अनहद नाद / भाग-12 / प्रताप सहगल
शिवा को जब घर की हालत का पता चला तो कहीं दूर तक उसका अहम् तुष्ट हुआ। उसके अस्तित्व को स्वीकृति मिली थी। उसकी पहचान बनी थी। उसकी ज़रूरत को घर में इतनी शिद्दत के साथ महसूस किया गया था। वह दुखी नहीं हुआ। मन ही मन खुश हुआ।
“चलो, चलें।” इस बार मनोहर ने शिवा का बाजू पकड़कर कहा।
“तुम चलो, हम आते हैं।” भूषण ने कहा तो मनोहर बोला-”ज़रा भी और बोला तो यहीं पीटूँगा। खुद तो नकारा है ही, दूसरों को भी बना रहा है। चलो।” दरअसल भूषण घई को मिलकर सारी बात बता देना चाहता था। वह तो उनकी इंतज़ार ही करता रहेगा। इधर मनोहर ने उनकी एक नहीं सुनी और भूषण से कहा-”तूने जहाँ जाना है, जा, इसे मैं ले जा रहा हूँ।”
भूषण कुछ नहीं कर पाया।
मनोहर ने शिवा को एक स्कूटर में बिठाया और सीधा कर्मपुरा पहुँचा।
जगतनारायण अपने भाई विजयनारायण के साथ शिवा का फोटो लेकर जाने को तैयार था कि अब थाने में खबर देने के साथ-साथ अखबार में भी छपवा दें।
मनोहर के साथ उन्होंने शिवा को भी देखा। जगतनारायण का चेहरा तमतमा आया। वह कुछ नहीं बोला और सीधा कमरे में जाकर एक चारपाई पर लेट गया।
माँ निकली। निचुड़ी-सी। उसने शिवा को अपने साथ ही चिपका लिया। उसे खूब प्यार किया, चूमा। इतना प्यार शिवा ने इससे पहले कभी भी महसूस नहीं किया था। छोटे भाई-बहन हतप्रभ-से थे।
मनोहर की आँखें नम हो आई। वह कब लौट गया, किसी को पता भी न चला।
घर से बाहर दो दिन के अनुभव ने शिवा को यकायक कुछ बड़ा कर दिया। उसने भूख, प्यास, ठंड को करीब से देखा था। अपनी अँतड़ियों और हड्डियों में महसूस किया था। उसने अपने अस्तित्व और अस्तित्वहीनता को एक साथ अनुभव किया था। परायापन, अकेलापन जैसे उसने दो ही दिनों में सब जी लिया था। दोस्त का प्रपंच देखा, अपनत्व भी।
दो ही दिन में शिवा में एक अजीब परिवर्तन आया। वह मुड़कर अपने बचपन को टटोलने लगा। उसे सत्तू, नट्टू, लोटा और बल्लू याद आए। सत्तू को तो उसने बहुत याद किया। कहाँ होगा वह? वहीं रोहतक में। आठवीं क्लास में ही। वह दिल्ली आने के बाद कभी रोहतक नहीं गया था। अब उसका मन हो रहा था कि वह उन्हीं रेतीले मैदानों में जाकर खुम्भी तोड़े, सिंघाड़े चुराए, गुल्ली-डंडा और कंचे खेले, पीपल के नीचे बैठे, खँडहरों में जाए, मंदिर से पैसे चुराए और झज्जर रोड पर घूमे, सत्तू को जाकर मिले।
