अनहद नाद / भाग-11 / प्रताप सहगल
भूषण ने कहा था-”अरे यह तब जब मुसीबत आन पड़े, पर समझ तो लो न!”
“नहीं समझना।” शिवा ने विरोध किया।
“साले डरपोक! देख दीपू, चार पैसे तो तेरे पास हैं, मान लो कहीं परेशानी होती है तो मैं अकेले जेब साफ कर नहीं सकता न! कुछ कोड हैं, सो जान लो।”
कोड जानने की उत्सुकता शिवा को भी हुई।
पूछा-”क्या हैं?”
“देख, जेब तो मैं ही साफ करूँगा, तुम दोनों छप्पर तो दोगे।”
उन दोनों की समझ में कुछ नहीं आया।
भूषण ने समझाना शुरू किया-”जेब अकेले ही साफ नहीं होती। पहले तो हम शिकार देखते हैं। अधेड़ हो, काणा हो, ढीला-ढाला हो। फिर देखते हैं उसकी जेब, फिर देखते हैं मौका। बस या गाड़ी में चढ़ते या उतरते हुए जेब बड़ी आसानी से साफ होती है। चलती बस में भी काम आसान होता है, पर छप्पर तो फिर भी चाहिए।”
दोनों ने पूछा-”छप्पर?”
“हाँ, छप्पर यानी ओला। शिकार को एक या दो आदमी ऐसे घेर लेते हैं कि जेब साफ करते हुए किसी तीसरे आदमी की नज़र न पड़ सके। जेब साफ करने वाला माल सीधा दूसरे साथी को दे देता है, ताकि पकड़े जाने की हालत में उसके पास कुछ भी बरामद न हो, समझे...!” भूषण उन दोनों को जेब काटने का प्रशिक्षण दे रहा था, “पहला मौका मिलते ही हम ग़ायब हो जाते हैं। हाँ, एक-दूसरे से जानकारी भी कोड में ही होती है। जैसे ‘गज़ मिला या बाँस’, पैसे कम होंगे तो बोलूँगा ग़ज, सौ से ज़्यादा तो बाँस। आसपास कोई भी जान नहीं पाता और काम हो जाता है।”
शिवा और दीपू के लिए यह तथा दूसरी अनेक नई जानकारियाँ भूषण ने जुटाई। उन्होंने सुन तो लिया, समझ भी लिया, घबराने भी लगे। भूषण के चेहरे पर ज़रा भी घबराहट नहीं थी। उसे डर था तो यह कि जिस इलाके में वह जेब साफ करने की सोचेगा, वह इलाका किसका होगा।
शाम को तीनों नई दिल्ली स्टेशन पहुँचे। बंबई की गाड़ी छूट चुकी थी। घबराए। अब क्या होगा? उस दिन बंबई के लिए और कोई गाड़ी भी नहीं। रात को स्टेशन पर ही ठहरें तो पकड़े जाने की संभावना थी। शिवा ने मन में सोचा, अब तक तो उसकी खोज शुरू हो चुकी होगी। माँ ज़रूर रो रही होगी। पिता जी भी दुखी होंगे और छोटे भाई-बहन...उसने धक्का मारकर ज़हन में आते इन खयालात को दूर किया और बंबई के बारे में सोचने लगा।
बंबई से आने वाली गाड़ी आई। फ्रंटियर मेल। उसे तो अमृतसर जाना था। अब वे क्या करें! तीनों ने सोचा, इसी से चलते हैं। अमृतसर। कल यही गाड़ी अमृतसर से बंबई के लिए लौटेगी तो वे इसी से बंबई चले जाएँगे। एक अजीब-सा पागलपन सवार था उन तीनों पर। दीपू से पैसे लेकर भूषण अमृतसर के तीन टिकट ले आया। लौटा तो उसके पास गज़ भी था। किसी की जेब वह साफ कर लाया था। शिवा और दीपू हैरान थे।
बजाय पश्चिम के वे उत्तर की ओर चल दिए।
गाड़ी शहर दर शहर छोड़ती हुई भागी जा रही थी। आधी रात बीत चुकी थी। शिवा की आँखों में नींद नहीं। मैला-कुचैला धारीदार पाजामा और ऊपर वैसा ही कुर्ता। किसी वार्ड का कैदी लग रहा था। डर के मारे उन्होंने दिल्ली स्टेशन पर कुछ खाया नहीं। शिवा की भूख-प्यास जैसे सूख गई थी। ऐसा क्यों हो गया, यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था।
सुबह गाड़ी अमृतसर जा लगी। बाहर निकले। ठंड बहुत थी। उनके शरीर पर कोई गरम कपड़ा न होने के बावजूद उन्हें ठंड महसूस नहीं हो रही थी।
तीनों के लिए एक अजनबी शहर। हाँ, जब शिवा छोटा था तो एक बार अमृतसर आया था अपने मामा से मिलने। उसे कुछ भी याद नहीं कि वह कहाँ ठहरा था और उसने क्या देखा। स्वर्ण मंदिर की उसे हलकी-सी याद ज़रूर है। पानी में तैराता हुआ, सोने से मढ़ा एक गुरुद्वारा। बस।
तीनों में मशविरा शुरू हुआ-”क्या करें?”
