अथ सवर्ण स्त्री प्रति-आख्यान / भाग 2 / गरिमा श्रीवास्तव
राससुंदरी देवी का जीवन और लेखन एक-दूसरे के लिए बहुत महत्व रखते हैं। वह 1809 में पबना जिले के पोतजिया ग्राम में पैदा हुईं। बारह वर्ष की उम्र में विवाह और पच्चीस वर्ष की अवस्था तक वह बारह संतानों को जन्म दे चुकी थी। घर-परिवार की व्यस्तता और पारिवारिक कर्त्तव्यों का पालन करते हुए चोरी-छिपे पढ़ना-लिखना सीख लिया और धार्मिक ग्रंथ पढ़ने लगीं - 'घर में कोई कागज पड़ा रहता था तो उसकी तरफ देखती भी नहीं थी कि कहीं लोग यह न कहें कि वह पढ़ रही है। प्रार्थना करती थी कि हे ईश्वर! मुझे पढ़ना सिखा दो।' रसोईघर में छुपा कर वह किसी तरह अक्षर मिला-मिला कर पढ़ती हैं, परिवार के सदस्यों को हर संभव तरीके से प्रसन्न रखने का प्रयास करती हैं। घरेलू व्यस्तता के कारण कभी-कभी भोजन भी नहीं खा पातीं, सम्पन्न ब्राह्मण परिवार की बहू और बाद में 'गृहिणी' की उपाधि की कीमत कड़े परिश्रम से चुकाती हैं। वर्षों अपने मायके नहीं जा पातीं, यहाँ तक कि माँ के मरने पर भी, उनका जाना नहीं हो पाता - “मैं अपने घूँघट के भीतर रो लेती थी और कोई जान नहीं पाता था।” अपने जीवन के बारे में राससुंदरी लिखती हैं - “पाँच-छह वर्षों तक कोई विशेष स्मृति नहीं है। जब मेरी उम्र सात या आठ हुई तो बुद्धि आनी शुरू हुई। बारह वर्ष की उम्र में विवाह हुआ, छह वर्षों तक नवेली दुल्हन रही। इसे चमत्कार ही कहेंगे कि मेरे शरीर से इतनी चीजें बाहर निकल आईं और मुझे उनके कारण के बारे में कुछ भी मालूम नहीं। धीरे-धीरे मैं बूढ़ी होती गई, मेरा शरीर झूलता गया, ढीला पड़ता गया। मेरा जन्म 1809 में हुआ 1897 में यह आत्मकथा प्रकाशित हुई। अब मैं 88 वर्ष की हुई, अचानक सब कुछ बदल गया, मेरा शरीर, मेरा दिमाग, आदतें - पहले से नितान्त विपरीत। इस बीच 1875 में मेरे कर्त्ता स्वर्ग सिधार गए। स्वर्णमुकुट मुझसे छिन गया। लेकिन मुझे इसका कोई पछतावा नहीं हैं, ईश्वर जैसे चाहे मुझे रखें।”
राससुंदरी देवी अपनी आत्मकथा में बार-बार ईश्वर की दयालुता, कृपालुता की चर्चा करती हैं। उन्हें बराबर इस बात का एहसास है कि उनका समाज, स्त्री का पढ़ना-लिखना सहज ही स्वीकार नहीं करेगा। इसलिए यदि अपनी जीवन कथा पर ईश्वर कृपा या पवित्र ग्रंथ का मुलम्मा जरूरी है, इसके अभाव में पाठक उनकी रचना को 'संभवतः' स्वीकार नहीं करेंगे। तत्कालीन बंगाली समाज में स्त्री की साक्षरता स्त्री के विपक्ष में समझी जाती थी। आशापूर्णा देवी की कथाकृति 'प्रथम प्रतिश्रुति' इसे बहुत अच्छी तरह अभिव्यक्त करती हैं। ईसाई मिशनरियों के सकारात्मक प्रयासों को रूढ़िवादी परिवार संदेह की दृष्टि से देखते थे। समाज के इस अतिवादी, दमनकारी रवैए की मुखालफत करना एक निहायत साधारण घरेलू स्त्री के लिए संभव नहीं था, ऐसे में राससुंदरी की आत्मकथा का प्रकाशन अदम्य साहसिक कार्य था। उन परिस्थितियों पर भी विचार किया