अथ सवर्ण स्त्री प्रति-आख्यान / भाग 3 / गरिमा श्रीवास्तव

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तेलुगु की पहली स्त्री आत्मकथा का प्रकाशन 1934 में हुआ, जिसे एदिदमू सत्यवती ने 'आत्मचरितमु' शीर्षक दिया। औपनिवेशिक शासन के अनन्तर स्त्री लेखन के तेलुगु परिदृश्य को जानने की दृष्टि से 'आत्मचरितमु' महत्वपूर्ण है, जो एक लंबे समय तक विस्मृति के गर्भ में दबी रही। तेलुगु या स्त्री साहित्येतिहास में इसके उल्लेख का अभाव दिखाई देता है, जब कि तेलुगु में आत्मकथा लेखन की एक समृद्ध परम्परा रही है। वीरेशलिंगम की आत्मकथा क्रमशः 1911 और 1915 में (दो भागों में) प्रकाशित हुई वहीं लगभग अचर्चित राममोतला जगन्नाथ शास्त्री की आत्मकथा 'स्वचरितमु' 1916 में विशाखापत्तनम से छपी। दरअसल जगन्नाथ शास्त्री की आत्मकथा से तेलुगु में आत्मकथा लेखन और प्रकाशन की प्रवृत्ति का प्रारंभ देखा जा सकता है। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में आत्मकथा लेखन की प्रवृत्ति ज्यादातर समाज सुधारक किस्म के लोगों में देखी गई जैसे रायसमु वेंकटाशिवुडु का 'आत्मचरित्रमु' (1933, गुंटूर) जाने-माने वकील वल्लूरी सूर्यनारायणरावु सी. लक्ष्मीनरसिंहमू की 'स्वीयाचरित्रमु' (1944), तंगतुरी प्रकाशम, जो आंध्र के मुख्यमंत्री भी रहे, की आत्मकथा 'ना जीविता यात्रा' (मेरी जीवन यात्रा, 1946, मद्रास) प्रकाश में आईं। इसके अतिरिक्त कई महत्वपूर्ण और साधारण रचनाकारों के आत्मकथांश, जिन्हें 'संस्मरण' की श्रेणी में रखा जाना बेहतर होगा, बीसवीं शताब्दी के मध्य और उत्तरार्द्ध तक प्रकाशित हुए, जिनमें बसवराजु राज्यलक्ष्म्मा की 'अप्पारावगारू - नेनु' (अप्पाराव जी और मैं) 1965 में विजयवाड़ा से छपी, अडविकोलानु पार्वती ने जेल के संस्मरण हैदराबाद से 1980 में 'ना जेलू नापकालु' शीर्षक से छपवाए। 1991 में हैदराबाद से ही मलाडी सुब्बम्मा का आत्मकथ्य 'पातिव्रतम् नुंडी' प्रकाशित हुआ। सरस्वती गोरा की 'गोरातो ना जीवितम्' (गोरा के साथ मेरा जीवन) सन 1992 में विजयवाड़ा से, उतुकुरी लक्ष्मीकांतम्मा की साहितिरुद्रम्मा (स्वीया चरिता) 1993 में छपी। भानुमति रामकृष्णा की नालोनेतु (1993, मद्रास) के अतिरिक्त 'मनकुतेलियनी मना चरित्र' (हमारा इतिहास जिसे हम स्वयं नहीं जानते), 1996 में हैदराबाद से छपी, जिसमें तेलंगाना के सशस्त्र आंदोलन में भाग लेने वाली स्त्रियों के साक्षात्कार संकलित हैं, जिसका प्रकाशन बाद में अंग्रेजी में के. ललिता के संपादकत्व में 'वी वर मेकिंग हिस्ट्री लाइफ स्टोरीज ऑफ वीमेन इन द तेलंगाना पीपुल्स स्ट्रगल' 1986 में दिल्ली से हुआ।

तेलुगु आत्मकथाओं की परंपरा को देखते हुए 'आत्मचरितमु' किसी स्त्री द्वारा रचित पहली और व्यवस्थित आत्मकथा सिद्ध होती है। सत्यवती ब्राह्मण परिवार की पुत्री और बहू थीं, जो यौवन में ही विधवा हो गईं। उनकी आत्मकथा का प्रथमांश जीवन की घटनाओं के साहित्यिक वर्णन से परिपूर्ण है, लेकिन उत्तरांश में वैधव्य के बाद धर्म, समाज, रूढ़ियों, ईश्वरीय सत्ता, अध्यात्म इत्यादि का अत्यन्त तर्कपूर्ण एवं विवेकसम्मत विश्लेषण मिलता है। तत्कालीन समाज की परिस्थितियों, बाल विवाह एवं स्त्री-शिक्षा की स्थिति को देखते हुए सत्यवती अपनी साहित्यिक एवं तर्क क्षमता से पाठक को चकित कर देती हैं। सत्यवती के नाम से सिर्फ 'आत्मचरितमु' ही मिलता है, जिसका अर्थ है कि सत्यवती ने आत्माभिव्यक्ति और समाज प्रत्यालोचन के लिए आत्मकथा को माध्यम बनाया। सत्यवती के जीवन के विषय में जानकारी का एकमात्र स्रोत 'आत्मकथा ही है, जिसमें उनके जन्म, विवाह, वैधव्य आदि की तिथियों का नितांत अभाव है।

'आत्मचरितम्' के पहले और दूसरे भाग में परस्पर तनाव दिखाई देता है - पहले भाग में साहित्यिक शैली में निजी वर्णन हैं, जब कि दूसरे भाग में सत्यवती की समाज, परम्परा, रूढ़ि, ईश्वर सम्बन्धी चिंताएँ एवं सरोकार व्यक्त हुई हैं। यहाँ सत्यवती विधवा होते हुए भी स्वयं को 'पतिव्रता' घोषित करते हुए लिंगभेद, विधवा स्त्री के प्रति समाज के रूढ़िबद्ध दुर्व्यवहार, पितृसत्तात्मक समाज और धर्म के नाम पर स्त्री के शोषण और दमन का प्रत्याख्यान करती हैं। स्वयं को 'पतिव्रता' कहना और साथ ही पतिव्रता धर्म की पोषक व्यवस्था की आलोचना करना तनाव की सृष्टि करता है। यह एक पतिव्रता की इच्छा और मुक्ति चाहने वाली स्त्री के बीच का तनाव है। सत्यवती बार-बार पतिव्रताओं की परंपरा को पुनरुज्जीवित करने की बात कहती हैं, दूसरी ओर पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के दमन को लेकर चिंता भी व्यक्त करती हैं। सत्यवती का यह अंतविर्रोध 'आत्मचरितमु' के पुनर्पाठ की ओर प्रेरित करता है।

