अनहद नाद / भाग-10 / प्रताप सहगल

Gadya Kosh से
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अगली सुबह होने से पहले ही बाबू मनसुख ने कमरा खड़ा कर दिया। कच्ची-पक्की छत भी डाल दी। जगतनारायण ने पुलिस में शिकायत की थी। कुछ नहीं हुआ और सुबह पाँच बजे करीब दो कमरों के बीच का दरवाजा बाबू मनसुख के गुंडों ने तोड़ दिया। दस मिनट बाद पुलिस भी आ गई। केस दर्ज हुआ कि जगतनारायण ने दरवाजा तोड़कर मनसुख की बीवी की इज़्ज़त पर हाथ डाला। इससे बड़ा झूठ जगतनारायण के लिए और कोई हो नहीं सकता था, पर पुलिस ने इसे ही सच बना दिया।

जगतनारायण और विजयनारायण आए। कुछ नहीं हुआ। बात थाने में थी। कई-कई दफा में पुलिस ने केस दर्ज कर लिए थे। विजयनारायाण और दया प्रकाश थाने में आए। उन्होंने एस.एच.ओ. से बात की और चले गए। उसके बाद बहस। जगतनारायण सारी चाल तो समझ गया था, पर उसके पास इतना पैसा नहीं था कि वह पुलिस को खिलाकर उसे अपने पक्ष में कर लेता। वह तो सारा पैसा पुनर्वास मंत्रालय के बाबू को दे चुका था। कई-कई केस बन गए थे। कौन-कौन-सा केस लड़ेगा और किसके भरोसे। न पैसा, न साथी, ऊपर से बच्चे और बीवी। जगतनारायण पूरी तरह से टूट चुका था। उसने पुलिस से तर्क करने की कोशिश की तो एक भरपूर तमाचा उसके गाल पर पड़ा। पास बैसा शिवा तिलमिलाकर रह गया। उसका मन हुआ, वह उस पुलिस वाले की वर्दी फाड़ के बीच चौराहे पर खड़ा करके उस पर थूके और फिर उसे नोच डाले। पुलिस स्टेशन को आग लगा दे। पर उसने ऐसा कुछ नहीं किया। बस, रो दिया। जगतनारायण ने मनसुख के पाँव छू लिए-”बाबू मनसुख, खत्म करो सब, मैं हार गया।” मनसुख यही सुनना चाहता था और वह फौरन एस.एच.ओ. के पाँव पड़ गया-”मैं इसकी तरफ से माफी माँगता हूँ सर, फैसला हो गया।” एस.एच.ओ. के चेहरे पर कुटिल मुस्कान थी। मनसुख अपनी मुस्कान रोकने के लिए अतिरिक्त प्रयास कर रहा था।

शिवा ने देखा था यह सब। क्या होता है झूठ...क्या होता है सच...जो जैसा बना सके, जो जैसा दिखा सके। इसके लिए चाहिए शक्ति। धन की शक्ति। आदर्श, सिद्धांत, सच, सब बेकार...सच वही है, जो साबित किया जा सके।


इन्डिपेन्डेंट इंडस्ट्रीज़ के मालिक रामस्वरूप के प्रयास से दूसरे ही दिन जगतनारायण को मज़दूरी बस्ती कर्मपुरा में एक मकान अलॉट हो गया। वह परिवार के साथ एक बार फिर उखड़ा हुआ, टूटा, हारा वहाँ चला गया। उसने एक बार फिर पैसे से शिकस्त खाई थी और एक कांग्रेसी नेता से धोखा।

कर्मपुरा मज़दूरों के लिए बनाई गई एक नई बस्ती थी। कुछ अरसा नौकरी के बाद ही वहाँ मकान मिल जाता था, जिसे नौकरी खत्म होने के 6 महीने के भीतर ही खाली करना पड़ता। जगतनारायण को यह शर्त भी बड़ी अजीब लगी, पर अब तो सिर छुपाने के लिए यही क्वार्टर था। एक कमरा, एक छोटी-सी रसोई। शौचालय तीन घरों के लिए एक। साँझा। स्नानागार भी साँझा।

