अधूरीपतिया / भाग 9 / कमलेश पुण्यार्क
मतिया ने कहा गोरखुआ की ओर अंगुली दिखाकर- ‘ये सब इन्हीं की किरपा है बाबू। शहरी बाबू लोगन कैसे बोलते हैं, कैसे खाते हैं, क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं- सब कुछ सिखलाया है मुझे गोरखु भाई ने, सिर्फ हमको ही नहीं मंगरिया को भी। ’
‘तभी तो मंगरिया ने मुट्टी में कर रखा है।’- बाबू ने चुटकी ली।
‘सो तो ठीक बाबू, परन्तु डर लग रहा है हमें, कि कहीं मतिया की मुट्टी में आप बन्द ना हो जाओ। ’- हँसते हुए गोरखुआ ने कहा।
मतिया शरमा कर सिर झुका ली।
खाना खाकर दोनों जन बाहर आये। कई लोग वहां बैठे इन्तजार कर रहे थे। जब से बाबू आ गये हैं, गांव में अजीब सी रौनक आगयी है। हर कोई चाहता है, काम-धाम से फुरसत पाकर घड़ी-दो घड़ी बाबू के पास बैठकर, गपशप कर जी बहलाना, कुछ नयी बात सीखना, जानना।
पहले लोग भेरखु दादू के चौपाल में खाली समय में बैठकर गप्पें मारा करते थे। अब चार दिनों से कजुरी का ढाबा ही आबाद हो रहा है। सबकी इच्छा है कि बाबू यहीं रस-वस जाय।
उधर दो दिन बाबू बीमार ही रहे। कल का दिन-रात परब में ही गुजर गया। आज ही सबको मौका मिला है, जमकर गप-शप करने का। सबके मन में इच्छा बनी है, बाबू के बारे में जानने की। अनजाने में तरह-तरह के अटकल लगाये जा रहे हैं। कोई कहता- बाबू बहुत अमीर है...देखा नहीं अंगुलियों में कितनी अंगूठियां हैं चमचमाती हुई...गले में चमचम करती जंजीर भी है...कोट-पतलून है...बाबू बहुत पढ़ा-लिखा है...बीबी-बच्चे घर पर होंगे... इधर कहीं काम-वाम करते होंगे...कोई कहता- जंगल का मालिक है, कोई कहता- शिकार करने आये होंगे...मतिया फंसा लायी...नहीं चुटीले हो गये...लाचार होकर इधर आना पड़ा... जितने मुंह उतनी बातें। क्यों कि अभी तक लोग पूरी तरह जान भी नहीं पाये हैं कि कहां के रहने वाले हैं, क्या करते हैं, घर परिवार, रोजी-रोजगार कैसा क्या है? बाबू ने अपनी ओर से कोई खास जानकारी अभी तक दी नहीं किसी को। अब आज अटकलों का दौर खतम होगा। हथेली पर तमाखू मलते हुए गोरखुआ ने कहा, ‘तब बात तय रही न बाबू गान्ही बाबा से मिलवाओगे न? ’
‘ क्यों नहीं गोरखुभाई! जरुर मिलवाऊँगा। लेकिन हमारा विचार है कि तुम पहले शादी कर लेते, फिर मंगरिया को भी साथ लिए चलते। उसे भी चेलिन बनाना गांधी जी का, क्यों कि उनके साथ औरतें भी बहुत रहती हैं।’-मुस्कुराते हुए बाबू ने कहा।
‘ठीक कहते हो बाबू, इन दोनों को ले जाओ अपने साथ।’- सोहनुकाका ने बाबू की हां में हां मिलायी।
