अथ सवर्ण स्त्री प्रति-आख्यान / भाग 4 / गरिमा श्रीवास्तव

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'आमार जीबन' और 'आत्मचरितमु' ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दो पड़ावों, समाज और स्त्री मन पर पड़े प्रभावों की पड़ताल करने के लिए विशिष्ट पाठ की भूमिका निभा सकते हैं। राससुंदरी ने 1868 में और सत्यवती ने 1934 में आत्मकथा-लेखन किया - दोनों में लगभग सत्तर वर्ष का अन्तराल है। सात दशकों के अन्तर को भारतीय स्त्री की मनुष्य के रूप में पहचान और अन्तर्विरोधों के बावजूद हाशिए की आवाज को केन्द्र में सुनवाए जाने की पुरजोर कोशिश के रूप में देखा जा सकता है। देश के किसी भी अन्य भाग से पहले बंगाल में समाज सुधारों का दौर शुरू हुआ। ब्रह्म समाज के प्रभाव से वीरेशलिंगम ने समाज सुधार के प्रयास प्रारंभ किए। इन समाज सुधारकों की केन्द्रीय चिन्ता स्त्री को लेकर थी। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक ग्रामों तक स्त्री शिक्षा जैसे संदेश क्रिया-रूप में परिणत नहीं हो पाए थे, लेकिन कलकत्ता जैसे शहरों में एक 'नई स्त्री' का उदय हो रहा था, जो पूर्व-औपनिवेशिक स्त्री से अलग थी। भले ही विवाह की उम्र 10-12 वर्ष रही हो, लेकिन आर्यसमाज के प्रभाव एवं विभिन्न प्रान्तों के समाज सुधारकों के प्रभाव से वह शिक्षित होने की प्रक्रिया में थी, हालाँकि यह प्रक्रिया असाधारण रूप से मन्द थी। सती प्रथा के विरोध में कानून बन जाने से सार्वजनिक तौर पर किसी भी स्त्री को सती होने के लिए बाध्य करना संभव नहीं रह गया था, हालाँकि देश के कुछ भागों में अब भी यह चोरी-छिपे ही सही, व्यवहार में थी। धीरे-धीरे स्त्रियों के विवाह की न्यूनतम उम्र को लेकर भी समाज सुधारक चिंतित और प्रयासरत दिखाई दे रहे थे। लेकिन यहाँ भी स्त्रियों के सामाजिक विकास की एक सीमा थी। बदले हुए समय में भी वे अंग्रेजी शिक्षा से वंचित ही रखी जा रही थीं, जब कि पुरुषों के लिए अंग्रेजी का ज्ञान नौकरी और सम्मान पाने के माध्यम के रूप में पहचाना जा चुका था। सरकारी नौकरी में स्त्री का कोई स्थान नहीं था। यह एक नई तरह की पितृसत्तात्मक व्यवस्था थी, जिसमें स्त्री पढ़-लिख तो सकती थी लेकिन केवल पौराणिक, आध्यात्मिक ग्रन्थ - जो उसे तर्क की जगह आस्था सिखाएँ। स्त्री भारतीय सामाजिक परंपरागत मूल्यों का सम्मान करे। इन मूल्यों में अनुशासन का पालन, कम खर्च में गृहस्थी चलाने के गुर, घर-रसोई, संतान, पति की देखभाल (कपड़े धोने, साफ-सफाई से लेकर तेल-मसाले ठीक-ठाक रखने तक) तथा और भी अनंत कर्त्तव्य निहित थे। नई बदली परिस्थितियों में स्त्री को अधिकांश काम खुद करने थे। साथ ही, उससे यह भी अपेक्षित था कि वह खुद को पश्चिमी स्त्री से बेहतर साबित करे, यानी सामाजिक मेल-जोल, वेशभूषा, खान-पान, धर्म का ज्ञान ग्रहण करे, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन को न भूले, पति को परमेश्वर मानती रहे। उसे पुरुषों के समान खाने-पीने, बातचीत करने का अधिकार नहीं था। पुरुष की कड़ी निगरानी उस पर रहती थी। व्रत-उपवास से लेकर तीज-त्यौहार, स्त्री धर्म के पालन में दिन-रात के चौबीस घंटे उसके कर्त्तव्य के लिए कम पड़ते थे। यानी गृहस्थी को बगैर तितर-बितर किए, बगैर मेमसाहब बने, स्त्री को अपनी सीमाओं में रहकर आजादी तलाशने की चुनौती इस नई पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने दी। (नेशन एण्ड इट्स फ्रेंगमेन्ट्स : कोलोनियल एंड पोस्ट कोलोनियल हिस्टरीज, पार्थ चटर्जी, प्रिंस्टन, 1993)