शिवा बार-बार अपने अतीत में लौटता, जो बहुत छोटा, पर उसके लिए बड़ा महत्वपूर्ण था। उसी अतीत में उसने मूलशंकर बनकर कुछ करने के संकल्प लिए थे, पर अब...वह भी घर से भागा। किसलिए? सत्य की खोज के लिए नहीं, ईश्वर की खोज के लिए भी नहीं, इसलिए भागा कि घर की बंदिशों से, पिता की डाँट-फटकार से तंग आ चुका था। तंग आ गया था आती हुई ज़िम्मेदारियों से। इन सबसे वह मुक्ति पाना चाहता था। वह भगोड़ा बना। पलायनवादी। मनु की तरह, नहीं, शायद वह भी नहीं।
शिवा को जो हासिल हुआ, वह था उसके अस्तित्व का बोध। इससे उसे संतोष हुआ, साथ ही वह अंदर-अंदर इतना बिखर गया था कि अपने ही अस्तित्व के सूत्रों को समेट नहीं पा रहा था। भूषण और शिवा में दोस्ती पहले से भी गहरा गई। दोनों ने दीपू से दोस्ती तोड़ ली। भूषण तो दीपू को पीट-पीटकर सबक सिखाना चाहता था, पर शिवा मार-पीट का विरोधी हो गया था। वह भूषण को और भी किसी लड़के को मारने से अब रोकता। उनकी निरीहता में कहीं वह अपनी शक्ल देखने लगता था।
पढ़ने से भी उसका मन उचट गया। वह स्कूल जाता ज़रूर, क्लास में भी बैठा रहता। पढ़ने में उसका मन नहीं लगता था। उसे पंत का ध्यान आया, वह भी तो स्कूल से भागकर कवि हो गए और प्रसाद तो पढ़े ही आठवीं जमात तक। वह भी यह झंझट छोड़कर कोई बड़ा काम करेगा। एक बड़ा कवि, एक बड़ा लेखक बनेगा।
कभी वह एक बड़ा समाज-सुधारक बनना चाहता था, कभी बड़ा राजनेता-नेहरू जैसा, राजेंद्रप्रसाद जैसा। गांधी के प्रति उसके मन में कोई मोह नहीं था। पता नहीं क्यों?
लेखक तो वह हो ही सकता है। उसकी कहानी भी छप चुकी थी। पढ़ने का रोग तो उसे दीपू ने ही लगा दिया था। दीपू अब भी वैसे ही सस्ते किस्म के उपन्यास पढ़़ता, पर शिवा के पढ़ने की ट्रैक बदल गई थी।
कई बार स्कूल से भागकर जब भूषण और शिवा भट्ठों में मिलते तो शिवा वहाँ भी कोई किताब साथ रखता। पढ़ने की कोशिश करता। भूषण को सिगरेट फूँकने और ताश खेलने का ही बेहद शौक था या फिर राह चलती किसी लड़की पर कोई फब्ती कसने का। शिवा को यह पसंद नहीं था। ऐसा नहीं कि उसे लड़की अच्छी नहीं लगती। वह लड़की के करीब भी आना चाहता था, पर राह चलती किसी लड़की पर कोई फब्ती कसना या उसे हाथ मार देना उसे अच्छा नहीं लगता था।
शिवा के घर लौटने के बाद जगतनारायण और शिवा के बीच दूरी और भी बढ़ गई। उधर रामस्वरूप के साथ भी जगतनारायण के संबंधों में पहले से भी ज़्यादा तनाव आ गया था।
जगतनारायण को एक दिन जब फिर पता चला कि शिवा स्कूल जाकर भी नहीं जाता तो वह परेशान हो गया। उसने शिवा को भूषण और दीपू से मिलने की सख्त मनाही की थी, ऐसा हुआ नहीं। जगतनारायण को पड़ोसी रामसिंह ने यह सलाह दी थी-”लौंडे को वहाँ से निकालकर दूसरे स्कूल में डाल दो।” बीच साल में ऐसा करना मुमकिन नहीं हुआ। हाँ, उसने प्रिंसिपल को ज़रूर कहा था कि शिवा पर नज़र रखें और जो भी शिकायत हो, उस तक पहुँचाएँ।