‘सो तो ठीक है बाबू। मैं भी चलूंगा, मंगरिया भी चलेगी, किन्तु उससे पहले एक बात कहना चाहता हूँ। मानोगे न बाबू? ’
‘कहो, क्या कहते हो? मानने लायक होगी तो जरुर मानेंगे। ’- बाबू ने जवाब दिया।
‘हम सबकी राय है कि तुम यहीं बस जाओ बाबू। घरनी-परिवार को भी यहीं ले आओ। गान्ही बाबा के नाम का डंका बजाओ, जल्दी से सुराज लाओ। मौज मनाओ साथ मिलकर। ’-तमाखू ठोंकते हुए गोरखुआ ने पूछा, ‘तुम भी लोगे बाबू? ’
‘मैं नहीं खाता खैनी। तुम ही खाओ।’- सिर हिलाकर बाबू ने खैनी लेने से इन्कार किया। गोरखुआ ने ताली ठोंकी, और सोहनु काका की ओर हाथ बढ़ा दिया। फिर अपने थुथने में खैनी सहेजकर वोला, ‘तब मंजूर है न बाबू मेरी...हमलोगों की बात? ’
‘आकर बस जाने की बात तो और है, पर कहते हो घरनी लाकर बसने को, तो किसकी घरनी को ले आऊँ गोरखुभाई?’- बाबू मुस्कुराये।
‘क्या घरनी-वरनी नहीं है बाबू? अभी शादी-वादी नहीं हुयी है क्या?’- सोहनु के बगल में बैठे भिरखु काका ने पूछा।
‘पहले घर, फिर न घरनी...मेरा तो...। ’-बाबू की बात पूरी भी न हुयी, कि उससे पहले ही उत्साहित होकर गोरखुआ बोल उठा- ‘तब तो और भी बढ़िया बात है बाबू, यहीं पर घर भी बनाओ, और घर भी बसाओ। घरनी बना लो। है कोई पसन्द? करोगे शादी? बोलो बाबू।’
भिरखू काका ने कहा- ‘इधर की छोरी पसन्द पड़ेगी बाबू को?’
‘कहो न बाबू अपनी पसन्द।’- डोरमा बीच में ही टपक पड़ा।
‘अब तो व्याह करना ही पड़ेगा। बिना शादी किये, हमलोग छोड़ने वाले थोड़े जो हैं।’- खाट के पाये पर मुक्का मारकर गोरखुआ ने कहा।
‘अच्छा ही हुआ, बाबू बिन व्याहा है। मैं तो कहूँगा, यदि पसन्द हो तो मतिया से ही शादी करले।’- भेरखुदादू ने कहा तो चौंक उठे बाबू। गांव के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति के मुंह से ये बात निकली है- इस बात पर गौर करने लगे।
‘ठीक कहा दादू ने, ठीक कहा- बाबू के लिए मतिया सबसे अच्छी रहेगी।’-एक साथ सभी लोग कह उठे। सबकी इच्छा देख बाबू आवाक रह गये। भीतर ढाबे में बैठी मतिया उठकर एक ओर चल दी। बाबू की आँखें उसकी पीठ पर चिपकी सी रही।
‘कल देख रहे थे न दादू ! बाबू और मतिया की जोड़ी कितनी अच्छी लग रही थी।’- होरिया ने कहा, जिस पर सबने हामी भरी।
हँसता हुआ गोरखुआ बोला, ‘ वैसे कहें तो मंगरिया को ही इनके गले में लटका दूँ मान्दर की तरह- बजाते रहेंगे।’
‘ऐसी भी क्या बात है, बाबू को इतना ‘अपसवारथी’ समझते हो?’- भीड़ में पीछे से किसी ने चुटकी ली।
‘मतिया क्या कम खूबसूरत है?’-डोरमा बोला- ‘अच्छा ही होगा, गोरखु से मंगरिया, और बाबू से मतिया की शादी हो जाए, इसी सोहराय के बाद, क्यों दादू?’