जाना जरूरी है, जिनमें राससुंदरी देवी ने आत्मकथा को अभिव्यक्ति की विधा के रूप में चुनने का निर्णय लिया। ('आमार जीबन' से पहले के आत्मकथ्यों में तीन उल्लेखनीय हैं - देवेन्द्रनाथ ठाकुर (स्वरचित जीवन चरित), दीवान कार्तिकेयचंद्र (आत्मजीवन चरित) और राजनारायण बोस (आत्मचरित), जिसका अंग्रेजी में An Account of Myself शीर्षक से अनुवाद हुआ। शारदासुन्दरी ने संस्मरण लिखे जो Tale to Myself शीर्षक से अनूदित हुए। ध्यातव्य है कि ये सब प्रसिद्ध और विशिष्ट व्यक्तियों की श्रेणी में आते थे। देवेन्द्रनाथ ठाकुर ब्रह्म समाज और सुधार आंदोलन में अगुआई के लिए, शारदा सुन्दरी देवी केशवचन्द्र सेन की माँ थीं, कार्तिकेय चंद्र सेन एक बड़ी रियासत के प्रबंधक और राजनारायण बसु प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता और लेखक के रूप में स्थापित थे।) अन्तःसाक्ष्य बताते हैं कि बाँग्ला में चैतन्य महाप्रभु की पहली जीवनी “चैतन्य भागवत” देखकर राससुंदरी में पढ़ने-लिखने की लालसा जगी। राससुंदरी ने जोड़-जोड़कर लिखना सीखा, इस पढ़ना-लिखना सीखने की यात्रा के दौरान कई कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन चैतन्य के जीवन पर जितनी पुस्तकें एक समृद्ध परिवार में उपलब्ध हो सकती थीं सबको पढ़ डाला। आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ने का प्रभाव निश्चित रूप से उनके लेखन पर भी पड़ा। वह स्वयं को 'जिताक्षरा' कहती हैं - वह जिसने अक्षर की आत्मा को चीन्ह लिया हो। राससुंदरी देवी को लगता है कि कृष्ण और चैतन्य यानी आराध्य और भक्त जैसा संबंध ही उनका भी ईश्वरीय सत्ता से है और ईश्वर ने अन्यान्य कष्ट देकर उनकी भक्ति की परीक्षा की है। परंतु हिन्दूवादी शास्त्रीय अवधारणाएँ आत्मसात कर उन्हें अभिव्यक्त करना मात्र राससुंदरी का उद्देश्य नहीं है। आत्मकथा को आध्यात्मिक बाना पहनाए जाने के बावजूद रचनाकार अपने जीवन संघर्ष में आस्था, जीवन शक्ति की खोज कैसे करती है - यह देखना महत्वपूर्ण है। अपनी पीढ़ी की पहली स्त्री रचनाकार 'आत्मचेतना' की अभिव्यक्ति के लिए कौन-सा औजार इस्तेमाल कर रही थी, जिसे गृहस्थी चलाने का साधन, परिश्रमी देह, अनन्त सन्तानसंभवा देह से परे कुछ न समझा गया हो, वह स्वयं को देह से परे और देह से ढँके मन की परतों को उघाड़कर देखने के लिए आमंत्रित करती है। परंपरा से आत्माभिव्यक्ति के जो भी माध्यम उसे उपलब्ध हैं - जैसे रोना, गाना, व्रत, पूजा, ईश्वरार्चन आदि, वह उन सब का अतिक्रमण और इस्तेमाल दोनों करती है। लिखना-पढ़ना उसका क्षेत्र नहीं, इसलिए अपनी परंपरागत भूमिका और छवि दोनों को बनाए रखते हुए उसके सामने आत्माभिव्यक्ति की चुनौती है। राससुंदरी की भाषा देखकर ऐसा नहीं लगता कि यह एक नवसाक्षर का प्रथम प्रयास है। अनुमान लगाया जा सकता है कि या तो उन्होंने लेखन का निरंतर अभ्यास किया था (हालाँकि उनके नाम से कोई और रचना हमें मिलती नहीं) या उनके लिखे हुए को बाद में चलकर किसी ने सँवार-सुधार दिया हो। कहीं-कहीं उनकी भाषा बिल्कुल बौद्धिक विमर्श या चिन्तन की मुद्रा लिए हुए है। ज्यादातर स्थलों पर 'आमार जीबन' की भाषा तत्कालीन पुरुष रचनाकारों जैसी ही है। यह गौरतलब है कि बंगाल में पुरुषों की गद्य रचना और स्त्री लेखन में बहुत ज्यादा अन्तराल नहीं रहा।