स्कूल में एक हज़ार से भी ऊपर बच्चे। किस-किस पर नज़र रखे प्रिंसिपल! फिर भी उसने शिवा को समझाने की कोशिश की। उसने कहा था-”लड़का बुरा नहीं है, भटक गया है।” पर जगतनारायण के पास इतना धैर्य नहीं था। उसका शिवा पर से विश्वास ही उठ गया था! पर करता भी क्या! जगतनारायण को कोई समझाता तो वह जवाब देता-”अब वो बच्चा तो नहीं कि उसके पाँव बाँध लूँ।”
रामसिंह ने भी एक दिन ऐसी ही बात कही थी, “रायज़ादा, जितना रोकोगे, उतना ही उधर भागेगा। जैसे-तैसे आठवीं पास कर लेने दो उसे, फिर किसी काम में डाल देना।”
एक दिन शिवा ने यह घोषित ही कर दिया कि वह अब नहीं पढ़ेगा।
सबने कारण जानने की कोशिश की। कहीं भी कोई सिरा हाथ नहीं लगा।
शिवा को पढ़ने से ही अरुचि हो गई थी। स्कूल के नाम से वह चिढ़ने लगा था। वह पढ़ना चाहता था। इम्तिहान के लिए नहीं, स्कूल के लिए नहीं। उसने स्कूल की किताबें पूरी तरह से पढ़ी भी नहीं थीं और इम्तिहान पास ही आ गए थे।
कहीं उसके मन में फेल होने का डर था और यही डर शायद उसे पढ़ाई से दूर कर रहा था।
जगतनारायण जब हार गया तो उसने आर्य समाज के प्रधान महाशय सदानंद और रामसिंह के साथ बात की-”लड़का हाथ से जा रहा है, कुछ करो।”
दोनों ने मिलकर शिवा से बात की। बड़े धीरज और प्यार के साथ। उसकी शिकायतें सुनीं। शिवा एक शर्त पर आठवीं का इम्तिहान देने को तैयार हो गया कि उस दिन के बाद उस पर पिता या प्रिंसिपल की नज़र नहीं रहेगी। उसे बार-बार पढ़ने के लिए कोई चेतावनी नहीं दी जाएगी। न पूछा जाएगा कि वह कहाँ जाता है और कहाँ नहीं।
महाशय सदानंद को यह समझते ज़रा भी देर नहीं लगी कि संकट विश्वास का है। इस संकट से जुड़े खतरों से भी वे नावाकिफ नहीं थे। उन्होंने शिवा की यह शर्त मान ली और जगतनारायण को भी सारी बात समझा दी।
सचमुच इस विश्वास का परिणाम अच्छा निकला। दो महीने की कोशिश से ही शिवा न केवल पास हुआ, उसने अच्छे अंक भी प्राप्त किए। अपने रिपोर्ट कार्ड को देखकर शिवा का खोया हुआ आत्मविश्वास लौटा। दो महीने में जब वह इतना कर सकता है, साल-भर पढ़े तो...उसने सोचा।
शिवा का स्कूल बदल दिया गया। उसे कर्मपुरा के पास ही मोती नगर के सरकारी स्कूल में दाखिल करवा दिया गया। दाखिले के वक्त दिक्कत हुई। आदमी की बदनामी उससे पहले ही वहाँ पहुँच जाती है, जहाँ वह पहुँचना चाहता है। मोती नगर स्कूल के प्रिंसिपल ने रिपोर्ट देखकर कहा-”अंक तो अच्छे हैं, पर तुम वही शिवा हो, जो भूषण के साथ रहता है?”