‘बात तो बिलकुल ठीक है। कजुरी से भी राय कर ली जाय।’-दादू ने खों-खों करते हुए गला साफकर, खैनी थूकते हुए कहा।
‘किन्तु इससे पहले बाबू की राय तो साफ हो जाय, और फिर एक बार मतिया...।’-
सोहनुकाका कह ही रहे थे, कि बीच में ही बोल पड़ा गोरखुआ- ‘पूछने को तो पूछ लो मतिया से भी, पर क्या उसकी आँख फूटी है, जो बाबू जैसा आदमी पाकर भी ना-नुकूर करेगी ? मैं तो कहता हूँ- भाग चमक जायेगा मतिया का, और हमारे गांव का भी।’
लोगों की बातें खाट पर बैठे बाबू, सिर झुकाये, मुस्कुराते हुए सुन रहे थे। उधर झोपड़ी के भीतर बैठी मतिया भी सुन ही रही थी, और सुन-सुन कर खुद ही शरम से लाल हुयी जा रही थी।
‘और परिवार के बाकी लोग- मां-बाप, रोजी-रोजगार क्या है बाबू का?’- सोहनु काका ने फिर से सवाल किया।
‘सब है, सब है काका- रोजी-रोजगार, घर-परिवार, मां-बाप सबकुछ...पर यहां से बहुत दूर...।’
‘अच्छा है बाबू, अब यहां से शादी करके ही जाओ। हां, पहले मां-बाप से एकबार भेट कर आओ। बहु को दिखादो।’- गोरखुआ ने कहा, जिसपर औरों ने भी सिर हिलाया- हामी भरी।
इसी तरह बहुत देर तक और भी बातें होती रही। आज सबको जी भर कर बातें करने का मौका मिला। मतिया के पसन्द-नापसन्द की बात बाबू से पूछी गयी, पर अपनी कुछ भी साफ राय बाबू ने न दी। हां, बाबू के बारे में काफी कुछ पता चल गया लोगों को। अन्त में यह कहकर दादू ने बात खतम की, ‘हड़बड़ी क्या है, असथिर से बाबू सोच विचार कर कहेंगे। और लोगन की भी राय समझ-बूझ लेंगे बाबू । मन हो तो एकबार घर जाकर मां-बाप से भी बूझ आवें...।’ और इस तरह रात की ये बैठकी पूरी हुई।
काफी रात गये, सभी अपने-अपने घर गये। बाबू की खाट बाहर से उठाकर, भीतर ढाबे में कर दी गयी। बाबू पड़ रहे उसी पर।
कुछ देर बाद चादर लिए मतिया ढाबे में आयी। बाबू चुपचाप पड़े हुए थे। बाहर
चाँदनी छिटकी हुयी थी, क्यों कि इन्जोरा बारहवीं का चाँद था, और आसमान बिलकुल साफ। मतिया सिरहाने चादर रखकर भीतर जाने को मुड़ी, तभी बाबू ने पूछा, ‘कहाँ थी अब तक ? ’
‘यहीं तो थी, भीतर में पड़ी हुयी। तबियत कुछ भारी-भारी सी है।’- धीरे से कहा उसने।
‘ठीक है। जाओ, सो रहो। मुझे भी नींद आरही है।’- कहने को तो बाबू ने कह दिया, पर समझ रहे थे कि मतिया की तबियत को क्या हुआ है आज। बात भी सही ही है। मन भारी लगना लाजिमी है। भोली-भाली मतिया के दिल में गांव के लोगों ने आज भारी तूफान खड़ा कर दिया है। वह चाहती है- चुपचाप आँखें बन्द कर, पड़ी-पड़ी इस तूफान का सामना करना।
मतिया चली गयी। बाबू लम्बी तानकर पड़े रहे। किन्तु काफी देर तक, इधर ढाबे में बाबू और झोपड़ी में भीतर, मतिया दोनों ही उलझे रहे। दोनों के दिल-वो-दिमाग में अनजानी सी हलचल थी, जो कोशिश के बावजूद थम न रही थी। दोनों ही सोचे जा रहे थे अपने-अपने ढंग से। रात झनझनाती हुई गुजरती रही, यहाँ तक कि चाँद अपनी पसरी चादर समेटकर भागने की तैयारी में लग गया, तब जाकर दोनों को थोड़ी नींद आयी।