(बाँग्ला चरित साहित्य - 1801-1941, देवीपद भट्टाचार्य, कोलकाता, 1964, पृ० 79-81)
राससुंदरी ने आश्चर्यजनक रूप से आत्मकथा में सनसनीखेज प्रसंगों का जिक्र नहीं किया। स्वप्न-दर्शन, मृत्यु के पूर्व 'संज्ञान', पुत्रों का मृत्यु-शोक इत्यादि दृश्यों के अतिरिक्त आत्मकथा के पहले भाग में वे सिर्फ अपनी कथा कहती हैं - बचपन में एक भयातुर बच्ची, दस वर्ष की उम्र तक आते-आते प्रशंसा की इच्छा से गृहस्थी का समूचा कार्य सीख लेना, परिवार-संबंधियों में उनकी तारीफ, इन सबका जिक्र बार-बार आता है। दूसरे भाग की अपेक्षा पहले भाग में संवादधर्मिता ज्यादा है। साक्षर होने की घटनाओं की प्रस्तुति में तर्क और कौशल दोनों हैं। लेकिन ठीक इसी के बाद वे वैधव्य की घटना पर पहुँच जाती हैं। वृद्धावस्था, स्वप्न-श्रवण, पुत्र शोक, ईश्वरीय अनुरक्ति जैसे विविध प्रसंग संवेदना को घेर लेते हैं। ऐसा लगता है कि जिन घटनाओं की जरूरत थी, या जिन प्रसंगों को कहना सार्थक लगा, उन्हीं को ब्यौरेवार ढंग से लिखा गया है, शेष को यूँ ही निपटा दिया गया है। यहीं आकर 'आत्मकथा' का एकान्वित प्रभाव नष्ट हो जाता है। यहाँ से वे स्मृति के एक-एक परमाणु की शिनाख्त करती दिखाई देती हैं। यहाँ घटनाओं और उनके भीतर छिपे अर्थ संदर्भ का पारस्परिक संबंध विशृंखलित हो जाता है। छोटी-मोटी घटनाएँ उलझ-सी जाती हैं और जीवन के प्रति एक सामान्य-सी समझ रचनाकार की दृष्टि को आच्छादित कर लेती है। कई बार जीवन के आदि और अन्त का क्रम गड्डमड्ड दिखाई देता है।
लेकिन इसे वृद्धावस्था के स्मृति-भ्रम के रूप में न देखकर नूतन परावर्तन के रूप में देखा जाना चाहिए। लिखना-पढ़ना सीखना राससुंदरी देवी के समूचे जीवन की चरम उपलब्धि है। साक्षर होते ही रचनाकार का विश्वास, उसकी बौद्धिकता, उसका परिश्रम और स्त्री होने की पीड़ा - सब संपृक्त हो जाते हैं। भविष्य बिल्कुल प्रत्यक्ष हो जाता है। लिखना सीखकर वह जीत गई है - जीवन के तमाम संघर्ष, बाधाएँ, दुख, अकथ वेदना पर परिश्रम और लगन ने विजय पाई है। पाठ के भीतर छिपा रहस्य जैसे उजागर हो गया है। स्त्री जो कहना चाहती थी कह चुकी है - अब पाठ भी रिक्त हो गया है। रचनाकार का उद्देश्य पूरा हो गया है, अब जो कुछ बचा है वह घटनाओं का दुहराव भर है। जीवन के उत्तर पक्ष की घटनाओं का भौतिक पक्ष यहाँ गौण है। अब सिर्फ अर्थ विस्तार की आवश्यकता रह गई है, जिसके लिए जीवन के किसी भी मोड़, किसी भी बिंदु, ईश्वरीय चरित्र के किसी प्रसंग से कोई भी उद्धरण दिया