अधूरीपतिया / भाग 5 / कमलेश पुण्यार्क
इन लोगों की आपसी बातचित बाबू समझ न पाया, क्यों कि वे कोई जंगली-पहाड़ी
बोली बोल रहे थे। उसे तो पता तब कुछ चला, जब अचानक अपने हाथ का मसाल डोरमा के हाथ में थमाकर, गोरखुआ बाबू के पास आया, और बिना कुछ कहे-पूछे खटाक से उठा लिया बिलकुल बच्चों की तरह अपने कंधे पर।
‘अरे..ऽ..रे..ऽ..रे..ऽ..रे...! ये क्या करते हो भाई ! मैं तो खुद ही चल रहा हूँ..।’-बाबू कहता ही रहा, पर गोरखुआ माना नहीं, बाबू को कंधे पर लादे ही रहा।
‘ आराम से बैठे रहो बाबू ! हर्ज क्या है इसमें, मैं तो पहले जान ही न पाया कि तुम इतनी तकलीफ में हो...।’- हँसते हुए गोरखुआ ने कहा।
‘ चलो ठीक तो है। जल्दी घर पहुँच जायेंगे हम सब। तुम्हारे साथ हमें भी धीरे-धीरे चलना पड़ता, और तुम्हें दर्द भी सहना पड़ता, उधर मेरी नानी की घबराहट बढ़ती। वह तो मेरी लाचारी थी कि तुम्हें इतनी दूर पैदल चलायी नहीं तो क्या मैं बाज आती...’- बाबू के भारी-भरकम देह की ओर इशारा कर, मुस्कुराती हुयी मतिया ने कहा।
उसका इशारा समझ सभी एकसाथ हँसने लगे। भारी कंधे को मटकाते हुए गोरखुआ बोला, ‘ इसे तुम भारी कहती हो, मेरे लिए इतना वजन है ही क्या?’
‘ ऐसे-ऐसे दो-चार बाबुओं को बगल में दबाकर सारा जंगल घुम आये गोरखुआ।’- कहा भिरखु ने, जिसे सुनकर सभी एक बार फिर ठहठहा उठे।
‘ डोरमा और होरया कह रहा है कि कल मांदर बजाकर, इसी तरह बाबू को कंधे पर बिठाये पूरा गांव घुमायेंगे।’- हँसते हुई मतिया ने कहा, जिसे सुन बाबू भी हँसे बिना न रह सका, किन्तु रह-रह कर पसली वाला दर्द उसे परेशान कर दे रहा था, खास कर हँसते समय।
‘ यह तो खूब रही तुमलोगों की योजना।’- हँसी के हिचकोले खाते बाबू ने कहा, जिसे सिर्फ गोरखुआ ही समझ पाया, कुछ-कुछ मतिया समझी, और दूने वेग से हँस पड़े दोनों।
‘ कल भी तुम्हारी सवारी यही रहेगी बाबू! समझ लो।’- मतिया ने चुहलबाजी की।
इसी तरह हँसते-बोलते सभी चलते रहे। रास्ते में ही भिरखू काका ने बतलाया कि किस तरह कजुरी नानी रो-रोकर बेहाल हो रही थी मतिया के लिए। सबने काफी समझाया- बुझाया, किन्तु मानी नहीं, अन्त में लाचार होकर सबको, निकलना पड़ा मसाल लेकर मतिया की खोज में। पर खुशी की बात है कि मतिया तो मिल ही गयी सही-सलामत, साथ ही एक बाबू भी मिल गया- शहरी बाबू।
नानी का रोना-धोना जानकर मतिया के गालों पर आँसुओं की दो-चार बूंदें टपक पड़ी, करेन्द के गोटे की तरह। कहने लगी- ‘मैं खुद ही बेचैन थी, जानती थी कि नानी जरा सी देर होने पर परेशान हो जाती है। पर क्या करती, लाचारी थी। नानी के आँसू का खयाल करती या बाबू की जान का ? इस हाल में कैसे छोड़ देती बाबू को?’
