अधूरीपतिया / भाग 11 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
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ऊपर नजरें उठाकर बाबू ने उसकी ऊँचाई का अन्दाजा लगाया- कोई ढाई-तीन सौ फुट से कम नहीं रहा होगा। इतने ऊँचे से गिरते पानी का शोर इतना तेज न हो तो क्या हो। आसपास का बतावरण इतना पवित्र और मोहक था कि अनायास ही स्वर्ग की कल्पना की जा सकती थी।

बहुत देर तक देखते रहे बाबू, कभी बैठकर, कभी खड़े होकर, कभी चल कर, कभी झुक कर, कभी सीधे होकर। मानों झरने की हर कोण से तसवीरें कैद करना चाह रहे हों अपनी आँखों में। धुने हुए रुई की तरह वेग से गिरती उड़ती पानी की धार पर सूरज की किरणें पड़ती तो ऐसा लगता कि चांदी के चूर चमक रहे हों। पानी और पत्थर का विचित्र तमाशा- पागलों की तरह उछलना, कूदना, धूम मचाना।

अचानक कंधे पर हाथ रख, गोरखुआ ने कहा- ‘इतने ध्यान से क्या ढूढ़ रहे हो इस कलकलाहट में बाबू? ’

‘देख रहा हूँ इस नीचे वाले पत्थर को...। ’- हाथ के इशारे से बाबू ने कहा- ‘ओफ! कैसी सहनशीलता है उसमें। न जाने कितने युगों से पड़ रही है पानी की तीखी बौछार उस बेचारे पर, किन्तु जरा भी डिग नहीं रहा है। यह तो यह, जरा उस ऊपर वाले पत्थर को तो देखो...। ’- बाबू के इशारा करने पर गोरखुआ का ध्यान ऊपर वाले पत्थर पर गया, जहाँ पत्थर की दरारों से झर-झर कर पानी नीचे आ रहा था- ‘यह पानी नहीं, पत्थर का दिल है गोरखुभाई! कठोरता का प्रतीक पत्थर, किन्तु उसका भी दिल पिघल सकता है! पत्थर घिस रहे हैं, पानी के अनवरत रगड़ से, तो उससे चांदीकी वर्षा हो रही है। काश ! इन्सान भी ऐसा ही हो पाता। इतना ही सहनशील, इतना ही कठोर, इतना ही कोमल भी...। कठोरता है, पत्थर से भी अधिक, पर कोमलता ? ओ ! जरा भी नहीं। छल-कपट, स्वार्थ ओह ! सब बह जाते भारी बहाव में वशर्ते कि इन्सान का दिल इस काबिल होता....। ’

‘क्या कह रहे हो बाबू ! मैं कुछ समझा नहीं। ’- बाबू का मुंह ताकता गोरखुआ बोला।

‘नहीं समझने जैसी कोई बात तो मैं नहीं कह रहा हूँ गोरखुभाई! ’

होरिया और डोरमा दूसरी ओर कहीं निकल गये थे। मतिया और मंगरिया वहीं बैठी गोटियां खेल रही थी- एक चट्टान की आड़ में।

‘वह देखो...। ’- अंगुली से बताते हुए बाबू ने कहा- ‘वह जो काला सा छोटा टुकड़ा नजर आरहा है, पानी के टकराव में ऊपर उठती लहर बारबार उसे ढक लेना चाहती है, मानों मां अपने आंचल में बच्चे को छिपाना चाह रही हो; किन्तु पीछे से धक्का लगता है, और लहर आगे गिरकर, पानी की धारा में बदल जाती है। बारबार यही हो रहा है- दोनों का प्रयास एक ही ढंग से हो रहा है, पर दोनों ही विफल भी हो रहे हैं। लगता है, गोरखुभाई कि यह झरना मेरे जीवन की कहानी कह रहा है।ओफ ! इन्सान ! पत्थर से भी कठोर...काश ! ….।’- बाबू उदास और मौन हो जाता है। कभी ऊपर नजरें उठाकर, झरने की ऊँचाई नापता है, तो कभी नीचे देखकर, गिरने वाले पानी की धार का वेग...कलकल...झरझर...का अनवरत स्वर चारों ओर गूंज रहा है। जंगल की हरियाली और पहाड़ों की सुन्दरता और उनके बीच चहल कदमी करते जंगली जीव- एक साथ घुमक्कड़ों और शिकारियों के लिए मानों निमंत्रण- पत्र लिए खड़े हैं। बाबू खो सा गया इस मनोहर वातावरण में। गोरखुआ एकटक निहारे जा रहा है बाबू के चेहरे को, कि तभी अचानक उसे भी कुछ सूझ जाता है।

