अधूरीपतिया / भाग 2 / कमलेश पुण्यार्क
“ सो तो है ही। हर इन्सान के भीतर लहू तो लाल ही होता है न, चाहे वो गोरा हो या काला, ऊँची जाति का हो या कि नीची जाति का, वैसे ये ऊँचा-नीचा सच पूछो तो कुछ होता जाता नहीं। ऊपर वाले ने तो सवको बराबर हाथ-पैर, आँख-नाक, कान, जीभ आदि दिये हैं। अब उनके इस्तेमाल में कोई कमी-बेसी हो तो बात और है। आदमी तो वस आदमी है। उस परमात्मा का ही हिस्सा, जो परमात्मा ही तो है? पत्थर का टुकड़ा मिट्टी तो हो नहीं सकता, कंकड़ भले कह लो।”
युवक की बात पर युवती ने सिर हिलाकर हामी भरी, और जुगरिया की कहानी को आगे बढ़ाती हुयी बोली- “ रात थोड़ी और गहराई, और गहराया विकराल काल। विष में बुझाये गये तीर और कटार लेकर चार-पांच जन घुस गए फिरंगी साहब के बंगले में, और खटाखट खींचने लगे जवानी के भूत को बूढ़े साहव के शरीर से। आभागे को इतना मौका भी न मिला कि चिल-पों कर सके। थोड़ी देर में ही टें बोल गया। साहब को मार कर, वही बंगले में ही ठिकाने लगाकर, वापस आये लोग। मगर अफसोस, तब तक बेचारी जुगरिया भी दम तोड़ चुकी थी। पता नहीं, बीमारी के कारण या दानवी दुर्व्यवहार के कारण, या किसी अन्य कारण से। कारण जो भी रहा हो, सुबह होते ही जुगरिया का दाह संस्कार करके सबके सब चल पड़े उस बंगले को उजाड़-पुजाड़ कर, अपना बोरिया-विस्तर बाँध-बूंधकर।”
“ तब से यहां आ बसे। जुगरिया की याद में बस्ती बसाई। समय के साथ-साथ बदल कर वही बस्ती जुगरिया से गुजरिया हो गई।”- इतना कहकर युवती पल भर को ठहर गयी।
“ ओफ ! बड़ी ही दर्दनाक कहानी है इस गांव की। न जाने दुनियां में कैसे-कैसे लोग होते हैं। ठीक ही कहा गया है, धन से सबकुछ खरीदा जा सकता है, पर बुद्धि नहीं, और बुद्धि हो तभी आदमी मानव कहला सकता है, अन्यथा बिना पूंछ और सींग वाला जानवर ही तो है। सांढ़-भैंसों जैसा, जिस-तिस की लहलहाती खेत को बरबरता पूर्वक बरबाद करते चलना...।”-युवक की बात को बीच में ही काटती हुयी युवती बोली, “ हाँ बाबू! ठीक ही कहते हो, मुये को जरा भी आदमियत से वास्ता नहीं था।”
युवती के चेहरे पर अनेक तरह के भावों की रेखायें उभर और मिट रही थी। उसने आगे कहा- “ तुम तो बाबू इतना ही सुन कर घबराने लगे, और भी तो सुनो।”
“ कहो, मैं तो बैठा ही सुनने को तुम्हारी सारी बातें। ”- अजय ने कहा।
“ हां, तो मैं कह रही थी कि पास ही एक गांव है- गुजरिया। फिरंगी के बंगले को उजाड़ कर भागे लोगों की बस्ती। वहाँ से आए हुए परिवारों में अभी भी कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुयी है। शायद, पुराने लोगों ने एक-दो बच्चे ही जनमाये होंगे। वही वंश-वृक्ष अभी तक धीरे-धीरे फुनगता रहा है।
“रोजी-रोटी के नाम पर आज भी गुजरिया वालों के लिए वही कुछ है- जंगलियों की रोजी भी जंगल ही तो होगा। कोई लकडी काटता है, कोई फल-फूल, कन्द-मूल ही बिटोरता है। कोई घास-पात को जड़ी-बूटी बतलाकर अपना धन्धा करता है। वैसे शहद बेंचना यहाँ वालों का मुख्य पेशा है।
“पूरे गांव में एक ही घर है ऐसा, जो यह-वह नहीं करता। न हरे-भरे जंगली पेड़ों की हत्या करता है, और न निरीह मधु-मक्खियों की जमापूँजी छीनकर, हड़पता है। वह है कजुरी बुढ़िया का घर। बुढ़िया है तो बिलकुल गंवार सी, पर बात करती है पढ़ुओं का भी कान काटने वाली। कहती है- धन बिटोर-बिटोर कर क्या होना है? मुट्ठी भींच कर आये हैं, उसे भी खुली-खुली छोड़कर चले जाना है। तुम कहोगे बाबू कि आंखिर उसका गुजारा कैसे चलता होगा?”