‘यह कहो कि किसी तरह समझा-बुझाकर हमलोगों ने उसे रोका, नहीं तो वह भी साथ आने को बेताब थी तुम्हें ढूढ़ने के लिए। कहती थी कि आज मेरी नातिन को जरुर बाघ खा गया, जैसा कि एक दिन उसके बापू को खा लिया था। हाय मेरी नातिन ! ’- गोरखुआ ने इस बात को इस तरह मुंह बना कर कहा कि सभी एक साथ हँसने लगे।
‘ तो क्या इसके बापू को भी बाघ खा गया था ?’- मतिया की ओर हाथ का इशारा करके बाबू ने पूछा।
‘हाँ बाबू ! बेचारी कजुरी नानी पर विपत-पर विपत पड़ते गये। जन्म के साथ ही माँ मर गयी मतिया की, जो इकलौती बेटी थी कजुरी नानी की। कोई लड़का-वड़का था ही नहीं बाबू, जो बुढ़ापे का सहारा बनता। मतिया जब सात साल की हुयी तो बाप भी चल बसा- बाघ के मुंह में....बेचारी मतिया तो अनाथ होकर भी सनाथ सी रही, किन्तु अभागी कजुरी तो बरबाद हो गयी...।’-कहते हुए गोरखुआ बहुत सी पुरानी बातें बतला गया, कंधे पर बैठे शहरी शिकारी बाबू को। मतिया और कजुरी के साथ-साथ अपने गांव गुजरिया की करुण कहानी भी सुना गया कि किस तरह जुगरिया की याद में बसती बसी गुजरिया। सबके बाद नम्र होकर पूछा- ‘इधर की तो बहुत बातें सुना गया बाबू! अब आप भी बतलाओ कुछ- आजकल गान्ही बाबा का क्या हाल है?’
गोरखुआ के मुंह से गान्ही बाबा की बात सुनकर बाबू को बड़ी खुशी हुई, साथ ही आश्चर्य भी। कुछ कहने के बजाय केवल मुस्कुरा भर दिया। अपनी बात का जवाब न मिलता देख, गोरखुआ से रहा न गया। उसने फिर टोका- ‘क्यों बाबू! कुछ कहो न गान्ही बाबा आजकल क्या कर रहे हैं...?’-जरा ठहर कर फिर बोला- ‘ क्यों समझे नहीं क्या गान्ही बाबा...?’
‘समझा भाई ! बिलकुल समझा । तुम महात्मा गाँधी की बात कर रहे हो ना?’
‘हाँ बाबू! बिलकुल सही कहा तुमने।’- गोरखुआ ने सिर हिलाकर खुशी जाहिर की।
बाबू कुछ कहना ही चाहते थे कि थोड़ी दूर पर एक और रोशनी दीख पड़ी, जो इसी ओर चली आ रही थी। कंधे पर होने के कारण पहले बाबू ने ही देखा और बोल उठे- ‘देखो तो भाई, वह कौन आ रहा है हाथ में रोशनी लिए?’
बाबू की बात सुन सब का ध्यान उस ओर गया। एड़ियां उठाकर, ऊँचा होकर, सभी ने देखने की कोशिश की। गांव अब करीब आ गया था। मतिया ने कहा, ‘ अभी पहचान तो नहीं आ रहा है, किन्तु लगता है कि हमलोगों की खोज में ही दूसरी टोली चल चुकी है।’
‘ हो सकता है।’-सबने मतिया की बात पर हामी भरी। कुछ और बातें करते हुए लोग थोड़ा और आगे बढ़े, तब तक दूसरी टोली भी कुछ करीब आ गयी। लोगों ने देखा- दो-तीन औरतें और मरछुआ को साथ लिए कजुरी नानी चली आ रही है, लाठी टेकती, साथ में झरंगा भी है।
‘आखिर बुढ़िया मानी नहीं।’- भिरखू ने कहा।
‘मानती कैसे? नातिन का मोह क्या उसे चुप बैठने देता?’-कहते हुए गोरखुआ ने अपनी चाल कुछ तेज कर दी। उसके साथ ही बाकी लोग भी झपट कर आगे बढ़ने लगे।
पास पहुँचने पर मतिया लपक कर नानी से लिपट पड़ी, जिसकी रोते-रोते घिग्घी बंध गयी थी। देखते ही बुढ़िया का रोना फिर जोर पकड़ लिया। लिपट पड़ी वह भी। ऐसा लगा मानो काफी दिनों के बाद नानी-नातिन का मिलाप हो रहा हो। देर तक लिपटी रहने के बाद आंसू पोंछती मीठी झिड़की सहित बोल पड़ी- ‘ तुमने इतनी देर कहां लगा दी? मैं तो ना-उम्मीद ही हो गयी थी।’