जा सकता है। अब वह अपना जीवन पूरी तरह ईश्वर को समर्पित करती हैं, कहीं-कहीं सामाजिक प्रथाओं, साक्ष्यों का विरोध भी करती हैं, समाज की रूढ़ प्रथाओं और दुखद परिणामों का उल्लेख भी करती हैं। इन सबके दौरान रचनाकार कई साहित्यिक विधाओं का इस्तेमाल करती है। संदर्भ, उद्धरणों के साथ-साथ कविता, कहानी, बहस कई विधाएँ साथ-साथ चलती हैं। जैसे-जैसे पाठक आत्मकथा पढ़ता चलता है, यों लगता है कि एक आधुनिक सोच की रचनाकार ईश्वरीय सत्ता और आध्यात्मिक दर्शन की ओर उन्मुख होती जा रही है। कहीं लंबे आत्मालाप हैं, कहीं अत्यंत आत्मीय ढंग से पाठक को संबोधित करती हैं, कहीं-कहीं ईश्वर को सीधे-सीधे संबोधित करती हैं। पूरी आत्मकथा में इस सचेतनता के प्रमाण हैं कि रचनाकार मुद्रित माध्यम से अपनी बात पाठक के सामने पहुँचा रही है। कहीं-कहीं आत्मस्वीकार की मुद्रा भी दिखाई देती है। उसे पूरा एहसास है कि वह पहली स्त्री है जो बंगाल में 'आत्मकथा' लिख रही है। संयुक्त परिवार व्यवस्था जिसमें 'गृहिणी' देवी है या दासी। नहीं है तो केवल 'मनुष्य'। जूता सिलाई से लेकर चंडीपाठ के काम उसके पास हैं। नहीं है तो केवल 'समय' - कभी-कभी इतना भी नहीं कि वह भोजन कर सके। सब को खिला चुकने के बाद वह बच्चों को सुलाती है, उनके सो जाने के बाद भात की थाली खींचकर बैठती है तो बच्चा जग जाता है, पति का अनुशासन कड़ा है। स्त्री धर्म का तकाजा है कि पति की नींद में बच्चे के रुदन से खलल न पड़े। कुल की मर्यादा का दायित्व इतना है कि दाई-नौकरों के सामने वह भोजन नहीं कर सकती।
सवर्ण स्त्री के कष्ट की महागाथाएँ अनन्त हैं, पर मूक। वह 'कुलनारी' है - सामान्या नहीं। उससे जितने श्रम की अपेक्षा की जाती है - उतना श्रम वह कर पाई, यह 'ईश्वरीय चमत्कार' से कम है क्या! दो-दो दिन भूखी रहने पर भी वह स्वस्थ रह पाई, इसके पीछे 'ईश्वर कृपा' नहीं तो और क्या है? राससुंदरी का व्यंग्य-बोध यहाँ देखने लायक है। अन्त में राससुंदरी लिखती हैं, 'मैं चाहती हूँ पाठक इस सबको जाने।' प्रतिदिन प्रातः चार बजे से रात्रि बारह बजे तक निरन्तर श्रम किसी यातना से कम नहीं। श्रम में, सेवा में, कर्त्तव्य में कोई व्यतिक्रम नहीं, 'अच्छी बहू', 'कुलीन नारी' के विशेषणों से सुसज्जित स्त्री यातना का स्मरण अपनी वृद्धावस्था में कर रही है - यातना का प्रत्याख्यान यातना से कम नहीं इसलिए घरेलू जीवन की दिनचर्या के एकाध दिनों की चर्चा वह पर्याप्त समझती है। लिंगाधृत मानसिकता समाज के प्रत्येक वर्ग में स्त्री को पीड़ा और यातना के अनुभव देती है - यहीं पर 'कुलीन' स्त्री का आख्यान सामान्य स्त्री के आख्यान में बदल जाता है। वह कहीं-कहीं एकालाप करती है, जिसमें उसका आत्मविश्वास 'ईश्वर' के नाम से अभिव्यक्त होता है। अपना सुख-दुख ईश्वर को समर्पित कर देना एक ढंग से अपने एकाकीपन की अभिव्यक्ति है तो दूसरी ओर वैष्णव धर्म में पाई जाने वाली दीनता का प्रभाव भी। ईश्वरीय सत्ता ही उसके निकट अपने किए हुए उचित-अनुचित के निर्णय की क्षमता से संपन्न है, कोई और नहीं।