'आमार जीबन' में एक स्त्री का संघर्ष, आत्माभिव्यक्ति की जद्दोजहद और साक्षर होकर अपनी बात दूसरों तक पहुँचाने की तीव्रतम इच्छा व्याप्त है, इसलिए राससुंदरी देवी विधवा होने को 'स्वर्णमुकुट के छिन जाने' का रूपक देती हुई भी पति से स्वतंत्र अपना व्यक्तित्व गढ़ती हैं। पूरी आत्मकथा में सिर्फ एक बार वह कायदे से पति की चर्चा करती हैं - वह भी अति संक्षेप में, पति की निन्दा नहीं करतीं लेकिन पति से 'भय खाती हैं' और इस भय को वह बालमन में, माँ के द्वारा बिठाए गए भय से जोड़ती है, जिसके कारण उसका बचपन अन्य भारतीय कन्याओं की तरह कुंठित और दमित रह जाता है। ससुराल का प्रत्येक प्राणी उसके लिए डर और भय का कारण है, यहाँ तक कि पति का घोड़ा भी। इसके बरअक्स 'आत्मचरितमु' की सत्यवती नई स्त्री है - वह पति के साथ रोमांस का वर्णन साहित्यिक शैली में निर्द्वन्द्व भाव से करती है। सदैव पति का पक्ष लेती है। अकारण नौकरी से निकाल दिए जाने को चुपचाप स्वीकार नहीं करती। पर्याप्त प्रतिकार करती है। सीताराम्मैया की नौकरी लगने के बाद वह पति के साथ गृहस्थी बसाती है, ससुराल की ओर से उसे किसी रोक-टोक का सामना नहीं करना पड़ता। वह स्वतंत्र भाव से दाम्पत्य जीवन जीती है, पति की मृत्यु के बाद उसके प्रेम और सद्गुणों को बार-बार याद करती है। वह दांपत्य जीवन को सुन्दरतम बताती है, क्योंकि पति के साथ वह मित्रवत रही होगी, उसे संयुक्त परिवार की उन रूढ़ियों, परंपराओं को निभाने की जरूरत नहीं पड़ी, जिनके कारण राससुंदरी छिप-छिप कर छपा हुआ अक्षर पढ़ने की जद्दोजहद करती रहीं। राससुंदरी अपने दांपत्य जीवन पर (जो लगभग 46 वर्षों का था) पर अलग से कोई टिप्पणी नहीं करतीं, सिवाय इसके कि इस दौरान उन्होंने 14 बार प्रसव किया। जब कि यह दांपत्य जीवन के गहन आवेग का स्मरण ही है जो 'आत्मचरितमु' की सत्यवती को पति के साथ सती होने और आत्महत्या की प्रेरणा देता है। इसके बरअक्स राससुंदरी, जो 59 वर्ष की उम्र में विधवा हुईं, 88 वर्ष की उम्र में, आत्मकथ्य के दूसरे भाग में ईश्वर को, इतनी लंबी उम्र के लिए धन्यवाद ज्ञापित करती दिखाई देती हैं। यह आकस्मिक नहीं कि पति की मृत्यु के ठीक एक वर्ष बाद राससुंदरी देवी 'आमार जीबन' का प्रकाशन कराती हैं - क्या इसका प्रकाशन पति, जिसे वे 'कर्ता' संबोधित करती हैं, के जीवन काल में संभव था? संभवतः नहीं। संयुक्त परिवार की प्रौढ़ा गृहिणी को भी तब आत्मकथ्य के सार्वजनिक प्रकाशन का साहस होता, इसमें सन्देह है। अन्तःसाक्ष्य बताते हैं कि राससुंदरी पति की मृत्यु के बाद के वर्ष अध्ययन और लेखन को समर्पित करती हैं और अपने समस्त जीवन को ईश्वरीय कृपा मानती हैं। इसकी तुलना में, सत्यवती में एक ढंग का हिन्दू पातिव्रत्य का अहंभाव देखा जा सकता है, जिसे पति में अखण्ड आस्था रखने के कारण 'पतिव्रता' की पदवी मिल गई है और साथ ही यह अधिकार भी कि वह ईश्वर की कड़ी आलोचना कर सके।

