अधूरीपतिया / भाग 7 / कमलेश पुण्यार्क
‘चुंगी कहते हो बाबू? ये पाहन ही तो सब कुछ हैं। इनके खुश रहने पर ही देवता भी खुश होते हैं। इनकी नाराजगी देवताओं की नाराजगी है। पाहन चाह जाये तो बादल बरसात करना बन्द कर दें। खेतों में अनाज न उगें, पेड़ों में फूल-फल भी ना लगे...।’
गोरखुआ की सादगी और भोलेपन ने बाबू को लाजवाब कर दिया। वनवासियों के दृढ़ विश्वास और अटूट श्रद्धा पर कीचड़ उछालना उचित न जान, चुप रहना ठीक लगा।अतः बिना कुछ बोले, चुपचाप सबके साथ चलने लगा।
पाहन के पीछे-पीछे औरतों का झुंड गीत-गौनई करते चला जा रहा था। उनके पीछे मर्द और बच्चे। लगभग सारा गांव जा ही रहा था। घरों में सिर्फ बूढे-लाचार ही रह गये थे। कुछ बूढे जो चलने के काविल न थे, किसी परिजन के कन्धे पर चल रहे थे। छोटे बच्चे तो अपनी मांओं की पीठ पर ‘बंकुचों’ में बंधे चल ही रहे थे।
गांव से काफी दूर जाने पर, एक छोटी सी पहाड़ी पर करम का एक गाछ था। और पेड़ों की तुलना में यहां, इस करम गाछ की तलहटी में झाड़-झंखाड़ों का अभाव नजर आया बाबू को। गोरखुआ ने बाबू को बतलाया- ‘यहां आकर हमलोग वर्ष में कई बार झाड़ियों को काट-कूटकर साफ-सुथरा कर दिया करते हैं। वैसे तो पूरे जंगल में और भी बहुत से करम गाछ हैं, किन्तु यह गाछ बहुत ही पुराना है। हर बार इसी की डाल ले जाकर, करमा के दिन पूजा की जाती है। यह गाछ यहाँ कब से खड़ा है- गांव के सबसे बुजुर्ग भेरखु दादू को भी ठीक से पता नहीं है।’
पेड़ के पास पहुँच कर सभी उसे घेरकर खड़े हो गये। मान्दर के मधुर धुन के साथ गीत-गवनई चलने लगा। मंगरिया ने सिर पर से कलशी उतार कर करमगाछ के नीचे रख दी। उसमें से थोड़ा सा पानी अंजुली में लेकर, कुछ बुदबुदाते हुए पाहन ने जड़ पर छिड़क दिया। सिर झुका, दोनों हाथ जोड़कर नमन किया, फिर कमर के पीछे हाथ बांध, जमीन पर झुककर प्रणाम भी किया। फिर कुछ मन्त्र सा बुदबुदाते हुए, तीन बार ठोंका गाछ के मोटे तने को।
‘यह क्या हो रहा है? ’-बाबू ने पूछना चाहा कि तभी देखा- बन्दरों की तरह उछलकर पाहन करम की मोटी डाल पर चढ़कर, जा बैठा। नीचे खड़े बाकी लोग खुशी से गीत गा-गाकर नाचने लगे।
बड़ी देर तक यही क्रम चलता रहा। अन्त में एक छोटी सी डाल तोड़कर, पाहन जिस फुर्ती से ऊपर चढ़े थे, वैसी ही फुर्ती से नीचे उतर भी आए। बच्चों के शोर और किलकारी के साथ मान्दर का थाप फिर एक बार तेज हो गया।
अब आगे-आगे पाहन चले- करमडाढ़ लेकर।उनके पीछे मान्दर बजाता डोरमा चला। वहां से चलते समय होरिया से लेकर, डोरमा ने अपने कंधे पर मान्दर लटका लिया था। पीछे से बाकी लोग चले चल रहे थे। पानी से भरी कलशी वहीं करमगाछ को पास छोड़ दी गयी थी।
पूछने पर बाबू को मालूम चला कि उस कलशी के पानी में थोड़ा सा गुड़ घोला हुआ है। वनवासियों का विश्वास है कि करम देव आज रात गाछ से उतर कर कलसी का पानी पीते हैं, और वनवासियों को आशीर्वाद देते हैं, जिसके कारण गांव में खुशहाली आती है।
खाली हाथ मंगरिया भी मतिया का हाथ पकड़े चल रही थी। बाकी औरतें तो गीत-गवनई में मस्त, पर मंगरिया और मतिया आपस में बातें करती चल रही थी। मंगरिया ने मतिया से पूछा- ‘ये बाबू कोन हे रे मतिया?’