उस थोड़ी ही देर में, मतिया ने एक विचित्र सपना देखा- देखती क्या है कि वह खूब सजी-संवरी है...आज कई दिनों बाद अपनी भेड़ लेकर घने जंगल की ओर निकली है... जंगल में भयंकर तूफान उठा है...वह फंस गयी है...भेड़ को गोद में चिपकाये आगे बढ़ती रही है...एक गुफा मिली है...उसमें घुसने की कोशिश कर ही रही थी कि भीतर से गद्दावर शेर का एक जोड़ा दहाड़ उठा...वह भागने लगी..शेर ने पीछा किया...भागती रही मतिया... शेर खदेड़ता रहा..अचानक एक नीची डाल से सिर टकराया...गोद से छूटकर भेड़ दूर जा गिरी...लुढ़कती हुयी मतिया नीचे आगिरी...एक बरसाती नाले में उब-चुब होने लगी...तभी एक शहरी बाबू तैरता हुआ आया...कलाई पकड़ी...खींच कर बाहर निकाला...होश में लाया... उठा कर अपने घर ले चला...सारी बातें बतलायी...खुद को अनाथ कहा..शादी करने की जिद्द की...बात माननी पड़ी...शादी होगयी...मौज-मस्ती शुरु होगयी...एक रात दोनों सोये लिपट कर...एकाएक एक काली कलूटी भयंकर औरत आयी...बाबू का हाथ पकड़ कर खींचने लगी...खाट से नीचे पटक दी..हाथ में चमचमाती हुयी कटार थी...हाथ ऊपर उठा...चीखें-चिल्लाये, इससे पहले ही चमक कर कटार नीचे गिरी..पूरे वार से....बाबू की गरदन धड़ से अलग हो गयी...खून का फौव्वारा छूटा...चीख उठी जोरों से..बचाओ...बचाओ...।
नींद में गाफिल मतिया, सही में चीख उठी थी। बगल में सोयी नानी ने झकझोर कर जगाया उसे । गहरी नींद में सोये बाबू की भी नींद खुल गयी मतिया की चीख से। झपट कर वे भी भीतर आ गये झोंपड़ी में।
‘क्या हुआ मतिया क्या हुआ? कोई सपना देख रही थी क्या? ’
‘हाँ बाबू ! सपना ही देख रही थी। बहुत डर लगा। एकदम से चीख निकल गयी।’- उठकर बैठती हुयी मतिया बोली।
बाबू वहीं बैठते हुए बोले, ‘मुंह-हाथ धोकर सोओ, अभी तो बहुत रात है। चलूँ मैं भी थोड़ा सो लूँ।’-कहते पुनः बाहर आगये।
खाट पर पड़े तो रहे, किन्तु नींद उचट गयी थी। काफी देर तक टकटकी बंधी रही, यहाँ तक कि सबेरा होगया।
मतिया को भी नींद नहीं आयी। हालांकि अभी बाहर निकली न थी, पर, भीतर से आ रही भांडे-बरतन की आवाज से बाबू ने अनुमान लगाया कि वह कुछ काम में लगी है।
कुछ देर बाद मतिया बाहर आयी, तो बाबू को खाट पर न पाकर, सोची कि बाबू जल्दी ही जगकर झरने की ओर चला गया होगा। अतः वह भी अपने काम में लग गयी- झाड़ू-बुहारु करने लगी।
थोड़ी देर में बाबू भी आ गये। मतिया को काम में लगा देखकर पूछा-‘क्यों आज भी कुछ जल्दवाजी है क्या?’
‘जल्दी क्या है, यह तो रोज का काम है, रोज का ढंग है- सुबह-सुबह तैयार होकर, कुछ खा-पीकर जंगल की ओर निकल पड़ना। सारा दिन जंगल में मंगल करना। शाम तक घर वापस आना। आज कई दिन हो गये, बेचारी भेड़ को भी घुमा-फिरा न सकी। जब से आप आये हैं, उधर जा न पायी हूँ। आज जरुर जाऊँगी। ’-बाबू से बातें करती मतिया ढाबे में रखी खाट उठाकर बाहर रखती हुयी बोली-‘अच्छा आप बताओ कि इतनी जल्दी उठ कर कहाँ चले गये थे?’
‘यह तो मैं कहने ही वाला था कि रात में नींद ठीक से लगी नहीं। थोड़ी लगी भी तो तुम्हारी चीख से जो खुली सो खुली ही रह गयी, इसीलिए सुबह जल्दी उठकर चल दिया हवाखोरी को। उधर से ही मुंह-हाथ धो, निश्चिंत होकर चला आरहा हूँ।’- फिर जरा ठहर कर मतिया के चेहरे पर गौर से देखते हुए बाबू ने पूछा- ‘अच्छा यह तो बतलाओ कि रात भर में ही मैं इतना बदल कैसे गया?’