“जेब-सफाई का धंधा तू नहीं करेगा।” शिवा ने भूषण से कहा।
दीपू ने उसका समर्थन किया तो भूषण अकेला पड़ गया। बोला-”फिर?”
“कोई काम करेंगे।”
“क्या काम?”
“कुछ भी।” शिवा ने कहा, पर नहीं जानता था, वह क्या कर सकता था। तभी उसकी नज़र सामने मूँगफली बेचते एक व्यक्ति पर पड़ी तो उसने कहा-”मूँगफली बेचेंगे।”
“धत्! यह भी कोई काम है! सिनेमा चलते हैं। तीन हैं, टिकट लो, ब्लैक तो हो जाएँगी।” भूषण का सुझाव था।
दीपू की जेब में पैसे थे। इसलिए वह खामोश बना रहा। जैसे-जैसे धूप चढ़ती गई, उन्हें भूख लगती गई। तीनों ने लस्सी का एक-एक गिलास पिया और शिवा के सुझाव के मुताबिक पाँच किलो मूँगफली खरीद ली गईं। तराज़ू पास नहीं था। मिला भी नहीं। बेचें तो बेचें कैसे?
तीनों दोस्तों ने बड़ी बहस के बाद फैसला किया, दो-तीन अमृतसर में ही रुकेंगे, फिर बंबई जाएँगे। दोपहर को सिनेमाघर भी गए। हाउस फुल। अगले शो के लिए टिकट ब्लैक करने का मौका भी गया।
मूँगफली की पोटली शिवा के कंधे पर थी, पर वे बहुत कोशिश करने के बाद भी उसे बेच नहीं सके। हारकर खुद ही खाना शुरू कर दिया। दोपहर का लंगर ‘स्वर्ण मंदिर’ में मिल गया, पर रात रहेंगे कहाँ? उन्हें कुछ भी समझ नहीं आ रहा था।
शाम ढलते-ढलते दीपू ने कहा-”मैं वापस जाऊँगा।”
उसे शायद घर के सुख और बाहर की दुनिया के बीच फासले का एहसास सबसे पहले हो गया था।
“नहीं ओए नहीं, बंबई चलना है।” भूषण ने यह बात इतने विश्वास और दबदबे से कही थी कि दीपू डर-सा गया। उसे लगा कि यह तो किसी का कत्ल भी कर सकता है। वह एक ओर हुआ तो उसने शिवा से पूछा-”तू क्या कहता है?” तब तक शिवा मूँगफली खा-खाकर परेशान हो चुका था। इतनी खा गया कि उसे उबकाई आने लगी थी। उसने कह दिया-”ठीक है, चलते हैं, पर भूषी मानेगा?”