मंगरिया के पूछने पर मतिया सारी बात बतला गयी- कैसे तूफान में पड़कर बाबू ने धोखा खाया, मतिया वहां कैसे पहुँची, और कैसे यहां तक ले आयी...।
गोई-बहिनापा के नाते मंगरिया ने चुटकी ली, ‘बढ़िया चिड़ा फांस लायीन तोय रे मतिया...अब एके उड़न न दे...।’
‘धत्त...।’- मतिया ने प्यार से एक चपत लगा दी मंगरिया के गाल पर। मंगरिया ने फिर छेड़खानी की- ‘नानी कहती थी, मतिया अब सयानी हो गई है। कोई अच्छा सा ‘भांटू’ आ जाता मतिया के लिए। मगर कौन आयेगा गरीब की झोंपड़ी पर...?’ फिर हंसती हुयी मंगरिया कहने लगी- ‘अच्छा हुआ रे मतिया, तुझे बैठे-बिठाये ही इतना बढ़िया भांटू मिल गया बाबू जैसा। मैं तो कहती हूं- इसे हरगिज जाने ना देना।’
मंगरिया की बात पर मतिया कुछ बोली नहीं। लजानी सी सूरत बना दूसरी तरफ मुंह फिरा ली। मतिया को लजाती देख मंगरिया फिर बोली- ‘ लजाती क्या है रे मेरी लाडो सोनुआं ! एक ना एक दिन पाहन तेरी भी गांठ बांध ही देगा, किसी छोरे से। अब क्या चाहती हो हरदम यहीं रहना?’
शरमाती हुयी मतिया के आँखों में आंसू छलक आये। ‘ रहना क्या चाहूंगी ? कोई रहा है जनम भर आज तक ? किन्तु नानी के बारे में सोचती हूँ तो कलेजा हिल जाता है।’
‘नानी क्या अमरत पीकर आयी है ? मान लो आयी भी हो, तो क्या उसी के कारण अपनी जवानी बरबाद कर दोगी ? ’- मतिया के गुदगुदे गाल पर अपनी अंगुली से कोंचती हुयी मंगरिया बोली, ‘ देख न मुझे ही, अमियां बूढ़ी हो गयी है। पर क्या इसी को देखती बैठी रह जाऊँगी ? एक ना एक दिन मनमसोस कर, छोड़कर जाना तो होगा ही। कल ही डोरमा कह रहा था अमियां से, इस बार सोहराय के बाद मंगरिया का बिआह कर देना है।’
‘हो ही रहा है, तो कर ले बिआह। चली जा गलबहियां डालकर...।’-हंसती हुयी मतिया ने कहा।
इसी तरह बातें करती दोनों घर पहुंच गयी। और लोग भी गीत-गान करते दादू के चौपाल में पहुंच गये। बाबू के साथ गोरखुआ भी हाथ बांधे आही पहुंचा।
करमडाढ़ वहीं चौपाल में एक जगह पर रख दिया गया, गीली मिट्टी के लोंदिये के सहारे खड़ा करके। कुछ मर्द वहीं रह गये। औरतें अपने-अपने घर चली गयीं। बाबू को साथ लेकर मतिया भी अपने घर आ गयी। यहां बाहर ढावे में बैठी बूढ़ी कजुरी दोनों की राह देख रही थी।
सूरज पहाड़ों में जा छिपा था। रात की इन्तजार सबको थी आज। ढाबे के बाहर ही खाट बिछा बाबू को बैठा कर मतिया भीतर चली गयी, यह कहती हुई, ‘तुम बैठो बाबू, नानी से बातें करो। मैं तबतक परसाद बना लूँ।’
मंगरिया इसे घर छोड़ पहले ही जा चुकी थी। उसे भी परसाद बनाने की जल्दी थी।
मतिया भीतर चली गयी। बाहर खाट पर बाबू बैठे रहे। नीचे चटाई पर नानी पहले से ही मौजूद थी। बाबू के आ बैठने पर कुछ-कुछ कहने-पूछने लगी।
हांलाकि, गोरखुआ गांव के बहुत से लोगों को शहरी बाबूओं की बोली थोड़ा-बहुत सिखला चुका था। वैसे भी मर्द लोग, जिन्हें बारबार कस्बा जाने का मौका मिलता था, कुछ रहन–सहन तौर-तरीका सीख गये थे। कुछ औरतें भी होशियार हो गयी थी। परन्तु पुरानी पीढ़ी अभी ज्यों के त्यों पड़ी थी अनजान सी।
इधर दो-तीन दिनों से साथ रहते, बाबू भी कुछ कुछ समझने के काबिल हो गया था- इन लोगों की भाव-भाषा। परन्तु पूरी तरह से बोल-समझ पाना सम्भव न था। नानी कुछ न कुछ कहे जा रही थी। नानी और बाबू के बीच भावों और इशारों के साथ कुछ टूटे-फूटे शब्दों के मेल से संवाद चल रहा था। तभी अचानक होरिया और गोरखुआ आ पहुंचे।
‘क्या बातें हो रही हैं नानी से? कुछ पल्ले पड़ रहा है?’-आते ही गोरखुआ ने पूछा और नानी के साथ चटाई पर बैठ गया। होरिया भीतर चला गया मतिया को पुकारते हुए।