'आमार जीबन' में राससुंदरी देवी एक ऐसी रचनाकार के रूप में उभरकर आती हैं, जिसका एक स्वतंत्र और निजी सोच है - मनःसंसार है। बचपन से ही उसका अपना संसार है, जिसके बारे में उसकी माँ भी नहीं जानती। माँ ने अनजाने में उसके पूरे व्यक्तित्व को भयाक्रांत कर दिया, उसने मन की बात कभी कही नहीं। विवाह के बाद अपरिचित घर, व्यक्ति, परिवेश का भय सबकुछ आँसुओं के रास्ते बहता है- उसके मन को समझने वाला कोई नहीं। यहाँ तक कि 'पति' से भी उसे डर लगता है - उन्हें वह 'कर्ता' कहकर सम्बोधित करती है - वह पति के घोड़े तक से भय खाती है। इतनी डरपोक स्त्री पढ़ना-लिखना सीखना चाहती है, बड़े-बुजुर्गों की नसीहत के खिलाफ। अपनी इच्छा के बल पर वह पुस्तकों के निषिद्ध जगत में प्रवेश कर जाती है, चुपचाप, जब कि उससे अपेक्षा की जाती है कि वह घर-गृहस्थी के जंजाल में खोई रहे और अपने जीवन को सार्थक समझे। ये उसका नितांत निजी चुनाव है, जिसमें कोई सहायक नहीं - स्वयं को देखने का, तलाशने का निजी नजरिया। पूरे जीवन में एक बार ही वह पति की अनुपस्थिति में एक कानूनी निर्णय लेती है, लेकिन प्रतिक्षण डरी हुई रहती है - 'कर्ता' क्या कहेंगे। चैतन्य भागवत का एक पन्ना चोरी से फाड़ लेती है, बचपन में सीखे अक्षरज्ञान की स्मृति को पुनरुज्जीवित करती है - यह सब करती है सबसे छुपकर। चूल्हे के पास वह पन्ना छुपा लेती है - घूँघट की ओट में अक्षर मिला कर पढ़ने का प्रयास करती है। पूरे समाज को शिक्षा देने वाले ब्राह्मण वर्ग की स्त्री की विवशता प्रत्यक्ष है। इस विवशता की शृंखला तोड़ने के लिए उसे अपने मानसिक क्षितिज का परिविस्तार करना होगा - यह तलाश उसकी अपनी है, बचपन में राससुंदरी को 'अच्छी लड़की' की उपाधि मिली क्योंकि वह खेल-कूद छोड़कर अपनी एक लाचार रिश्तेदार की सहायता करने के क्रम में घर-गृहस्थी का काम सीख लेती है, बगैर जाने कि 'अच्छी लड़की' का तमगा उसके पैरों की बेड़ी बन जाएगा। वह लिखती हैं, “इसके बाद मैं कभी खेल नहीं सकी, दिन-रात काम और बस काम।” युवावस्था के प्रथम चरण में ही वह समझ जाती हैं कि अच्छी स्त्री और 'सद्गृहिणी' का खिताब कृत्रिम है। सुयोग्य गृहिणी बनने के बाद भी वह अपना स्थान परिवार में सुरक्षित नहीं कर पाएगी, इसमें संदेह है, क्योंकि स्त्री परिवार के लिए एक देह है, मर्यादा है, वंशबेल बढ़ाने का साधन, वह माँ है, जिसका 'अपना' कुछ भी नहीं - “जब मैं अपने पिता के घर थी, तब तक मेरा एक नाम था जो बहुत पहले ही कहीं खो गया। अब मैं विपिन बिहारी सरकार, द्वारकानाथ सरकार, किशोरीलाल सरकार, प्रतापचंद्र सरकार और श्यामासुन्दरी की माँ हूँ। अब मैं सबकी माँ हूँ।”