'आत्मचरितमु' के पहले भाग में सत्यवती ने अपने विवाह-प्रसंग का सविस्तार वर्णन किया है। अंतःसाक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है कि सत्यवती के माता-पिता अपेक्षाकृत खुले विचारों के थे। सत्यवती ने पाँच वर्ष की उम्र में बालिका विद्यालय जाना शुरू किया। दस वर्ष की अवस्था में वे गोदावरी जिले के 'कोरंगी' ग्राम में माता-पिता सहित एक संबंधी के उपनयन संस्कार में शामिल होने गईं। वहाँ तीसरे दर्जे में पढ़ने वाले 13 वर्षीय किशोर से पहली बार मंदिर-मंडप में मिलीं, जिससे बाद में उनका विवाह हुआ। सत्यवती ने पहली बार सीताराम्मैया से जो बातचीत की वह आत्मकथा में विस्तार से दी गई है -

लड़का - तुम किस गाँव से आई हो?

सत्यवती - मेरे पिता विजयवाड़ा में काम करते हैं।

लड़का - तुम्हारा नाम क्या है?

सत्यवती - सत्यवती

लड़का - तुम्हारे पिता क्या काम करते हैं?

सत्यवती - वे पी.डब्ल्यू.डी. में इंजीनियर हैं।

लड़का - तुम किस कक्षा में पढ़ती हो?

सत्यवती - चौथी कथा में।

लड़का - तुमने संगीत सीखा है क्या?

सत्यवती - नहीं।

लड़का - क्या तुम कोई गीत गा सकती हो?

सत्यवती - हाँ।

लड़का - फिर कोई गीत क्यों नहीं गाती?

सत्यवती ने गीत गाया और दोनों की बातचीत आगे बढ़ी।

लड़का - क्या तुम मुझे जानती हो?

सत्यवती - नहीं।

लड़का - क्या मुझसे विवाह करोगी?

सत्यवती ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया।

लड़का - तुमने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। तुम्हें कोई संकोच है या तुमने मुझे पसंद नहीं किया?

(सत्यवती ने आत्मकथा में लिखा है कि वह इतनी छोटी थी कि लड़के के सौंदर्य के बारे में किसी सुनिश्चित विचार तक पहुँच नहीं पा सकती थी। लेकिन बचपन से ही वह पतिव्रताओं की कहानियाँ सुनती चली आ रही थी। इसलिए उसने सोचा कि दैहिक सौंदर्य से ज्यादा यह महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति विशेष के जीवन-मूल्य क्या हैं।)

प्रत्यक्षत: सत्यवती ने कहा - नहीं, ऐसा कुछ नहीं।

लड़का - तो फिर तुम इतना संकोच क्यों कर रही हो?

सत्यवती - इसलिए कि यदि हम दोनों विवाह के लिए तैयार भी हों तो यह जरूरी नहीं कि हमारे अभिभावक भी इस बात पर सहमत हों।

लड़का - तुम्हारी क्या राय है ?

सत्यवती - मेरी राय महत्वपूर्ण नहीं है।

लड़का - देखो, यदि हम दोनों एक-दूसरे को पसन्द करते है तो हम विवाह के लिए कोई न कोई रास्ता निकाल सकते हैं।

सत्यवती - मुझे कुछ पता नहीं।

लड़का - हाँ, मैं समझ गया तुम क्या सोचती हो ? तुम्हें कुछ सुझाव दूँ। जब कोई लड़का तुम्हें विवाह के लिए देखने आए तो तुम ऐसा नाटक करना जैसे तुम्हें वह पसन्द नहीं आया। बाद में तुम्हारे माता-पिता तुमसे स्वयं ही पूछेंगे कि तुम हर रिश्ते को नापसन्द क्यों कर देती हो। मैं भी अपने घर में ऐसा ही करूँगा। कुछ दिनों के बाद हमारे माता-पिता के पास हमारा विवाह आपस में करा देने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा।

सत्यवती इस प्रस्ताव से सहमत थी, उसने अपनी अन्तरात्मा को साक्षी मानते हुए उस लड़के को विवाह का वचन दिया।

इस घटना के वक्त सत्यवती मात्र दस वर्ष की थी। यह आश्चर्यजनक लगता है कि पतिव्रता और जीवन-मूल्य जैसे शब्दों का अर्थ तब भी वह समझती थी। यह भी हो सकता है कि सत्यवती ने, जिसने विधवा होने के बाद 'आत्मचरितमु' लिखा, अपनी परिपक्व समझ को बचपन पर आरोपित कर दिया हो। जो भी हो, सत्यवती के माता-पिता ने सत्यवती के ममेरे भाई से उसका विवाह तय कर दिया, लेकिन बाद में अधिक दहेज की माँग के कारण विवाह नहीं हुआ। सत्यवती ने अपनी रुचि के बारे में बताया और सीताराम्मैया के साथ उसका विवाह हो गया। विवाह के बाद सत्यवती बहुत दिनों तक ससुराल नहीं गई, क्योंकि उसकी उम्र बहुत कम थी। उधर सीताराम्मैया ने एम.ए. की परीक्षा पास कर ली। कुछ मुश्किलों के बाद उसे नौकरी मिली। गंजाम जिले में श्रीकाकुलम में सीताराम्मैया सबइंस्पेक्टर के तौर पर नियुक्त हुआ। छह महीने के भीतर ही उसे अचानक नौकरी से निकाल दिया गया। (सत्यवती 'आत्मचरितमु' में कहती हैं कि उन दोनों को ही सीताराम्मैया के नौकरी से निकाले जाने का कारण पता नहीं चला। सत्यवती का कहना है कि ईमानदारी की सजा उनके पति को मिली। स्थानीय निवासियों ने सीताराम्मैया को प्रोत्साहन दिया, जिसकी काव्यमय प्रस्तुति भूमिका के तुरन्त बाद की गई। सत्यवती अपने पति को निर्दोष साबित करना चाहती हैं। बाद में, सीताराम्मैया ने मद्रास की अदालत में अपने निलंबन के आदेश के खिलाफ अर्जी दी और उसका निलंबन वापस ले लिया गया।)