‘अभी इतनी जल्दी क्या पल्ले पड़ना है। अब धीरे-धीरे सीख रहे हैं।’-बाबू ने कहा।
‘अब तो तबियत बिलकुल ठीक है न बाबू?’- भीतर से आकर होरिया ने पूछा , और पास ही चटाई पर बैठ गया।
‘ हां-हां, अब बिलकुल ठीक हूँ। दर्द-बुखार सब भाग गया। बस सिर्फ दोनों बड़े घाव भरने रह गये हैं। उसपर भी अब पट्टी बांधने की जरुरत नहीं रह गयी है। यूंही थोड़ी सी दवा दोपहर में नहाने के बाद मतिया लगा दी थी। एक-दो दिनों में वह भी भर ही जायेगा। फिर सोचता हूँ..।’- बाबू कह ही रहा था कि बीच में ही टोक दिया गोरखुआ ने, ‘सोचते क्या हो बाबू? ’
‘यही कि कब तक पड़ा रहूँगा यहां मेहमानबाजी करते?’- आहिस्ते से कहा बाबू ने।
‘पड़ा क्या रहना है बाबू! और फिर जाने की क्या जल्दी है? अभी तो तुमसे जी भरकर बातें भी नहीं कर पाया हूँ। ठीक से तुम्हारा हाल-चाल भी कहां जान पाया हूँ। इधर दो दिनों तक तुम बिलकुल बीमार ही रहे। आज का सारा दिन परब के काम में लग गया। रात भी इसी में बीतनी है- पूरी रात जागना है। कल का दिन सोकर आराम फरमाने का है। तब जाकर कहीं मौका मिलेगा तुमसे जी भर कर बातें करने में। गान्ही बाबा की बहुत सी बातें तुमसे पूछनी है।’- गोरखुआ ने अपनी मुराद जाहिर की।
‘पूछ लेना भई, पूछ लेना, जितनी पूछनी हो, एक दिन..दस दिन..बीस दिन।’- सिर हिलाकर बाबू की ओर देखते हुए होरिया ने कहा, ‘बाबू का तो काम ही है जाने की हड़बड़ी दिखाना, वो तो हमलोगों का काम है कि बाबू को कितना दिन बाद छुट्टी देते हैं यहां से जाने की।’
होरिया की बात पर दोनों हँस पड़े। होरिया की हां में हां मिलायी गोरखुआ ने सिर
हिलाकर, ‘ सो तो होगा ही होरीया भाई, मेहमान लोग कब कहते हैं कि हम ठहरे रहेंगे... रोकना और बिदा करना तो हमलोगों का काम है।’
जरा ठहर कर मुस्कुराते हुए गोरखुआ ने पूछा, ‘अच्छा बाबू ! ये तो बतलाये नहीं कि तुम्हारा काम-धाम, रोजी-रोजगार क्या है, कैसा है, कहां है? मैं तो कहूँगा कि कोई हरज ना हो तो यहीं रहो न कुछ दिन- महीना दो महीना। तुम्हारे साथ रह कर हम लोग भी कुछ बढ़िया बात सीख-समझ लेंगे।’- घिघियाता हुआ-सा, हाथ जोड़कर गोरुखुआ बैठ गया बाबू के पैरों के पास।
‘ अच्छा देखा जायेगा। जैसी मर्जी होगी ऊपर वाले की।’- ऊपर की ओर अंगुली का इशारा करते हुए बाबू ने कहा।
‘सब काम ऊपर वाले की मरजी से ही नहीं होता बाबू। यहां तो जो भी होना है, तुम्हारी मरजी से होना है। तुम चाहोगे तो रुकोगे...।’- गोरखुआ ने जोर देकर कहा।
‘अच्छा अब चलना चाहिए यहाँ से। मतिया को भी तैयार होने को बोलता आया हूँ। बोली कि परसाद बना कर तुरत चल रही हूँ।’- होरिया ने कहा- ‘ आप भी तैयार होजाओ न बाबू।’
होरिया के कहने पर नानी उठ कर अन्दर गयी। बाबू के कपड़े ले आयी। बाबू जब अपनी पतलून-कमीज पहनने लगा, तो गोरखुआ ने कहा, ‘ ठहरो बाबू ! ये सब मत पहनो। आज परब का दिन है। जैसा हमलोग पहनते हैं, वैसा ही तुम्हें भी पहनना होगा।’
बाबू कुछ कहना ही चाहता था कि गोरखुआ बीच में ही बोल उठा, ‘ कल ही डोरमा को भेजकर कस्बे से तुम्हारे लिए नयी धोती मंगवा दिया हूँ। उसे कह आया हूँ, लेकर आता ही होगा।’
बातें होही रही थीं कि डोरमा एक पुलिन्दा लिए आ पहुँचा। गोरखुआ ने डोरमा के हाथ से लेकर, खोला उस पुलिन्दे को- नयी धोती, रेशमी कुरता, सफेद मुड़ासा, मोर का पंख
सब निकाल कर बाबू के सामने खाट पर रख दिया।
बुढ़िया ने देखकर खुश होते हुए कहा, ‘ ई का हेके रे गोरखुआ बाबू ले तोंय लाइन हेके की?’