“यहाँ से चलो, आगे देखा जाएगा।”
भूषण आया तो दीपू ने कहा-”चल, फ्रंटियर से ही वापस चलते हैं।”
“हाँ।”
“पर मेरे पास बंबई तक जाने के लिए तीन टिकटों के पैसे नहीं हैं।” कुछ पैसे खाने-पीने और कुछ मूँगफली खरीदने में ज़रूर खर्च हो गए थे। बाकी दीपू ने झूठ बोल दिया था। भूषण ने तुरंत कहा-”छप्पर दो और देखो मेरे हाथ की सफाई।”
इस बात से दोनों डरते थे। शिवा ने युक्ति लगाई-”पता नहीं किसका इलाका है, पकड़े गए तो बचेंगे नहीं।”
यह नैतिकता भूषण की समझ में भी तुरंत आ गई।
इलाका, शिकार, शिकार को बेचना। माल बाँटने वगैरह में जेबकतरों की अपनी एक नैतिकता होती है और वे उसका पालन एक धार्मिक व्यक्ति की तरह ही करते हैं। भूषण ने शिवा की इस बात का कोई प्रतिरोध नहीं किया और दाँतों से नाखून काटने लगा।
हर तरह से विचार करके तीनों ने लौटने का फैसला कर लिया। साथ ही यह भी तय कर लिया कि जो भी हो, वे घर वापस नहीं जाएँगे और अब कुछ बनकर दिखाएँगे। खासकर शिवा को कुछ बनकर दिखाने वाली बात अच्छी लगी।
रात की गाड़ी से दिल्ली लौटना था। तीनों प्लेटफॉर्म पर निरुद्देश्य घूम रहे थे। दीपू ने अचानक कहा-”तुम यहीं रुको, मैं टिकट लेकर आता हूँ।” प्लेटफॉर्म से बाहर निकलकर वह सीधा एक ढाबे पर गया। वहाँ उसने भरपेट खाना खाया। फिर दिल्ली की एक टिकट लेकर छुपता-छुपाता एक डिब्बे में जाकर चुपचाप बैठ गया। डरा-सहमा। कोई पक्का इरादा लेकर।
इधर शिवा और भूषण इंतज़ार कर-करके तंग आ गए। भूषण को समझते देर नहीं लगी और कहा-”धोखा दे गया मादर...।”
अब वे दोनों क्या करें? भूषण की जेब में दस-दस के दो नोट थे, जो उसने आती बार दिल्ली स्टेशन पर किसी की जेब साफ करके हासिल किए थे और शिवा के पास एक अदद अठन्नी थी। शिवा ने कहा-”बिना टिकट चलते हैं। देखा जाएगा। पकड़े गए तो पंद्रह दिन की कैद है। खाना तो मिलेगा ही, चिंता क्या!” और दोनों सीटी देती गाड़ी पर सवार हो गए। उसी गाड़ी में दीपू भी था। किसी दूसरे डिब्बे में।
शिवा को लग रहा था, वे ज़रूर पकड़े जाएँगे। जेल की कल्पना से ही उसे कँपकँपी आ जाती, पर क्या करते!
गाड़ी में भीड़ इतनी थी कि बस जो जहाँ फँस गया, वहीं का होके रह गया। टिकट चैकर के आने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। टिकट चैकर का खयाल आते ही शिवा को अपने फूफा की याद आई। वे भी टिकट कलैक्टर थे। उसकी सौतेली बुआ फूलवती के पति। वे तो उसे पहचानते भी हैं। चलते भी इसी लाइन पर हैं। कहीं टकरा गए तो?
भूख के मारे शिवा की अँतड़ियों में बल से पड़ने लगे थे। मूँगफली को देख उसे उबकाई आती। ऐसे में उसने बची-खुची मूँगफली आसपास बैठे मुसाफिरों को खिला दीं। खुद भूखा ही बैठा रहा।
दीपू के ग़ायब होने पर भूषण उससे बड़ा खफा था। उसने शिवा से कहा भी-”दिल्ली में तो मिलेगा, देख लूँगा साले को, धोखेबाज़।”
फिर वह चलती गाड़ी में ही एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे डिब्बे में फाँदता हुआ दीपू को ढूँढ़ लाया। दीपू ने उलटे तोहमत लगाई-”मैं तो तुम दोनों को ढूँढ़ता रहा, नहीं मिले तो अपनी टिकट लेकर बैठ गया।”
शिवा को पता था, वह सफेद झूठ बोल रहा है। उसे कुछ-कुछ अपनी ग़लती का एहसास भी होने लगा। पर अब वह क्या कर सकता है। सोच रहा था, ‘घर जाए तो कैसे?’