“ भगवान ने जनम दिया है तो करम भी बना ही दिया है बाबू। एक गड्ढा दिया है, तो उसे भरने का बहुत सारा उपाय भी सुझा दिया है किरपावान ने।”- बुढ़िया दिन भर जंगल में इधर-उधर घूमती है। कुछ न कुछ दो-चार जंगली फल मिल ही जाते हैं। उसी से पेट भर जाता है। घास-फूस की झोपड़ी में घास-पत्ते के बिछावन पर चैन की नींद सो रहती है। परन्तु कुछ दिन बाद एक ऐसा समय आया, जब कि बुढ़िया की नींद अचानक हराम हो गयी।”— कुछ देर ठहर कर युवती बोली- “ उसकी एक नातिन है। बड़े प्यार से उसने उसका नाम रखा है- मतिया..।”
“ मतिया ? ” – इस नाम में न जाने कौन सा जादू था कि जब कभी भी उच्चरित होता, सामने बैठे युवक अजय को चौंका देता। इस बार भी चौंकते हुए कहा, “ तो तुम्हारा ही
नाम मतिया है ?”
अजय युवती के चेहरे पर गौर से देखने लगा, मानों किसी धुंधले चित्र को स्पष्ट रुप से देखने की कोशिश कर रहा हो, किन्तु उसके इस प्रश्न के साथ ही युवती झल्ला सी गयी।
“ बीच में टोक-टाक करने की बड़ी बुरी लत है बाबू तुम्हारी। इसी टोक-टाक में मेरा काम अभी तक अटका हुआ है। जरा धीरज रखकर पहले सुन तो लो पूरी बात मेरी, जो मैं कह रही हूँ। फिर जी भर कर सवाल कर लेना।”- मीठी झिड़की देती हुई युवती बोली।
“ अच्छा बाबा, कहो, जो भी कहना है। अब मैं आगे से हां-हूं भी नहीं करुंगा।”- कहता हुआ अजय, अपनी बायीं हथेली पर गाल टिकाकर मौन हो निहारने लगा सामने बैठी शोख युवती के भोले मुखड़े को।
“ हां-हां, तुम चुप ही रहो तो अच्छा है। बीच में टोक-टाक कर बात भी भुला देते हो, कि मैं क्या कह रही थी। मैं चाहती हूँ कि जल्दी से मतिया और पलटलवां बाबू की राम कहानी पूरी हो, और मैं अपनी पतिया लिखवा कर घर जाऊं, और तुम अपनी मंजिल। किसी तरह एक साथ हमदोनों का बेड़ा पार हो जाये।”
“ लो अब तो मैं बिलकुल ही चुप हो बैठ गया। कहो, जितनी जल्दी हो सके।”-इसबार युवक को झिड़कने का मौका मिला।
मुस्कुराती हुयी युवती बोली- “ हां तो मैं कह रही थी कजुरी बढ़िया की नातिन मतिया की बात। वह जो मतिया है न, अपनी नानी से भी दो पग आगे की बघारती है। कहती है कि जीवन में रखा ही क्या है, वह तो बरसाती पानी में उठने वाले फफोले की तरह है।
“एक बार उसके गांव में भीख मांगते हुए साधुओं की टोली आयी। वे सभी सारंगी पर गाते थे- पानी केरा बुदबुदा असमानुस की जात, देखत ही छिप जायेगा, ज्यों तारा परभात... गीत की भाषा बेचारी को उस दिन समझ आयी नहीं, किन्तु कुछ पढ़ुओं से पूछ-पाछ कर किसी तरह जान गयी थी गीत के भाव, और फिर तो ऐसा लगा कि कहने वाले ने खास इसी के लिए ही कहे हों वो बोल...अपने जीवन को पानी का बुदबुदा ही समझने लगी मतिया। एक तो अकल-ज्ञान की कमी, तिस पर भी बिल्कुल बेपरवाह थी वह वचपन से ही।
“ मतिया भेड़ पालती है। वह भी उसकी हजामत बनाने के लिए नहीं। रोंये का रोजगार करने के लिए नहीं। मतिया कहती है- सुन्दर बालों को मूंड़-माड़ कर देह से अलग कर देना कैसा लगेगा ? बनाने वाले ने कितना बढ़िया से सजाया-बनाया है। मुलायम बड़े-बड़े रोओं पर हाथ फेरती मतिया को बड़ा ही अजीब लगता है। कभी भेड़ को गोद में बिठा लेती, कभी कन्धे पर चढ़ा लेती। कुछ पूछ लेता कोई तो कहती- क्या हर्ज है, यह भी एक जीव ही है, फरक भर इतना ही है न कि हमारी तरह बोलता-चालता न हीं....य़े..