जगतनारायण सकपका गया, बोला-”हाँ, वह भी इसी की क्लास में था।”
“वहीं रखिए इसे, यहाँ दाखिला नहीं होगा।”
शिवा खड़ा हुआ सब सुन रहा था। वह अब पढ़ना चाहता था तो बीच में रोड़े अटकाए जा रहे हैं।
“बच्चा है, ग़लती कर बैठा है, यहाँ अच्छा काम करेगा।”
“देखिए जगतनारायण जी, मुझे स्कूल चलाना है, कोई अड्डा नहीं। इसकी सारी बातें मुझे मालूम है।”
शिवा को गुस्सा आया कि वह पूछे, क्या मालूम है आपको? मालूम है कि हमारे मन में क्या है? कितनी मुश्किलों में जीते हैं हम? मालूम है कि बाहर दुनिया क्या है? मालूम है कि सिद्धांत और व्यवहार में कितना फर्क होता है? पर वह खामोश खड़ा रहा।
“देखिए प्रिंसिपल साहब, इस बच्चे को दाखिला तो अपको करना ही पड़ेगा।” पूरी दृढ़ता से कहा जगतनारायण ने। इतनी दृढ़ता उसमें कहाँ से आ गई, यह तो उसे भी मालूम नहीं था। इसका असर प्रिंसिपल पर अच्छा ही हुआ।
“बच्चा यहीं पास रहता है। यही स्कूल सबसे नज़दीक है। यहाँ नहीं पढ़ेगा तो जाएगा कहाँ। वहाँ तो मैं इसे एक दिन भी नहीं रखना चाहता।”
“ठीक है, दाखिला दे देता हूँ, पर तिमाही इम्तिहान में नम्बर अच्छे नहीं आए तो सर्टिफिकेट काट दूँगा।” कहकर प्रिंसिपल ने दस्तखत कर दिए थे। शिवा को बड़ा अजीब लगा। न पढ़ना चाहो तो मुश्किल, पढ़ना चाहो तो भी मुश्किल।
अनुभव जब आदमी को वक्त से पहले बड़ा कर देता है तो उसकी दुनिया तेज़ी से आगे की ओर सरकने लगती है। शिवा को अब अपनी उम्र के लड़के ही बचकाने और बेवकूफ लगते थे। वह रहता तो उनके साथ था, पर उसका आकर्षण हमेशा बड़ों की ओर ही रहता। संभवतः वह जल्दी से जल्दी दुनिया के सारे अनुभवों को सहेज लेना चाहता था। कर्मपुरा में एक मज़दूर कल्याण केन्द्र भी था। उसी में छोटी-सी लायब्रेरी थी। संगीत, खेल आदि की गतिविधियाँ भी बराबर होती थीं। वहीं शिवा की मुलाकात केन्द्र के निदेशक हांडा से हुई। हांडा युवा था। वह शिवा की ओर तेज़ी से आकर्षित हुआ और उनकी मुलाकात जल्दी ही अच्छी-खासी जान-पहचान में बदल गई। वहीं चावला, भाटिया और मल्होत्रा भी आते थे। उनकी चौकड़ी जमती। इन सबमें छोटा था शिवा, पर बातों से वह कहीं भी इनसे अनुभवहीन या ज्ञानहीन नहीं ठहरता। कहीं-कहीं तो शिवा की जानकारी उन चारों पर भारी पड़ जाती थी।
रोज़ शाम को उनकी महफिल केन्द्र में ही जमने लगी। शिवा को इनकी सोहबत इतनी पसंद आई कि वह धीरे-धीरे भूषी और दीपू को भूलने लगा। भूला नहीं तो नज़रअंदाज़ ज़रूर करने लगा। वैसे भी थोड़ा फासला बढ़ जाने के कारण उनका रोज़ का मिलना बंद हो गया था। शिवा को भी हांडा से इतनी प्रशंसा मिलती कि वह वक्त मिलते ही वहीं पहुँचता। थोड़ा प्रयास करके उन्होंने कल्याण केन्द्र में छोटा-मोटा सांस्कृतिक कार्यक्रम कर डाला। यहीं उसकी मुलाकात सुमन से हुई। बाद में शिवा को पता चला कि वह तो उनसे आगे वाले ब्लाक में ही रहती थी। सुमन की उम्र मुश्किल से बारह-तेरह वर्ष ही थी। शरीर में अंग फूटने लगे थे। रंग साफ और चेहरे पर हलकी-सी ललाई थी। शिवा के गाने की सुमन ने तारीफ की थी। शिवा को बड़ा अच्छा लगा। अगली सुबह शिवा अपने दरवाज़े के बाहर खड़ा देखता रहा कि सुमन स्कूल जाने के लिए घर से कब निकलती है। सुमन निकली तो उसने भी गर्दन घुमाकर शिवा के घर की ओर देखा। शिवा पर उसकी नज़र पड़ी तो शिवा ने हाथ हवा में हिला दिया, सुमन ने भी और एक गली में मुड़ गई।