बाद में, सीताराम्मैया की नियुक्ति दरीगबड़ी में हुई तो सत्यवती पति के साथ रहने के लिए आईं। सत्यवती के पिता ने सत्यवती के साथ एक बुजुर्ग महिला को भेजा। लेकिन वह अधिक दिनों तक सत्यवती के साथ नहीं रह पाईं। उन्हें घर की याद सताने लगी और वह लौट गईं। सत्यवती ने अकेले ही घर की साज-सँभाल की। वह जगह सीताराम्मैया के स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं थी, उसे बीमारी में पालकी में लिटाकर डाक्टर के पास ले जाया गया। सत्यवती भी नई जगह पर बीमार रहने लगीं। सीताराम्मैया ने छुट्टी की दरख्वास्त दी। छुट्टी मिलने में बहुत देर हुई। इस बीच बीमारी की हालत में सीताराम्मैया की मृत्यु हो गई। सत्यवती ने आत्महत्या का प्रयास किया, लेकिन उन्हें वापस माता-पिता के पास भेज दिया गया। वैधव्य के बाद सत्यवती ने 'आत्मचरितमु' लिखा जो 60 पृष्ठों में 1934 में विजयवाड़ा, आंध्र प्रदेश से छपा। (सत्यवती ने फरवरी 1934 में अवनीगुड्डा, कृष्णा जिला, आंध्र प्रदेश, में रहकर अपनी पुस्तक आंध्र प्रदेश के आन्ध्र ग्रंथालय प्रेस से छपवाई। के. कोंडाराम्मय्या का नाम उनके पिता के रूप में आता है, जो अवनीगुड्डा में रहते थे।) यह 'आत्मचरितमु' सत्यवती ने अपने मृत पति को समर्पित की। पति का आह्वान करते हुए सत्यवती ने लिखा कि पति ने ही उन्हें जीवन और जगत का व्यावहारिक ज्ञान कराया इसलिए यह पुस्तक उन्हीं को समर्पित है। पुस्तक के प्रारंभ में ही सत्यवती और सीताराम्मैया की अलग-अलग तस्वीरें छपी हैं। सत्यवती ने, पिता के मित्र दिवी नरसिंहाचार्यालु, जो विद्वान और पंडित थे, के प्रति भूमिका में आभार प्रकट किया है।

सत्यवती की भाषा और लालित्यपूर्ण शैली पाठक को चमत्कृत करती है। कथा प्रवाह और अलंकृत भाषा 'आत्मचरितमु' को समकालीन रचनाकारों से अलग और विशिष्ट पहचान देते हैं। सत्यवती अपने कथनों और वक्तव्यों को कई दूसरे विद्वानों के कथनांशों से पुष्ट करती चलती हैं। ऐसा लगता है कि उनकी साहित्यिक अभिरुचि का स्तर उत्कृष्ट है। उदाहरण के लिए, सत्यवती अपने प्रथम दृष्ट्या प्रेम-प्रसंग का वर्णन अत्यंत काव्यात्मक शैली में करती हैं। सीताराम्मैया के बारे में वे बताती हैं कि वह लंबा, बलिष्ठ, सुन्दर, चमकीली आँखों वाला किशोर था। जिस मंदिर-प्रांगण में उन दोनों की पहली मुलाकात हुई वह स्थल अत्यंत काव्यात्मक है। ग्राम-प्रान्तर की सुषमा मनमोहक है - 'गाँव के पूर्व में झरना है, झरने के किनारे पुराना प्रस्तर देवालय है, जिसकी दीवारों पर सुन्दर चित्र उकेरे हुए हैं। मंदिर की दक्षिण दिशा में ताजा पानी का सरोवर है और एक फूलों का उपवन जहाँ बैठकर मंदिर का सौंदर्य निहारा जा सकता है।' सीताराम्मैया से यहीं वह पहली बार मिली थी और उन्होंने भावी जीवन के स्वप्न बुने थे।

सत्यवती के शब्दों में, इस उपवन में मालती, पारिजात, मंदरम् के फूल खिले हैं, जिसकी सुवास वातावरण को पवित्र और मनमोहक बना रही है। वे दोनों एक फूलों की झाड़ी के बगल में बैठे। जैसे ही सीताराम्मैया ने उससे विवाह का प्रस्ताव किया, वह भविष्य की सुखद कल्पना में खो गई और उसे सावित्री और सत्यवान की कथा (सावित्री और सत्यवान की कथा 'महाभारत' के अरण्यपर्व में है।) स्मरण हो आई। उसकी अंतरात्मा से यह आवाज आई कि उसे सीताराम्मैया से ही विवाह करना है, उसी क्षण से सीताराम्मैया को उसने पति मान लिया, और अपना प्रण उसे बता भी दिया - "पश्चिम का यात्री समुद्र में विलीन होने से पहले इस पल का साक्षी बना। संध्या का आकाश, जो सुनहरी सूर्य किरणों से सुसज्जित है, देखकर ऐसा लगता है ज्यों पश्चिमी आकाश रूपी युवती ने सुनहरी रेशमी साड़ी पहनी हो, गोधूलf-वेला में बसेरों को लौटती चिड़ियों की चहचहाहट और कोयल की कूक ने पृष्ठभूमि को संगीतमय बना दिया है।

सत्यवती के वृत्तांत प्रसंगानुरूप शैली बदलते हैं, उदाहरण के तौर पर सीताराम्मैया की मृत्यु का प्रसंग देखा जा सकता है। वह ईश्वर से प्रार्थना करती हुई लिखती हैं, हे प्रभु, मेरी विनती सुनो। इस सूने एकाकी वन में मेरा कोई नहीं। क्या सावित्री की प्रार्थना पर स्वयं यमराज चल कर नहीं आए थे? सत्यवान के प्राण क्या लौटाए नहीं उन्होंने? क्या तुम इतना -सा मेरे लिए नहीं कर सकते हो? हे ईश्वर, मेरी प्रार्थना पर तुम ध्यान क्यों नहीं देते? तुमने न जाने कितनी पतिव्रताओं की प्रार्थनाएँ सुनी होंगी और मनोकामनाएँ भी पूरी की होंगी। मेरे पति ने हमेशा न्याय और ईमानदारी का जीवन जिया। फिर तुमने उनको इतनी बड़ी सजा क्यों दी। उनकी जगह तुम मेरे प्राण ले सकते थे। लोग कहते हैं कि यह पूर्वजन्म के पापों का दंड है, तो तुम बताते क्यों नहीं हमें कि पूर्वजन्म में हमने कौन-से ऐसे पाप किए, जिनकी सजा हम अब भुगत रहे हैं। जब तक हमें अपने किए पापों का पता नहीं चलेगा, हम प्रायश्चित कैसे कर सकते हैं? तुम्हारी दयालुता का वर्णन पुराणों और महाभारत में है - क्या वह सब मिथ्या है? या फिर तुम मेरे धैर्य की परीक्षा लेना चाहते हो? जितने कष्ट इस जीवन में मैं भुगत चुकी हूँ क्या वे पर्याप्त नहीं है?