‘देर क्या लगा दी, देखो तो आज तुम्हारी नातिन कितनी बहादुरी का काम कर आयी है।’-हँसते हुए होरिया ने जब कहा तब बुढ़िया का ध्यान गोरखुआ के कंधे पर बैठे बाबू पर गया।
‘ये के कोन ठहर पाइस तोंयरे?’- बाबू की ओर देखती बुढ़िया ने पूछा। बाकी औरतें और मरछुआ भी चकित होकर बाबू को देख रहे थे, मानों कोई अजूबा चीज देख रहे हों।
‘चलो, अब घर पहुँचकर ही सुनायेंगे, क्यों कि बड़ी लम्बी कहानी है।’- गोरखुआ कह ही रहा था कि बाबू ने उसके सिर पर धीरे से अपनी अंगुली का ठोंकर मारते हुए कहा- ‘अब तो कम-से-कम मुझे नीचे उतारो गोरखू भाई।’
‘क्या ऊपर बैठे-बैठे भी थक गये हो बाबू? अच्छा आओ, नीचे आ जाओ।’- गोरखुआ ने कहा, बाबू को नीचे उतारते हुए।
नीचे उतर कर बाबू ने नानी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। कुछ देर तक बूढ़ी आँखें निहारती रही, उन जवान भूरी आँखों को, जो बिलकुल ही अनजान थी इस इलाके से।
थोड़ा ठहरकर सभी चल पड़े गांव की ओर। आसमान साफ था। चाँद अपनी चांदनी बिखेर कर कजुरी की खुशी का मजा ले रहा था। आज उसकी प्यारी नातिन मौत के मुंह से मानो वापस आयी है। मतिया इसलिए खुश हो रही थी कि आज वह एक अनजान परदेशी की जान बचाने में सफल हुयी है। गोरखुआ इसलिए खुश है कि आज एक शहरी बाबू उसके गांव का मेहमान बना है। जी भरकर उससे गान्ही बाबा की बात सुनेगा, जानेगा।
सभी घर पहुँचे। कजुरी बुढ़िया की झोंपड़ी के बाहर ही खाट बिछायी गयी, और उस पर एक कम्बल डाल दिया गया, जिसपर बाबू को आदर सहित बैठाया गया। बाकी लोग भी अगल-बगल से घेर कर वहीं जमीन में बैठ गये, कुछ खड़े हो गये।
आँधी की तरह सभी घरों में बात फैल गयी- मतिया अपने साथ एक शहरी बाबू को ले आयी है...बाबू कोट-पतलून पहने हुए है...उसके पास एक ऐसी चीज है, जिससे रात-दिन का पता चलता है...लगता है कि खुश होकर सरनादेव ही पाहन का रुप धर कर गांव में आए हैं...अब गांव और खुशहाल होगा...कल गोरखुआ पाहन को कंधे पर बिठाकर सारा गांव घुमायेगा..ढोल-मजीरे-मान्दर बजेंगे...मोर-पंख लगाकर सोहनु काका, भिरखु काका नाचेंगे..., जितने मुंह उतनी बातें..। थोड़ी देर में ही पूरे गांव ने टिड्डी-दल की तरह उमड़ कर, कजुरी बुढ़िया की झोपड़ी को आ घेरा। कोई हाथ जोड़कर, कोई सिर झुकाकर, कोई घुटने टेककर, कोई जमीन में कटे रुख की तरह गिर कर बाबू का अभिवादन किया। कोई अपने घर से मोर पंख का जंवर लेकर दौड़ा, कोई महुए का भुजना, कोई ठर्रा, कोई हँड़िया(आदि वासियों का प्रिय पेय पदार्थ, जिसे चावल आदि को संधान कर बनाया जाता है), कोई दोना भर कर शहद, कोई कुछ, कोई कुछ, जिसे जो मिला चटपट लेकर बाबू के सामने लाकर, नजर भेंट किया। भोले-भाले वनवासियों की आवभगत देखकर बाबू फूला न समाया।
‘ओह! कैसा निःछल स्नेह है इन वनवासियों का। लगता है- इन लोगों के लिए भगवान ही उतर कर चले आए हैं...।’-बाबू होठों ही होठों में बुदबुदाया।
‘बाबू के वदन में झरबेरी के बहुत सारे कांटे चुभे हैं नानी। ’- कहा मतिया ने, तो चौंक उठी बुढ़िया, ‘ओंय ! तोंय बोलले कायनी ? अभी इसका उपाय करती हूँ।’
‘बुढ़िया के कहने पर मरछुआ को दौड़ाया गया, ‘जा, कोरीला बूटी लेआ दौड़ के।’
‘थोड़ी ही देर में मरछुआ एक भूरी सी बूटी उखाड़ लाया। गोरखुआ की मां जल्दी-जल्दी उस घास को पत्थर पर पीसने लगी। दो-तीन और भी बूटियां मिलायी गई उसमें- बुढ़िया के कहे मुताबिक।’