नई बस्ती में आकर शिवा को एक तरह से अच्छा ही लगा कि अब वह भूषण से कम मिलता था। भूत-प्रसंग के बाद दोनों में खिंचाव तो आ गया था। फिर भी दोनों सामने पड़ते तो न जाने कौन-सी शक्ति उन्हें एक-दूसरे की ओर खींचती और वे दोनों कभी भट्ठों की ओर तो कभी खेतों की ओर चल देते। कभी दीपू साथ होता, कभी नहीं भी होता। भट्ठों में सिगरेट फूँकते, खेतों से गाजर-मूली उखाड़कर खा लेते और बहुत-बहुत अमीर होने के सपने देखते।

शिवा बचपन से ही स्वप्नदर्शी था। बचपन में उसने स्वामी दयानंद-सा महान समाज-सुधारक बनने का स्वप्न देखा, फिर विवेकानंद बनने का और अब वह कभी रामस्वरूप तो कभी अपने चाचा विजयनारायण-सा अमीर बनने का स्वप्न देखता। अमीर होने के लिए वह भूषण का साथ देने को भी तैयार था। पर जब भी ऐसा कोई अवसर आता, शिवा कदम पीछे खींच लेता। बाद में अपने को कोसता।

शिवा ज्यों-ज्यों बढ़ता गया, अपने पिता से कटता गया। इस बीच परिवार और भी बढ़ गया था। परिवार का बोझ लादते-लादते जगतनारायण चालीस साल में ही बूढ़ा लगने लगा था। आठ से पाँच नौकरी। पाँच के बाद ओवर टाइम। कहीं बाहर काम मिल जाए तो वह भी। यानी पिता और पुत्र के बीच कभी-कभी होने वाला संवाद टूट गया। दोनों के बीच अब संवाद का माध्यम शकुन्तला बन गई थी, पर तब पिता-पुत्र में दूरी न होने के कारण शिवा आतंकित नहीं होता था, अब होने लगा।

उसे डर लगता कि कहीं पिता को पता चल गया कि वह स्कूल से भाग भट्ठों में बैठकर सिगरेट फूँकता है, चरसियों के संग रहता है, ‘भाँग की पकौड़ी’ जैसी किताबे पढ़ता है तो? भूषण, दीपू और शिवा के हस्तमैथुन सेशन भी शुरू हो गए थे। पेशाब की धार लड़ाने से शुरू होकर हस्तमैथुन तक पहुँचे थे वे तीनों। यह सब दीपू के दिमाग की उपज थी। उसे एक लड़की की चिट्टियाँ मिलने लगी थीं, जो वह भूषण और शिवा को पढ़कर सुनाता। भूषण ने तो बात हवा में उड़ा दी। शायद ईर्ष्यावश। पर शिवा की आँखों में कोई अज्ञात लड़की पलने लगी।

एक दिन अपने हस्तमैथुन सेशन से मुक्त होकर दीपू ने शिवा को उस लड़की की चिट्ठी निकालकर दी-”तीन दिनों में पाँचवीं है यह।”

“जवाब क्यों नहीं देता?” शिवा ने पूछा।

“क्या?”

“जो पूछती है।”

दीपू जो खुद औसतन एक उपन्यास रोज़ पढ़ता था, तय नहीं कर पा रहा था कि एक लड़की के प्रेम-पत्र का क्या जवाब दे। उसने सकुचाते हुए शिवा से कह ही दिया-”तू बता न!”

“मैं कैसे बताऊँ?”

“तू तो लेखक है।”

शिवा को पहली बार किसी ने कही थी यह बात। उसे सुनकर बड़ा अच्छा लगा और उसने दीपू की ओर से प्रेम-पत्रों का एक उत्तर तैयार करके उसे दे दिया। शिवा ने जीवन में पहला प्रेम-पत्र किसी और के लिए लिखा। लिखकर उसके अंदर बैठा लेखक बड़ा संतुष्ट हुआ। प्रेम-पत्र पढ़ा गया। भूषण और दीपू-दोनों को अच्छा लगा। दीपू ने उसकी नकल तैयार की और लड़की तक पहुँचा दिया। उसके बाद दुर्घटना यह हुई कि वह प्रेम-पत्र पकड़ा गया और लड़की के भाई के साथ दीपू का काफी झगड़ा हुआ।