“ ...भेंड़ को लेकर मतिया दिनभर जंगल में घूमती। बीच-बीच में कभी-कभी सूखी पड़ी लकडियां मिल जाती तो उसे उठा लेती। हरी डाल को दातून के लिए भी तोड़ना गुनाह समझा उसने। कहती कि इसमें पाप लगता है। गिरे हुए तेन्द-पियार मिल जाते, तो उसे उठाकर आंचल में सहेज लेती। किसी दिन जरुरत से ज्यादा मिल जाता, तो उसे अगले दिन के लिए सहेजती नहीं, बल्कि अगल-बगल किसी को दे आती, बच्चों में बांट देती।
“ महुआ का मौसम आता। सारा गांव दिन फूटने से पहले ही बड़ी-बड़ी खंचिया लेकर चल पड़ता महुआ बाग की ओर महुआ बीनने। दो पहर होने तक, भर-भर खंचिया महुआ ले आते सभी। कच्चा खाते सो खाते ही, बाकी बचे सो सुखा कर रख छोड़ते आगे के लिए ; किन्तु मतिया ने कभी भी पाव-आध-सेर से ज्यादा महुआ नहीं बीना। सूखा महुआ तो उसके घर में एक दाना भी नहीं मिल सकता।
“ भेंड़ रखने का ढंग भी मतिया का निराला ही है। यह नहीं कि ढेर सारे भेंड़ पाले- गड़ेरियों की तरह। वस, सिर्फ एक भेंड़, वो भी मादा। भेंड़ का बच्चा होता, तो जब तक दूध पीता, मां-बच्चा दोनों साथ रहते मतिया के पास। इधर दूध बन्द हुआ, उधर दोनों में से एक की बिदाई- कभी मां की तो कभी बच्चे की। वह भी रकम के लोभ में बेचती नहीं थी। कहती -‘जीव का मोल अनमोल है, कोई क्या दाम देगा ? किसी जीव का?’ बस, दो में एक अपने पास रख लेती, और दूसरा किसी को दे डालती, यूं ही, जिस किस ने मांग दिया। बदले में कोई खुश होकर फटी-पुरानी धोती ही दे दी, कोई पाव भर भुजना ही...। उसी को पाकर मतिया फूली न समाती।
“ धीरे-धीरे मतिया बड़ी होती रही। उसकी मां तो दुनियां दिखाकर ही अपने धाम चली गयी थी। ” – आकाश की ओर उंगली उठा कर युवती ने कहा- “ मां का सुख नानी ही जो दे पायी सो दे पायी। बाप को बाघ खा गया था। उसका बाप बहुत ही हट्ठा-कट्ठा दवंग था- एक दम गबरु जवान...गज भर चौड़ी छाती, लगता कि खाट बिछाकर कोई सो जाये उस पर, काली घनी मूंछें, लम्बी-लम्बी दाढ़ी, सर के बाल और भी लम्बे, जिन्हें बांस की कंघी से करीने से सजाकर बड़ा-सा जूड़ा बना लेता मानो सेर भर का पत्थर बांध लिया हो सिर पर। कमर में मूंज की रस्सी, और उससे लिपटा बित्ते भर का भगवा, काला-कलूटा मुझसे भी थोड़ा ज्यादा ही रहा होगा। वैसे तो तुम देख ही रहे हो बाबू कि इधर के सभी लोग इसी रंग के हुआ करते हैं। कभी कभार कोई साफ रंग नजर भी आ जायेगा, पर हमलोग उसे अच्छा नहीं समझते। नानी ने ही मां और बाप दोनों का लाढ़ दिया मतिया को। भाई-बहन की कमी तो मानो खली ही नहीं। आस-पड़ोस में कितने ही बहिनापा जोड़ ली थी वह।
“ क्या खलता उसे? जिसके मन में वसुधैवकुटुम्बकम् की भावना हो उसके लिए तो सारी धरती एक तरह की हो जाती है- क्या अपना क्या पराया...।”- मतिया के चरित्र से प्रभावित युवक अजय ने कहा, जो कि देर से चुप बैठा कहानी सुनता जा रहा था, और साथ ही युवती की प्रत्येक भंगिमाओं का अपनी आंखों से रसपान करता जा रहा था।
अजय की बात को युवती समझ न सकी। अतः पूछना पड़ा- “ यह वसुधेवकुटुम्बक क्या होता है बाबू?”
“ कहने का मतलब यह है कि सारी वसुधा यानी पृथ्वी यानी धरती यानी जमीन अपने कुटुम्ब यानी सगे-सम्बन्धियों के समान मालूम पड़े, जिसे हर जीव के प्रति दया और प्रेम की भावना हो हृदय में, उसके लिये क्या अपना और क्या पराया?”- अजय ने बात को स्पष्ट करते हुए पूछा- “ क्या तुम कुछ पढ़ी-लिखी भी हो?”