सुबह चार बजे गाड़ी दिल्ली के सब्ज़ी मंडी स्टेशन पर क्षण-भर के लिए रुकी। तीनों वहीं उतर गए, कि दिल्ली मेन पर कोई पकड़ न ले। उतरे भी प्लेटफॉर्म की विपरीत दिशा में। गाड़ी चली गई। वे भी रेलवे लाइन के साथ-साथ चलते हुए घूमकर प्लेटफॉर्म पर आ गए। दीपू के पास टिकट था, वह बाहर भी जा सकता था, पर शिवा और भूषण पकड़े जाते, सो तीनों एक बेंच पर बैठ गए।
प्लेटफॉर्म सुनसान था। वैसे भी छोटा स्टेशन होने के कारण वहाँ कम ही लोग गाड़ी से उतरते-चढ़ते थे। फिर सर्दियों के दिन। शिवा के शरीर पर कोई गरम कपड़ा नहीं था। ढलती रात में सर्दी वैसे भी बढ़ जाती है। सोचा, थोड़ी देर में टी.टी. गेट से हट जाएगा तो तीनों बाहर निकल जाएँगे। इसी बीच दीपू ने कहा-”मैं पेशाब करके आया।”
भूषण को समझते देर नहीं लगी। वह भी साथ हो लिया। पर किस दरवाज़े, किस गली से दीपू खिसक गया, इसका पता उसे भी न चला।
इधर बेंच पर बैठा हुआ अकेला शिवा। ठंड उसकी हड्डियों में घुसने लगी। देखा, सामने रज़ाई लेकर एक कुली सोया हुआ है। शिवा उठा और उसने बिना उससे पूछे अपने पाँव कुली की रज़ाई में डाल दिए। दो रात और दो दिन वह सोया नहीं था। दीपू तो ग़ायब हो गया और भूषण लौटकर बेंच पर बैठा-बैठा ही ऊँघने लगा।
धीरे-धीरे शिवा कुली की रज़ाई में साथ ही लेट गया। कुली ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। अजीब-सी हालत हो रही थी शिवा की। थकान के मारे शरीर टूट रहा था, पर नींद भी नहीं आ रही थी। उसने सोने की पूरी कोशिश की और उनींदी-सी हालत में लेटा रहा। रज़ाई की गरमाहट से उसे बड़ा सुख मिल रहा था।
थोड़ी ही देर में उसे अपनी जाँघों पर एक स्पर्श सा एहसास हुआ। कुली का हाथ जाँघों को धीरे-धीरे सहलाता हुआ उसके पाजामे के अंदर जा पहुँचा। शिवा चौकस हो गया, पर लेटा रहा।
ऐसा उसके साथ पहली बार नहीं हुआ था। उसे याद आया, जब वह नया-नया दिल्ली आया था। रामलीला के दिन थे। न गर्मी न सर्दी। रात को गुलाबी-सी ठंडक होती थी। वह भी रामलीला देखने गया था। नौ बजे के बाद ही शुरू होती थी रामलीला। वह भी भीड़ में अपने पाँवों पर शरीर का भार डालकर बैठा हुआ था। सीता-स्वयंवर का प्रसंग। राम धनुष उठाता है, तोड़ता है और सीता उसके गले में वरमाला डाल देती है। राम के रूप का वर्णन होता है। शिवा किसी भी ऐरे-ग़ैरे द्वारा राम का रूप धारण कर लेने को ठीक नहीं समझता था। ऐसा उसे पिता ने समझाया था और उसने खुद भी आर्य समाज में होने वाले प्रवचनों में यह बात सुनी थी। फिर भी दृश्य देखने का लोभ उसे था। मन के एक कोने की आवाज़ के खिलाफ वह रामलीला देखने चला जाता। पिता से डाँट भी खाता, पर कोई आकर्षण, कोई जादू था, जो उसे रामलीला के मंच के सामने लाकर बिठा देता।
शिवा ने उस रोज़ भी अपनी जाँघ पर एक सरसराहट महसूस की थी। उसे लगा कोई कीड़ा है। उसने हाथ से हटाने की कोशिश की तो उसे एक अंगुली का स्पर्श मिला। अंगुली हाथ में बदली। उसने दो-तीन बार हाथ हटाया। हाथ हटता, फिर थोड़ी देर बाद उसके नेकर के खुले हुए पहुँचे के अंदर तेरने लगता। शिवा को स्पर्श बुरा नहीं लगा, पर रामलीला देखने में यह व्यवधान उपस्थित कर रहा था। तीन-चार बार हटाने के बाद जब फिर हाथ आया तो उसने हिम्मत करके पीछे देखा। एक झुर्रीदार लटका हुआ चेहरा, तेल पिए मिट्टी से भरे हुए सिर के बाल, मैले-कुचैले कपड़े पहने एक बूढ़ा-सा व्यक्ति था। शिवा ने उसे पहले कभी देखा भी नहीं था। द्वंद्व में फँस गया था शिवा। शोर करे, उसे कुछ कहे, कहे तो क्या कहे, उठकर चल दे या फिर चलने दे उसका हाथ अपनी जाँघों पर।