‘यह झरना ही तो हमारे लिए जीवन-संदेश है बाबू ! कठिन मेहनत करना, परेशानी से घबराना नहीं, जरा भी विचलित नहीं होना- इस झरने ने ही सिखाया है हमें। बड़ी से बड़ी रुकावट को भी अपनी मेहनत, लगन और कोशिश तथा एकता से दूर किया जा सकता है।’

‘हाँ गोरखुभाई ! आज लगता है तुम्हें भी कुछ हो गया है। सच कहा गया है- प्रकृति अपने आप में विचित्र है- छोटी-छोटी वर्षा की बूंदें बादलों से अपने वियोग को याद कर यदि रोती-कलपती रह जायें तो शायद कुछ भी न हो पाता, किन्तु वही बूंदे एक साथ मिलकर, नदी की धारा बनती हैं, और तब उसमें चट्टान को भी तोड़ने की ताकत आजाती है। पहले धीरे-धीरे पतली धार होगी दरार में, जो धीरे-धीरे बढ़कर आज इस झरने का रुप ले लिया है-क्यों ऐसा ही तो कुछ हुआ होगा न?’

‘ हाँ बाबू! हमारे गान्ही बाबा भी तो ऐसे ही हैं। धीरे-धीरे सबको इकट्ठा करके, बड़ी सी हस्ती का सामना करने को सोच रहे हैं। पहले जरा सा मौका तो मिले। फिर दिखा देंगे कि हम क्या हैं, कितनी ताकत है हमारे बाजुओं में। सही में यह पत्थर क्या कभी सोच पाया होगा बाबू कि मेरी छाती को चीर कर पानी की धार बह निकलेगी?’

‘वाह गोरखुभाई कमाल की सूझ है तुम्हारी भी। ठीक कहा गया है, सोचने के लिए बातावरण चाहिए- प्रकृति की गोद में बैठ कर ही सही सोचा जा सकता है, प्रकृति की महानता के बारे में, न कि कंकरीट के जंगलों में, सरिया का छाता लगाकर। पहले के लोग प्रकृति के बिलकुल समीप थे, क्यों कि प्रकृति उन्हें प्यारी थी। आज ऐसा कहां होता है? बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में, बैठ कर गरीबी, और भूखमरी की चर्चा कितनी सार्थक हो सकती है? बिजली की चकाचौंध में बैठकर अन्धेरे पर क्या विचार किया जा सकता है- सोचने वाली बात है। महानगरों में रहने वाले प्रकृति की इस लीला का रहस्य क्या जान पायेंगे?’

‘हाँ बाबू ! इसीलिए तो गान्ही बाबा गांव-गांव घूम-घूमकर गरीवों का दुख-दर्द समझ रहे हैं।’- थोड़ा ठहरकर गोरखुआ बोला- ‘मगर बाबू, अभी जो आपने कहा- यह झरना मेरे जीवन की कहानी कह रहा है....आपके जीवन में भी कुछ ऐसी-वैसी विचित्र बात हुयी है क्या ?’

‘जीवन तो हर किसी का विचित्र होता ही है गोरखुभाई ! एक उसपर ध्यान देता है, और दूसरा बेपरवाह, होकर टाल जाता है। खुद को भुलाने की कोशिश करता है। सच पूछो तो मैं भी स्वयं को भुला ही तो रहा हूँ।’- उदासी पूर्वक बाबू ने कहा।

‘सो कैसे बाबू ? आज तुम्हें क्या हो गया है? बहुत उदास भी हो। कुछ पुरानी बातें याद आ रही है क्या?’- प्रेम से, पीठ पर हाथ फेरता हुआ गोरखुआ ने पूछा।

‘किसे भूलू , किसे याद करुँ गोरुखुभाई ! आज इस झरने ने बीते दिनों की बहुत-सी यादें ताजा कर दी।’- बाबू की आँखें डबडबा आयी- ‘छोड़ो जाने भी दो। होना क्या है उसे याद करके...।’

‘कुछ मैं भी तो सुनु यदि सुनने-जानने लायक मुझे समझते हो। क्या मैं तुम्हारी कुछ मदद नहीं कर सकता ? गम आँखिर किस बात के लिए है ? हर बार हम जानने की कोशिश करते है, परन्तु आप टाल जाते हैं। कभी कुछ बताना-कहना जरुरी नहीं समझते। ’

बातें होही रही थी कि होरिया और डोरमा कंधे पर एक खरगोश टांगे आ पहुँचे। उन्हें आते देख मतिया और मंगरिया भी गोटी फेंक, उठ खड़ी हुयी।

‘वाह ! तो अभी तक आपलोग झरना ही देख रहे हैं बाबूमन ?’- होरिया ने खरगोश को नीचे पत्थर पर रखते हुए कहा- ‘नहाना-धोआना नहीं है क्या?’