सीताराम्मैया के दाह-संस्कार के प्रसंग में सत्यवती कहती हैं - मैं अपने पति को नहीं जाने दूँगी। मैं सावित्री की तरह अपने पति के प्राण वापस लौटा ले आऊँगी अन्यथा सती हो जाऊँगी। वहाँ उपस्थित लोगों ने कहा - "तुम अभी अल्पवयस्क और अनुभवहीन हो, तुम्हारे अभिभावक भी तुम्हारे साथ नहीं? क्या इस कलियुग में कोई सत्यवान की तरह वापस आया है? क्या हमने कलियुग में ऐसी कोई कथा सुनी है? यदि तुम पति की चिता के साथ सती होना चाहोगी भी तो क्या सरकारी कानून तुम्हें सती होने देगा? क्या हमारे शास्त्रों में आत्महत्या को सही कहा गया है?" अन्ततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं - ईश्वर ने मुझे धोखा दिया, मुझे पति के साथ नहीं जाने दिया। फिर भी मेरी आस्था और विश्वास अपने पति में कायम है। मैं हमेशा उनकी छवि की उपासना करूँगी। मुझे पूरा विश्वास है कि अगले जन्म में हमारा पुनर्मिलन होगा। अब भी विश्वास है कि ईश्वर मुझ पर अवश्य कृपा करेंगे, मैं 'पातिव्रत्य' को भारत में पुनर्जीवित कर सकूँगी। इन दिनों 'पातिव्रत्य' का भारतवर्ष में लोप हो गया है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो मैं अपना जीवन पति की स्मृति में त्याग दूँगी और पति के साथ मोक्ष प्राप्ति करूँगी।

सत्यवती के 'आत्मचरितमु' का पहला भाग सतही तौर पर तथ्यों की जगह भावों को प्रधानता देता है। लालित्यपूर्ण गद्य का प्रयोग, प्रसंगानुकूल भाषा का चुनाव पाठक को आकर्षित और चमत्कृत करता है। आत्मकथा का दूसरा भाग पहले भाग से बिल्कुल अलग है। इस भाग में सत्यवती के जीवन की कोई घटना, कोई प्रसंग नहीं मिलता। वैधव्य ग्रहण कर पिता के घर लौट आने के बाद वे वैश्विक दृष्टि की अभिव्यक्ति करती हैं। स्त्री जीवन, लैंगिक विभेद, जीवन-ईश्वर संबंधी प्रसंग आदि इस दूसरे भाग में अभिव्यक्त हैं। इस भाग को पूर्णतः विच्छिन्न या स्वतंत्र रूप से एक स्त्री के बौद्धिक विमर्श के रूप में पढ़ा-सुना जा सकता है। यहाँ सत्यवती की विश्वदृष्टि को विभिन्न उपशीर्षकों के अन्तर्गत देखा जा सकता है - जैसे, पतिव्रता स्त्री, पातिव्रत्य धर्म, हरिकथा गायन, विधवाएँ, बाल विवाह और विधवा विवाह, ईश्वरीय सत्ता का खेल, सृजन प्रश्न, ईश्वरीय सत्ता, मृत्युभोज आदि। इनमें से कुछ प्रसंगों का पुनर्पाठ दिलचस्प होगा।

समकालीन तेलुगु समाज, नवजागरण के सुधारवादियों के प्रयासों के व्यावहारिक पक्ष, भारतीय समाज में विधवा का जीवन जीने के लिए बाध्य स्त्री के प्रश्नों/प्रतिप्रश्नों के ब्याज से नव्यपितृसत्ताक व्यवस्था का प्रतिपक्ष भी इसमें अभिव्यक्त है। (द नेशन एण्ड इट्स फ्रेगमेंट्स : कोलोनियल एवं पोस्टकोलोनियल हिस्टरीज, प्रिंस्टन, 1993) 'आत्मचरितमु' के उत्तरांश में अनेक ऐसे तीक्ष्ण और भेदक प्रसंग हैं जो समाज की चली आती हुई मान्यताओं पर प्रहार करते हैं। निम्नलिखित प्रसंगों को सत्यवती ने प्रमुख रूप से विवेचित किया है -

1. पतिव्रता - सत्यवती ने 'पतिव्रता धर्म' की चर्चा बार-बार की है - कलियुग से पहले ईश्वर पतिव्रताओं के सम्मुख स्वयं उपस्थित होते थे और उनके पतियों को पुनर्जीवन देते थे। अब यह नहीं होता। इसलिए स्त्रियों ने पतियों के शव के साथ सती होना शुरू कर दिया है। सती प्रथा भी अब खत्म हो गई क्योंकि स्त्रियाँ मरने से डरती हैं। लेकिन यदि पति के मरने के बाद स्त्रियाँ जीवित न रहें, तो अच्छा ही है, ताकि वे विधवा का अभिशप्त जीवन जीने से बच जाए। ('पतिव्रता' शब्द का उल्लेख तत्कालीन स्त्री रचनाकारों ने बार-बार किया है। ताराबाई शिन्दे (1882) ने 'स्त्री-पुरुष तुलना' में यह प्रश्न उठाया था कि पुराणों में जिन स्त्रियों को पतिव्रता का दर्जा दिया गया है, क्या ये वास्तव में उस पद के योग्य हैं। उनका कहना है कि स्त्रियाँ अपने पति, परिवार के साथ विश्वासघात न करके 'पतिव्रता' का दर्जा पा सकती हैं। देखें, A comparison between men and woman : Tarabai shinde and the critique of gender relations in colonial india : Madras, 1994, पृष्ठ 80-81, 124)