सोच ही रहा था कि उसका हाथ थोड़ा और आगे बढ़ा और उसकी इन्द्री के साथ खेलने लगा। शिवा को अजीब किस्म की अनुभूति हो रही थी। ऐसा तो वह तब भी किया करता था, जब रोहतक में जंगल-पानी करने जाता और देर-देर तक अपनी तोती से खेलता रहता, पर दूसरे का हाथ था यह। उसे अच्छा लग रहा था, लेकिन कहीं कुछ कचोट भी रहा था।
“बोल सियावर रामचन्द्र की जय,” ज़ोर से लोगों ने कहा। शिवा एक झटके से उठा और भीड़ से बाहर आ गया। वह व्यक्ति भी पीछे-पीछे आया। पर शिवा यह भाग और वह भाग।
वैसी ही अनुभूति शिवा को आज फिर हो रही थी। पर अब वह बच्चा नहीं था। किशोर वय में होने वलो शारीरिक परिवर्तन उसमें हो चुके थे और वह अपने शरीर का अर्थ समझने लगा था। कुली का हाथ उसके पाजामे में खेल रहा था, पर वह सोना चाहता था। उसने उसका हाथ खींचकर बाहर कर दिया।
रज़ाई की गरमाहट वह नहीं छोड़ना चाहता था। कुली भी शायद यह बात समझाता था। वह मैली-कुचैली रज़ाई, जगह-जगह पैवन्द लगी रज़ाई भी इस समय कितनी महत्वपूर्ण थी। शिवा को घर की बड़ी याद आई। जो भी हो एक पूरी रज़ाई तो मिलती है घर में। साफ-सुथरी।
गाड़ी आती, रुकती या सीधी निकल जाती। दिन निकलने को था। कुली और शिवा के बीच रज़ाई के अंदर ही द्वंद्व होता रहा और अंततः शिवा को रज़ाई छोड़नी ही पड़ी।
देखा, भूषण बेंच पर ही सोया पड़ा है। बिना किसी कंबल या रज़ाई के। उसने फौरन भूषण को जगाया-”उठ, चलें।”
भूषण एकदम उठ बैठा-”बड़ी ठंड है यार! और वो माँ का यार दीपू भी भाग गया। इसकी तो माँ को न टिकाया तो मेरा नाम भूषी नहीं। साले चाय पीने तक को पैसे नहीं।”
“एक अठन्नी है मेरे पास।” शिवा ने कहा।
“अच्छा, वो भी खरच दी तो...तो...छप्पर देगा, बोल, गज़, बाँस कुछ तो मिलेगा। अभी कोई न कोई गाड़ी तो लगेगी।”
शिवा घबरा गया-”नहीं, नहीं चलते हैं।”
दोनों ही घर जाना चाहते थे, पर यह कह देने से उन्हें एक-दूसरे के सामने छोटा पड़ने का डर था, इसलिए कोई भी किसी से नहीं कह रहा था। शिवा कोई बहाना ढूँढ़ने लगा घर जाने का। पर डर भी था। घर में मार पड़ेगी और भूषण से दोस्ती खत्म होगी। अच्छा रहा दीपू जो चुपके से खिसक गया। पर उसे ऐसा करना तो नहीं चाहिए था। दोस्ती भी कोई चीज़ होती है। तरह-तरह की बातें शिवा के मन में उथल-पुथल पैदा कर रही थीं।
“चल...।” अचानक भूषण उठा। वे दोनों चुपके से स्टेशन से बाहर आ गए। सुबह-सुबह कुछ लोग सब्ज़ी मंडी जा रहे थे। वे दोनों आज़ाद मार्केट, पुल बंगश और सदर से घूमते-घूमते मोतिया खान पहुँच गए।
“देख, घई उस्ताद मिल गया तो हर मुश्किल आसान हो जाएगी।” भूषण ने बताया।
घई ने मोतिया खान में एक दुकान ले ली थी। ऊपरी तौर पर तो वह चाय की ही दुकान थी, पर चरस का धंधा वहाँ खूब चलता था। सदर थाना पास ही था, इससे घई को अपना धंधा चलाने में अधिक सुविधा थी। हफ्ता तो वह देता ही था, दो-एक पुलिसिए चरस का अपना कोटा भी वहाँ से मुफ्त ले लेते थे।
घई भूषण को तो अच्छी तरह पहचानता था। शिवा को भी उसने पहचान लिया। उन्हें इस हालत में देख घई को सारा माजरा समझते देर नहीं लगी। उसने फौरन बढ़िया-सी चाय बनाई और साथ ही बिस्कुट भी खिलाए। शिवा को लगा, जैसे सदियों बाद उसने चाय पी है। कुछ भूख शांत हुई। अँतड़ियों की ऐंठन कम हुई। घई को लगा, दो लौंडे हाथ लगे, काम आएँगे। पूछा-”क्या इरादा है?”