राससुंदरी देवी ईश्वरीय चमत्कारों, दुर्घटनाओं के पूर्वाभास की चर्चा करती हैं - जिनका कोई तार्किक या वैज्ञानिक आधार नहीं, वहीं सत्यवती अपने विश्लेषणों में ज्यादा प्रखर और विवेकसम्मत दिखाई देती हैं। वे यूँ ही ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं कर लेतीं। वे संसार, जीव की निर्माण प्रक्रिया पर प्रश्न करती हैं, संतोषजनक उत्तर के अभाव में वे ईश्वरीय सत्ता की उपस्थिति मान लेती हैं और अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं कि ईश्वर निश्चय ही सर्वशक्तिमान है तभी तो वह इतना बड़ा संसार रच पाया और करोड़ों मनुष्यों को कठपुतली की भाँति नचाता रहता है। वे पाप-पुण्य की परंपरागत अवधारणा (सिंबल्स ऑफ सबस्टांस : कोर्ट एंड स्टेट इन द नायक पीरियड, तमिलनाडु, वेलचेरु नारायण राव, दिल्ली, 1992) को एक सिरे से खारिज कर देती हैं और ईश्वरीय सत्ता की अपेक्षा मनुष्यता में अखण्ड विश्वास रखने का सुझाव देती है। सत्यवती के किसी भी समकालीन समाजसुधारक, रचनाकार में दृष्टि की ऐसी प्रखरता नहीं मिलती। सत्यवती की विश्वदृष्टि के निर्माण में सामाजिक -राजनीतिक आंदोलनों के साथ -साथ स्त्री आंदोलनों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी। इसके अतिरिक्त कुछ पुस्तकों विशेषकर गुडीपति वेंकटाचलम (1894-1979) की 'स्त्री', (स्त्री, गुडीपति वेंकटाचलम, विजयवाड़ा, 1961) जिसका प्रकाशन सत्यवती के 'आत्मचरितमु' के चार वर्ष पहले 1930 में हो चुका था और 'सावित्री' (सावित्री (पौराणिका नाटिकालु), गुडीपति वेंकटाचलम, विजयवाड़ा) शीर्षक नाटक जो 1924 में प्रकाशित हुआ - इन दोनों से सत्यवती भली भाँति परिचित रही होंगी। 'स्त्री' में चलम ने स्त्री संबंधी विभिन्न मुद्दों - प्रेम, विवाह, सेक्स, शिक्षा और स्वातंत्र्य तथा पितृसत्तात्मक मूल्यों का विश्लेषण किया था। 'सावित्री' नाटक में सावित्री और सत्यवान की पौराणिक कथा का नाट्य रूपांतर किया गया, जिसके अंत में यम द्वारा सावित्री के पातिव्रत्य की परीक्षा लिया जाना वर्णित था कि सावित्री 'पातिव्रत्य' की रक्षा के लिए 'यम' की हत्या करने के लिए भी तत्पर हो जाती है। यम अन्ततः सावित्री के पातिव्रत्य की प्रशंसा करते हैं कि वह सच्ची पतिव्रता है जो पति- प्रेम के लिए कुछ भी करने को तत्पर है।

'आत्मचरितमु' से गुजरते हुए बार-बार ऐसा लगता है कि वैधव्य ने 'सत्यवती' को विश्वदृष्टि दी। यदि वे विधवा न हुई होतीं तो सामाजिक रूढ़ियों से कोई असंतुष्टि उन्हें संभवतः न होती। कहीं न कहीं उनके अवचेतन में दांपत्य जीवन जीने की प्रबल आकांक्षा है, जिसकी संभावना का अभाव उन्हें कटु बना देता है। वैधव्य के बाद, सत्यवती ने निजी तौर पर क्या झेला, समाज और उसकी रूढ़ परम्पराओं का सामना कैसे किया - इसके बारे में 'आत्मचरितमु' मौन है। यहाँ तक कि इसमें तिथियों, समकालीन सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों, हलचलों का उल्लेख तक नहीं मिलता। इस अर्थ में यह आत्मकथा अपूर्ण लगती है।