2. हरिकथा गायक - सत्यवती ने हरिकथा गायक को 'कौतुक' कहा है। उनका कहना है, "हरिकथा गायन परम्परा में सबसे पहले 'गणपति वंदना' होती है, इसके तुरन्त बाद वे स्त्री निन्दा करने लगते हैं। गायन में वे कहते हैं कि कलियुग में कोई 'स्त्री' पतिव्रता नहीं होती। हरिकथा गायक 'पुरुषों' की निन्दा नहीं करते। क्या सभी पुरुष एकपत्नीव्रत का पालन करते हैं? क्या हरिकथागायकों ने पूरा संसार छान मारा है और तब वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि समूचा कलिकाल पतिव्रताविहीन हो गया है? (ताराबाई शिन्दे ने 'स्त्री-पुरुष तुलना' में लिखा है - पुरुष पतिव्रत धर्म के बारे में इतना हल्ला क्यों मचाते हैं जब कि वे दूसरों के घर-परिवार बर्बाद करते हैं (पृ० 114)। पतिव्रत धर्म का पालन न करने के लिए स्त्रियों को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति के खिलाफ ताराबाई ने उलट कर पुरुषों की नैतिकता पर सवाल खड़ा किया। स्त्रियों को बहला-फुसला कर उनसे व्यभिचार करने वाले, फिर उन्हें त्याग देने वाले पुरुषों को अदालत कोई सजा क्यों नहीं देती? ताराबाई इस कानून से वाकिफ नजर आती हैं कि बिना गवाही के व्यभिचारी को सजा नहीं मिल सकती और ऐेसे मामलों में अक्सर गवाही मिलनी मुश्किल होती है। इस अंजाम के लिए ताराबाई अंग्रेज सरकार को भी जिम्मेदार ठहराती हैं। वे सुझाती हैं कि जैसे सरकार रिश्वत लेने और देने वाले, दोनों को सजा देती है, उसी तरह व्यभिचार के मामले में भी स्त्री-पुरुष दोनों को सजा मिलनी चाहिए - स्त्री से दुगुनी सजा उस पुरुष को मिलनी चाहिए, जिसने व्यभिचार का जाल बिछाया। - स्त्री-पुरुष तुलना, ताराबाई शिन्दे, अनु. डॉ० राजम नटराजन पिल्लै।) प्राचीन और आधुनिक दोनों कालों में सब प्रकार के स्त्री-पुरुष मिलते हैं - अच्छे भी और बुरे भी। आज भी बहुत-सी पतिव्रताएँ हैं। और यदि मान भी लें कि वास्तव में स्त्रियों में पातिव्रत्य धर्म का लोप हो गया है तो उन्हें कौन बताएगा कि उनके लिए 'सन्मार्ग' क्या है - वे कैसे सन्मार्ग पर चल सकती हैं। गांधी जी लोगों के सोचने का तरीका और विचार दोनों को बदलने की चेष्टा कर रहे हैं, वे भी तो सिर्फ कुप्रथाओं की आलोचना करके सन्तुष्ट हो सकते थे!"

3. विधवाएँ - सवर्ण जातियों में विधवाओं के प्रति सामाजिक अपमान और प्रताड़ना की कोई सीमा नहीं है - विशेषकर ब्राह्मणों में - "स्त्री का विधवा होना जैसे दंडनीय अपराध है, उसके केश मूँड़ दिए जाते हैं। व्रत-उपवास से उसका शरीर कमजोर कर दिया जाता है। विचार की क्षमता को कुंद करने के लिए हमेशा शुभ कार्यों से उन्हें दूर रखा जाता है। घर का सारा काम करने के बावजूद कोने में बैठे रहना उनके लिए बाध्यता है। जीवन के सभी सुखों से उन्हें वंचित कर दिया जाता है। सबसे बुरा तो यह है कि उन्हें पुरुष की छाया से भी बचाया जाता है। यदि यह बात है तो नाई - जो उनके केश छीलता है - वह भी तो पुरुष है।" सत्यवती ने विधवा केश-मुंडन पर जो विचार व्यक्त किए हैं, ठीक वैसे ही विचार पार्वती अठवले ने भी व्यक्त किए हैं। 'मेरी कहानी' में पार्वती ने लिखा है, मैंने बहुत जोर दिया कि विधवा स्त्रियों का मुण्डन नाई न करें बल्कि परिवार का ही कोई सदस्य जैसे भाई या पिता करे। लेकिन स्वयं विधवाओं ने ही इसका विरोध किया। उन्हें लगता है कि इससे पति-पुत्र का अमंगल होगा।" (हिन्दू विडो : एन ऑटोबायोग्राफी - पार्वती अठवले, अनु. रेवरेंड जस्टिन ई एबोट, 1986 संस्करण, रिलांयस पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली)

सत्यवती ने विधवा स्त्रियों की वेशभूषा पर टिप्पणी करते हुए कहा है, अगर कोई विधवा स्त्री ब्लाउज पहनकर भोजन पकाती है तो पुरुष वह भोजन खाने से इनकार कर देते हैं। लेकिन जब कोई मेहमान आता है तो उनसे पर्दा करने के लिए कहा जाता है, वे घर से बाहर नहीं निकल सकतीं - कम से कम पति की मृत्यु के एक वर्ष बाद तक। उन्हें दिन में चार बार स्नान और भूमिशयन करना पड़ता है। यदि पूछा जाए कि स्त्रियों को ये दण्ड क्यों भुगतना पड़ता है तो उत्तर मिलता है कि नियोजित एवं मारक दिनचर्या से वे अपनी कामवासना और शारीरिक आवेगों को नियंत्रित रख सकती हैं। मेरे विचार से यह तर्क अत्यन्त हास्यास्पद है। आत्मनियंत्रण के लिए अच्छे विचारों की आवश्यकता होती है, शरीर धोने से आत्मशुद्धि नहीं हो सकती।" ताराबाई शिन्दे ने भी कुछ ऐसा ही कहा है। उनके अनुसार स्त्रियों के माथे का कुंकुम और माँग का सिन्दूर पोंछ देने, चूड़ी तोड़ देने, केश छील देने से, उन्हें कुरूप और अप्रस्तुत्य बनाने से स्त्री धर्म को बचाया जा सकता है क्या? यदि उनकी अंतरात्मा और विचार नहीं बदले तो बाहर का यह सारा कर्मकाण्ड व्यर्थ है। एक स्त्री के सौभाग्य चिह्न छीन लेने से उसकी अन्तरात्मा आहत हो जाती है, उसके भीतर एक सामान्य मनुष्योचित अच्छे और बुरे विचारों का वास रहता है। तुम उसके शरीर को कुरूप बना सकते हो, उसे ढँक-छुपा सकते हो, लेकिन उसकी अन्तरात्मा का तुम क्या करोगे? (स्त्री पुरुष तुलना, ताराबाई शिन्दे, अनु. डॉ. राजम नटराजन पिल्लै) वस्तुतः विधवा स्त्रियों का समाज में रहना पुरुषों की व्यभिचार-वृत्ति के लिए अनिवार्य था। विधवा स्त्रियाँ आचार-विचार का पालन करती थीं और पुरुष उन्हें अवैध संबंधों के लिए इस्तेमाल करते थे। केशमुंडन जैसे कृत्यों को स्त्री के बधियाकरण और स्त्रीत्वहीन बनाने के प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए। (रीराइटिंग हिस्ट्री - द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ पंडिता रमाबाई, उमा चक्रवर्ती, नई दिल्ली, 1998, पृ. 270-271)