‘सारे कपड़े उतार दो बाबू! देखो, अभी तुम्हारा सारा दर्द दूर हुआ जाता है।’- गोरखुआ के कहने पर बाबू ने एक-एक कर सभी कपड़े उतार दिए। वदन पर सिर्फ लंगोट रह गयी। हालांकि इस वेश में बाबू को बड़ा बुरा लग रहा था, पर उन वनवासियों के लिए इतना कम कपड़ा वदन पर रहना- कोई नयी बात थोड़े जो थी।
कजुरी बुढ़िया ने अपने कांपते हाथों से बाबू के पूरे वदन पर लेप किया उस बूटी का। मतिया एक दोने में दौने का खीर, महुए की लाई, और एक दोने में शहद ले आयी। डोरमा ने ताजा पानी लाकर हाथ-पैर धुलाये। अपने अंगोछे से खुद आहिस्ते-आहिस्ते, सावधानी से पोंछा, ताकि बाकी जगहों का लेप छूटने न पाये।
‘लो इसे खालो बाबू! फिर दवा भी खानी होगी।’-दोने सामने रखती हुई मतिया ने कहा।
‘क्या है यह सब?’- बाबू ने गौर से दोनों को देखते हुए पूछा। उसके लिए ये सभी आश्चर्य जनक चीजें थी। ऐसे-ऐसे सामान भी खाये जाते हैं- देखना और खाना तो दूर, बाबू ने कभी सुना-सोचा भी नहीं था।
‘खाओ न बाबू! खाकर देखो, तब न पता चलेगा कि कैसा-क्या है।’- गोरखुआ ने कहा, और फिर अपनी मां की ओर देखकर बोला-‘अपने घर में जाकर, वहां जो ताक पर दोने में दाने की मुठरी और धुस्का(चावल-उड़द का बना हुआ पकौड़े जैसा एक खाद्य पदार्थ) रखा है, उसे भी ले आ। कस्बे से लाकर ही रख छोड़ा था।’
थोड़ी ही देर में दोने और भी आ गये। किसी और घर से कुछ और भी आया। भूख तो काफी तेज लगी थी बाबू को। थोड़ी-थोड़ी सब चीजें लेकर खायी बाबू ने। कुछ अच्छी लगीं, कुछ को खाकर नाक-भौं सिकोड़ा; किन्तु वनवासियों के प्रेम और ममता के चलते सब चीजों में अजीब सा रस भर आया था। फलतः बाबू को भोजन में सन्तोष और आनन्द मिला। मतिया ने पानी लाकर हाथ धुलवाया। पीने को भी दिया। फिर एक और दोना ले आयी, ‘इसे भी पी लो बाबू!’
‘ये क्या है ? अब जरा भी कुछ खाने-पीने की इच्छा नहीं हैं, पेट एकदम भर गया है।’-अपने पेट पर हाथ फेरते हुए, सामने के दोने में झांककर, बाबू ने देखा-कुछ पनीला सा सामान है, जिससे अजीब सी बदबू आ रही है। जी में आया- नांक बन्द कर ले। तभी गोरखुआ ने कहा- ‘ ये नहीं, ठहरो, मैं दूसरी चीज लाता हूँ बाबू के वास्ते।’- गोरखुआ अपने घर की ओर भागा।
थोड़ी देर में एक अधबोतली लिए आ पहुँचा। उसे बाबू को देते हुए बोला- ‘ इसे पी लो बाबू! हरारत बिलकुल मिट जायेगी।’
बाबू ने देखा- बोतल में कच्ची शराब- महुए वाली। ‘नहीं-नहीं, मैं शराब नहीं पीता। ये सब पीना, हमलोग खराब मानते हैं।’
‘इसे बुरी चीज कहते हो बाबू? इसके वगैर तो हमारे यहाँ पूजा भी नहीं होती।’- कहती हुयी मतिया झट गोरखुआ के हाथ से बोतल लेकर, चट ढक्कन खोली, और बाबू के मुंह से लगा दी। ‘पीओ, तब देखो इसका मजा।’ हां-हां करते भर में दो चुल्लु भर गया बाबू के मुंह में। गला जलने लगा। उबकाई सी आने लगी, किन्तु उगले भी तो कैसे ! मुंह तो बन्द था बोतल के मुंह से, जिसे मतिया सावधानी से पकड़े हुए थी। लाचार होकर घुटकना ही पड़ा। फिर लगभग चौथाई बोतल उढेल दी बाबू के गले में। किसी तरह मतिया का हाथ पकड़ कर हटा पाया बोतल को अपने मुंह से।
‘ यह अच्छा नहीं किया तुमने । ज्यादा नशा हो जायेगा तब?’- थूक फेंककर बाबू ने कहा।