राससुंदरी देवी जैसी अनेकानेक स्त्रियों को परिवार के खास साँचे में ढालने के लिए समाज अनेक औजारों का इस्तेमाल करता है - यह 'व्यक्ति' को 'टाइप' बनाने का प्रयास है, व्यक्ति के तौर पर इस मध्यवर्गीय स्त्री की निजी कोई पहचान नहीं। उसे 'देवी' बनाने की प्रक्रिया में समाज, गृहस्थी का हित है, लेकिन इस प्रक्रिया से गुजरना स्वयं 'स्त्री' के लिए कितना कष्टप्रद है, इसे इस तरह समझा जा सकता है कि राससुंदरी देवी अपनी ससुराल को 'पिंजरे' की संज्ञा देती है - “वह जीवन मेरे लिए किसी पिंजरे से कम न था - जीवन पर्यन्त अब मुझे इसी पिंजरे में रहना था। मुझे अपने परिवार से छीन लिया गया था, धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता मैं एक पालतू पक्षी बन गई।” राससुंदरी देवी ने परिवारजनों, ससुरालवालों को, नए माहौल को स्वीकार तो कर लिया, लेकिन ससुरालवालों को उसने जो आदर और सम्मान दिया वह दबाव, प्रशिक्षण और आवश्यकता का परिणाम था। राससुंदरी ईश्वर को धन्यवाद देती हैं कि ईश्वर की कृपा से उसने सब कठिन परीक्षाएँ पास कर लीं जिससे उन्हें सुघड़ बहू, सुघड़ गृहिणी का खिताब मिला।
इस सब के बदले में उन्हें 'सिर्फ' अपना जीवन देना पड़ा। सिर्फ उनकी स्वतंत्रता उनसे छीन ली गई, यहाँ तक कि माँ के मरने पर भी उन्हें मायके जाने की इजाजत नहीं मिलती। (द डिफरेंस/डेफरल ऑफ ए कोलोनियल मॉडर्निटी पब्लिक डिबेट्स ऑन डोमेस्टिसिटी इन बंगाल, सबआल्टर्न स्टडीज - खंड 8 में, दीपेश चक्रवर्ती, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली, 1994) यही कारण है कि जीवन के उत्तरार्द्ध में अपना अतीत उन्हें घृणा से भर देता है। राससुंदरी लिखती हैं - “जब भी पीछे देखती हूँ, घृणा से मन भर जाता है, टशर की साड़ी, भारी जड़ाऊ जेवर, शंख, चूड़ियाँ, सिन्दूर सब परतंत्रता की बेड़ियाँ।” राससुंदरी परम्परागत हिन्दू स्त्री के सुहाग चिह्नों की निन्दा करती हैं। उन्हें गुलामी मानती हैं। उन्हें अपने पुरुष संबंधियों से बातचीत करने की आज्ञा नहीं, घर के बड़े-बूढ़ों से नीची आवाज में बात करने की आदत ऐसी हो जाती है कि आगे चलकर पति और युवा पुत्रों से भी डरती हैं। उनके कर्त्तव्यों का अन्त नहीं, बीमार सास की देखभाल, भोजन, बाल-बच्चों की सार-सँभाल, गृहदेवी की नित्य आडंबरपूर्ण पूजा का वृहत सरंजाम, घर में पच्चीस सदस्यों के लिए भोजन बनाना - चौदह वर्ष की उम्र में, उन पर समूची गृहस्थी का बोझ। इन सभी उत्तरदायित्वों को पूरा करने में उन्होंने पूरी दक्षता दिखाई लेकिन स्वयं के लिए कोई समय नहीं निकाल सकीं। राससुंदरी का कहना है कि यद्यपि उन्होंने पूरा जीवन अच्छी तरह कर्तव्य निभाए फिर भी मृत्यूपरांत उन्हें 'आदर्श स्त्री' के रूप में उन्हें कोई याद करेगा, यह सुनिश्चित नहीं। राससुंदरी परंपरागत आदर्श हिन्दू स्त्री की छवि का विखण्डन करती हैं। जो कार्य उन्हें संवेदनात्मक तृप्ति नहीं देते जैसे भोजन पकाना, देवता-पूजन का नित्य आडंबर, इन्हें वह 'मजदूरी' की संज्ञा देती हैं। अट्ठारह