‘बाबू को तो कब से भूख लगी थी, पर झरना देखते ही भूख भाग गयी।’- मंगरिया ने

हँस कर कहा।

‘बाबू की भूख भाग गयी तो भागे, मैं तो नहीं जाऊँगा उसे पकड़ने, क्यों कि मुझे खुद ही भूख बड़ी जोर की लगी है। अभी इस खरगोश को भूनूंगा। मगर पहले आपलोग नहा लें, तबतक इधर मैं सब ठीक किये देता हूँ।’- डोरमा बोला।

‘चलो भाई नहा ही लिया जाय। भूख तो सही में भाग गयी थी झरना देखकर।’- खड़े होते हुए बाबू ने कहा, और गोरखुआ का हाथ पकड़कर बढ़ चले चट्टान से नीचे उतर कर झरने की कलकल करती धारा की ओर। मतिया और मंगरिया भी कपड़े उठाकर एक ओर चल दी नहाने।

बहुत देर तक नहाते रहे सभी। झरने के ठंढे पानी का आनन्द लेते रहे। नहाने से बाबू का मिजाज भी तरोताजा हो गया। पहले जो ऊल-जुलूल बातें दिमाग में आ घुसी थी, झरने के बहाव में बह गयी शायद।

ये सभी नहा कर ऊपर आये तो देखा- डोरमा खाने की तैयारी पूरी कर चुका है। कुछ पत्ते तोड़कर पत्तल भी बना लिया है। पत्तो से ही बुनकर एक झारी भी बना रखा है, जिसमें पानी लाकर वहीं रख छोड़ा है।

‘मैं अभी आया नहाकर।’-कहता हुआ डोरमा तुरन्त चल पड़ा वहां से। बाकी लोग कपड़े बदल, वहीं बैठ इन्तजार करने लगे, डोरमा जल्दी आये तब खाना-पीना हो।

डोरमा के आने पर सबने मिलकर खाना खाया। थोड़ी देर तक वहीं ढोंके पर लेट कर तो, कोई हरी-हरी घास पर पसर कर आराम फरमाये। बाबू एक टक झरने को ही निहारता रहा- झरने का उछलना, उठना, गिरना।

‘अब चला जाय। अभी बहुत घूमना है।’- कहा गोरखुआ ने तो सभी चटपट उठ खड़े हुए। बाबू भी बेमन से धीरे-धीरे उठे। मानों कोई जबरदस्ती कर रहा हो।

‘मुझे तो जाने की इच्छा ही नहीं होरही है यहां से।’- कहा बाबू ने खड़े होते हुए, तो

गोरखुआ हंसते हुये बोला-‘ इसीलिए तो कहता हूँ बाबू कि मतिया से शादी कर, आ बसो यहीं। एक बंगला साहब ने बनाया था, एक तुम भी बनवा डालो...।’

‘और फिर साहब की तरह ही किसी मासूम का...।’- कहती हुयी मंगरिया हँस पड़ी मतिया के कंधे पर ठोंकती हुयी।

‘छी-छी ! क्या बकती हो ? बाबू को भी साहब समझ ली हो ?’- खिसियानी सी सूरत बना कर गोरखुआ ने कहा- ‘ इस शोख घोड़ी को बोलने का भी सऊर नहीं है।’


वहां से सभी वापस आये बंगले की सैर को। बाबू को बंगला पहली ही नजर में आकर्षक लगा था। गोरखुआ घूमघूम कर बतलाता जा रहाथा- ‘ये देखो बाबू, इसी में वह पापी साहब रहता था...इसमें उसका नौकर...खानसामा...इसमें माली...पहरेदार...ये उधर कतार में जो ढही हुयी कोठरियां मालूम पड़ रही है...ये वरामदे...इन्हीं में हमारे बुजुर्ग पुरखों का गुजर-वसर होता था...और यह जो कोठरी देख रहे हो न...अब एक दीवार बची है सिरफ...जुगरिया रहती थी इसी में अपने मां-बाप के साथ...मारने के बाद साहब की लाश यहां गाड़ी गयी थी...चलते समय पहरेदार ने देख लिया था...उसे तो नाले में बहा दिया गया था कामतमाम कर। यहां से भाग कर कई दिनों तक लोग परिवार सहित जंगलों में, कन्दराओं में छिप रहे...फिर धीरे-धीरे निकलकर इधर-उधर जा बसे...जुगरिया की याद में ....यह उजाड़ भूतहा बंगला....।’- गोरखुआ बहुत कुछ बतला गया। खण्डहर के ईंट-रोड़ों से उसे लगता है काफी परिचय था।

बात तो बहुत पुरानी थी, पर गोरखुआ, जिसका पुश्त-दरपुश्त सुनते आया था, कुकर्म की कुरुण कहानी, कुछ ऐसे ढंग से सुना गया मानों आज की बात हो। सुनकर सबकी आँखें छलछला आयी। रुंधे गले से कांपती आवाज में बाबू ने कहा- ‘दुनियां बड़ी अजीब है गोरखु भाई । नाशवान शरीर के लिए इतना कुछ...अमर कीर्ति के लिए ...?’