‘हां नानी। बाबू को आज पहनाऊँगा यह सब और साथ में नाचने के लिए ले चलूँगा।’- हँसते हुए गोरखुआ ने बाबू की बोली में ही कहा, ताकि बाबू समझे कि कपड़े यूंही नहीं दिये जा रहे हैं, उसके बदले नाचना भी पड़ेगा। बुढ़िया खी-खी कर दांत चिहारती रही।
‘इसकी क्या जरुरत थी? मेरे पास तो कपड़े थे ही। फिजूल खर्ज किया तुमने गोरखु भाई।’- बाबू ने गरीब वनवासियों की स्थिति पर सोच कर कहा, जिनका दिल इतना बड़ा है।
‘फिजूल खरच क्या है बाबू ? हम सब नया पहरेंगे आज परब के दिन, और आप पुराना कपड़ा पीन्हकर करमपूजा करेंगे? जल्दी से पिन्ह कर तैयार हो जाओ बाबू।’- कहता हुआ गोरखुआ अपने हाथ से कपड़े उठाकर, पहनाने लगा बाबू को। होरिया पुराने कपड़ों को समेट कर भीतर चला गया मतिया के पास।
बाबू को धोती-कुर्ता पहनाकर गोरखुआ ने अपने हाथ से मुड़ासा बांधा, और ऊपर से मोर का पंख भी खोंस दिया। फिर हँसता हुआ, बाबू को तपाक से गोद में उठा, पूरे ढाबे में एक चक्कर लगा, फिर खाट पर ला बिठाया।
‘देखे ना बाबू! कितना बढ़िया लगा ये पहरावा?’- कहते हुए डोरमा हँसने लगा। हँसी में बुढ़िया ने भी साथ दिया।
इतनी उम्र में बाबू ने आज पहली बार ऐसा लिबास पहना था। ऊपर से नीचे तक एक बार खुद को निहारा, ‘ सच में अपने देश की पोशाक कितनी भली लगती है गोरखु भाई? ओफ ! हम भारतीयों पर तो अंगरेजियत का भूत सवार है- खान-पान, रहन-सहन, बोल-चाल सब पर अंग्रेजों का ठप्पा लग गया है। जितनी ताजगी आज हम इस पहरावे में महसूस कर रहे हैं, सच पूछो तो आज से पहले कभी ऐसा नहीं लगा था। इस ढीलेपन में ही एक अजीब सी चुस्ती महसूस हो रही है। जब कि पतलून की चुस्ती में भी विचित्र तरह का कसाव और सुस्ती है...लगता है उन्मुक्त आत्मा बन्ध गयी हो शिकंजे में...।’
‘ यह तो बहुत बड़ी बात कह दी तुमने बाबू।’- कहता हुआ गोरखुआ फिर एकबार उठा लिया बाबू को गोद में- ‘ गान्ही बाबा जिन्दाबाद....।’
जिन्दाबाद के नारे के साथ हँसी का पटाखा एक बार फिर फूट पड़ा। भीतर से परात जैसे बड़े से खोमचे में ढेर सारे पकवान लिए मतिया भी तैयार होकर आगयी होरिया के साथ। बाबू को चक्कर घिन्नी खिलाया जाता देख खिलखिलाकर हँस पड़े वे दोनों भी।
‘वाह वाह रे पलटनवां बाबू! कमाल कर दिया।’- कहती मतिया सामने आ खडी हुई।
‘उतारो भाई नीचे उतारो। तुम तो मुझे बिलकुल बच्चा समझ लिए।’- हँसते हुए बाबू ने कहा।
‘बच्चा कौन कहता है? तुम तो बहुत बड़े हो बाबू। बिलकुल गान्हीबाबा जैसे महान।’- खाट पर बिठाते हुए गोरखुआ ने कहा।
हँसी का दौर जब थमा, और बाबू निश्चिन्त हुए तब ध्यान गया मतिया की ओर। बाबू की आँखें बरबस ही चिपक सी गयी मतिया पर। देखा, मतिया आज खूब सजी-संवरी है- धानी चौड़े पाड़ की सफेद साड़ी, वैसी ही कुर्ती, आंचल का लम्बा छोर पीछे से फिराकर कंधे पर होता हुआ, दोनों ऊँची छातियों को ढकते हुए कमर में आकर लिपट गया है। ढीला जूड़ा गर्दन पर लटक रहा है, जिसमें खुंसे हैं गुलैची के पांच-छः फूल। उन फूलों के बीच बड़ा सा उड़हल का भी फूल है। पीले रंग की एक पतली सी पट्टी