अजय द्वारा व्यक्तिगत प्रश्न पूछे जाने पर युवती फिर एक बार चिहुंकी।
“ मेरे बारे में क्या पूछते हो बाबू? मैं अपनी बात कहने लगूंगी तो फिर एक मुश्किल आ जायेगी, समय की बरबादी होगी, और हमारे-तुम्हारे काम में भी देर होगी। तुम्हें तो पहले मतिया की कहानी सुननी है। यह जानना है कि कौन है उसका पलटनवां बाबू, और फिर उसके बाद मुझे तुमसे पतिया लिखवानी है।”-अपने बारे में कुछ स्पष्ट करने से मुकरती युवती ने कहा।
मतिया के साथ जुड़ा हुआ पलटनवांबाबू का सम्बन्ध, पल भर के लिए युवक को फिर झकझोर गया। कुछ विचारने की मुद्रा में आँखें संकुचित हो आयी। चेहरे पर कई सिकुड़न उभरे। याददाश्त की खुजली मिटाने का प्रयास किया। किन्तु कुछ काम न आया। कुछ भी ध्यान न आया- कहां सुना है, कब सुना है, किससे सुना है, यह प्यारा सा नाम- पलटनवांबाबू! सुना भी है, या यूं ही लग रहा है- कुछ समझ न आया। फलतः बोला- “ सुनाओ जो सुना रही हो। नहीं पूछूंगा तुम्हारे बारे में। मगर हां, तुम्हें क्या कुछ और काम-बाम नहीं है, जो यहां बैठी कहानी सुना रही हो?”
मुस्कुराती हुयी युवती बोली- “ काम क्या है बाबू! मेरे पास भी यही एक भेड़ है। इसे लेकर निकल पड़ती हूँ, जंगल में घूमने-घुमाने, और यह भी तो एक काम ही है न? और हां, तुम्हें कहानी इसलिए सुना रही हूं, क्यों कि तुमसे पतिया जो लिखवानी है, और तुम हो कि बिना कहानी सुने लिखने को राजी नहीं हो।कितने दिनों से इन्तजार कर रही थी, कोई तुम जैसा पढ़ुआ आदमी मिले तो पतिया लिखवाऊँ। सनजोग से आज तुम मिले हो, तो लिखवावे बिना छोड़ूंगी थोड़े जो। पर तुम भी हो बड़े चतुर चालाक।’
रुठने सा मुंह बनाकर युवती देखने लगी युवक के चेहरे पर। कुछ गौर करने पर उसे महसूस हुआ कि युवक कुछ उदास है, हो सकता है उसे भूख लगी हो। ऊपर आसमान की ओर नजरें उठा कर देखा उसने एकबार, समय का अन्दाजा लगाने के लिए, फिर युवक की ओर देखती हुयी बोली, “अच्छा बाबू, ये तो कहो अभी तक तुमने कुछ खाया-पीया या नहीं? दिन इतना चढ़ आया है। ”
युवती की बात सुनकर युवक ने गहरी सांस ली। सिर और दाढ़ी पर हाथ फेरा। आँखें नचा, नाक सिकोड़, मुंह मिचका कर कुछ सोचता रहा थोड़ी देर तक, फिर बोला, “ मुझे ठीक से याद नहीं आ रही है, आज सबेरे से कुछ खाया भी हूँ या नहीं। दो दिन पहले की बात तो याद है, जब कि जंगल में भटकते हुए तुम्हारे ही तरह के एक आदमी से मुलाकात हुयी थी। मुझे भूखा-प्यासा जानकर वह अपनी झोंपड़ी में ले गया। वहां जाने पर मड़ुए की दो रोटियां दी थी, जिसे खाकर सोते का पानी पीया, जो उसकी झोंपड़ी के करीब ही था, और वापस आकर उसी झोंपड़ी में पसर गया। कारण कि बिलकुल लाचार हो गया था चलने-फिरने से। पिंडलियों में बहुत दर्द हो रहा था। रात गुजर गई। सुबह उठते ही वह कहीं चल दिया मुझे जगाकर। मुझे भी चल देना पड़ा लाचार होकर वहां से। उससे भी मैंने बहुत कोशिश की कुछ पूछपाछ करने की, किन्तु उसकी बात न मैं समझ पा रहा था और वह मेरी बात। मैं जब भी कुछ पूझता तो वह दांत निपोर कर खां-खीं कर देता। उसके पीले-पीले गन्दे दांतों से गुजर कर बाहर निकली बदबूदार हवा जब मेरे नथुनों में घुसी तो उबकाई आने लगी।”
“ तुम्हारी बातें कुछ समझ नहीं आती है बाबू. कभी तो तुम बड़े होशियार सी बातें करते हो। मतिया को बसुधेवकुटुम्बक कहते हो, और कभी पागल सी हरकत करने लगते हो। आज सुबह से कुछ खाये भी हो या नहीं- यह भी तुम्हें याद नहीं। ”—आश्चर्य की मुद्रा में हाथ हिलाती युवती सामने बैठे युवक के चेहरे पर गौर करती हुयी बोली, जहां दर्द भरी सिकन मौजूद थी, “ खाने न खाने की बात भले न याद आ रही हो, पर क्या तुम्हें यह भी समझ नहीं आरहा है कि तुम्हें भूख लगी है या नहीं ?”