बंगले की सैर के बाद उसके दाहिनी ओर का रास्ता पकड़ा लोगों ने- शंकरदेव के

स्थान तक जाने का। रास्ते में बातचीत होने लगी। बाबू के दिमाग में जुगरिया की कहानी घूमती रही। उन्हें लगा, अभी भी उसकी तड़पती रुह भटक रही होगी इस बंगले में, इन्हीं जंगलों में। जुगरिया की बात याद कर, साथ चल रही मतिया की याद आयी, और फिर खोते चले गये उसी में....।

‘तब बाबू कुछ सोचा आपने?’- पूछा गोरखुआ ने तो चौंक उठे बाबू। मतिया का

ख्वाब अचानक टूट गया- ‘ क्या ? कौन सी बात सोचने की कह रहे हो गोरखुभाई ?’- बाबू ने फिर पूछा।

‘वही, मतिया के बारे में, और क्या सोचने को कहूंगा ? कहा था न अच्छी तरह सोच-विचार कर कहने की बात। ’

‘और लोग क्या कहते हैं?’- बाबू ने पूछा।

‘वाह-वाह ! अभी और लोगों की दुम अटकी ही हुयी है बाबू ? हम सब बेचैन हैं कि आप हरी झंडी दिखायें, और आप कहते हो कि....।’

‘मतिया क्या कहती है ?’-बाबू ने मुस्कुरा कर पूछा- ‘उस दिन जरा सी चर्चा भी चली तो फिर बात बदल गयी। नाटाटोली के लोग आगये।’

‘सो तो उसी दिन उसकी इच्छा जान ली मैंने। कहो तो फिर दुहरवा दूँ। मंगरिया तो है ही।’- कहते हुए आवाज दी- ‘मंगरिया ओ मंगरिया ! जरा इधर तो आ।’ मंगरिया और मतिया कुछ पीछे थी। गोरखुआ के हांक पारने पर मंगरिया झपटकर आगे बढ़ी। मतिया शायद समझ गयी थी कि उसकी ही कोई बात है, इस कारण पीछे ही रह गयी।

गोरखुआ ने बाबू से फिर पूछा- ‘किन्तु क्या आपको इतने दिनों में कभी मौका ही नहीं मिला मतिया से पूछने-जानने की, या कि आपने इसका जरुरत ही नहीं समझा ?’

‘समय और मौका तो बहुत मिला- महीने भर से ज्यादा। सारा दिने जंगलों में

भटकना-घूमना साथ-साथ ही तो होता रहा। जरुरत भी महसूस करता रहा पूछने की, किन्तु खुलकर कभी पूछ न पाया, और न उसने ही कभी उकसाया इस बात पर।’

‘ठीक है। तो आप जिस काम को महीने भर में पूरा न कर सके, उसे हम अभी, यहीं बस चुटकी बजाकर हल किये देते हैं।’- गोरखुआ ने हँस कर कहा। इसी बीच मंगरिया भी पास आगयी। आते ही बोली- ‘क्या बात है?’

‘उस दिन मतिया से जो बातें हुयी, जरा सुना दो बाबू को, क्यों कि अभी तक मतिया की राय की खूंटी गाड़े बैठे हैं बाबू।’- गोरखुआ के कहने पर हंसती हुयी मंगरिया ने कहा- ‘इतनी सस्ती है मेरी मतिया की राय ? सो सब नहीं चलने को है बाबू ! पहले वादा करो- मेरी बात मानोगे, तब तो मैं कुछ कहूंगी, नहीं तो चली।’- कहती हुयी मंगरिया दो पग आगे बढ़ गयी।

‘बड़ी शरारती छोरी है। कहेगी या वचन ही लेती रहेगी बाबू से ?’- मीठी झिड़की दी गोरखुआ ने।

‘नहीं, पहले वादा, फिर कोई बात।’- फिर से साथ होकर मंगरिया ने कहा।

‘अच्छा बाबा। दिया वचन। किया वादा- जो कुछ कहोगी, मानूंगा। मंगरिया देवी की आज्ञा सिर-आँखों पर। अब तो कुछ बोलो-कहो।’- ऐसे भाव बनाकर बाबू ने कहा कि दोनों हँस पड़े। बातों में दिलचस्पी लेते, डग बढ़ाते होरिया और डोरमा भी नजदीक आगये, जो कि अब तक वे दोनों पेड़ों पर देखते चल रहे थे- कि किधर कौन सी चिड़िया बैठी है। डोरमा के हाथों में गुलेल था, जिसके बदौलत अब तक कई परिंदों की जान जा चुकी थी।