सिर पर बंधी है, और उसमें आगे की ओर लगे हैं- नीलकंठ के दो पंख, आँखों में गहरा सुरमा है, माथे पर हल्की बुन्दकी गुलाबी रंग की, जिसके चारों ओर छोटी-छोटी सफेद बुन्दकियां है जो बड़ी बुन्दकी को घेरे हुए दोनों ओर की कनपट्टियों तक उतर आयी हैं। गले में वनतगर के फूल की माला है, जिसमें लोलक की तरह एक बड़ा सा गुच्छा लटका है- पुटुस के फूलों का। कमर में लाल –सफेद-पीले फूलों की चौड़ी पट्टी सी करधनी है, कलाइयों पर सीपों की गूथी हुयी चूड़ियां हैं- एक-एक। बाजू में भी फूलो का बाजूबन्द है.....।
कुल मिलाकर मतिया का रुप अजीब निखरा हुआ है। काफी देर तक बाबू कि निगाहें उलझी ही रह गयीं मतिया के अंगों से। अभी और देर तक अंटकी ही रह जाती यदि मतिया टोक न देती, ‘चलो न बाबू, तैयार होकर आ गयी मैं तो।’
मतिया की आवाज से बाबू चेत सा गया- अरे कहाँ खो गया था?- खुद से सवाल किया, और जवाब भी खुद को ही दिया- ओह! ऐसा श्रृंगार...प्रकृति का...प्रकृति से...प्रकृति के लिए....।
‘सभी तो तैयार हो गये, परन्तु नानी? उन्हें चलना नहीं है क्या? ये अभी यूँ ही बैठी हैं।’- मुखर रुप से कहा बाबू ने, नानी की ओर देखकर।
होरिया ने नानी को समझाया, ‘ बाबू कहत हें तोंय नी जावें?’
‘जाबो काले नीं। तोंयमन चल न।’-बुढ़िया ने कहा।
‘वाह नानी! तू क्या ऐसे ही चलेगी- इन्हीं कपड़ों में ?’-नानी की ओर देखकर बाबू ने कहा, और फिर मतिया की ओर देखकर बोला- ‘नानी को भी कपड़े पहना दो न मतिया।’
‘मैं तो पहले ही बोली थी, पर सुनती नहीं।’-कहती हुयी मतिया हाथ में लिये हुए खोमचे को नीचे रखकर, नानी की बांह पकड़ कर उठाती हुयी बोली-‘चल पीन्ह ले धूती।’
उसके ना नुकूर करते रहने पर भी, लगभग घसीटती हुयी सी मतिया, जबरन भीतर लेगयी।
थोड़ी देर में नानी भी तैयार होकर आगयी। तब सभी एकसाथ चल पड़ें भेरखुदादू की चौपाल की ओर, जहाँ करमपूजा का मंडप सजा हुआ था।
गांव के बाकी लोग भी करीब-करीब पहुँच ही चुके थे, कुछ अभी भी आ-जारहे थे।
सबके सब सजे-संवरे- एक से बढ़कर एक सादे और रंगीन लिबासों में। औरतों का सजावा लगभग एक किस्म का था; खासकर उनका, जिन्हें आज के नाच में भागीदारी करनी थी-इनमें अधिकांश कम उम्र वाली छोरियां ही थी-चौदह से बीस के बीच की। मर्द भी कम सजे-संवरे न थे- घुटने तक धोती, एक लम्बा सा दुपट्टा- कंधे से होता हुआ, कमर में लिपट कर दोनों ओर झूलता हुआ, ऊपर के वदन में कपड़े नदारथ, माथे में लाल-हरी-काली-पीली पट्टी, जिनमें खुसे थे- किसी न किसी चिड़ियां के पंख—मोर, बुलबुल, तोता, कौआ, गौरैया, मैना, हारिल, नीलकंठ, पंडुक, बगुला, सारस, कबूतर। कुछ ने मुर्गी के पंखों का गुच्छा बनाकर ही सजा लिया था अपने माथे को। ज्यादातर लोग मोर या नीलकंठ के पंखों का ही इस्तेमाल किया था। शायद ये इनके प्रिय पक्षी रहे हों। उमरदार और बूढ़ी औरतें भी जहां तक बन पड़ा था, साफ-सुथरे कपड़े ही पहने थी। बच्चों का क्या कहना- उनके कपड़े बिलकुल नये ही थे। ऐसा कोई बच्चा नहीं दीखा जिसने पुराने कपड़े पहने हो। वहाँ आने वाला हर परिवार, पत्तों से बने बड़े से खोमचे(परातनुमा)में विभिन्न तरह के पकवान, के साथ एक बड़ी सी हांड़ी भी लिए हुए था। कुछ घड़ों में पानी भी लाया गया था। सभी सामान मंडप में ही सजाकर एक ओर रखा जा रहा था।किसी को कुछ कहने-फरमाने की जरुरत न थी। लगता था सभी मालिक हैं, सभी नौकर हैं। किसके द्वारा क्या लाया गया- इसकी भी कोई छानबीन नहीं, जिससे जो बना लेकर हाजिर हुआ करमदेव के जलसे में।