‘ नशा-वसा कुछ नहीं होगा बाबू! इतने से ही कहीं बेसुध होता है कोई आदमी? सारी तकलीफ छू हो जायेगी। अब आराम से सो जाओ, उधर ढाबे में चल कर।’-बगल के वरामदे की ओर इशारा करती मतिया ने कहा।
बाबू ने देखा- झोपड़ी के बगल में घास-पत्तों की छावनी और दो तरफ दीवार से घिरा
एक वरामदा, दो खाटें बिछी हुयीं थी, जिसमें एक पर कम्बल हुआ था मुलायम रोंये का, दूसरी खाट खाली थी।
‘चलो बाबू ! तुम्हें बिस्तर तक पहुँचा दूँ।’-बांह पकड़कर उठाती हुई मतिया ने कहा।
‘अब क्या तुम हमेशा हाथ का सहारा देकर उठाती ही रहोगी मझे? ’- कहता हुआ बाबू खुद ही उठ कर चल दिया उस ओर। खाट पर बैठते हुए बाबू ने पुनः कहा- ‘अब आप लोग भी आराम कीजिये। बहुत तकलीफ दिया मैंने आप सबको।’
‘तकलीफ किस बात की बाबू ? यह तो हमारा फरज था।’-हाथ में लिए पत्थर की छोटी कटोरी, खाट के पास रखते हुए गोरखुआ ने कहा, और बाबू की खाट पर ही पायताने बैठते हुए बोला- ‘लाओ बाबू , तलवे में जरा मलिस कर दूँ, वदन तो बूटी की लेप से पटा है।’
‘नहीं-नहीं, इसकी कोई जरुरत नहीं है। इतना ही जो कुछ आपलोगों ने किया, मेरे लिए वही क्या कम है? इस स्नेह और सेवा से क्या मैं उऋण हो सकता हूँ कभी?’- बाबू ने संकोचपूर्वक कहा, और गोरखुआ का हाथ पकड़ लिया।
‘आदमी आदमी की सेवा नहीं करेगा, तो और कौन करेगा बाबू? आज हमारा अहो भाग्य कि आप जैसे बाबू की सेवा का मौका मिला, वह भी मतिया की कृपा से।’-गोरखु ने मतिया की ओर देखकर कहा, और बाबू का पैर पकड़ कर तलवा सहलाने लगा।
तलवे में तेल की मालिस से काफी राहत मिली। बाबू की आँखें झपकने लगी। यहाँ तक कि गोरखुआ की बातों का जवाब भी सही ढंग से न दे पा रहा था। जबान लड़खड़ा रही थी। यह देख मतिया ने कहा-‘ अच्छा भैया, अब सोने दो बाबू को। सुबह में फिर ढेर सारी बातें होंगी।’
‘हां-हां, सो जाओ बाबू! अभी तो आपके बारे में कुछ नहीं जान सके हैं, हमलोग, और
फिर गान्ही बाबा और सुराज के बारे में भी तो आपसे पूछना-जानना है।’-कहता हुआ
गोरखुआ उठ खड़ा हुआ।
‘हां-हां, सब सुनाऊँगा आपको।’-मुस्कुराते हुए बाबू ने कहा।
गोरखुआ उठकर बाहर आ गया। कजूरी नानी एक चादर लाकर, बाबू के बदन पर डाल गयी- ‘अब सुईतजा बाबू।’
चादर से मुंह ढांपे हल्के नशे में डूबा बाबू नींद की गहरायी में गोता खाने लगा। बाहर देर तक बैठे सभी लोग बाबू और मतिया की बातें करते रहे। मतिया के साहस और ममता की सराहना करते रहे। सबसे अधिक खुशी तो कजुरी नानी को - ‘ मेरी नातिन बाघ के मुंह से वापिस आयी है...अब बाबू को भी जाने न दूंगी...रखूंगी बिटवा बनाके...।’-कहा बुढ़िया ने तो सभी ठहाका लगाकर हंसने लगे। हँसी के इसी गुलजार के साथ रात का जमघट खत्म हुआ। सभी अपने-अपने घर गये। कोई बाबू की बात करते, कोई मतिया की।
सवेरा होते ही कई लोग कजुरी नानी की झोंपड़ी के पास आ इक्कठे हुए, बाबू को घेर कर। आज मतिया भी भेड़ चराने नहीं गई, और न गोरखुआ ही कहीं गया।