लम्बी चौड़ी भूमिका के बाद मंगरिया ने उस दिन की पूरी बात सुनाई, वो भी कुछ नमक-मिर्च-मसाले के साथ। सुनकर बाबू के विचारों की गति और भी तेज हो गयी। वैसे भी महीने भर में मतिया के बारे में बहुत कुछ जान-समझ चुके थे बाबू। दिनोंदिन मतिया उनके करीब आती जारही थी। मन ही मन मतिया के निश्चल-निश्छल प्रेम और समर्पण की सराहना करने लगे थे बाबू।

उस दिन की पूरी बात सुना, मंगरिया बोली- ‘ तब बाबू ! अब क्या कसर है ? जल्दी बजाओ न बाजा।’

‘और तुम कब बजा रही हो? आओ तुमदोनों की गांठ आज ही बांध दूँ।’- हँसते हुये बाबू ने कहा, और हाथ बढ़ाकर दायें-बायें चल रहे गोरखुआ और मंगरिया के कपड़े पकड़, गांठ लगा दी। साथ चलते डोरमा और होरिया हँसने लगे बाबू की इस हरकत पर। पीछे सिर झुकाये चली आरही मतिया भी झपटकर आगे आगयी, और ताली बजाकर हंसती हुयी बोली- ‘वाहरे पलटनवांबाबू ! वाह-वाह ! ठीक किया आपने। बहुत उछलती थी मंगरिया। अच्छा किया- मजबूत खूँटे से बांध दिया इसे।’

मतिया के कहने पर सभी का ठहाका एक बार फिर गूंज उठा घने जंगल में, और गूंजता ही रहा कुछ देर तक- पहाड़ों से टकरा-टकराकर। गूंज और टक्कर का साझीदार शंकर देव का मन्दिर भी बना, कारण कि वह भी समीप ही था।

दूर से ही किलानुमा खण्डहर नजर आने लगा था। नवजवानों की मस्त टोली हँसी-चुहल करती वहां पहुँच गयी। देखा तो लम्बी-चौड़ी चहारदीवारी के अन्दर घने गुंजान में नजर आया एक इमारती खंडहर, जिसे समय ने ठोकर मार-मारकर काफी बूढ़ा बनाने की कोशिश की थी, पर बहुत कामयाब न होपाया था, क्यों कि समय-समय पर श्रद्धालुओं की सेवा ने जवानी का रस पिला-पिला कर मरने से बचा लिया था इस खंडहर को।

भारी-भरकम इमारत के बीचो-बीच एक बड़ा सा कमरा था, जिसके ऊपरी भाग में मन्दिर का आकार बना हुआ था। देखने से साफ जाहिर होता था कि इमारत काफी पुरानी है। वनवासियों की कई पीढियों का इतिहास याद है इसे, किन्तु ऊपर बना मन्दिरनुमा आकार कुछ पिछड़ा है इस मामले में- कक्षा में पिछले बेंच पर वैठने वाले विद्यार्थियों की तरह। शायद बहुत बाद के किसी भक्त ने इसे बनवाया हो।

‘हमारे ही पुरखों में किसी एक को सपना दिया था शंकरदेव ने। उन्होंने ही यहाँ आकर इस लम्बी-चौड़ी इमारत की मरम्मत करवायी थी। थे तो वे बहुत गरीब, किन्तु शंकरदेव ने सपने में जिस गड़े धन की जानकारी दी थी, उसी बूते पर आज तक हमलोग मौज करते आ रहे हैं। अभी भी साल में एक बार सोहराय के दिन यहां आकर झाड़-बुहार, साफ- सफाई, मरम्मत आदि कर जाते हैं हमलोग।’- कहता हुआ गोरखुआ इमारत की बाहरी दीवार से सटी सीढ़ी पर आगे-आगे चढने लगा, जिससे होकर ऊपर मन्दिर तक जाने का रास्ता था। उसके पीछे बाकी लोग भी चल पड़े। घुमावदार सीढ़ी से काफी ऊँचाई तक पहुँच गये लोग। ऊपर पहुँचने पर कोई पचीस हाथ लम्बी और उतनी ही चौड़ी साफ जगह नजर आयी, जिसके बीच में छोटी सी एक कोठरी बनी हुयी थी। ऊपर छत पर मंदिर का ऊँचा गुंबद सिर उठाये , लोगों को बुला रहा था। कोठरी में लकड़ी की काफी मोटी किवाड़ लगी थी, जो पत्थरों के चौखटे के सहारे झूल रही थी। किवाड़ भिड़काया हुआ था।

सभी भीतर पहुँचे। भीतर में किसी देवी-देवता की मूर्ति नहीं बनी थी। पश्चिम की ओर दीवार में, मात्र एक आला था बड़ा सा, जिसके नीचे एक कुण्ड था फर्श पर। कुण्ड में धूप के जले-अधजले टुकड़े पड़े थे। दीवार में बहुत सारी खूँटियां गड़ी थी, जिसे गौर से देखने पर मालूम चलता था कि इन्हें बाद में गाड़ा नहीं गया है, बल्कि बनाते समय ही पत्थर को काट-कूट कर खूँटियों का आकार देदिया गया है। करीब-करीब हर खूंटी पर छोटी सी एक-एक पोटली टंगी हुयी भी नजर आयी।

‘ये इतनी सारी खूंटियां इस छोटी सी कोठरी में! ’- बाबू ने आश्चर्य किया- ‘क्या है इन पोटलियों में ?’