जब सभी लोग आगये तब पाहन को भी बुलाया गया- मंडप के भीतर। पहले वो पास की ही एक झोपड़ी में आराम फरमा रहे थे।
पाहन आये मंडप में, जहां करम डाढ मिट्टी के लोंदे के सहारे खड़ा किया गया था। ऊन की गद्दीदार आसनी पर पाठन को आदरपूर्वक बिठाया गया-करमडाढ के सामने उत्तर की ओर मुंह करके। उन्हें घेरकर बाकी लोग भी आ बैठे। मंडप के बाहर खुली चांदनी में नवयुवक-युवतियों का जमघट जो लगा हुआ था, वो भी धीरे-धीरे भीतर मंडप में आकर अपना स्थान लेने लगे।
पाहन ने नयी कलशी के पवित्र जल से करम डाढ़ को स्नान कराया। चन्दन, फूल,
मालायें चढ़ाये। काफी मात्र में धूना जलाया गया। फिर बारी-बारी से चार-चार आदमियों की टोली ने समीप जाकर पूजा की। इस बीच मान्दर और नगाड़े बचते रहे। बच्चे उछल-कूद मचाते रहे।
पूजा खतम होने पर सभी उठ खड़े हुए। लाये गये सभी खोमचों में से एक पत्तल पर थोड़ा-थोड़ा पकवान निकालकर रखा गया। पाहन को पहले आदर पूर्वक जिमाया गया। खाने के बाद पाहन ने छककर हड़िया भी पीया। इसके बाद बाकी लोग भी कतारों में बैठ गये। कुछ रह गये खिलाने-परोसने के लिए।
अलग खड़े बाबू के पास आकर मतिया ने कहा, ‘क्यो बाबू! तुम इधर क्यों खड़े हो? साथ में बैठो न। अभी सब मिलकर खाना खायेंगे। हड़िया पीयेंगे, फिर नाचेंगे जमकर पूरी रात।’
होरिया ने बाबू का हाथ पकड़कर, बैठा दिया, जहां पहले से डोरमा बैठा हुआ था। साथ में गोरखुआ भी आकर बैठ गया। खाना परोसने का काम शुरु हुआ। सबसे पहले सबके आगे, सघन बड़ा सा पत्तल रखा गया, और साथ में दो-दो दोने भी रखे गये। दोने-पत्तलों की बनावट पर मुग्ध हो रहा था बाबू- प्रकृति की गोद में बैठे बनवासियों की कला पर सोचता रहा कुछ देर तक।
चार जन ने मिलकर परोसने का काम शुरु किया। एक-से-एक पकवान- पुए जैसे कुछ मीठे, कुछ नमकीन, कुछ गोल-गोल बडियों जैसे। बाबू ने अनुमान लगाया- चावल और उड़द का व्यवहार ज्यादा किया गया है। छानने-बघारने के लिए वादाम और तिल के तेलों के अलावे कोईन-डोरी के तेल(महुए की फली का तेल) भी इस्तेमाल किया गया था। इसे ये लोग बहुत ही पौष्टिक मानते हैं। एक-एक चीजों को पारखी निगाहों से देखता रहा शहरी बाबू। बहुत तरह के साग, तरकारियां, चटनी, जिसमें तेंतुल और कैंथ का खास स्थान था, परोसा गया गया। बाबू ने अनुभव किया कि वनवासियों की पाक-कला भी अजीब है- बहुत सराहनीय कहनी चाहिए।
सबकुछ परोसे जाने के बाद खाने का दौर शुरु हुआ। शुरु हुआ, सो देर रात तक जारी रहा। मतिया और मंगरिया भी परोसने में जुटी हुयी थी।खाते-खाते बच्चे, कभी-कभी जवान और बूढे भी खाना छोड़कर उछलने कूदने लग जाते। अजीब मौज-मस्ती का वातावरण था। ऐसा लग रहा था, मानों दुनियां से दुःख, भूख, अकाल, बैर, सब रफा-दफा हो गया है। रह गया है- सिर्फ शेष तो खाना-पीना-मौज-मस्ती।