सबसे पहले मतिया ने कपड़ा गीला कर, बाबू के बदन पर सूखे लेप को आहिस्ते-आहिस्ते पोंछा। कांटे जितने भी चुभे हुए थे बदन में, बूटी के लेप की वजह से सबके सब चमड़ी से ऊपर झांकने लगे थे। गोरखुआ बांस की एक छोटी सी चिमटी ले आया, और खींच-खींच कर सारे कांटे निकाल दिया; फिर अच्छी तरह धोया जख्मों को। नीम की पत्ती पानी में उबाल कर, उसी से नहलाया गया बाबू को। फिर माथे और पसली के बड़े जख्मों पर किसी मरहम का लेप लगाया गया। गोरखुआ ने बतलाया कि यह लेप मधुमक्खियों के मोम, और भेड़ के घी में चिड़चिड़ा, और कुकरौंदा का रस मिलाकर बनाया गया है। किसी भी जख्म को भरने में बड़ा ही कारगर है यह लेप।
बाबू ने भी अनुभव किया कि जख्म रात भरमें ही काफी हद तक ठीक हो गया था। बदन की पीड़ा तो करीब-करीब गायब ही थी। कांटों के कारण जो तकलीफ हो रही थी, वो भी गोरखुआ की जादुई विधि से ठीक हो गयी।
नहाने के बाद दाने की लाई और शहद का जलपान कराया गया बाबू को। फिर आराम करने की इच्छा जाहिर की। कारण कि थोड़ी-थोड़ी ठंढक महसूस होने लगी थी। उधर आकाश भी बादलों से भर आया था। लगता था कि तुरन्त ही जोरदार बारिश होगी। लोगों ने अनुमान किया- मौसम की गड़बड़ी से ही बाबू को जाड़ा लग रहा है। जख्म और चोट का भी प्रभाव हो सकता है। मैदानी भाग में रहने वालों का पहाड़ी भाग में अधिक ठंढक लगती है प्रायः, किन्तु क्षण-क्षण जाड़े को जोर बढ़ता गया, यहाँ तक कि बाबू के दांत किटकिटाने लगे। बदन कांपने लगा। तीन-चार कम्बल और मोटा सा गेंदड़ा लाकर बाबू के बदन पर डाल दिया गया, किन्तु इतने से भी जाड़े का जोर कम न हुआ। घड़ी भर तक यही क्रम जारी रहा। फिर बहुत ही तेज बुखार हो आया, तब जाकर ठंढक कम हुई।
तेज बुखार में बाबू का बदन तवे की तरह गर्म हो गया। मतिया चिन्तित होगयी, कजुरी बेचैन।
गुजरिया गांव में मरछुआ के दादू सबसे बूढ़े आदमी हैं। जड़ी-बूटियों के मामले में उनकी जानकारी का सभी लोहा मानते हैं। दौड़कर मतिया उन्हें लिवा लायी।
भेरखु दादू आये। तेल लगाकर, लम्बे समय तक धुएं में तपायी गयी लम्बी लाठी-सी काया। कमर में मूंज की पतली-सी रस्सी, जिसमें लिपटा बित्तेभर चौड़ा भगौना, जो एकमात्र कपड़ा था बदन पर। नीचे से ऊपर एक सा रंग। इस एकता से बैर था यदि तो सिर्फ दांतों को, जो जीवन के लम्बें सफर के बावजूद, उनका साथ दिये जा रहे थे। सूखी, किन्तु चमकदार चमड़ी का खोल सा चढ़ा था हड्डियों पर, किन्तु हड्डियां पूरे जोर की थी, जिसकी गवाही दे रही थी- टेकुए सी सीधी कमर, और बगल में झूलती दो लम्बी-लम्बी बांहें, जिनमें अजीब सी चंचलता थी। आते ही कभी नब्ज पर दौड़ी, कभी माथे पर। फिर बड़ी सी बुद्धि समेटे, छोटी सी खोपड़ी हिली, जिसका साथ उनके काले मोटे होठों ने भी दिया- ‘घबराने की कोई बात नहीं है। अमिरता बूटी लाई के देई दे, साम तक बाबू बिलकुल चंगा हो जायेगा....।’
दादू के कहने पर गोरखुआ, भागकर अमिरता बूटी ले आया। बाबू ने देखा- लम्बी, अगुंलियों सी मोटी, लत्तीदार कोई बूटी थी, जिसमें पान के पत्ते जैसे पत्ते भी थे। मतिया ने उसे पत्थर पर कूटकर, काढ़ा बनाया। छानकर, उसमें शहद भी मिलाया गया, और तब बाबू को कटोरा भरकर पिलाया गया। जख्मों पर भी दादू के कहे मुताबिक हेजना, गिजना, और लोधरा की छाल का लेप लगाया गया।
दवा पीकर बाबू सो गये। बाकी कुछ लोग वहीं बैठे, बातें करते रहे। गोरखुआ के मन में सुराज की बातें जानने की ललक बनी हुयी थी। मतिया भी बाबू के बारे में जानने को बेचैन। अभी तक बाबू के नाम का पता न था किसी को, यह भी अजीब सी बात थी। सबके सब बाबू के जल्दी ठीक हो जाने की कामना कर रहे थे।
