुर जाइए और कमानी बीबी से निकाह पढ़वाकर रुखसत करा लीजिए। मुन्नी बाई, उनके रिश्तेदार और बेटे सुलेमान, अहमद तथा इमदाद बैठे थे। फरीद की भूल छोटी नहीं थी परंतु इस प्रकार की सजा दिलवाने में अब्बा के इर्द गिर्द बैठे लोगों का ही हाथ था। चुपचाप उन्हें सलाम कर चले आए फरीद। हसन खाँ सूर ने अपने दूसरे बेटे जो मुन्नी बाई के थे उसे शासन प्रबंध दे दिया। सुलेमान न तो ठीक से पढ़ा लिखा था न फरीद की तरह सूझ बूझ वाला था पर मुन्नी बाई की औलाद था। उसने हसन सूर से वादा लिया था कि उसका वारिस सुलेमान वगैरह इसके बेटे ही होंगे। रियाया को यह सब अच्छा नहीं लगा पर उनके वश कोई बात थी ही नहीं। जमाल खाँ का इंतकाल हो गया था। जौनपुर नहीं जाकर फरीद दौलत खाँ के पास दिल्ली चले गए। दौलत खाँ इब्राहिम लोदी के अमीर थे। दौलत खाँ की सरपरस्ती में उन्होंने कमानी बीबी से शादी की और रुखसती करा के घर बसा लिया। दौलत खाँ इसकी सूझबूझ और कुछ कर गुजरने के जज्बे के बड़े कायल थे। उसकी बेचैनी देखकर एक दिन दौलत खाँ ने पूछा -"तुम इतने बेचैन क्यों हो? मुझे बताओ।"
"हुजूरेआली ऐसे वाकयात जो कहने में शर्म आए मैं कैसे बताऊँ?"
"बेफ्रिक होकर कहो मैं तुम्हारे साथ हूँ।"
"मेरे अब्बा हुजूर की ब्याहता अफगान बीवी का बच्चा मैं हूँ और निजाम है पर अब्बा की और बीवियाँ, बाँदियाँ हैं जिनसे बाकी के छ्ह बेटे हैं। उनमें से एक मुन्नी बाई का कहा वे सुना करते हैं। उसी की साजिश के कारण मुझे शिकदारी से हटा दिया। सुलेमान को सौंप कर जागीर का हाल बुरा कर दिया है। अगर सुलतान से कहकर जागीर मेरे नाम कर दिया जाय तो जागीर का भी भला हो और अब्बा हुजूर का भी।"
"जागीर की भलाई समझ में आई पर अब्बा की खूब कही। वह न तो तुमसे मुहब्बत करते हैं न तुम उनसे तो उनका क्या भला होगा?"
"नहीं हुजूर, वह मुझसे बेइंतहा मुहब्बत करते है मैं यह जानता हूँ मेरी काबिलियत पर भरोसा भी है उन्हें लेकिन वे अपने हालात से मजबूर है। उस बाँदी बीवी के भड़काने पर हमारे खिलाफ हो गए। हो सकता है। वे उनके बीच महफूज नहीं हैं।" - दौलत खाँ ने देखा एक औलाद अपने वालिद की सलामती के लिए बोल रहा है। उनका दिल भर आया। अल्लाहताल ऐसी औलाद बख्श कर हसन सूर पर नियामत बरसाया है। क्या हसन सूर इसकी कीमत जानता है? बहरहाल, अमीर दौलत खाँ सुलतान इब्राहिम लोदी से इसका जिक्र करेगा। वह ही जागीर हसन से लेकर फरीद को दे सकता है। बहलोल लोदी ने हसन को जागीर दी थी। कमानी बीबी की रुखसती करा के फरीद घर ले आया। फरीद का दिल बुझा था पर उसे संसार चलाने की नसीहत नजूमी बाबा ने दी थी उसने अपने खाली घर को दिखाकर कमानी बीबी से कहा - "यह खाली और सूना घर है जिसे आप अपनी मर्जी से भरें दुनियावी बनाएँ। हम तो सिपाही हैं हमें कुछ नहीं आता। आपने अपनी अम्मीजान से जो कुछ सीखा समझा है उसी के मुताबिक चलें क्योंकि हमारा कोई नहीं हम दोनों भाई यतीम हैं।"
"मेरे सरताज, आप ऐसा न कहें। आप हमारे सब कुछ हैं आपके भाई आपके होते यतीम कैसे हो सकते हैं, अब हम भी आ गए, भामी अम्मीजान से कम नहीं होती। हाँ आप अपना काम करते रहें, मैं घर सँभाल लूँगी। बेफिक्र रहें। निजाम भाई की दुनिया भी मैं बसा दूँगी।" - फरीद एक सुलझी हुई समझदार हमनवाज पाकर अपने नसीब पर खुश हो गया।
"मुझे लगता है आगे बढ़ने से मुझे कोई रोक नहीं सकता। आप एक दिन मलिकाए हिंदोस्तान होंगी।"
"जहेनसीब। यह बड़ा ऊँचा ख्वाब है।"
"ख्वाब ऊँचे ही देखना चाहिए। हिंदोस्तान का बादशाह होना तकदीर का फसाना लग सकता है आज पर नामुमकिन तो नहीं। कल को कौन जानता है।
"आपने ऐसा ख्वाब दिल्ली आकर देखा है या रोहतास में ही देख लिया था?"