खाने के बाद शुरु हुआ दौर पीने का। छोटी-बड़ी हड़ियों में एक तरह का पनीला, कुछ गाढ़ा सा समान था, जिसे लोग चावल आदि अनाजों को उबाल-सड़ाकर, संघान करके तैयार करते हैं। हड़िया यहां का प्रसिद्ध पेय है। यह एक बहुत ही तेज नशीला पदार्थ है, जिसका चलन पूरे क्षेत्र में है। औरत, मर्द, बच्चे-बूढ़े सभी इसका व्यवहार करते हैं। पीने वाले भी एक से एक- पूरी की पूरी हांड़ी पी जाने वाले। चुँकि चावल को उबालकर, संधान के लिए मिट्टी की हांड़ी में रखते है, इसी कारण इसका नाम हंड़िया पड़ गया।
बाबू के आगे भी एक हंड़िया रखी गयी। रखते के साथ ही एक बदबूदार भभाका बाबू के नथुनों में समा गया। ना नुकुर के बावजूद दोने में ढ़ाल कर थोड़ा चखा ही तो दिया मतिया ने- ‘आज के दिन इसे पीना बहुत जरुरी माना जाता है बाबू ! नहीं पीओगे तो करम देव नाराज हो जायेंगे।’
बाबू को याद आया कि बहुत से क्षेत्रों में भादों मास की इसी एकादशी को करमा- एकादशी के नाम से मनाया जाता है। दिन-रात उपवास रखा जाता है। रात में झूर(खस के पौधे)की पूजा होती है। सुनते हैं कि इस दिन भगवान बिष्णु झूर के जड़ में ही वास करते हैं। इस दिन व्रत रखकर, झूर की पूजा करने वालों को अक्षय लक्ष्मी की प्राप्ति के साथ-साथ सारी मनोकामनायें पूरी होती है। कुछ लोग, जिनसे भूख सहन नहीं होती, रात में पूजा करने के बाद फलाहार वगैरह ले लेते हैं। अगली सुबह उस पूजित झूर को आदर पूर्वक उठा कर पास के जलाशय में प्रवाहित करते हैं, और पुनः घर आकर दही-भात और करमी(जल में उगने वाली एक लता)का साग खाते हैँ। इस पारणा में नमक का व्यवहार भी वर्जित है। मान्यता है कि ऐसा नहीं करने वाले का करम पूरे साल भर के लिए सो जाता है- यानी भाग्य साथ नहीं देता। अब भला अपने भाग्य को सुलाना कौन चाहेगा? इस दिन एक और नियम का पालन सख्ती से किया जाता है- कोई भूल से भी नालियों में गरम पानी नहीं गिराता। किंवदन्ती है कि करमदेव नाली में ही छिपे रहते हैं।
बाबू सोचने लगा- इन सब धार्मिक कृत्यों का पता नहीं क्या महत्व है! समझ नहीं आता कौन सा विज्ञान छिपा है इसमें? है भी कुछ रहस्य या कि सामाजिक रुढ़ि और हठधर्मिता मात्र है?
खाना-पीना समाप्त होने पर, सब हाथ-मुंह धोकर चटपट तैयार होगये। चौपाल बुहार दिया गया। बचे हुए हंड़िये और पकवान वहीं एक ओर कोने में रख दिये गये। मतिया ने बाबू को बतलाया- ‘ अब तुरत ही नाच-गान शुरु होगा। उस समय भी लोग हंड़िया पीना, और कुछ लोग खाना भी पसन्द करते हैं, इसी लिए ये बचे हुए सामान यहीं रखे गये हैं। नशे का जोर कम न पड़े, और नाच का मजा किरकिरा ना हो इसीलिए ऐसा किया जाता है।’
बाबू ने देखा- खाना खाने के बाद गोरखुआ, बिना कुछ कहे, एक ओर दौड़ता हुआ चला गया। उसे जाता देख बाबू ने मतिया से पूछा- ‘क्यों गोरखुभाई कहां भाग गया, उसे नाचना नहीं है क्या?’