4 . बाल विवाह एवं विधवा विवाह - सत्यवती ने आत्मकथा में बाल विवाह एवं विधवा पुनर्विवाह तथा अनमेल विवाह पर जो विचार व्यक्त किए हैं, उन पर नवजागरण की समाज सुधारवादी दृष्टि का प्रभाव साफ दिखाई देता है। 'आत्मचरितमु' 1934 में प्रकाशित हुआ, उससे पहले गुरजड़ा अप्पाराव (1961-1915) ने 'कन्याशुल्कम्' शीर्षक कृति में कन्या विक्रय एवं दहेज प्रथा की घनघोर निंदा की थी। सत्यवती इस विषय में लिखती हैं - दहेज लेने और कन्याविक्रय जैसे कुप्रथाएँ हमारे समाज में प्रबल हैं। धनलोलुप अभिभावक अपनी अल्पव्यस्क लड़कियों का विवाह उम्रदराज पुरुषों से कर देते हैं। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर लड़की बहुत कम उम्र में विधवा हो जाती है। हमारे देश में विधवा समस्या के मूल में बाल विवाह है। कुंदुकुरी वीरेशलिंगम् बाल विधवाओं की शोचनीय दशा न देख सके और उन्होंने विधवा पुनर्विवाह पर बल दिया। विधवाओं का पुनर्विवाह अवैध यौन संबंधों को पनपने से रोकने का बड़ा साधन हो सकता है। युवा विधवाओं से अपनी नैसर्गिक इच्छाओं पर नियंत्रण रखने की अपेक्षा करना मूर्खता है, इसलिए वीरेशलिंगम् ने कहा कि जो लड़कियाँ रजस्वला होने से पहले ही विधवा हो जाती हैं उनका विवाह फिर से हो सकता है। इन दिनों संतानवती विधवाएँ भी पुनर्विवाह के लिए आगे आ रही हैं, लेकिन ऐसे विवाह उचित प्रतीत नहीं होते।" यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि सत्यवती प्रकारांतर से वीरेशलिंगम् जैसे उन्नीसवीं शताब्दी के अनेक समाज सुधारकों की तर्ज पर बात कर रही हैं।

सत्यवती भी वीरेशलिंगम (अ बॉयोग्राफी ऑफ एन इंडियन सोशल रिफार्मर, जॉन ग्रीनफील्ड लियोनार्ड, कुंदुकुरी वीरेशलिंगम (1848-1919), हैदराबाद, 1991 तथा सोशल रिफार्म्स इन आंध्र (1848-1919), वी. रामकृष्णा, नई दिल्ली, 1933) की तर्ज पर संतानवती या युवती स्त्रियों के पुनर्विवाह के पक्ष में नहीं हैं। पितृसत्तात्मक समाज का मानसिक अनुकूलन उन पर इस कदर हावी है कि बाल विवाह रोकने जैसी तर्कपूर्ण बात कहते हुए भी वे संतानवती विधवाओं के पुनर्विवाह से सहमत नहीं हैं। अन्तःसाक्ष्य के अनुसार वे स्वयं युवती विधवा थीं और लगभग 18-19 वर्ष की उम्र में उन्हें वैधव्य झेलना पड़ा। तत्कालीन समाज सुधारकों ने विधवाओं की दो श्रेणियाँ बनाईं - पहली श्रेणी में वे स्त्रियाँ थीं जिन्होंने पति को जाना ही नहीं और रजस्वला होने के पहले ही विधवा हो गईं। दूसरी श्रेणी उन विधवाओं की थी जो संतानवती थीं और सहजीवन जी चुकी थीं। उमा चक्रवर्ती का मानना है कि समाज सुधारक हिन्दू समाज की परंपरागत दृढ़ संरचना को बिना कोई नुकसान पहुँचाए समाज सुधार करना चाहते थे, इसलिए पहली श्रेणी की विधवाओं के पुनर्विवाह का तो समर्थन उन्होंने किया जब कि दूसरी श्रेणी की स्त्रियों को यथास्थिति पालन की ही सलाह दी गई। (रीराइटिंग हिस्ट्री, उमा चक्रवर्ती, पृ. 89) पार्वती अठवले ने भी अक्षतयोनि विधवाओं - ऐसी विधवाओं जिनकी कोई संतान न हुई हो, जिनका पति से कोई संसर्ग न हुआ हो, को पुनर्विवाह का अधिकारी माना। (हिन्दू विडो - अ ऑटोबायोग्राफी, पार्वती अठवले, अनु. रे. जस्टिन ई. एबोट, पृ. 31)

5. दांपत्य - सत्यवती ने 'आत्मचरितमु' में लड़कियों के विवाह और दांपत्य के सन्दर्भ में लिखा है - "लड़कियों का विवाह 10 या 12 वर्ष की अवस्था के बाद ही किया जाना चाहिए। उन्हें अपना इच्छित वर चुनने का अधिकार चाहिए। शिक्षित स्त्रियाँ अपने अभिभावकों की अपेक्षा जीवनसाथी का चुनाव बेहतर कर सकती हैं। दांपत्य में आपसी संबंध ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं - रीति-रिवाजों की अपेक्षा। यदि कोई स्त्री अपनी पसन्द से पति का चुनाव करती है और आगे चलकर उनके दांपत्य संबंध में किसी प्रकार की कठिनाई आती है तो किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, उसे ईश्वरेच्छा मानकर संतोष कर लिया जाता है। ऐसे मामलों में स्त्री किसी से शिकायत नहीं कर सकती। क्या सावित्री ने अपने मार्ग में आए कष्टों की परवाह की? पतिव्रताएँ कठिन परिस्थितियों में भी संतुष्टि ढूँढ लेती हैं। यदि लड़कियों को मनपसन्द वर चुनने की छूट हो तो उन्हें अवैध संबंध बनाने से रोका जा सकता है। दाम्पत्य सुख, संसार का सर्वोत्तम सुख है। विशेषकर यदि पति-पत्नी एक-दूसरे से प्रेम करें। स्त्री अपने पति से सर्वाधिक प्रेम करे और पति के प्रति अपने सभी कर्त्तव्यों का पालन करे। कुछ स्त्रियाँ अपने पति के बुरे वक्त में उसकी आलोचना-निन्दा करती हैं और अच्छे वक्त में प्रेम करती हैं। आर्य धर्म यही है कि दोनों, समभाव से, सुख-दुख में एक-दूसरे को प्रेम करें। पति-पत्नी को एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करना चाहिए। पुरुष को यह नहीं भूलना चाहिए कि 'सतीत्व' का प्रश्न उसके लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि स्त्री के लिए।