"जाहिर है रोहतास की पहाड़ी पर बैठ कर खुली आँखों से यह ख्वाब देखा है।"
"तकदीर साथ दे, अपनी कोशिश और अल्लाह की मर्जी हो।"
"जी हाँ मेरे बादशाह।" - सगाई के वक्त फरीद एक खूबसूरत नीली आँखों वाला, काले घुँघराले बाल वाला गदबदा-सा बच्चा था। कलीदार शेरवानी, रेशमी शलवार और जरीदार टोपी में शहजादा दीख रहा था। कमाली बीवी सुनहरे कलाबत्तू के काम की ओढ़नी और भारी गहनों तले दबी थी। अभी कैसा कद निकल आया है दोनों का रूप-रंग और ढंग ही बदल गए। तब तो फरीद की अम्मीजान थीं जो दुल्हन की बलैयाँ ले रही थी। उनकी धुँधली-सी याद है कमानी बीवी को, फरीद बिल्कुल अपनी अम्मीजान सरीखा है। घर गिरस्ती जमाकर फरीद दौलत खाँ के हुजूर में पहुँचा। दौलत खाँ फरीद को लेकर सुल्तान इब्राहिम लोदी के दरबार में पहुँचे। दिल्ली सल्तनत का भव्य दरबार जो कई हाथों से गुजरता हुआ आज इब्राहिम लोदी के कब्जे में था। बेहद नामचीन यह दरबार दुनिया के लिए रश्क करने का सबब यूँ ही नहीं है। हिंदोस्तान मुल्क सोने की चिड़िया कहा जाता है, जिस चिड़िया के सोने के अंडे पाने हजारों साल से लोग बाग उमड़े चले आते रहे हैं। मुहम्मद गोरी ने बीस बार कोशिशें की बिना थके। इक्कीसवीं बार जीता तो क्या जीता अपने नौकरों के हवाले कर लौट गए गोर। फरीद सोचता एक गुलाम जब सैकड़ों साल राज कर सकता है तो मैं तो सिपाही हूँ किसी का गुलाम नहीं। मेरी रगों में ऊँचे खानदान का, ईमानदार लड़ाके का खून दौड़ता है मैं इसे जीतकर रहूँगा। कैसे और कब यह नहीं जानता। इब्राहिम लोदी ने बड़े इत्मीनान से फरीद की कहानी अमीर दौलत खाँ की जुबानी सुनी। कहानी में उन्हें कोई दम नजर नहीं आया। त्योरियाँ चढ़ाकर उन्होंने कहा कि कैसा बेटा है जो बाप बूढ़ा हो गया तो उसकी जायदाद ले लेना चाहता है। जो बीवी उसके पास है उस पर शक करता है। मुझे तो इसकी नीयत पर शक है। दौलत खाँ ने तजवीज की कि किसी को रोहतास भेजा जाय जो वहाँ के वाक्यात खुद पता कर आपको बताए। कहते हैं कि चारों जागीरों की आमदनी भी चौपट हो गई है। सुल्तान इब्राहिम लोदी इस पर राजी हो गया। दौलत खाँ ने फरीद को सब्र से काम लेने को कहा। फरीद में सब्र ही तो नहीं था। दौलत खाँ ने समझाया कि ऊँचे ख्वाब देखने वाले को अल्लाह पर भरोसा और सब्र से काम लेना ही चाहिए।