शिवा थोड़ी देर असमंजस की स्थिति में खड़ा रहा कि वह उसके पीछे जाए कि नहीं। पाँव उठे, रुके, फिर उठे, और अंततः इस कशमकश को झेलता वापस क्वार्टर में चला गया। शिवा के अंदर फुलझड़ी छूटी, कुछ रंग-बिरंगे कण आँखों में तैर गए। तभी उसे स्वामी दयानंद का ब्रह्मचर्य याद आया और विवेकानंद का अध्यात्म। उसने कागज़-कलम लिया और कुछ लिखने लगा। लिखने में उसका मन लग ही नहीं रहा था। सोचा, सुमन को प्रेम-पत्र लिखे, पर क्या लिखे? तभी उसे उस प्रेम-पत्र की याद आई जो उसने दीपू के लिए एक लड़की को लिखा था, क्या वैसा ही? नहीं। तो क्या लाल-रेखा जैसा...कैसा?...नहीं, क्यों लिखे...वह प्रेम के चक्कर में फँसे ही क्यों? उसे तो पढ़ना है...कुछ बनना है...उसके हाथों में फैली तरलता उसे और कुछ करने ही नहीं दे रही थी। वह लेटा, उठा, बैठा...अंदर से अस्तव्यस्त शिवा ऊपर से भरसक व्यवस्थित दिखने की कोशिश करता रहा। सोचा, किसी से सलाह ले ले। भूषी के पास चला जाए या दीपू के...या फिर शाम को हांडा से बात करे...या फिर अपने नए दोस्त हरीश से, जो साथ तो रहता ही था, स्कूल में भी उसी की कक्षा में पढ़ता था। दरअसल रमेश नगर से आने के बाद इस स्कूल में उसे हरीश ही अपने बहुत नज़दीक लगा था। भले ही वह पढ़़ने-लिखने में तेज़ नहीं था, ना ही बातचीत करने में चुस्त, पर शान्त और सौम्य था। सिंसियरिटी का भाव जगाता था। शिवा से कुछ भी नहीं हुआ। उसने किताबों में रमने की कोशिश की, नाकाम रहा। तभी माँ ने नाश्ता लेने को कहा। वह हाँ-हूँ करके खा गया। क्या खाया, उसे यह भी ठीक से ध्यान नहीं रहा।
शिवा का स्कूल दोपहर को शुरू होता था। सुमन का सुबह। दोनों के स्कूलों की दिशाएँ भी अलग-अलग थीं। तो? शिवा ने बड़ी मुश्किल से बारह बजाय और स्कूल जाने की तैयारी करने लगा।
माँ ने पूछ लिया-”वक्त हो गया?”
“हाँ।” शिवा ने कहा।
“अभी तो आधी छुट्टी का सायरन बजा नहीं।” शकुन्तला समय का अनुमान पास ही स्वतंत्र भारत मिल्स में नियत समय पर बजने वाले सायरन से ही लगाती थी।
“जाना है।”
“हरीश भी नहीं आया?” माँ ने पूछा।
“बुला लूँगा,” कहता हुआ शिवा घर से बाहर निकल आया। अगली ही गली से वह विपरीत दिशा में चल दिया।
थोड़ी दूर चलने के बाद लड़कियों के झुंड दिखाई दिए। उसकी आँखें सुमन को खोजने लगीं। अंतिम झुंड में सुमन थी। वह ठीक उसके सामने पड़ा। सुमन उसे अचानक वहाँ देखकर अचकचाई और आँखों से शरारत और होंठों पर हलकी-सी मुस्कान बिखेरती हुई आगे निकल गई। शिवा भौचक खड़ा रहा। उसे लगा, उसके पाँवों में किसी ने कील ठोक दिए हैं। वह हिल नहीं सकता। बस, देखता रहा। देर तक। जब तक सुमन गली में मुड़ नहीं गई।