‘बदल गये ? सो कैसे?’- मतिया ने आश्चर्य से पूछा बाबू की ओर देखते हुए, जो अभी भी उसकी ओर ही देखे जा रहा था।
‘क्यों तुम्हें नहीं लग रहा है क्या ?’-बाबू गम्भीर बना, खड़ा ही रहा।
‘मुझे तो कुछ ऐसा नहीं लग रहा है।’-मतिया समझ न पा रही थी कि बाबू क्या कहना चाह रहा है।
‘तुम्हें भले न मालूम चल रहा हो, किन्तु मैं तो निश्चित तौर पर बदल चुका हूँ।’-बाबू मुस्कुराया- ‘कल रात सोने से पहले तक ‘तुम’ था, और सुबह नींद खुली तो अचानक ही ‘आप’ हो गया, यह क्या मामूली बदलाव है?’
कुछ पल तक चुप्पी साधे मतिया, बाबू का मुंह ताकती रही, मानों बात समझ ही न पा रही हो, फिर जोरों से हँसती हुयी बोली- ‘धत्तेरे की ! इत्ती सी बात के लिए इतने देर तक उलझाये रहे बाबू? सच पूछो तो मैं गलत कर रही थी- बड़ों को खास कर आप जैसे लोगों को ‘आप’ ही कहना चाहिए। किन्तु शरु में तुम निकल गया मुंह से और लत लग गयी।’
‘किन्तु एकाएक यह ज्ञान कल रात कैसे हो आया ? कुछ सपना देखी क्या ?’- बाबू मुस्कुराया, मतिया को देखकर। फिर जरा ठहरकर बोला, ‘अच्छा, अब समझा, रात वाली बात...।’
‘रात वाली बात...’- मतिया शरमा कर सिर झुका ली- ‘बड़े शोख हो गये हो बाबू। कौन सा पहाड़ टूट पड़ा, यदि मैंने आप को आप कह दिया?’
‘मगर मुझे यदि तुम कहलाना ही अच्छा लगता हो तब?’- सिर हिलाते हुए बाबू वोले।
‘अच्छा बाबा, तुम तुम ही रहो, आप न कहूँगी कभी।’
‘ठीक, अब आयी रास्ते पर।’
बात बदलती हुयी मतिया ने कहा - ‘ मुंह-हाथ धो ही चुके हो बाबू, तो कुछ जलखयी कर लो, फिर जंगल जाना है।’
‘तुम तो जंगल चली जाओगी, गांव के और लोग भी इधर-उधर अपने-अपने काम-धन्धे में लग जायेंगे, और मैं क्या यहाँ बैठे मक्खी मारुँगा?’
‘कौन कहता है मक्खी मारने को? जंगल जाकर तुम भी शेर मारो। शेर न मार सको तो गीदड़-हुंड़ार ही सही। वह भी न बने तो भेड़ चराओ। यहाँ काम की कोई कमी थोड़े जो है।’-हँसती हुयी मतिया ने कहा- ‘चलो जल्दी तैयार हो जाओ।’
‘वाह खूब कहा तुमने भी- शेर मारुँ, गीदड़ मारुँ, हुंड़ार मारुँ, भेड़ चराऊँ...अच्छा चलो जैसी तुम्हारी मर्जी।’- कहता हुआ बाबू खाट से उठ खड़ा हुआ।
जलपान करके, थोड़ी देर में तैयार हो गये दोनों- जंगल जाने के लिए। भीतर जाने पर भी कजुरी नानी नजर न आयी, सो बाबू ने पूछा- ‘क्यों नानी नजर नहीं आरही है, सुबह में भी दीखी नहीं।’
‘नानी को दो-चार सुबह तुम देख क्या लिए कि समझ गये नानी घर में ही रहती है।
सच पूछो तो नानी शायद ही कभी देखती है कि गुजरिया में सूरज किधर से उगता है, और डूबता किधर है।’- झोपड़ी की टाटी को बन्द करते हुए मतिया ने कहा।
‘ इसका मलतब कि वह हर रोज मुंह अन्धेरे ही निकल पड़ती है, और फिर अन्धेरा होने के बाद ही घर पहुँचती है? फिर खाती-पीती क्या है सारा दिन?’
‘अक्सर रात का बचा खाना ही खाकर या साथ लेकर निकल पड़ती है।’- कहती हुयी मतिया भेड़ की रस्सी खोल कर चल पड़ी। पीठ पर एक गठरी में नहाने के लिए कपड़े वगैरह और खाने का कुछ सामान रख ली थी। बाबू भी साथ हो लिया।
कुछ दूर चलने के बाद बाबू ने पूछा- ‘चलना किधर है कितनी दूर?’