लगभग पूरा दिन, बाबू सोये ही रहे। बुखार कुछ कम जरुर हो गया, किन्तु बेचैनी और दर्द कम न हुआ। शाम को भेरखुदादू फिर आये। नब्ज देखी। अमिरता के काढ़े में ही एक और बूटी का रस मिलाने को कहा, ‘ ये रे गोरखुआ, लाईननीं तोंय पिपरिया बूटी, साथ में कलपनाथ आय चिरात भी डाईल दे।’
पिपरिया, कलपनाथ, चिरात और अमिरता का काढ़ा शहद के साथ पीकर, बाबू फिर सो गये। मतिया और गोरखुआ काफी देर तक वहीं खाट के पास ही बैठे रहे। चिन्ता और बेचैनी में ही वह रात गुजरी। गोरखुआ और मतिया पूरी रात वहीं बैठे बाबू के सम्बन्ध में ही बातें करते, चिन्ता में गुजार दिये थे- कभी माथे पर पट्टी देते, कभी पानी पिलाते।
गुजरिया में शहरी बाबू की दूसरी रात भी गुजर गयी। सुबह का सूरज गुजरिया वालों के लिए सुख का सन्देशा लेकर आया। भोर होते होते, बाबू की तबियत काफी ठीक हो गयी। भाग-भाग कर मतिया ने सबको बतलाया- बाबू के ठीक होने का समाचार दिया। पूरा गांव फिर एक बार उमड़ पड़ा बरसाती नदी की तरह। सभी आए बाबू को देखने के लिए। भेरखु दादू भी आए। नब्ज देख कर बोले, ‘ अबकी बार किरता-चिरता का छनका पिलाओ बाबू को, शहद थोड़ा ज्यादा ही डालना।’ फिर गोरखुआ से बोले- ‘ तू चला जा कस्बा, और पुराना सांठी चावल ले आ। उसी का भात बनाकर शाम को खिलाना बाबू को।’
‘दादू के कहने पर गोरखुआ जल्दी ही कस्बा चला गया। मतिया आज भी भेड़ चराने जंगल नहीं गयी। कजुरी नानी सुबह में ही शहद और छनका पिलाकर जंगल की ओर चल पड़ी थी, कुछ कन्दमूल लाने के लिए। और लोग भी बाबू को देख-देखकर अपने अपने काम पर चले गये, इस खुशी में कि अब बाबू ठीक हो गया। शाम में जल्दी वापस आकर, बाबू के पास बैठकर तरह-तरह की बातें सुनी जायेंगी।’
‘सभी चले गये। रह गई अकेली मतिया। धूप जब थोड़ा ऊपर आयी, पत्थर की छोटी कटोरी में करंज का तेल लेकर बाबू के पास गयी, ‘लाओ न बाबू जरा मलिस कर दूँ। कल तक तो बूटी की लेप के कारण...।’
‘कितना तकलीफ उठाओगी तुम, मेरे लिए मतिया? क्या जरुरत है अभी मालिस की? दर्द तो दवा से ही छूमन्तर हो गया है।’- कहते रहे बाबू, किन्तु मतिया क्या सिर्फ ‘ना’ कहने से मान जाने वाली थी ! जबरन बैठ गयी बाबू के पैर पकड़कर। बाबू को भी हार माननी पड़ी।
पिण्डलियों में मालिस करती हुई मतिया ने कहा, ‘तुमने तो बाबू मेरा नाम उसी दिन जान लिया था रास्ते में ही। गांव-घर सब देख-जान लिया यहाँ आकर; परन्तु अभी तक अपने बारे में कुछ कहा-बतलाया नहीं। दो दिन बीमार ही पड़े रहे। अब तक तुम्हारा नाम भी नहीं जान पायी, जो कह कर पुकारुँ।’
‘ अब तो मेरे बारे में जानना ही बाकी रह गया है न, जान ही लो, देर किस बात की। वैसे पुकारने के लिए तो तुमलोगों ने कई नाम रख दिये मेरे अब तक। मगर नाम बता देने से ही छुट्टी मिल जाये तब न।’- मुस्कुराते हुए बाबू ने कहा।
‘वाह बाबू! खूब कहा तुमने भी। नाम नहीं बतलाए, फिर भी लोगों ने कई नाम दे डाले। आखिर नाम तो सिर्फ पुकारने के लिए ही होता है न या और कोई मकसद है
उसका?’- मुस्कुराती हुई मतिया ने कहा, बाबू की ओर देखकर, जिसके साथ ही बाबू भी हँस पड़ा।
‘वाह ! नाम का काम तो ठीक समझी, किन्तु मेरे लिए तुम भी कुछ अलग नाम चुन रखी हो क्या ?’