‘पोटलियां नहीं हैं बाबू , इन्हें मुकदमें का कागजात कहो। ’- गोरखुआ ने हँस कर कहा।

‘ मुकदमे के कागजात ? तो क्या शंकरदेव जज हैं, जो मुकदमा देखते हैं ?’ –बाबू ने आश्चर्य किया।

‘हाँ बाबू ! तुम्हारा मुकदमा भी आज मैं यहीं दायर करुँगी। ’- मंगरिया ने हँसते हुये कहा, और मतिया को धीरे से चिकोटी काट दी।

‘धत्त, बड़ी शोख है। ’-कहती हुयी मतिया दूर छिटक गयी मंगरिया से।

गोरखुआ ने बतलाया- ‘इन पोटलियों में धूप बंधे हैं बाबू। अपने किसी काम के पूरा होने के लिए लोग यहां आकर मन्नत कर जाते हैं। मन्नत का तरीका यही है यहां का कि पोटली में थोड़ा सा धूप बांध कर टांग देते हैं, और आरजू कर देते हैं। अपनी फरियाद या मुराद कह सुनाते हैं बाबा शंकरदेव को, और घर चले जाते हैं। काम पूरा होजाने पर फिर यहाँ आकर धूम-धाम से पूजा करते हैं, नाच गान करते हैं, हंड़िया चढ़ाते हैं, और धूप को उतार कर हुमाद करते हैं। ’

‘बड़ा ही लाजवाब तरीका है यहाँ मन्नत करने का। ’- बाबू ने चकित होकर कहा।

‘हाँ बाबू! सबसे बड़ी बात तो ये है कि आजतक ऐसा न हुआ कि शंकरदेव के दरवार में अर्जी लगी हो, और मन्जूर न हुयी हो। हां एक बात और है कि लाख चाहने पर भी, बड़े किस्मतदार लोग ही यहाँ पहुंचकर अर्जी लगा पाते हैं। कोई न कोई कारण आ पड़ता कि लोग पहुँच ही नहीं पाते। ’- गोरखआ ने कहा, तो बाबू को और भी आश्चर्य हुआ।

‘सो कैसे गोरखुभाई? दिक्कत आखिर क्या होती है लोगों को यहाँ पहुंचने में ?’- बाबू ने सवाल किया।

‘समझो तो दिक्कत कुछ भी नहीं है बाबू । बात सिरफ संजोग और विसवास की है- सभी जानते हैं कि यहाँ आजाने पर मन की मुराद मिल ही जायेगी, किन्तु चाह कर भी लोग समय पर पहुँच नहीं पाते। कोई न कोई अड़चन आही जाता है, और चार पग पर मन्दिर चारसौ कोस दूर हो जाता है। अब तो इधर आने के रास्ते भी काफी साफ हो गये हैं, पहले तो इतनी खतरनाक थी ये जगह कि आना मुश्किल था। मतिया के बाप को इसी आहाते के बाहर बाघ खा लिया था। ढूढते-ढाढते दो दिनों बाद हमलोग इधर आये तो मालूम चला था। ’

‘यह तो तुमने बड़ी दिलचस्प बात बतलायी गोरखुभाई ! ऐसी बात थी तो तुम्हें पहले

ही कहना चाहिए था। और पहले ही आया होता मैं इनका दर्शन करने ’- कहते हुये

बाबू ने श्रद्धापूर्वक ताक के पास जाकर अपना माथा टेक दिया।

‘इसका भी आज ही संयोग समझो बाबू। मैंने कहा न कोई न कोई कारण आ पड़ता है। मैं तो करमा के दिन से ही सोच रहा था इधर आने को....।’

‘कुछ मन्नत-वन्नत मानना था क्या मंगरिया के लिए?’-बाबू ने चुटकी ली।

‘मंगरिया के लिए मन्नत क्या मांगना है बाबू , इसे तो शंकरदेव ने मेरे लिए ही भेजा है।’- हंस कर गोरखुआ ने कहा।

मौका पा मंगरिया कब चूकती। एक तीर मार ही दी- ‘क्यों मतिया धूप लायी हो मन्नत के लिए? ’

‘मैं अगली बार कभी आकर मन्नत कर जाऊँगी, अभी तो तुम अपना काम झटपट निपटाओ। ’- होठों ही होठों में मुस्कुराती मतिया ने कहा, तो सभी एक साथ हँसने लगे।