‘अभी से दूरी पूछने लगे बाबू ! ज्यादा दूर चलने का मन नहीं है क्या ? कम से कम उस नाले तक तो जरुर ही जाऊँगी, जिसके पार से तुम्हें ले आयी थी।’
‘दूर की बात नहीं है, असल में वह सब जगह देखी हुयी है। उधर का लगभग पूरा जंगल घूम चुका हूँ। अच्छा होता किसी दूसरी ओर चलती।’
‘यही सही। कहीं किसी ओर तो चलना ही है। चलो आज इधर चला जाय।’- बायीं ओर हाथ का इशारा करती मतिया ने कहा।
कुछ देर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। बातचित के नाम पर सिर्फ इतना ही हुआ कि कोई अनजान पेड़-पौधा देखकर बाबू पूछ लेता, उसके बारे में, और मतिया कुछ कह समझा देती। बात दरअसल ये थी कि बाबू जंगल की हरीतिमा को अपनी आँखों में समेट लेना चाहता था, और मतिया इस सूनेपन से कुछ चुरा लेना चाहती थी- थोड़ा सा शान्त समय, ताकि कुछ सोच-विचार सके खुद के बारे में, क्यों कि रात भी जब तक जगी रही थी, यही करती रही थी।
घने जंगल में पहुँचने पर एक ढोंके से भेड़ की रस्सी दाबकर, चरने को छोड़, खुद बैठ
गयी एक और ढोके पर। पास ही दूसरे ढोंके पर बाबू भी बैठ गया। बात मतिया ने छेड़ी- ‘बुरा न मानों तो एक बात पूछूँ बाबू?’
‘पूछो, बुरा क्यों मानने लगा ?’- मतिया की आँखों में छिपी लालसा और जिज्ञासा को भांपने की कोशिश करता बाबू ने कहा।
‘तुम्हें अपने बारे में कुछ कहने-बतलाने में इतनी हिचक क्यों है बाबू?’
‘हिचक किस बात की? और क्यों ? बात कुछ रहे तब न बतलाऊँ। जो भी कुछ पूछा गया, बतला ही दिया।’- गम्भीर भाव से बाबू ने कहा- ‘कल ही मैंने कहा था, तुमने शायद सुना नहीं, रोजी-रोजगार, मां-बाप सब तो हैं- यहां से बहुत दूरी पर, एक बड़े से शहर में।’- हाथ का इशारा पश्चिम की ओर करते हुए बाबू ने कहा।
‘ सो तो सुनी ही थी, किन्तु इधर कैसे आगये? क्या किसी काम-वाम के सिलसिले में या कि...?’
‘काम क्या, कुछ नहीं। यूँ ही समझो, घूमते-घामते चला आया। शिकार का शौक रखता हूँ, और शिकार तो जंगलों में ही हो सकता है न, शहर बाजार में हो नहीं सकता।’- बगल में झुकी एक डाल की टहनी तोड़ते हुए बाबू न कहा।
‘किन्तु इतनी दूर, वह भी बिलकुल अकेले, शिकार के लिए तो कोई आता नहीं।’- मतिया ने बात पकड़ी, क्यों कि बाबू की बात से कुछ छिपाने की बूं आरही थी।
‘बात तो सही कह रही हो, कि कोई अकेले आता नहीं इतनी दूर, पर कभी-कभी ऐसा होता है कि आना पडता है।’- तोड़ी गयी टहनी को हाथ में नचाते हुए बाबू ने कहा।
‘आना पड़ता है, क्या मतलब? किस कारण आना पड़ गया ? क्या मेरे जानने लायक है ?’ ‘क्यों आया, कैसे आया....।’- मुस्कुराता हुआ बाबू मतिया की ओर टहनी फेंक कर कहा- ‘ अरे आया इधर, तभी तो पहले तूफान में फंसा और फिर तुम्हारी चंगुल में...।’
‘छोड़ो भी बाबू ! बेकार की बातें बनाते हो। तुम क्या फंसोगे किसीके चंगुल में! ’- मुंह बिचका कर मतिया ने कहा, और अपनी जांघ पर गिरी, बाबू की फेंकी हुयी टहनी उठाकर, फिर उन्हीं की ओर फेंक दी। इस बार टहनी जाकर बाबू के पांव पर गिरी, जिसे बाबू ने उठाना जरुरी नहीं समझा।
‘अच्छा, ये तो बताओ कि रात में तुम इतना डरी क्यों? सपने में क्या देख रही थी?’- बाबू ने बात बदलते हुए पूछा। सपने की बात याद आकर मतिया के गालों को पल भरके लिए लाल कर गया। उसके सुर्ख हो आये गालों को देखता रहा बाबू, कुछ देर तक। मतिया एकाएक उदास सी हो गयी।
अपनी बात का जवाब न पाकर बाबू ने फिर टोका- ‘क्यों बतलायी नहीं कि क्या देख रही थी ?’