बाबू के सवाल का जवाब बगल में खड़ी मंगरिया ने दिया- ‘वही तो हमलोग का मेठ है बाबू! वही नहीं नाचेगा तो....।’
बीच में ही बात काटती मतिया ने चुटकी ली- ‘देखना ना बाबू! तुरंत आयेगा वह। जानते नहीं तुम, गोरखुआ नहीं नाचेगा तो हमारी मंगरिया बेचारी रोने लगेगी, हो सकता है, गांव छोड़कर इस रात में ही भाग भी जाये..।’
ये लोग इधर बात कर ही रहे थे, कि उधर मंडप में भीड़ फिर जमने लगी, जो थोड़ी देर पहले तितर-वितर हो गयी थी।
एक खोमचे में ढेर सारे जंगली फूल भी लाकर रख दिये गये। अब इन फूलों का क्या होगा?- बाबू पूछ ही रहा था कि तभी एक विचित्र सा आदमी वहां आया- लम्बा-चौड़ा, काफी मोटा सा दबंग जवान, घुटने तक धोती, जिसे माड़ देकर खूब कड़ा किया गया था। कंधे पर से होता हुआ लम्बा सा गमछा नीचे तक लटक रहा था। पूरे वदन पर मुर्गे तथा अन्य चिड़ियों के रंगबिरंगे पंख से बना झूल सा चड़ा हुआ था, जो सुन्दरता के साथ भयंकरता में भी बढ़ोत्तरी कर रहा था। झूल इस कदर वदन से मिला हुआ था मानों आदमी के शरीर में ही चिड़ियों के रंग-बिरंगे पंख उग आये हों। सिर पर भी उसी तरह के पंखों की टोपी पड़ी थी। कमर में खासकर पीले पंखों की पट्टी सी बंधी थी। उस वित्रित्र शक्ल के आते ही सभी एक साथ चिल्ला उठे- ‘सरदार आई गेलों...आई गेलों..।’
बाबू ने मंगरिया के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा- ‘ये कौन है राक्षस जैसा?’
‘पहचानों न बाबू। मैं क्या जानू कौन आ गया।’- मंगरिया ने अपना मुंह घुमाकर कहा, ताकि उसकी मुस्कुराहट को बाबू भांप न सके।
‘ये बेचारी क्या जाने किसी ऐरे-गैरे को? कोई अपना होता तब न? ’- मतिया के व्यंग्य पर मंगरिया तिलमिला सी गयी- ‘बहुत बनती हो। बात-बात पर अपना-अपना की रट्ट लगाने लगती हो। मैं क्या जबरन अपना रही हूँ इसे? लोग चाहते ही है तो...।’
‘देखे न बाबू ! चोर की दाढ़ी में तिनका...?’- मतिया हँस पड़ी। बाबू इन लोगों की पहेली बूझ न पाया।
बाबू को चुप देख मतिया फिर बोली- ‘क्यों बाबू ! अब भी न समझे? ये वही है, जिस पर रात-दिन मरती है मंगरिया।’
‘जरा शरम भी कर। लोग क्या कहेंगे? ’-मुंह बिचका कर मंगरिया ने कहा।
दोनों बहिनापाओं में मीठी झड़प होही रही थी कि वह विचित्र आसेब उछलता कूदता वहीं आपहुँचा।
‘चीन्हलौं तोंय मोंके?’- आते ही कहा उसने, तो बाबू को एकाएक हँसी छूट गयी, ‘नहीं, तुम्हें कौन पहचान पायेगा गोरखुभाई ! वाह ! आज तो तुमने ऐसा रुप बनाया है कि एकाएक पहुँच जाओ सामने, तो तुम्हारी मां भी शायद पहचान न पाये।अभी तुम्हारे ही बारे में मतिया और मंगरिया बहस रही थी।’
‘बहस रही थी, किस बात पर?’- गोरखुआ ने मंगरिया की ओर देख कर पूछा।
‘बहस की तो बात ही है।’- मतिया ने कहा- ‘ये गोरखुभाई ही हमारे गांव के नाज हैं। करमा हो या सोहराय, या कि सरहुल, गोरखुभाई न रहे तो सब फीका-फीका लगे, और ये जो बछरुआ सी भोली-भाली मुंह बनाये मंगरिया है न, सो मेरे भाई को ही चुराने की ताक में रहती है। पूछने पर देखे नहीं कैसी ढिठाई से बोल गयी कि मैं क्या जानूं इसे।’
मतिया की बात पर ठठाकर हँस पड़ा गोरखुआ, ‘ अच्छा तो ये बात है?’
‘तेरे इतने मोटे-तगड़े भाई को ये पिद्दी सी मंगरिया चुरा लेगयी, तब तो ठीक ही कहा होगा किसी ने कि सोने का ईँट तो चूहा खा गया....।’- बाबू ने कहा, तो हँसी का एक और पटाखा फूट पड़ा।