‘मेरी मन्नत तो बाबू ने पूरी कर दी। अब जो बाकी है, वह सिरफ बाजा बजाना, और तुमलोगों का मुंह मीठा करना। ’- मतिया की चुटकी का जवाब मंगरिया ने दिया, और मतिया का सिर पकड़कर, कुण्ड के सामने झुकाती हुयी बोली- ‘हे बाबा शंकरदेवजी! मतिया की मुराद पूरी हो गयी तो बाबू के साथ यहां आकर धूमधाम से तुम्हारी पूजा करेगी।’

‘और मैं तुम्हारा सिर झुका देरहा हूँ। ’- हँसते हुये बाबू ने मंगरिया का सिर पकड़कर कुंड पर झुका दिया। ‘बोल मतिया बोल, मन्नत तुम बोल दे मंगरिया के लिए। ’

मन्नत की बात मतिया ने सच मे दुहरा दी। मंडप में एक बार फिर सबकी खिलखिलाहट गूंज गयी।

गोरखुआ ने जरा गम्भीर होकर कहा- ‘ किन्तु इस तरह खिलवाड़ नहीं करना चाहिए शंकरदेव के सामने। माफी मांगो मंगरिया, और तुम भी मतिया।’

गोरखुआ के कहने पर दोनों ने सिर झुका कर माफी मांगा- ‘हे शंकरदेवजी! अगर हम लोगों से कोई गलती हुयी हो तो माफ कर दें। ’

कुछ देर और ठहर कर, मन्दिर से बाहर खुले चौक में आकर, घूमघाम कर लोग दूर-दूर तक फैली हरीतिमा का मजा लेने लगे।

मौका देख होरिया ने बाबू को टोका- ‘हँसी मजाक में बात वहीं की वहीं रह गयी

बाबू , अभी तक आपने गोरखुआ की बात का जवाब नहीं दिया। ’

‘दूंगा, अवश्य दूंगा। अब तो उसका भी समय आही गया है। ’-कहते हुए बाबू ने मतिया का हाथ पकड़ा, और मंदिर के अन्दर लेजाने लगे-‘जरा इधर तो आ, तुमसे एक बात करनी है। ’

‘जाओ न शरम काहे की?’- मतिया को बाबू के साथ जाने को ठेलती हुयी मंगरिया ने कहा।

मतिया का हाथ पकड़े बाबू फिर एक बार मन्दिर में घुस गये। कुंड के पास जाकर बोले- ‘तुमसे अकेले में कुछ पूछना चाह रहा हूँ। ’- मतिया की ठुड्डी अपने हाथ से ऊपर उठाते हुये कहा- ‘ सचपूछो तो जब से तुम्हें देखा है, मन में अजीब सिहरन सी होने लगी है। तरह-तरह की बातें सोचने लगा हूँ। न जाने किस जन्म का कैसा सम्बन्ध है तुमसे ! जहाँ तक मेरा विश्वास है- बिना पूर्व सम्बन्ध के कोई किसी के प्रति इतना खिंचता नहीं है। पुराने जमाने में राजा दुष्यन्त को भी कुछ ऐसा ही आभास हुआ होगा जंगल में महर्षि के आश्रम में कुमारी शकुन्तला को देखकर।’