युवती की बात सुनकर युवक थोड़ा मुस्कुराया। उसके साफ-सुथरे पंक्तिवद्ध दांत बड़े ही सुहावने लगे युवती को, जिसे देख कर वह भी कुछ सोचने की मुद्रा में हो गयी। युवक ने अपने कुरते को ऊपर उठाया। नंगे पेट पर हाथ फेरता हुआ बोला, “ यहां पर थोड़ा-थोड़ा गड़बड़ जरुर लग रहा है। लगता है भूख लगी है। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ, क्यों कि उस दिन भी ऐसा ही कुछ-कुछ गड़बड़ लग रहा था। जब मड़ुए की रोटी खाकर चार दोना पानी पीया, तब जाकर अच्छा लगा था।”
“ तो कुछ इन्तजाम करुं तुम्हारे खाने-पीने के लिए?”- युवती ने प्रश्नवाचक दृष्टि युवक पर डाली, जो तेजी से हाथ फेरे जा रहा था अपने डफली से पिचके पेट पर।
“ ठहरो-ठहरो! घबराने की बात नहीं।”- पेट पर से हाथ हटा, कुरते की जेब टटोलते हुए युवक एकाएक बोल पड़ा, मानो अलाउदीन का चिराग मिल गया है, “ ठहरो, मुझे याद आरही है...”
युवती सूनी निगाहों से उसे देखती रही। दांयी-बांयी जेबें टटोलकर युवक ने एक में से दो बिस्कुट, और दूसरी में से आधी सूखी रोटी निकाली। हाथ में मिठाई और खिलौने लिए हुए बच्चे की तरह थिरकते हुए बोला, “ ये देखो...ये देखो, मैं कह रहा था न कि मेरे पास कुछ न कुछ है खाने को जरुर। उस दिन एक और आधी रोटी ही खायी थी मैंने, नालायक पेट उतने में भर गया, बाकी बची आधी रोटी अभी तक पड़ी है।” किसी सुन्दर दर्शनीय वस्तु की तरह उलट-पुलट कर दोनों बिस्कुटों को देखता हुआ पुनः बोला, “ और यह जो देख रही हो- दोनों बिस्कुट...आह कितना बढ़िया है...” - युवती ने देखा- उस पर दो-चार चींटिंयां रेंग रहीं थी, जो बिस्कुट का काफी भाग हजम कर चुकी थी।
“....जानती हो, इसे एक बाबू ने दिया था, बहुत दूर उधर...”- एक ओर हाथ का इशारा बताते हुए अजय ने कहा, “.... जंगल में ही। वह जंगल का ठेकेदार था।”
युवती सूखी हँसी हँसकर युवक की आँखों में झांकती हुई कुछ बुदबुदाने लगी, जिस पर युवक ने जरा भी ध्यान न दिया। चुपचाप सूखी रोटी के टुकड़े को चबाने लगा। चबाने के क्रम में मुंह से दो बूंद लार टपककर सामने पड़े कागज पर फैल गयी।
रोटी खाकर, बिस्कुट को जेब के हवाले किया, और होंठों पर लगी लार और अन्न के टुकड़ों को लम्बी जीभ निकाल कर चाटता हुआ बोला, “ अब मैं जरा पानी पी लेता...नजदीक में कहीं...?”
“ हां-हां, वस यहीं, इसी ढोके के बगल में ही एक पहाड़ी चश्मा है। पानी एकदम साफ है पीने लायक। चलो न मैं दिखा देती हूँ।” – हाथ का इशारा करती हुई युवती उठ खड़ी हुई।
“ नहीं..नहीं, तुम क्यों तकलीफ करती हो, बैठो, मैं अभी आया पानी पीकर।”- कहता हुआ युवक शिला पर से उठ कर आगे बढ़ चला, जिधर के लिए युवती ने इशारा किया था। दो-तीन चलने के बाद, पीछे मुड़कर देखा- युवती वहीं खड़ी, उसे ही निहारे जा रही थी। युवक को कुछ सुभा हुआ। घबराकर वोला, “ कहीं भाग न जाना। खड़ी क्यों हो ? बैठ जाओ। मैं अभी आया।”
युवक की बात पर युवती मुस्कुराई- “ भागूंगी काहे को? ”- और बैठ गयी उसी ढोंके पर।
युवक आश्वस्त हो आगे बढ़ गया। युवती भेड़ के बदन पर हाथ फेरती रही। बीच-बीच में एक-दो बार उसका मुंह उठाकर चूम भी ली प्यार से।
कोई दस मिनट बाद हाथ में एक दोना पकड़े, जिससे पानी की बूंदे टपक रही थी, उजय आया।
“ लो तुम भी बिस्कुट खाकर पानी पी लो।”- कहता हुआ दोना नीचे रखकर, जेब से बिस्कुट निकाल, युवती की ओर बढ़ा।
युवक का हाथ अभी दूर ही था कि युवती छमक कर दूसरी ओर मुड़ गयी, मानों युवक के हाथ में बिस्कुट नहीं, बिजली का हण्टर हो, जिसके छुअन भर से ही वह बेहोश हो जायेगी।
“नहीं-नहीं, मुझे नहीं चाहिए यह सब। मैं खाती भी नहीं ये चीजें, रखलो, फिर कभी काम आयेगी। ”- हाथ हिलाकर मना करती हुयी युवती बोली।
“ ठीक है, कोई बात नहीं। नहीं इच्छा है, तो मत खाओ, मेरे पास फालतू है भी नहीं, जो तुम्हें ज्यादा आग्रह करूँगा खाने के लिए।”- कहते हुए युवक ने पुनः बिस्कुट अपनी जेब में डाल ली।
युवती पूर्ववत सीधे घूम कर बैठ गयी। मुस्कुराती हुई बोली, “ वाह-वाह ! अच्छी खातिरदारी करते हो बाबू ! अच्छा अब तो गड़बड़ नहीं हो रहा है न तुम्हारे पेट में?”