“घर तो नहीं जाएँगे, क्यों शिबू?” शिवा कहना तो चाहता था कि ‘नहीं, वह जल्दी से जल्दी घर जाना चाहता है,’ पर कहा उसे-”हाँ।”
घई के चेहरे पर चमक आ गई। उसने अपने विशिष्ट अंदाज़ में सिगरेट सुलगाई और लंबे-लंबे कश लेने लगा। काफी देर तक वे दोनों वहीं बैठे रहे। समझ में नहीं आ रहा था, क्या करें।
शिवा ने कहा-”चल, ज़रा घूमकर आते हैं।”
“हाँ, हाँ, जाओ, पास ही मंदिर है, हो आओ।” जवाब घई ने दिया और साथ ही दो रुपए का नोट भूषण को थमा दिया। दोनों चलने लगे तो पीछे से कहा-”जल्दी आ जाना, सिनेमा चलेंगे।”
शिवा की समझ में नहीं आया कि इस वक्त सिनेमा की बात का मतलब क्या है। घई ने अपनी तरफ से दाना डाला था।
दोनो पहाड़गंज की गलियों में चले गए। शिवा सोच रहा था कि यहीं उसके पिता, चाचा या कोई भी उसे देख ले और ज़बरदस्ती पकड़कर घर ले जाए तो कितना अच्छा हो। यह लानत तो नहीं आएगी, “भाग लिए घर से। बच्चू, घर से अच्छा कुछ नहीं। देख लिए बाहर के धक्के!” कोई देख ले। बस, उसकी इज़्ज़त बच जाएगी।
यह अहम् था। इज़्ज़त थी। भय था। बहाना था या वैनिटी, यह तो शिवा समझ नहीं पा रहा था। उसे यह ज़रूर लग रहा था कि अब यूँ ही घर नहीं लौटना है। यानी झूठी इज़्ज़त या अहम् के दुश्चक्र में वह बुरी तरह फँस चुका था। संयोग ऐसा हुआ कि मुल्तानी ढाँढा में ही उन्हें मनोहर टकरा गया।
“तुम यहाँ,” बड़े ही संयत स्वर में उसने पूछा। दोनों सकपका-से गए। भूषण तो डरा, शिवा ऊपरी तौर पर डरा, अंदर से प्रसन्न हुआ कि चलो अच्छा हुआ। जैसे वह सोच रहा था, वैसा ही हुआ। भूषण की ओर संकेत करते हुए उसने कहा-”है तो मेरा छोटा भाई, पर महानालायक है और तुम। तुम्हें क्या हुआ जो दोस्ती भी गाँठी तो इसके साथ। जानते हो, घर में क्या हाल है तुम्हारे। रो-रो के माँ की आँखें सूजी पड़ी हैं, पिताजी तुम्हारे अधमरे-से हो रहे हैं। दो दिन से चूल्हा नहीं जला घर में। और वो दीपू कहाँ है?”
“चला गया घर,” भूषण ने पूरे विश्वास के साथ कहा।
“तुम दोनों से अच्छा है।”
“चल घर।”
“मैं नहीं जाऊँगा।” शिवा ने कह तो दिया, पर डर भी गया कि कहीं मनोहर यह न कह दे कि अच्छा, फिर जहाँ मरना है मरो।