दुष्यन्त और शकुन्तला के बारे में कुछ जानकारी न होने के कारण मतिया कुछ विशेष समझ न सकी, सिर्फ इतना ही समझी कि कभी कोई और मिली होगी हमारी ही तरह...। मतिया की भारी पलकें उठ गयीं बाबू के चेहरे की ओर। बाबू बहा जा रहा था भावनाओं के बहाव में- ‘तुम न होती तो आज शायद मैं भी न होता। तुमने मेरी जान बचाकर, सेवा करके, जो कृपा की है, उसका कुछ भी मोल आंक कर तुम्हारे स्नेह का अपमान करना और खिल्ली उड़ाना है। इधर महीने भर से अधिक तुम्हारे साथ गुजारने का मौका मिला। मैंने देखा, मैंने पाया- जिस निश्छल और निस्वार्थ प्रेम और स्नेह से तुमने मेरी सेवा की है, आज तक कोई ऐसा नहीं कर पाया है। मेरे साथ किसी ने आजतक ऐसा प्रेम नहीं जताया। बस केवल मां की ममता मिली है मुझे। कहीं और भी ऐसा पवित्र और निस्वार्थ प्रेम मिल सकता है- मैंने इसकी कल्पना भी नहीं की थी। सच्चे प्यार के लिए मेरा हृदय सदा तड़पता रहा। प्यार की खोज ने ही मुझे दीवानगी की हद तक पहुंचा दिया। सबकुछ त्यागा मैंने, सिर्फ प्यार के लिए, पर ...अब जब कि तुम मिल गयी...मेरे हृदय से यह अभाव जाता रहा....।’- बाबू कहते रहे, सिर झुकाये मतिया सुनती रही- ‘यह अच्छा हुआ कि गांव के बुजुर्गों ने स्वयं ही यह प्रस्ताव रख दिया, क्यों कि यदि मैं यही बात कहता तो शायद उदण्ड, स्वार्थी, उश्रृंखल, लम्पट कहा जाता। आज महीने भर से लड़ता आ रहा हूँ—अपने मन और बुद्धि से तौलता रहा हूँ विवेक की तराजू पर। अन्त में इस निश्चय पर पहुँचा हूँ कि निश्चित ही तुम्हारे साथ मेरा जीवन सुखमय हो सकता है। सोच-समझ में थोड़ी कसर थी, सो आज मंगरिया ने पूरी कर दी। उसकी बात से तुम्हारे बारे में विशेष रुप से समझने का मौका मिला आज, जिसका फल यह हुआ कि मेरे दिल के आइने में जो धुधली छवि बन रही थी महीने भर से, वह आज बिलकुल साफ नजर आने लगी। मेरी आँखों ने तुम्हारी आँखों के नूर को देख और पहचान लिया, पर दिल के नूर को पूरी तरह न पहचान पाया था, जो कि अभी पूरा हो गया। इस विषय में मुझे कुछ और कहना-जानना-पूछना भी नहीं है। कहना सिर्फ इतना ही है कि मैं तुम्हें जी-जान से चाहता हूँ। यदि तुम्हारी स्वीकृति हो जाय, तो इस चाह को, इस प्रेम को, इस श्रद्धा को, विवाह के अटूट बन्धन में बांध कर सदा-सदा के लिए अपना लूं, ताकि शाश्वत सम्बन्ध सार्थक हो जाय।’

इतना कहकर बाबू मौन हो गये। मतिया का दिल तेजी से धड़कने लगा। वदन में झरझुरी सी महसूस होने लगी। इस अपार खुशी को अपने छोटे से दिल में किस तरह समेट कर छिपा ले- समझ न पा रही थी मतिया।

‘ओफ बाबू कितना महान है!... ’—सिर्फ इतना ही सोच पायी। होंठ खुल न पाये, सिर्फ फड़क कर रह गये। आँखों में आंसू छलक आये। सिर झुकाये चुप खड़ी रही।

‘क्यों कुछ जवाब नहीं दिया तूने मेरी बात का? ’- झुकी ठुड्डी ऊपर उठा, बाबू ने फिर सवाल किया। आँखों में छलछलाये आँसू देख चौंक पड़े- ‘हैं यह क्या, तुम्हरी आँखों में आँसू? ’

‘हाँ बाबू ! हैं तो ये आंसू ही, पर आंसू मत कहो इन्हें। ये तो बस प्यार के फूल हैं, जिन्हें अपने देवता के चरणों में अर्पित कर देना चाहती हूं। ’- कहती मतिया तपाक से नीचे झुककर बाबू के पैरों में अपना सिर टेक दी। आँखों से चूकर आँसू की कुछ बूंदें बाबू के पैरों पर गिर पड़ी। झट से झुक कर बाबू ने उठाया और सीने से लगा लिया। बाबू के चौड़े और सपाट सीने से चिपकी मतिया सुबकने लगी- ‘मुझे अब भी विश्वास नहीं होता बाबू ! कहीं यह सपना तो नहीं देख रही हूँ मैं? ’

‘सपना नहीं, हकीकत है प्यारी मतिया ! आज से तुम मेरे दिल की रानी हो गयी- सर्वेश्वरी...हृदयेश्वरी...प्राणेश्वरी...।’- बाबू के इन शब्दों का अर्थ क्या जाने बेचारी, किन्तु वह सिर्फ इतना ही जान पायी कि कोई बहुत ही अपना है जो, कस कर भींच लिया है सीने से लगाकर, और वह उस बाहु-बन्धन में सावन के झूले सा पेंगे ले रही है। कुछ देर तक यूँ ही सटी रही बाबू के सीने से, और सुनती रही मर्दानी धड़कनों को, जिनके संगीत का जादू उसके तन-मन को बेसुध किये जा रहा था।

जरा ठहर कर बाबू ने बाहुपाश को थोड़ा ढीला किया, और अपने दाहिने हाथ में पड़ी हीरे की जगमगाती अंगूठी निकाल कर मतिया की अंगुली में पहना दी। मतिया एक बार फिर लोटने को आतुर हो उठी बाबू के पैरों पर, किन्तु सावधान बाबू इस बार ऐसा होने न दिया, और बीच में ही सम्हाल लिया। बाहों का हार एक बार फिर जकड़ गया, मतिया पूरी तरह बाबू के आगोश में समा गयी।