“ नहीं। अब सब ठीक-ठाक है। अब सुनाओ, तुम क्या कुछ सुना रही हो।”- कहता हुआ युवक पुनः उसी ढोंके पर इत्मीनान से बैठ गया पांव पसार कर, जहाँ पहले से बैठा था। पीछे एक सलई का पेड़ था। जरा पीछे की ओर पसर कर, उसी पेड़े से टेका लगा लिया, ताकि लम्बे समय तक आराम से बैठा जा सके। उसकी इस तरह बैठने की अदा ने सामने बैठी युवती को काफी आकृष्ट किया। थोड़ी देर तक भाव-विभोर सी हो, युवक के चेहरे पर एकटक देखती रही, फिर बोली, “ मैं कह रही थी कि मतिया को कजुरी बुढ़िया ने ही पाला-पोसा। गरीब निःसहाय नानी से भरपूर प्यार मिला। भेड़ के दूध पर पली मतिया तेंद-पियार और महुआ खाने लगी, और फिर एक दिन इस लायक हो गयी कि खुद ही जंगल में भेड़ चराने जा सके। नानी और नातिन का काम अलग-अलग चलने लगा। शोख चुलबुली मतिया धीरे- धीरे और फिर काफी तेजी से बड़ी होने लगी। इस बात का पता उसे एक दिन तब चला जब वह लकड़ी का बोझ सिर पर रखे, हांफती चली आरही नानी को आराम करने के लिए कह रही थी।
“तुम अब जंगल-वंगल मत जाया करो नानी। कहीं गिर-पर जाओगी तो मुझे कौन देखेगा ? ”
मतिया की बात सुनकर सिर का गट्ठर ढ़ाबे में पटकती हुयी कजुरी नानी बोली- “ वाह री नातिन मेरी, तो क्या मैं अमरत की घूँट पीकर आयी हूँ जो हर समय तुम्हें देखने को बैठी रहूँगी? अब देखती नहीं कि तू खुद सयानी हो गयी है। अपनी देखभाल तुझे खुद ही करना चाहिए। फिर एक दिन किसी और देखने वाले को हाथ पकड़ाकर मैं चैन की नींद सो जाऊँगी।”
इधर कुछ दिनों से बुढ़िया ऐसी ही उल्टी-सीधी बातें कर रही थी, जो मतिया के गले नहीं उतर रही थी।
इसी तरह पहले भी एक दिन कहा था बुढ़िया नानी ने, “ सेरे छौआ पीन्धले सारी। अब ये भगौना-तगौना पीन्हें जंगल जाना ठीक नेईं आहे।” फिर कहा था नानी ने कि कल ही गोरखुआ से कह कर कस्बे से मंगवाई है, नयी साड़ी मतिया के लिए। और फिर ढेर सारी बातें भी कह-समझा गयी थी मतिया को, जिसका मतलब था कि कैसे रहना चाहिए, कैसे बोलना चाहिए, कैसे चलना चाहिए...। किन्तु इतनी सारी बातों में मतिया सिर्फ इतना ही समझ पायी थी कि अब वह सयानी हो गई है। परन्तु सयानी कैसे हो गयी, क्यों हो गयी, किसने कर दिया उसे सयाना, क्यों कर दिया सयाना, कैसे मान लिया जाय कि वह सयानी हो ही गयी....बहुत सी बातें उसके दिमाग में घुमड़ती रही, बहुत से सवाल उटते रहे, परन्तु किसी का सही और सन्तोषजनक जबाब नहीं सूझा, और न किसी ने सुझाया ही उसे। अन्त में थक-हार कर मन मारे, भेड़ की रस्सी पकड़े सदा की भांति निकल पड़ी जंगल की ओर, उछलती कूदती भेड़ चराने।
आज तो नानी ने उससे भी दो डग आगे की बात कह दी थी- किसी देखने वाले को हाथ पकड़ा देने की बात।
किन्तु अब मतिया इतनी नादान भी नहीं थी, जो इतना भी नहीं समझ सकती कि नानी क्या कहना चाहती है, क्या सिखलाना चाहती है...। पिछले साल ही क्वार(आश्विन)में उसके उमर की ही एक छोरी का गौना हुआ था, और विदाई के समय गयी मतिया देर तक निहारती रही थी, उस छोरी के साथ सट कर बैठे छोरे को। आज जब नानी ने कहा था- हाथ पकड़ा देने की बात, तो मुंह में आंचल का कोर दबा, मुस्कुराती हुई भेड़ की पीठ सहलाने लगी थी मतिया। ”
युवती ने देखा, अजय बड़े मनोयोग पूर्वक मतिया की कहानी सुन रहा है। बीच-बीच में कभी अपनी लम्बी बेतरतीब दाढ़ी को सहला भी ले रहा है।
