अगन-हिंडोला / भाग - 9 / उषा किरण खान

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कारिंदा रोहतास से लौट कर आ गया। उसने कहा कि चारों परगनों में आदनी कम हो गई है। क्योंकि लोग बाग खेत छोड़कर भाग गए हैं। हसन सूर का इंतकाल हो गया है। सुनकर फरीद सकते में आ गया। उसके दिल पर चोट लगी कि आखिरी वक्त में वह नहीं था अब्बा ने उसे दूर कर दिया था। शक तो था ही कि कहीं उन लोगों ने अब्बा को जान-बूझकर तो नहीं मर जाने दिया।

इब्राहिम लोदी ने जब यह खबर सुनी तो उन्होंने दौलत खाँ से मशविरा किया। उन्हें लगा फरीद का कहना सही था। "शहंशाहे आलम, फरीद खाँ सूर जागीर की अच्छी तरह हिफाजत करेगा। वह बहुत अच्छा सिपाही है काम आएगा।" सुलतान लोदी ने फरीद और निजाम को अपने पास बुला कर कहा - "तुम्हें तुम्हारे अब्बा हुजूर हसन खाँ सूर की जायदार बख्शी जाती है। चारों परगने तुम्हारे हुए. तुम दो हजार घुड़सवार तैयार करो निजाम और तुम हमारी शाही सेना की टुकड़ी में अपने आप को मान कर चलो। उसके लिए तुम्हें एक हजार टका सालाना मुकर्रर किए जाते हैं।" - सुलतान ने रुक्का लिखकर दिया। दोनों भाई अपने कुनबे सहित रोहतास लौट आए और फिर से हुकूमत करने लगे। फरीद ने सुलेमान को बुलाकर कहा - "सुलेमान, अहमद और इमदाद तुम तीनों मेरे भाई हो तुम्हें हम कुछ काम देते हैं उसे अंजाम दो और जैसे रहते थे वैसे ही रहो।" - सामने में वे चुप रहे पर उन्हें यह सब गवारा न था। वह भागकर जौनपुर चला गया। रोहतास पास था। फरीद के हाथ में छीनकर देने की बात की। वही वक्त था जब पश्चिम से मुगल जहीरुद्दीन बाबर दिल्ली पर हमला करने बढ़ा चला आ रहा था। इब्राहिम लोदी के लिए सूर, पठान अमीर, सरदार तथा तालुकेदार सहायता करने एकजुट होकर बढ़े चले आ रहे थे। बाबर के पास जंग के नायाब हथियार थे, उसके पास खोने को कुछ न था। वह अपना सब कुछ छोड़कर हिंदोस्तान आया था पर इधर सुलतान इब्राहिम लोदी की फौज से टक्कर थी। मुहम्मद खाँ ने सुलेमान को अमन से काम चलाने को कहा और फरीद से कहा कि क्यों न वह एक परगना सुलेमान को अलग कर दे दे।

"यह रोह नहीं है कांधार का कि पुश्तैनी हक है मेरे भाइयों का यह सुलतान का लिखा हुआ रुक्का है मेरे नाम, मैं बाँटकर क्यों दूँगा।" - फरीद ने साफ-साफ कह दिया।

"देखो सुलेमान मियाँ, अभी तो जंग छिड़ी है। यदि बाबर हार जाता है और हमारे सुलतान इब्राहिम लोदी का तख्त सही सलामत रह जाता है तो मैं तुमसे वादा करता हूँ खुद उनसे रुक्का लिखवाऊँगा, फरीद और निजाम से जायदाद छीनकर तुम्हें दे दूँगा।" -मुहम्मद खाँ ने उन्हें कहा। उन पर दबाव डालने के लिए सुलेमान तीनों भाई और अम्माँ मुन्नी बाई भी वहाँ मौजूद थीं। वे सुनकर मायूस हुए पर समय की नजाकत देखकर चुप रहना पड़ा। जंग जो हिंदोस्तान की तारीख बदलने वाली थी उसमें इब्राहिम लोदी मारा गया। बाबर गद्दीनशीन हो गया। मुहम्मद खाँ सरीखे लोग ताश के पत्ते की मानिंद उड़ गए किधर कि पता नहीं चला। पठानों और अफगानों के राजपाट का अंत आ गया। बाबर बादशाह आगरा में था पर उसके डैने फैल रहे थे। सुदूर बिहार में बहार खाँ का राज्य था, फरीद ने अपने को ताकतवर बनाने के लिए उधर की रुख करने की सोची। अपने भाई निजाम से कहा कि वह रोहतास सँभाले खुद बिहार की ओर जा रहा है।