से इकतालीस वर्ष के बीच उन्होंने चौदह बच्चों को जन्म दिया। लगभग एक साल के अंतराल से उन्होंने संतानोत्पत्ति की तेईस वर्ष की अवधि में। संतान-प्रसव की यह दर उनके लिए प्राणलेवा हो सकती थी। (1901 की जनसंख्या रिपोर्ट बताती है कि इस दौरान प्रसूति-मृत्यु दर काफी ऊँची थी - भारत की जनगणना 1901, खंड VI, The Lower Provinces of Bengal and Their Feudatories, Report by E.A. Gait, Calcutta, 1902, पृष्ठ 240) ध्यातव्य है कि इन वर्षों में वह निरन्तर घरेलू श्रम (अनुत्पादक) में भी जुटी रही, जब तक कि पुत्रों का विवाह नहीं हो गया।
राससुंदरी आत्मकथा में जिन प्रसंगों का उल्लेख मुख्य तौर पर करती हैं, वे हैं मुख्यतः पढ़ने-लिखने की इच्छा, गृहकार्य के दायित्व, और ईश्वरीय अनुकम्पा। पंद्रहवें अवतरण में उन्हें अचानक याद आ जाता है कि अब तक पति के बारे में उन्होंने कुछ कहा नहीं है - “मैं कह सकती हूँ कि वे एक अच्छे इंसान थे। कद्दावर थे, अपने मातहतों और किराएदारों के प्रति दयालु थे, अतिथि सत्कार करते थे। कानून मानने वाले थे। हमेशा मुकदमों में उलझे रहते थे। मैं अपने पति से डरती थी। वे नैतिक और कर्मशील थे।” पूरी आत्मकथा में पति का जिक्र दो-तीन बार ही आया है। राससुंदरी का कहना है कि रात में बच्चे की रुलाई सुनकर 'कर्ता' नाराज हो जाते थे। एक प्रसंग ऐसा भी है जहाँ राससुंदरी पति के घोड़े के सामने से गुजरते हुए भी संकोच करती हैं। यह समझना कठिन नहीं है कि पति के साथ स्त्री के संबंध राजा-प्रजा या शोषक-शोषित के दर्जे से बहुत बेहतर नहीं रहे होंगे। लेकिन उसी पति की मृत्यु की घटना को राससुंदरी 'स्वर्णमुकुट' का छिन जाना कहती हैं। विधवा स्त्री की सामाजिक स्थिति दयनीय थी, समाज में विधवा पुनर्विवाह जैसी बातें आभिजात्यवंशीय परिवारों द्वारा स्वीकृत नहीं थीं। फिर भी, विधवा होकर जैसे राससुंदरी 'मुक्ति' का निश्वास लेती हैं। 'आमार जीबन' के दूसरे भाग में वे कहती है - “मैं चैत्र मास 1216 में जन्मी और अब 1303 चल रहा है। अब 88 वर्ष की हूँ और उस ईश्वर का धन्यवाद करती हूँ जिसने इतनी लम्बी आयु मुझे प्रदान की।” एक ओर वे वैधव्य भोग रही हैं, दूसरी ओर स्वयं को सौभाग्यशाली मानती हैं। उस समय के बंगाल में विधवाओं की स्थिति को देखते हुए राससुंदरी देवी का यह कथन आश्चर्यचकित करता है। लेकिन इसके पीछे कहीं न कहीं पारिवारिक गुलामी से मुक्ति का 'सौभाग्य' व्यंजित है, नहीं तो क्या कारण है कि आत्मकथा का पहला भाग उनके पति के मरने के ठीक एक वर्ष बाद ही प्रकाशित हुआ।