6. सृजन प्रश्न - सत्यवती का कहना है कि ऐसे बहुत-से प्रश्न हैं, जो अनुत्तरित हैं, जैसे हम इस संसार में क्यों आए हैं? यह संसार किसने बनाया है? इन सब का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है। सिर्फ एक ही ढंग से हम सोच सकते हैं कि हम सब ईश्वर के हाथों की कठपुतलियाँ हैं। वही ईश्वर पूरे विश्व का नियामक और नियंता है।

7 . मृत्युभोज - सत्यवती का कहना है कि जब जीते जी एक व्यक्ति अपना खाया भोजन दूसरे में स्थानांतरित नहीं कर सकता तब मृत्यु के बाद ब्राह्मणों को खिलाने से मृतक की क्षुधा कैसे तृप्त हो सकती है। मृत्यु के बाद पुत्र ही श्राद्ध का अधिकारी होता है, लेकिन यदि कोई पुत्रहीन हो तो? यदि मृतक पुनर्जन्म लेता है तो श्राद्ध करने का क्या प्रयोजन है? कई लोग अपने माता-पिता से जीते जी तो दुर्व्यवहार करते हैं और मृत्यूपरान्त श्राद्ध-भोज करते हैं। यह सब सामाजिक ढकोसले के अलावा कुछ नहीं है। मृत्यु के बाद किसी के लिए कुछ करने का क्या अर्थ है। श्राद्ध की रीत इसीलिए बनाई गई है ताकि धनी व्यक्ति कम से कम इस दिन क्षुधित, निर्धनों को अच्छा भोजन खिलाएँ, मृत व्यक्ति के नाम पर अन्न-वस्त्र का दान निर्धनों को मिल सके।

8. ईश्वरीय सत्ता का खेल - सत्यवती का मानना है कि यदि मनुष्य के सभी कार्य विघ्नरहित होते जाएँ तो ईश्वरीय सत्ता पर से उसका विश्वास उठ जाएगा। इसलिए ईश्वर मनुष्य के मार्ग में बाधाएँ और रुकावटें डाल देता है। सुख-दुख सब ईश्वर के रचे हुए खेल हैं।

9 . कर्मफल - मनुष्य द्वारा किए हुए सभी कार्यों का उत्तरदायी कौन है? हम स्वयं कर्त्ता हैं, या ईश्वरीय सत्ता हमसे कर्म करवाती है? हमेशा हमारे कर्मफल इच्छानुरूप नहीं होते। यह कहा जाता है कि जो लोग अच्छे कर्म करते हैं, उन्हें स्वर्ग और बुरे कर्म करने वालों को नर्क मिलता है। लेकिन क्या किसी ने भी स्वर्ग और नर्क देखा है? क्या किसी ने ईश्वर को देखा है? ग्रंथों में ईश्वर का जो वर्णन मिलता है, क्या वह स्वानुभूत है? स्पष्ट है कि मनुष्य ने स्वयं ही पाप और पुण्य की अवधारणाओं का निर्माण किया है। पापी वही है जो दूसरों का दमन करे और पुण्यकर्ता वही है, जो मनुष्य मात्र के लिए हृदय में प्रेम और दया रखे।

10. ईश्वरीय संसार के अन्तर्विरोध - सत्यवती ईश्वर के बनाए हुए संसार के अन्तर्विरोधों के उदाहरण देती हुई कहती हैं कि ईश्वर ने पाप की रचना की, लेकिन मनुष्यों से कहा कि पाप से दूर रहो। ईश्वर इस जन्म में, हमें पूर्वजन्म के पापों का दण्ड देता है। महाभारत और भागवत जैसी पुस्तकों में पाप और पुण्य की बातें लिखी हैं। उसी ईश्वर ने हम में से किसी को सच्चा और किसी को झूठा इंसान बनाया है - उसी ने हम में से किसी को निर्धन और किसी को धनवान बनाया है। यह क्या विरोधाभास नहीं है? ईश्वर तो भक्तों के रक्षार्थ है, इसके बावजूद वह कभी-कभी अपने भक्तों की रक्षा नहीं करता। क्या यह वादाखिलाफी नहीं है? पतिव्रताओं को जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों को झेलने के लिए ढकेल देना - ईश्वरोचित तो नहीं है न। जब स्वयं ईश्वर में अच्छाइयों और बुराइयों का सम्मिश्रण है तो वह मनुष्यों से कैसे अपेक्षा रख सकता है कि उनमें केवल गुण हों - अवगुणों का लेश भी नहीं? क्या यह ईश्वर की तरकीब नहीं है, चालाकी और अन्तर्विरोध नहीं है? इसलिए अच्छा है कि ईश्वर की मिथ्याचारिता में विश्वास करने और भ्रम में जीने की अपेक्षा मनुष्य मात्र में विश्वास किया जाए।

सत्यवती के 'आत्मचरितमु' का विश्लेषण दो स्तरों पर किया जाना चाहिए। पहले विश्लेषण का आधार पाठ हो सकता है, अर्थात पाठ का गहन विश्लेषण और दूसरे विश्लेषण का आधार व्यापक सामाजिक संदर्भ हो सकता है। चूँकि 'आत्मचरितमु' में आत्मकथाकार के जीवन से संबंधित किसी भी तिथि का अभाव है, अतः गहन पाठ विश्लेषण ही हमें विश्लेषण के द्वितीय चरण तक पहुँचा सकता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सत्यवती की आत्मकथा के पहले और दूसरे भाग में तनाव दिखाई देता हैं। पाठक चाहे तो दोनों को स्वतंत्र रूप से अलग-अलग भी पढ़ सकता है। पहला भाग पूरी तरह सत्यवती के जीवन की वैधव्यपर्यन्त घटनाओं तक सीमित है और दूसरा उनकी 'विश्वदृष्टि' को बताने के लिए लिखा गया है, जिसमें किसी भी जीवन प्रसंग का नितांत अभाव है। भूमिका में सत्यवती ने पुस्तक के उद्देश्य की ओर संकेत करते हुए लिखा है कि स्त्री जाति के दमन के प्रतिरोध में वह पुस्तक लिखने में प्रवृत्त हुई हैं। पुस्तक के दूसरे भाग में इसलिए वह स्वयं को 'पतिव्रता' कहती हैं और समाज, ईश्वर, परंपरा, रीति-रिवाज की तीक्ष्ण आलोचना करने का लाइसेंस भी प्राप्त कर लेती हैं।