स्कूल में शिवा की बदनामी ज़रूर आ पहुँची थी, पर अपने बातचीत के अंदाज़ और पढ़ाई में तेज़ होने के कारण उसने अपनी जगह जल्दी ही बना ली। मास्टर लोग भी उसे पसंद करने लगे थे। उन्हीं दिनों राजनीतिशास्त्र पढ़ाने वाले नए शिक्षक जिलेसिंह आए थे। ठेठ जाट। पढ़ाने का अंदाज़ भी वैसा। कक्षा में घुसते ही हाथ झाड़कर मेज़ पर बैठ जाते और बिना किताब की मदद के पढ़ाते। धारा-प्रवाह बोलते। शिवा पर इसका बड़ा असर पड़ा। बिना किसी किताब की मदद के आधा घंटे लगातार बोलना और बोलना भी ऐसा कि सब समझें और मुग्ध हों। उन्होंने एक दिन सभी छात्रों का परिचय लिया। शिवा की बारी आई। वह तपाक से बोला-‘रायज़ादा शिवा साहनी आर्य’। शिवा ने हाल ही में अपने नाम के साथ ‘आर्य’ लगाना भी शुरू कर दिया था। जिलेसिंह क्षणभर रुके, फिर पूछा-”शिवा, बाकी तो ठीक है, रायज़ादा का मतलब जानते हो?”
शिवा की समझ में नहीं आया कि मास्टर जी ऐसा क्यों पूछ रहे हैं। उसके लिए तो रायज़ादा होना गौरव की बात थी। सो उसने तपाक से जवाब दिया-”हाँ मास्साब। यह हमारी उपाधि है।”
जिलेसिंह के स्वर में हलका-सा रोष भर गया-”यह उपाधि अंग्रेज़ों की दी हुई है। ग़ुलामी की निशानी है यह।”
इसके बाद जिलेसिंह ने सारी कक्षा को बड़े प्यार से समझाया कि यह उपाधियाँ क्यों और कैसे मिलती थीं।
शिवा को सचमुच अपनी इस नासमझी पर शर्म आने लगी। उसने पिता को भी कोसा कि वे आज तक इसे क्यों ढोए जा रहे हैं। पीरियड खत्म होते ही शिवा ने अपनी सभी कापियों और किताबों पर अपने नाम के आगे लिखा हुआ रायज़ादा ऐसा काटा कि उसके जीवन में उसके नाम के साथ फिर यह शब्द कभी नहीं दिखा। हाँ, जब उसने यही बात अपने पिता को समझाने की कोशिश की तो सारे तर्कों के बावजूद वे रायज़ादा से सामान्य आदमी बनने के लिए तैयार नहीं हुए।
शिवा शाम को घर लौटा। देखा तो सुमन अपने घर के बाहर ही अपनी सहेली से बात कर ही थी। शाम घिर चुकी थी। हलका-सा अँधेरा फैलने लगा था। सुमन की गोद में छोटा-सा बच्चा था। शिवा ने जल्दी से बस्ता अंदर फेंका और तेज़ कदमों से सुमन तक पहुँच गया।
“किसका बच्चा है?” शिवा ने सुमन से पूछा।
“सुशीला मौसी का।” सुमन ने अपने होंठों पर आई हँसी को मुश्किल से दबाते हुए जवाब दिया।
शिवा को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि वह अब क्या बात करे। साथ उसकी सहेली भी खड़ी थी। सोचा, वापस चलूँ, पर कदम पीछे नहीं मुड़े। उसने एक नज़र उसकी सहेली पर डाली। फिर अपने आसपास। कुछ नहीं सूझा तो बच्चे की तरफ हाथ बढ़ाते हुए कहा-”आ जा।”
बच्चा लपका। ज्योंही शिवा ने बच्चे को अपनी ओर खींचा, उसे सुमन के उरोज का हलका स्पर्श हुआ। सुमन सकुचा-सी गई और शिवा रोमांचित हो उठा। साथ खड़ी सहेली ने भी देखा और बोली-”चलती हूँ सुमन!” बिना किसी जवाब का इंतज़ार किए वह चली गई।