‘देखा तो सपना ही, मगर क्या कहूँ बड़ा ही अजीब- बिलकुल सच जैसा और बहुत ही डरावना, जिसे याद करके अभी भी रोंगटे खड़े हो जा रहे हैं।’
बाबू ने देखा कि सही में मतिया के वदन के सभी रोयें खड़े हो गये थे, मानों काफी ठंढ लग रही हो। धीरे-धीरे मतिया सपने की पूरी बात बतला गयी बाबू को। सुनकर बाबू पहले तो हँसा, ‘वाह! खूब रहा तुम्हारा सपना...।’ किन्तु फिर गम्भीर होकर सोचने लगा।
‘क्यों बाबू क्या सोचने लगे? सपना सच में भयानक था न?’- मतिया ने बाबू को चुप्पी साधे देख कर पूछा।
‘डरावना तो था ही, किन्तु अब उसे याद करके डरने की क्या जरुरत है?’-बाबू ने मतिया को समझाया।
‘ डरने की बात तो नहीं है, पर सोचने वाली बात जरुर है बाबू।’-सिर झुकाये मतिया बोली।
‘सोचने वाली बात? ’-बाबू ने आश्चर्य किया।
‘गोरखुआ कहता है कि सपने आने वाली या गुजरी हुयी बातों की जानकारी देते हैं। उसीने कहा था कि महाभारत नाम की कोई बहुत बड़ी सी किताब है, जिसमें सपने की बहुत सी बातें लिखी होती हैं। एक बहुत बड़े राज्य की रानी ने अपने खानदान के नाश की बातें सालों पहले ही देख-जान ली थी सपने में ही। ’- मतिया ने कहा, तो बाबू मुस्कुरा दिये। सोचा- लगता है कि लड़की के दिमाग में बात बिलकुल घर कर गयी है। अतः जरा ठहर कर बोला- ‘ सोने से पहले तुम क्या सोच रही थी? असल में कभी-कभी ऐसा हुआ करता है कि सोने के पहले जो बात आदमी के दिमाग में घूमती रहती है, उसी से सम्बन्धित बातें ही सपने में भी दिखायी देती है। वास्तव में यह एक मानसिक घटना है।’- बाबू ने कहा मतिया की ओर देखते हुए। अपनी ओर बाबू को गौर से देखता पा, मतिया लजाकर सिर झुका ली। कुछ जवाब नहीं दी बाबू की बातों का।
इसी तरह की बातें हँसी-चुहल काफी देर तक चलती रहीं- मतिया और बाबू के बीच। यहाँ तक कि दोपहर हो आयी। मतिया ने कहा- ‘ अब तो भूख लग रही है।’
‘भूख तो मुझे भी लग रही है। इसी लिए तुम्हारी गठरी पर ही नजर है मेरी।’- सामने रखी गठरी की ओर देखते हुए बाबू ने कहा- ‘ऐसा करो कि अब चट-पट नहा लिया जाय, फिर खाया-पीया जायेगा।’- फिर इधर-उधर देखकर बाबू ने पूछा- ‘मगर नहाओगी कहाँ? इधर नजदीक में कहीं...?’