यहाँ सवाल है कि क्या वह ईश्वर, ईश्वरीय सत्ता, परम्परा, रीति-रिवाज का तर्कपूर्ण विश्लेषण करने या उनका कोई विवेकपूर्ण समाधान खोजने में सक्षम हो पाई हैं? पाठ विश्लेषण बताता है कि प्रारंभिक अंशों में आलोचना का स्वर तीक्ष्ण और कटु है जो परिशिष्ट तक आते-आते मद्धम और भोथरा हो गया है। वे रीति-रिवाजों, रूढ़ियों की आलोचना तो करती हैं, लेकिन उनका तर्कपूर्ण समाधान प्रस्तुत करने में असमर्थ हैं। कभी ईश्वरीय सत्ता में अनास्था की बात करती हैं कभी आस्था और विश्वास की। वे विधवाओं के पुनर्विवाह की हिमायत करती हैं, लेकिन मनुष्यता की दृष्टि से नहीं, तत्कालीन समाज सुधारकों के प्रभावानुरूप। यहाँ तक कि वे वीरेशलिंगम (1948-1919) का हवाला प्रायः 25 वर्ष बाद दे रही हैं। ऐसा लगता है कि वह वीरेशलिंगम की 'हितकारिणी' सभा और उसके उद्देश्यों से प्रभावित थीं। (कुंदुकुरी वीरेशलिंगम पंतुलु स्त्री शिक्षा के बड़े पैरोकार और समाज सुधारक थे, ब्रह्म समाज के प्रभावस्वरूप उन्होंने 1908 में राजमुंदरी में पहले थियोसॉफिस्ट हाईस्कूल की शुरुआत की। उन्होंने मद्रास में पहले विधवाश्रम की स्थापना भी की। - हिस्ट्री ऑफ द ब्रह्म समाज, शिवनाथ शास्त्री)

'आत्मचरितमु' को देखकर कहा जा सकता है कि औपनिवेशिक भारत में बदलते जीवन मूल्यों और बढ़ते पाश्चात्य प्रभाव से सत्यवती का अच्छा परिचय रहा होगा। यह वह दौर था जब हिन्दुओं के घरेलू जीवन पर ब्रिटिश जीवन शैली के कई सकारात्मक प्रभाव देखे जाने लगे थे। बंगाल पहला प्रान्त था जहाँ के भद्र पुरुषों ने अपने लेखों, पत्र-पत्रिकाओं में घरेलू जीवन विशेषकर स्त्री के आचरण को विचार-विमर्श के लिए विशेष अनुकूल पाया। इसे घरेलू जीवन में सुधार की आकांक्षा कहा जा सकता है। पार्थ चटर्जी का मानना है कि औपनिवेशिक समाज में केवल परिवार और गृहस्थी का क्षेत्र ही 'उसके' विशिष्ट 'निजी' कार्यक्षेत्र के रूप में बच रहा था। (द नेशन एंड इट्स फ्रेगमेंट्स - कोलोनियल एंड पोस्ट कोलोनियल हिस्टरीज, प्रिंस्टन, 1993 तथा अ कंपेरिजन बिटविन वीमेन एंड मेन, मेरेडिथ बॉर्थविक, 'द चेंजिंग रोल ऑफ वीमेन इन बंगाल में', 1849-1905, प्रिंस्टन 1984।)

आंध्र प्रदेश तक आते-आते बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक तक नौकरीपेशा वर्ग, मध्य वर्ग के नाम से जाना जाने लगा था। इस वर्ग की स्त्रियाँ साक्षरता की पहली सीढ़ी भी पार कर चुकी थीं। सत्यवती ने जिस तरह भावी पति के संग रोमांस का चित्रण किया, वह इस बात की पुष्टि करता है कि नई बदली हुई जीवन शैली के प्रति उनमें आकर्षण था। औपनिवेशिक शासन के अनन्तर पुरुष वर्ग बड़ी तेजी से सरकारी नौकरियों की ओर आकर्षित हो रहा था, जिसने संयुक्त परिवार के विघटन में बड़ी भूमिका निभाई। सत्यवती के पति ने भी नौकरी पाने के बाद परिवार से दूर एकल गृहस्थी बसाई। इस नई एकल परिवार व्यवस्था ने पति-पत्नी को व्यक्तिगत विकास और परस्पर समझ विकसित करने के बेहतर अवसर प्रदान किए होंगे। साथ ही, दांपत्य प्रेम की अभिव्यक्ति के अपेक्षाकृत अधिक अवसर भी उन्हें मिले होंगे, जो पहले से चली आती हुई संयुक्त परिवार व्यवस्था में एक सीमा तक ही संभव था।

दांपत्य प्रेम से मिले 'आत्मविश्वास' को सत्यवती के 'पतिव्रता' (विधवा होने के बावजूद) के दावे के पीछे पहचानना कठिन नहीं। परम्परा से, भारतीय समाज में 'विधवा' का दर्जा अपमानजनक और निचला है। (रीराइटिंग हिस्ट्री : द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ पंडिता रमाबाई, उमा चक्रवर्ती, नई दिल्ली, 1998, पृ. 270-271) सुहागिन स्त्री को पहला दर्जा मिलता है - यदि वह पुत्रवती हो। पुत्रियों वाली माता का स्थान इससे नीचा है। ऐसे में एक विधवा द्वारा 'पतिव्रता' पद का दावा करना अपने आप में चली आती हुई व्यवस्था के लिए चुनौतीपूर्ण है। दूसरी तरफ सत्यवती ईश्वर, ईश्वरीय सत्ता को तर्कपूर्ण चुनौती देती हैं लेकिन पुनर्जन्म लेकर पति को पुनः प्राप्त करने के लिए पति की तस्वीर की पूजा और ईश्वर से प्रार्थना भी करती हैं।