एक लम्बी सांस छोड़, युवती फिर सुनाने लगी, “ इसी तरह समय गुजरता गया। एक समय की बात है- मौसम बरसात का था। रोज की भांति उस दिन सुबह भी एक हाथ में भेड़ की बागडोर, और दूसरे बगल में गोंगो(जंगली पत्तियों से बना छतरी) दबाये, जिसे कल ही नानी ने ढेर सारे पत्ते लगाकर बनाया था, “ ले जा इसे, अब बरसात आने वाली है। हिफाजत से रखना, नहीं तो तोड़-ताड़ कर फेंक देना। देख तो मेरा गोंगो कई बरसात देख चुका, अभी ज्यों का त्यों है।” –नानी की बात याद करती, मुस्कुराती हुई मतिया भेड़ चराने निकल पड़ी। हर रोज की भांति उस दिन भी दोपहर में खाने का सामान आंचल में बांध पीठ पर रख ली।
“ अभी घर से थोड़ी ही दूर आगे निकली थी कि बूंदा-बांदी शुरु हो गयी। बगल में दबा गोंगो खोल कर सिर पर ओड़, आगे बढ़ती चली गयी घनघोर जंगल की ओर।
“ मतिया रुकी नहीं, और न रुका बादल और बरसात का जोर ही। हल्की बूंदा-बांदी के बाद मेघ का गर्जन-तर्जन और पानी की बौछार भयंकर झंझावात के साथ जारी रहा। तूफान के तेज झोंके में बड़े-बड़े दरख्त आपस में जूझ-जूझ कर थके-हारे लड़ाके की तरह जमीन पर सोने लगे थे। बेचारी लतायें सिर्फ किसी तरह अपनी जान बचा पायी थी। गोद में भेड़ को दबाये, सिर पर गोंगो ओढ़े, एक बड़े से ढोंके की आड़ में बेचारी मतिया दुबकी बैठी रही। इन्तजार करती रही तूफान थमने का।
“ कोई घड़ी भर बाद बादल और बरसात का जोर थमा। लूटपाट मचाने वाले डाकू की तरह तूफान एक ओर से आया और दूसरी ओर चला गया। तब रस्सी पकड़े भेंड़ के पीछे-पीछे मतिया भी चल पड़ी, अपने रोजमर्रा के काम पर।
“ काफी दूर जाने पर भेलवा के एक पेड़ के पास चट्टान पर बैठकर थोड़ा आराम करने को सोची। अभी वह बैठना ही चाह रही थी कि भेड़ रस्सी खींचने लगा। लोग कहते हैं कि जानवरों की नाक बड़ी तेज होती है, शेर-कुत्ते आदि में तो इस बात की प्रसिद्धि है ही, मगर दूसरे जानवरों में भी कमोवेश देखा जाता है यह गुर। मतिया का भेड़ भी इस गुन में माहिर है। पहले तो मतिया ने रस्सी खींच भेंड़ को रोकना चाही, किन्तु जब अधिक जोर लगाने लगी, और साथ ही मिमियाने भी लगी तो उसकी इच्छा जानने के लिए बागडोर ढीली छोड़, खुद भी उसके पीछे होली।
“ कुछ दूर तक भेड़ यूं ही ऊंई-ऊँई करती हुयी, जमीन से नथुना सटाए चलती रही, पर आगे बढ़कर अचानक एक ढोंके की ओर मुड़कर दौड़ पड़ी। कारण जानने को इच्छुक मतिया भी पीछे-पीछे दौड़ पड़ी। छोटे-छोटे दो-चार ढोंके पार करने के बाद, एक झुरमुट मिला, और उसके बाद एक बड़े से ढोंके की आड़ में पहुंचकर भेड़ अचानक ठहर गयी। पीछा करती मतिया को भी वहीं रुक जाना पड़ा।
“ वहाँ पहुँचकर जो कुछ भी उसने देखा, उससे उसकी हेकड़ी गुम हो गई, ‘ मां..गो..’ लम्बी चीख मार कर एकबारगी जड़ हो गयी मतिया...।”
युवती का इतना कहना था कि युवक अजय चौंक पड़ा, मानों मतिया के साथ-साथ उसने भी कुछ आश्चर्यजनक चीज देख ली हो। सिर खुजलाते हुए होंठ चबाने लगा।
“ क्यों क्या हुआ, चौंक क्यों पड़े? ”- युवती ने अजय के चेहरे पर गौर से देखते हुए पूछा। उसने देखा, युवक का चेहरा बदरंग सा हो गया था, और तरह-तरह के भावों का उतार-चढ़ाव भी जारी था।
“ कोई बात नहीं, कहती जाओ।”- अजय ने गहरी सांस लेते हुए थोड़ा सम्हल कर बैठते हुए बोला- “ क्या कोई जंगली जानवर...?”