आत्मकथा का दूसरा भाग ईश्वरीय लीला की चर्चा, कृष्ण और चैतन्य के विभिन्न अवतारों पर केन्द्रित है। राससुंदरी बार-बार ईश्वर को धन्यवाद देती हैं, जिसने जीवन के प्रत्येक क्षण में संकट से उबारा है। स्वयं को तुच्छ मानवी के रूप में घोषित करना और रचना-प्रेरणा के रूप में कृष्ण-चैतन्य का वर्णन करना ही प्रत्यक्ष है जहाँ पाठक रचनाकार को एक दार्शनिक मुद्रा में रूपांतरित होते हुए देखता है। सवाल यह है कि यदि कृष्ण और चैतन्य के लीला प्रसंगों और ईश्वरीय दयालुता का वर्णन करना राससुंदरी का अभीष्ट होता तो वे आत्मकथा जैसी नूतन और आधुनिक विधा का चुनाव क्यों करतीं? उन्नीसवीं के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के आरंभिक दौर में स्त्री लेखन के साक्ष्यों में भक्ति-अध्यात्म और परम्परा से विद्रोह का अद्भुत सामंजस्य हमें दिखाई देता है। स्त्रियाँ अपनी-अपनी सीमाओं में नई संभावनाएँ तलाशती दिखती हैं, साथ ही ऊपरी तौर पर पितृसत्तात्मक समाज में गुलामी भी करती हैं। इस संदर्भ में दमयंती सेन की जीवनी के एक प्रसंग का उल्लेख अप्रासंगिक न होगा जो एक ओर चोरी-छिपे पढ़ना सीख रही थीं और दूसरी ओर पति के चरण धोए पानी को रोज पीती थीं। इसी तरह प्रभावती देवी ने, पूर्णतः साक्षर थीं, एक दिन पाया कि देवी-देवताओं की तस्वीर की जगह उनके पति की तस्वीर रख दी गई थी। उनसे कहा गया कि वह अब से पति की तस्वीर की ही पूजा करे। (इंडियन वीमेन : एन इनर डॉयलॉग, इंदिरा पारेख, पुलिन गर्ग, सेज प्रकाशन, नई दिल्ली, 1989) पढ़ना-लिखना सीख लेने वाली स्त्री पितृसत्तात्मक समाज में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए एक नई 'रणनीति' विकसित करती दिखाई देती है - एक ओर स्त्री कर्त्तव्य, स्त्री धर्म, आत्मत्याग समर्पण, आस्था और स्त्रियोचित मूल्यों की चर्चा बार-बार करती है, दूसरी ओर अब न कहा जा सकने वाला सबकुछ कह भी दे रही है। राससुंदरी पूरी आत्मकथा में अपने जीवन को 'तुच्छ' कहती हैं और आत्मकथा का शीर्षक देती हैं - 'आमार जीबन' जो अपने महत्व की महाप्राण घोषणा करता प्रतीत होता है। दूसरी ओर लेखकीय विवशता का तकाजा ही है कि इसे 'ईश्वरीयलीलाख्यान' का जामा पहनाया जाए। इसके अभाव में तत्कालीन समाज में पाठकीय समर्थन मिलेगा क्या? यह रचनाकार की पहली और संभवतः अंतिम रचना है, एक साधारण सद्गृहस्थ स्त्री के जीवन में लेखन/प्रकाशन की रुचि क्यों होगी? कहीं न कहीं आध्यात्मिक आवरण की जरूरत है, ताकि पुस्तक बड़े पाठकीय वर्ग तक पहुँच सके। रचनाकार पाठकों के अभाव के खतरों के साथ-साथ सभ्य शिष्ट समाज के 'रिजेक्शन' से भली भाँति वाकिफ है। आश्चर्य की बात है कि पूरे आत्मकथ्य में वृहत्तर वैश्विक परिदृश्य, ब्रिटिश शासन, राजनीति पर कोई टिप्पणी नहीं मिलती। इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं - या तो रचनाकार समसामयिक विषयों पर टिप्पणी कर कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती अथवा गृहस्थी की व्यस्त दिनचर्या से समय निकालकर किसी तरह लेखन में रत है और ताजा समाचारों, अखबारों की दुनिया से नावाकिफ। सिर्फ अपनी कथा कहने से कृति की नीरसता के खतरे थे, इसलिए आत्मकथा को एक पवित्र ग्रंथ में तब्दील करने की कोशिश दिखाई देती है।