शिवा की शाम प्रायः कल्याण केन्द्र में ही कटती। वहीं उसकी मुलाकात संगीत मास्टर जौली से हुई और वह संगीत सीखने लगा। हारमोनियम पर सुर लगाता...सा रे गा मा पा धा नि सा। शुरू-शुरू में मन्द्र और तार सुर में भेद करना उसके लिए मुश्किल हो जाता, पर बाद में उसने सुर साध लिया। यहीं उसकी मुलाकात देवेंद्र आर्य से हुई। वह पूरी कॉलोनी में आर्य नाम से ही जाना जाता था, इसलिए शिवा को उसके प्रति विशिष्ट आकर्षण हुआ। उसने पहली ही मुलाकात में उसके सामने वही प्रश्न रखे, जिनसे वह जूझ रहा था और जिनका जवाब उसे आर्य समाज भी नहीं दे पाया था। देवेंद्र आर्य ने कोशिश की। शिवा की जिज्ञासा शान्त नहीं हुई। बातचीत की जगह तर्क और तर्क की जगह कुतर्क होने लगा। देवेंद्र आर्य को लगा जैसे इस बित्ते-भर के लौंडे ने उसे परास्त कर दिया है। उसे यह बातचीत शास्त्रार्थ जैसी लगी। शिवा ईश्वर का कर्ता कौन वाले प्रश्न को लेकर अड़ा रहा। उनकी इस बहस के श्रोता हांडा, चावला, भाटिया और मल्होत्रा भी थे। देवेंद्र आर्य जब उसके इस तथा कुछ दूसरे सवालों का भी जवाब नहीं दे पाया तो खुद को अपमानित महसूस करता हुआ वहाँ से यह कहकर चला गया-”तुम बहस, सिर्फ बहस के लिए करते हो।” शिवा सोचता रहा-‘तो क्या, बहस कभी सिर्फ बहस के लिए भी की जाती है, उससे भी आदमी कुछ सीखता ही है।’
इस घटना से उस दिन के बाद देवेंद्र आर्य शिवा से कटने लगा। शिवा जहाँ भी मिलता, नमस्कार ज़रूर कारता। देवेंद्र आर्य को लगता कि वह नमस्कार करके उसे चिढ़ा रहा है। हांडा, चावला, भाटिया और मल्होत्रा मज़ा लेते। उन्हें भी शिवा के तर्क अच्छे तो नहीं लगते थे, पर वे उन्हें काट भी नहीं पाते और अपनी बात कहकर चुप हो जाते। इन चारों में चावला सबसे तेज़ था। वह स्वतंत्र भारत मिल्स में ही सुपरवाइज़र था। जब भी ईश्वर और भक्ति की बात उठती, वह सारी बहस को मोड़कर मज़दूरों और मालिकों के रिश्तों की ओर ले जाता कि कैसे मज़दूरों के सिर पर बड़ी मिलें चलती हैं और मालिक लोग मज़दूरों का कैसे और कितना शोषण करते हैं। मालिकों की आलोचना के साथ-साथ वह उनके पिट्ठुओं की भी घोर निंदा करता। शिवा के लिए ये बातें नई थीं। वह भी था तो मज़दूर का ही बेटा, पर उसने इन सवालों पर कभी सोचा नहीं था। ना ही उसके पिता ने कभी इस तरह की कोई बहस छेड़ी थी। हाँ, जब जगतनारायण ने मज़दूर यूनियन की सदस्यता ली थी, तो उसने हलका-सा संकेत भर ज़रूर दिया था कि ‘अब देखता हूँ रामस्वरूप कैसे उसका शोषण करता है।’ उस दिन उसने यह भी कहा था कि ‘जो जैसा करेगा वैसा भरेगा’ जैसी बात भी गड़बड़ लगती है। शिवा ने सुन लिया था, कोई बहस नहीं की थी। अब जब चावला ने भी वैसी ही बातों को सामने रखा कि कैसे एक मज़दूर का हाथ कटने पर उसे कितना कम मुआवज़ा मिला, बोनस देने के नाम पर मालिकों की नानी मरती है, मिल की कैन्टीन इतनी गंदी है कि कुत्ते भी वहाँ कुछ न खाएँ, कैसे मज़दूरों की छटनी कर दी जाती है और कैसे उन्हें सालों-साल कच्चा रखा जाता है। तो शिवा सोचने लगा, असली समस्याएँ तो यह हैं, ना कि यह कि ईश्वर है कि नहीं है। है तो उसका कर्ता कौन है? इन सवालों का जवाब मिल भी जाए तो क्या होगा? क्या मज़दूर का कटा हाथ उसे वापस मिल जाएगा? क्या उसे मुआवज़ा ज़्यादा मिलेगा? क्या उसका बोनस बढ़ जाएगा? चावला ने ही उसे बताया था कि ये सरमायेदार ईश्वर को भी व्यापार की तरह इस्तेमाल करते हैं।
शिवा ने पूछा-”कैसे?”