“ नहीं बाबू, नहीं। ”- युवती बोली- “ जंगली जानवर होता तब बात ही क्या थी। था तो जानवर ही, मगर दो पैरों वाला, बिना पूंछ और सींग वाला, वो भी कोट-पतलून पहने हुए।”
आदमी को बिना पूंछ-सींग वाला जानवर कहने के कारण अजय मुस्कुरा दिया- “ अच्छी परिभाषा दी तुमने इन्सान की।”
“ तो क्या गलत कह रही हूँ बाबू? आदमी और जानवर में बहुत थोड़ा-सा फर्क है- बस, एक को बुद्धि है, और दूसरे को नहीं है।”- युवती गम्भीर होकर बोली।
“ तो क्या उस आदमी को भी बुद्धि नहीं थी, जो तुम बिना पूंछ-सींग का जानवर कह रही हो?”- अजय ने पूछा।
“ फिर तुमने बीच में एक नया सवाल पैदा कर दिया बाबू। उस आदमी को बुद्धि थी या नहीं, यह तो आगे की बातों से खुद ही पता चल जायेगा। पहले सुनो तो शान्ति से हमारी बात- यानी कि मतिया की कहानी।”- बनावटी क्रोध दिखलाती हुई युवती बोली।
“ कहो भई, कहो। मैं नहीं पूछता कुछ।”- युवक के कहने पर युवती पुनः कहानी आगे बढ़ायी।
“ ….वहाँ पहुँचकर मतिया देखती क्या है कि चट्टान के नीचे झरबेरी की कंटीली झाड़ी में पड़ा है एक बाबू। लिवास बिल्कुल शहरी जैसा- कोट, पतलून, टोपी भी सिर पर, जो कि बगल में गिरी पड़ी थी- सबके-सब बिलकुल सब्ज- पत्ते जैसी। हरे-हरे पत्तों के साथ यदि उन कपड़ों को रख दिया जाय बाबू, तो जरा भी पता न चले कि यहां कोई कपड़ा भी है, फिर उसे पहनने वाले का क्या पता चलेगा? किन्तु बरसात के वजह से सबके-सब सराबोर। दांये हाथ की दो अंगुलियों में चमचमाती हुयी अंगूठियां भी थी। एक और अंगूठी, कुछ कम चमकीली, बायें हाथ की बड़ी अंगुली में भी पड़ी थी। पीठ के नीचे तकिया की तरह एक थैली दबी थी, जिसमें कुछ सामान वगैरह मौजूद था। कमर में चमड़े की चौड़ी पट्टी बंधी हुयी थी, जिसमें छोटी-छोटी अंगुलियों जैसी कोई चीज खोंसी हुयी थी, देखने में लगता था कि पीतल या तांबें की बनी हुयी हैं।
“मतिया ने गौर से देखा एक बार उस पट्टी को, और फिर उस थैली को भी, जिसका कपड़ा सामान्य से बिलकुल अलग किस्म का था। बाद में उस गंवारन को पता चला कि कपड़ा रौगनी था, और पट्टी में खुसी हुयी पीपल की चीज, वास्तव में बन्दूक की गोलियां थी।”
“ ऐं...बन्दूक की गोलियां?”- अजय ने चौंक कर कहा- “ इसका मतलब कि वह आदमी कोई शिकारी रहा होगा?”
इतना कहकर युवक मौन हो गया। उसके चेहरे पर रंजोगम की परछाइयां चहलकदमी करने लगी। कुछ सोचने सी मुद्रा में गाल पर हाथ धर कर युवती के चेहरे को गौर से देखने लगा। कभी-कभी लम्बी सांस लेता-छोड़ता, कभी सिर के बाल मुट्ठी में भरकर नोंचने लगता। जेब में पड़ा, साड़ी का टुकड़ा निकाल कर बार-बार अपने चेहरे को पोंछता।
कुछ देर तक बह इसी तरह की हरकतें करते रहा। युवती भी बिना कुछ टोक-टाक किए, चुप बैठी उसकी भाव-भंगिमाओं को देखती रही। अन्त में मुस्कुराती हुयी बोली- “ बाबू! तुम तो बहुत तेज दिमाग वाले हो। मेरे कहने के पहले ही तुम समझ गये कि वह आदमी कोई शिकारी था।”
“ इसमें दिमाग की तेजी-मंदी की क्या बात है? जंगल में भटक रहा था। बन्दूक की गोलियों की पट्टी मौजूद थी कमर में, वेशभूषा भी शिकारियों जैसी ही थी, फिर शक ही क्या रह जाता है- उसके शिकारी न होने में?”
“हां बाबू ! ” –युवती बीच में ही बोली- “ मतिया को भी बाद में पता चला। वैसे उस समय उसके पास केवल गोलियों का पट्टा ही था, बन्दूक का कहीं अता-पता नहीं।”
“ हो सकता है, तूफान की चपेट में पड़कर बन्दूक कहीं गंवा बैठा हो।”-युवक बोला।