राससुंदरी की आत्मकथा 88 वर्षों का पूरा वृत्त अपने में समेटे हुए है। रचनाकार का कहना है कि उसकी मृत्यु के बाद परिवार का कोई सदस्य यदि चाहे तो आत्मकथा का तीसरा भाग पूरा कर दे। राससुंदरी में पढ़ने-लिखने की प्रबल आकांक्षा है। उनकी विश्वदृष्टि का निर्माण घर में ही उपलब्ध धार्मिक ग्रन्थों ने किया है। 'आमार जीबन' में भी तत्कालीन सामाजिक हलचलों की कोई आहट नहीं मिलती। राससुंदरी संयुक्त परिवार की गृहिणी हैं जिसे अपने युवा पुत्रों से भी पुस्तक माँगने में संकोच है। वे भरसक चाहती रही हैं कि उनके लिखने-पढ़ने का पता किसी को न चले, क्योंकि लोकनिन्दा होगी। पहला उपयुक्त अवसर मिलते ही 'आमार जीबन' लिख डालती हैं और बता देती हैं पाठकों को कि स्त्री होना एक अभिशाप से कम नहीं - भले ही वह सवर्ण हो या दलित। सवर्ण स्त्री के शोषण में कुल मर्यादा, वंश परंपरा, ब्राह्मणवादी अनुष्ठान, आडंबर अपनी-अपनी आतंककारी भूमिका निभाते हैं - स्त्री केवल 'श्रमिक' है, दिन-रात के घरेलू श्रम के बदले में भी उसे 'उत्पादक' का दर्जा अप्राप्य है। संतान पैदा करना गार्हस्थ्य धर्म का अंग है - उसमें कैसा वैशिष्ट्य? पूरे दिन काम करने के बाद भी नियमित एवं पोषक आहार मिलने की कोई गांरटी नहीं। उसे अपनी तकलीफ को घूँघट के भीतर छिपाकर 'सद्गृहिणी' के खिताब के लिए निरन्तर श्रमशील रहना है, वह निंदा के भय से अपनी भूख-प्यास सब मार देती है। पति के लिए उसका अस्तित्व शारीरिक और भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले उपकरण का है। घर की साज-सँभाल, बच्चों की देख-रेख के बाद जब वह गृहस्थी के बोझ को नई पीढ़ी को सौंप देती है तभी मुक्ति की साँस ले पाती है। लेकिन ऐसी कितनी स्त्रियाँ निजी विलाप को रचनात्मकता में परिणत कर पाती हैं? करती भी हैं तो पाठकीय रुचि, लोकनिन्दा का भय, सामाजिक अस्वीकृति का भय इतना हावी रहता है कि आत्माभिव्यंजना को आध्यात्मिक खोल ओढ़ाए बिना काम नहीं चलता। राससुंदरी इसी आध्यात्मिक आवरण में आत्मकथ्य कहती हैं, जिसमें अदेखे ईश्वर से निरंतर शिकायत की व्यंजना प्रच्छन्न है - वस्तुतः वही समूची रचना का अन्तर्वर्ती सुर है। राससुंदरी कहीं भी ईश्वर निन्दा नहीं करतीं, उलाहना नहीं देतीं, लेकिन दो -दो दिन निराहार रहकर भी जी जाने को, बीस-बीस घंटे निरन्तर श्रमशील रहकर भी, बीमार न पड़ने को 'ईश्वरीय चमत्कार' से कम नहीं मानतीं। प्रच्छन्न व्यंग्यात्मकता पूरी कृति को विवेक दृष्टि से रचित परिपूर्ण आत्मकथ्य बनाता है।

अब 'आत्मचरितमु' को देखें, जहाँ नव्यपितृसत्तात्मक व्यवस्था में जी रही अपेक्षाकृत स्वतंत्र स्त्री है। लेकिन उसकी सारी स्वतंत्रता 'पति' पर अवलंबित है, जिसके मरते ही सारी स्वतंत्रता छिन जाती है। उसे वापस उसी रुढ़िबद्ध पितृसत्तात्मक समाज में लौट आना पड़ता है। यह 'नई स्त्री' मानसिक तौर पर अपेक्षाकृत ज्यादा कन्फ्यूज्ड है, उसने 'मुक्ति' का स्वाद चखने के बाद बंधन पाए हैं।

सत्यवती विधवा पुनर्विवाह जैसे मुद्दों पर किसी विशिष्ट स्त्रीवादी दृष्टि का अनुगमन करती नहीं दिखाई देती हैं। वे पुरुष समाज सुधारकों की तर्ज पर ही संतानवती और पति-संसर्ग कर चुकी विधवाओं के पुनर्विवाह से सहमत नहीं हैं। जब कि देखा जाए तो जब वे 'विधवा' होकर के 'पतिव्रता' का दावा करती हैं तो पुनर्विवाह के लिए 'अक्षतयोनि' होने की शर्त क्यों? राससुंदरी देवी भी भारतीय विधवाओं की दुर्दशा, उनके लिए बनाए गए कड़े नियमों की आलोचना करती हैं, क्योंकि वैधव्य के बाद स्त्री से उसके अच्छा दिखने का अधिकार छीन कर एक ढंग से उसके बधियाकरण की प्रस्तावना की जाती है।

नवजागरण के दौर में लगभग प्रत्येक भारतीय भाषा में स्त्रियाँ आत्मकथ्य रच रही थीं। कुछ का प्रकाशन हुआ, कुछ विस्मृति के गर्भ में अभी भी हैं। 'सत्यवती' की आत्मकथा आंध्र प्रदेश राज्य आर्काइव के पन्नों से बमुश्किल बाहर आ पाई। इस तरह के अनुसंधान एवं पाठ विश्लेषण स्त्री लेखन को नया आयाम देंगे, ऐसी संभावना है।