“देखो, अभी जन्माष्टमी आएगी। यहाँ बड़ी सुंदर झाँकियाँ लगेंगी। हज़ारों की भीड़ भी जुटेगी। लोग प्रसन्न होंगे कि लाला ने कितनी सुंदर झाँकियाँ लगवाई हैं और गद्गद भाव से कृष्ण के साथ लाला की भी जय बोलेंगे, पर कोई पूछे कि यह पैसा आता कहाँ से है? पैसा तो हमारी ही जेबों से निकलता है ना! और लाला! जयकारा भी लगवाता है, इन्कम टैक्स से छूट भी लेता है। यह बड़े-बड़े बिड़ला मंदिर ईश्वर-भक्ति के नहीं, मज़दूरों के शोषण की मिसालें हैं।”
शिवा ने ऐसी बातें पहली बार सुनी थीं। उसे एहसास हुआ कि कोई है जो कुछ अलग हटकर सोचता है, कहता है। उसकी चावला से गहरी छनने लगी थी। भाटिया भले ही कम पढ़ा-लिखा था, पर नाचता बहुत अच्छा था। शिवा ने उससे नाचना सीख लिया। उससे भी उसकी अच्छी दोस्ती हो गई थी। मल्होत्रा को कोकाकोला पीने और रोशन दी कुल्फी खाने का शौक था। दो-चार दिन बाद वे सभी करौलबाग जाते, यह बात शिवा को मालूम थी, पर वे शिवा को कभी भी अपने साथ नहीं ले गए, इसलिए शिवा ने एक दिन पूछ ही लिया-”रोशन कौन है?”
चारों मुस्कराए। इस मुस्कराहट में भेद था। बाद में चावला ने भी बताया कि “वहाँ ना ही जाओ तो ठीक है। वहाँ हम थोड़ी मस्ती करते हैं। मेरी और मल्होत्रा की तो शादी हो चुकी है, भाटिया और हांडा तो अभी कुँआरे हैं। तो...तो...” बस, यहीं वह चुप हो गया था।
शिवा समझ गया कि ये सभी वहाँ लड़कियाँ ताड़ने जाते हैं या छेड़ने। इस बात से उसे नफरत थी। फिर उसने कभी यह प्रसंग छेड़ा भी नहीं। वह उनके साथ वहीं कहीं घूमकर चाट खा लेता और कोकाकोला पीता। उसको कभी भी पैसे नहीं देने पड़े। देता भी कहाँ से! भले ही वह अब दसवीं क्लास में था, पर घर से पैसे अब भी उतने ही मिलते थे, जितने कि आठवीं क्लास में।
वे चारों शिवा को पसंद करते थे और उसके पैसे वही देता जो औरों के भी देता। हांडा केन्द्र में शिवा को वह हर सुविधा देता, जो दे सकता था। एक दिन वह केन्द्र में घुसा तो उसे हांडा के कमरे में देवेंद्र आर्य बैठा दिखा। शिवा ओट में खड़ा हो गया। देवेंद्र आर्य कह रहा था-”हांडा, तुम उसे बिगाड़ रहे हो।”