‘यहाँ क्या पानी की कमी है। चलो, उधर चलते हैं।’-सामने की ओर इशारा करती मतिया बोली, ‘वहाँ बहुत बढ़िया एक झरना है- बहुत सुन्दर। उसे ही दिखलाने के लिए तो इधर ले आयी हूँ तुम्हें। वैसे वहीं पर एक चुआँड़ भी है, दाडी भी पास में ही है। पता नहीं एक ही जगह तीन-तीन चीजें ऊपर वाले ने क्या सोच कर बना दिया है।’- मतिया ने कहा।
‘तुम क्या आयी, तुम तो नाले की ओर जा रही थी। मेरे कहने पर इधर का रास्ता बदली।’-उठ खड़े होते हुए बाबू ने कहा।
‘मैंने कहा या तुमने, बात तो एक ही हुयी न। आ तो गये हम उसी जगह जहाँ आना था।’- ढोंके से दबी भेड़ की रस्सी को बाहर निकाल कर, बाबू की ओर बढ़ाते हुए, मतिया ने कहा -‘पकड़ो तो जरा इसे।’- बाबू को रस्सी पकड़ा, खुद गठरी उठा चल पड़ी झरने की ओर। बाबू भी साथ हो लिया।
झरना बिलकुल करीब था, क्यों कि दस-बीस कदम आगे जाते ही झरने का कलकल सुनायी पड़ने लगा।
बाबू के हाथ से भेड़ की रस्सी पकड़ कर मतिया पानी में उतर पड़ी- ‘पहले इसे नहला दूँ।’
‘वो गान्हीबाबा वाला साबुन नहीं लगाओगी क्या इसे?’- पानी में उतरते हुए बाबू ने पूछा। मतिया कुछ जवाब न देकर, सिर्फ मुस्कुरा भर दी।
भेंड़ को नहलाने के बाद काफी देरतक, दोनों नहाते रहे, धुंए की तरह उड़ते झरने के फुहार का मजा लूटते रहे दोनों। तैराकी भी खूब हुयी। लौटती दफा मतिया शायद थक गयी थी, क्यों कि तैरने में बहुत पीछे हो गयी। बाबू अपनी धुन में आगे बढ़ता ही गया, तभी उसे अचानक चीख सुनाई पड़ी। चीख सुनकर पीछे पलटा तो सिर्फ ऊपर उठा हाथ दीखा। घबराकर जल्दी-जल्दी हाथ-पैर मारते उसके पास पहुँचा- हांफते हुए। किसी तरह खींच कर मतिया को अपनी पीठ पर लादा। तैरते हुए किनारे आया। मतिया थोड़ी बेसुध थी। उसे पेट के बल लिटाकर बाबू ने छाती और पेट पर दबाल डाला। बाबू के थोड़े ही प्रयास से उसने आँखें खोल दी। सांस लेने में कठिनाई हो रही थी।
‘जंगल और झरने की बेटी आज धोखा कैसे खागयी ?’- मतिया के जरा शान्त होने पर बाबू ने पूछा।
‘पता नहीं कैसे हो गया आज धोखा। कितनी बार नहा चुकी हूँ इस झरने में । कोई खतरनाक भांवर भी नहीं है इसमें। तैरने के ख्याल से उस झरने से कहीं ज्यादा मुफीद है यह झरना।’- लम्बी सांस खींचती हुयी बोली- ‘कमर में लिपटा आँचल खुल गया था। एकाएक लगा कि आंचल पूरी ताकत से खिंचा जा रहा है, और उसके साथ ही मैं भी बहे जा रही हूँ बेसहारा होकर। वो तो कहो कि ऐन मौके पर चीख निकल गयी, जिसे सुन कर तुम वहाँ पहुँच गये.नहीं तो आज डूब ही गयी होती। ’
‘चलो यह भी एक बात हुयी- सपना कुछ तो कटा। तुम डूबी, मैंने निकाला, परन्तु...’ - थोड़ा ठहरकर बाबू ने कहा- ‘आगे क्या हुआ था सपने में? क्या कहा था उस बाबू ने घर चलने को ? घर जाने पर क्या हुआ था...ऐँ...ऐँ शादी...शादी हो गयी थी न उसी बाबू से...फिर तो खूब मजा आया होगा ! ’
‘धत्त बाबू तुम तो मजाक बना रहे हो मेरे सपने का। मेरी जान पर आ बनी है, और तुम्हें दिल्लगी सूझ रही है।’- मुंह बिचका कर मतिया ने कहा।