‘चुन क्या रखूँगी मैं अकेले ही ? ’- मतिया कह ही रही थी कि बाबू बीच में ही टोक कर, हँसते हुए बोल उठा- ‘अकेले क्यों, मेरा नाम चुनने-रखने के लिए दो-चार नौकर रख लो।’
मतिया खिलखिलाकर हँस पड़ी। ‘नहीं बाबू , नौकर की क्या जरुरत। कल ही की तो बात है, दोपहर में जब तुम सोये हुए थे, तुम्हें देखकर गोरखुआ कह रहा था कि बाबू एकदम पलटन माफिक लगता है। कपड़े भी पलटन जैसा ही पिहिरता है। कड़ी-कड़ी तनी हुयी मूछें देखकर तो कमजोर कलेजा कांप जाये। लगता है बरछी सी घुप से घुस जायेगी दुश्मन की छाती में।’
‘गोरखुआ तो स्वयं ही दबंग है। देखी नहीं- मुझे कंधे पर बिठाकर कितने आराम से ले आया। दूसरा होता तो नानी मर जाती।’- पैर पसारते हुए कहा बाबू ने।
दूसरे पैर की मालिश करती हुई मतिया ने कहा- ‘ मैं तो यही सोचती हूँ बाबू! कि तुम्हें पलटनवां बाबू ही कहा करुँगी।’
मतिया की बात पर बाबू को जोरों की हँसी आ गयी। हो-होकर बड़ी देर तक हँसते रहा। फिर बोला- ‘ वाह, मेरा नाम तो अच्छा चुना तुमने—पलटनवांबाबू ! क्या ही नाम पलटनवांबाबू ! चलो, मेरे नामों की श्रृंखला में एक और कड़ी जुड़ गयी...।’
मालिश खत्म कर, तेल की कटोरी वहीं ढाबे में ताकपर रखकर, मतिया वहीं खाट के नीचे, सारंगा की चटाई बिछा कर बैठ गयी। बाबू अपना नया नाम याद कर-करके हँसता-मुस्कुराता रहा। कभी कुछ सोचता भी रहा। मतिया भी किन्हीं ख्यालों में खोई सी रही। इसी बीच गोरखुआ कस्बे से लौट कर वापस आया सांठी का चावल लेकर।
‘कैसी तबियत है अब, बाबू ? ’-आते ही पूछा गोरखुआ ने बाबू से, जिसके चेहरे पर खुशी चहलकदमी करती नजर आयी उसे। दर्द और चिन्ता की रेखायें कहीं खो गयी सी जान पड़ी।
‘ बिकलुल स्वस्थ हूँ गोरखुभाई।’- कहते हुए बाबू ने नीचे चटाई पर बैठी मतिया की ओर देखा, और मुस्कुरा कर बोला- ‘जानते हो गोरखुभाई, अब तो मेरा नया नाम भी रखा गया है...।’
‘क्या?’- चौंक कर पूछा गोरखुआ ने।
‘ हाँ भाई, आज मेरा नामकरण हो गया यहाँ।’- बाबू ने बात दोहरायी।
‘ तो क्या पहले से नाम-वाम नहीं था क्या?’- बाजार से लाए गये सामानों को मतिया के आगे रखते हुए पूछा गोरखुआ ने, ‘ तो क्या नाम रखाया बाबू का ? मुझे जानने लायक है या नहीं ?’
‘नाम तो था, परन्तु अब उसका मोल ही क्या रह गया? रही बात इसे जानने की, तो आप ही लोगों का दिया हुआ सम्बोधन, और आपलोग ही न जान पायें-यह कैसे हो सकता है?’
‘हमलोगों का दिया सम्बोधन ? मैं कुछ समझा नहीं।’- पुनः आश्चर्य करते हुए गोरखु ने कहा, और बाबू के साथ ही खाट पर बैठ गया।
‘और नहीं तो क्या। मतिया कहती है कि आज से मेरा नाम पलटनवांबाबू रहेगा।’
बाबू की इस बात पर जोर का ठहाका, झोंपड़ी की दीवारों से टकराया, और बच्चे की तरह बाबू को, एकाएक गोद में उठाकर नाच उठा गोरखुआ- ‘वाह-वाह रे पलटनवांबाबू !’
गोरखुआ की इस हरकत से मतिया भी खिलखिला उठी।