बहार खाँ ने फरीद को गले लगा लिया। उसने उसे अपने साथ ही रखा। उसे मालूम था कि अब सैकड़ों साल से चली आई हुकूमत का आपसी बैर के कारण खात्मे का वक्त आ गया है फिर भी फरीद के कहने के अनुसार एक बार सारे अफगान पठान में भाईचारा की कोशिश करनी चाहिए. फरीद बहार खाँ के पास रहकर सेना बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे। एक दिन पूरे लाव लश्कर के साथ दोनों जंगल में हिरनों का शिकार करने गए कि अचानक एक शेर ने बहार खाँ पर हमला कर दिया फरीद ने चीते की-सी तेजी से उछलकर अपनी तलवार से शेर पर वार कर दिया। शेर का सर धड़ से अलग हो गया। बहार खाँ ने यह रूह कँपा देने वाला मंजर देखा और महसूस किया। क्या कोई शख्स अपनी जान जोखिम में डालकर किसी की जान बचा सकता है? कौन ऐसा फरिश्ता होगा जो एक बार में शेर का काम तमाम कर दे? बहार खाँ होश खो बैठा था। होश में आने पर लाव लश्कर सहित वे बिहार लौट आए. गाँव गाँव में यह खबर फैल गई. अमीर के लश्कर के साथ ग्रामीण बेगार जाते थे। उनमें से कुछ उस दिन हिरन भून रहे थे, कुछ मंजीरे बजाकर गा रहे थे। बहार खाँ उठकर इधर उधर असावधान हो कर टहल रहे थे कि शेर ने हमला किया था। जिस गाँव के बेगार थे वहाँ पेड़ों के नीचे, पनघट पर चौपाल में हर जगह यह किस्सा फैल गया। चश्मदीद बेगार नायक की तरह फरीद को बखान कर रहे थे, क्यों न हो उन्होंने अपनी आँखों से वह अजीबोगरीब नजारा देखा था। अमीर बहादुर खाँ ने दरबारे खास बुलाई और सारा किस्सा अपने मुँह से बयान किया। "आज अगर वहाँ फरीद मियाँ न होते तो आपका यह अमीर आपके सामने न होता। यह इनसान नहीं फरिश्ता है यूँ तो बहादुर तरवल्लूस मेरा नाम है पर असल में यही बहादुर है। सुनने में आया था कि ऐसा भी होता है आज देखा है इतने लोगों ने अपनी आँखों से देखा, मैंने महसूस किया है। कैसे मौत के मुँह से इस फरिश्ते ने मुझे खींच निकाला। आज मैं कुछ एलान करना चाहता हूँ। फरीद खाँ आज से शेर खाँ कहलाएँगे। इस तरह का खत मैं लिखकर सभी अफगान और पठान अमीरों, सुबेदारों और सुलतान के पास भेजता हूँ। आमो खास में एलान कर दिया जाय कि फरीद खाँ सूर अब शेर खाँ सूर कहे जाएँगे।"

"आमीन आमीन" - दरबार से आवाज आई.

"हम आज से शेर खाँ को अपना वजीर मुकर्रर करते हैं।"

"बेहतर-बेहतर" - दरबारे खास से आवाज आई.

"अपने बेटे जलाल खाँ को इन्हें सौंपते हैं कि ये उन्हें तालीम देकर अपनी तरह का आलिम बनाएँ, अपनी ही तरह के सिपाही भी बनाएँ। सभी तरह के हथियार चलाकर सिखाएँ। शेर खाँ आपको कुछ कहना है?" "जहेनसीब हुजूर, आपने मुझे बहुत इज्जत बख्शी। जहाँ तक शेर मारने की कुव्वत का सवाल है तो वह मेरा अपना कतई नहीं हो सकता सब उस पाक परवरदिगार का कमाल है उसी ने वह लम्हा चुना जिसमें मुझ जैसे नाचीज के हाथों आपकी जान बच गई."

"तुम पर अल्लाह की नेमतें बरसें शेर खाँ सूर। तुममें कोई बात है। यूँ ही कोई इतना बड़ा काम करके चुप नहीं बैठता। तुममें कुव्वत है मेरे दिल में आस जगी है कि तुम्हारे जैसे सिपाहियों के दम पर अफगान पठान फिर अपने पुरखों का हक हासिल कर लेंगे।