यह बात दीगर है, पर शिवा की कलम की धाक दोनों दोस्तों पर बैठ गई। शिवा का आत्मविश्वास बढ़ा और उसने कुशवाहा कांत के उपन्यास ‘लाल रेखा’ की तर्ज़ पर एक उपन्यास लिख मारा...नाम रखा ‘दीप-शिखा’। वैसे ही सस्पैंस, रोमांस, क्रांतिकारी रूप। दीप-शिखा मित्रों में पढ़ा गया। दीपू को बड़ा पसंद आया। शिवा के लिए तो दीपू ही मानदंड था। उसने इतने उपन्यास पढ़े थे कि वह अच्छा, बुरा तो बता ही सकता था। ‘दीप-शिखा’ मित्रों में ऐसा घूमा कि पता ही नहीं चला, गया कहाँ। कहाँ तो शिवा सोच रहा था कि उसे किसी प्रकाशक के पास ले जाए और कहाँ पांडुलिपि ही गायब।



अँधेरे को चीरती हुई फ्रंटियर मेल भागी जा रही थी। हर डिब्बा ठुँसा हुआ। इस गाड़ी के एक डिब्बे में शिवा, भूषण और दीपू भी थ। सिकुड़े, मुचड़े, ठिठुरते हुए। दिसंबर की सर्दी। खुले में भागती गाड़ी। डिब्बे में ठसाठस होने के बावजूद सर्दी अपना अस्तित्व बता रही थी।

दोपहर से ही तीनों दोस्त घर से ग़ायब हो गए थे। शिवा कर्मपुरा वाले मकान में आने के बाद थोड़ा व्यवस्थित हुआ था, पर उसका स्कूल अभी बदला नहीं गया था।


जगतनारायण और रामस्वरूप के मधुर संबंधों में अब तक काफी कड़वाहट आ चुकी थी। रामस्वरूप इन्डिपेन्डेंट साइकिल के सहारे कहाँ का कहाँ पहुँच गया था और जगतनारायण वहीं का वहीं, बल्कि पहले से बदतर। ज़्यादा मुँह होने से पैसा कम पड़ने लगा था। उसने कई बार रामस्वरूप को कहा भी, रोहतक की दोस्ती की ओर भी इशारा किया, पर उसने हमेशा यह कहकर टाल दिया-”भाऊ ही देखेंगे।” यानी उसकी तनख्वाह नहीं बढ़ी। बढ़ी भी तो मामूली।

जिस मकान को अपना बना लेने का स्वप्न देखा था जगतनारायण ने, वह भी छिन गया...जमा-पूँजी खर्च हो गई, सो अलग। फैक्टरी में बड़ी जद्दोजहद के बाद यूनियन बनी थी। जगतनारायण उसका सदस्य अभी तक नहीं बना था और इस तरह वह मज़दूरों की नज़र में मैनेजमेंट का पिट्ठू था। जब उसने देखा कि उसके पुराने संबंधों की वजह से जो संकोच, लिहाज़ था, वह रामस्वरूप और जगतनारायण के बीच अब पूरी तरह से मालिक और नौकर का रिश्ता कायम हो गया। तनाव भी बढ़ गया। दोनों के बीच बढ़ते तनाव का असर जगतनारायण पर पड़ा। वह छोटी-छोटी बात पर तुनकने लगा। कभी दो घुटनों के बीच सर रखकर उदास-सा बैठ जाता तो शकुन्तला कहती, “उदास क्यों होते हो! अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे। शिवा बड़ा हो रहा है, कुछ न कुछ सँभालेगा।” शिवा पर उन दोनों को बड़ी आस थी कि दो-चार साल बाद जवान शिवा घर की जिम्मेदारी को पिता के साथ बाँट लेगा। पर बच्चों पर ज़िम्मेदारी डालने से पूर्व जो तैयारी करनी पड़ती है, वह जगतनारायण ने नहीं की, न शकुन्तला ने। शायद उन्हें यह एहसास भी नहीं था कि ऐसी तैयारी की कोई ज़रूरत भी नहीं होती है। उनके लिए बेटा होने का मतलब था-अतिरिक्त आमदनी। कमाऊ पूत ही उनकी आँखों में तैरता था।

शिवा से उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की, वह क्या सोचता है। हाँ, एक बार जगतनारायण ने पूछा था शिवा से-”शिवा, बड़ा होकर कमाएगा?”

“हाँ।”

“जो कमाएगा वो किसको देगा?”

“कुछ आपको...”

“और कुछ?”

“कुछ उसके लिए।”

यह ‘उसके लिए’ कौन थी? यह तो उन्हें अभी मालूम नहीं था, पर तभी शकुन्तला से कहा था-”सुना, देख ले बेटे श्रवण के लक्षण, बड़ी आस लगाए बैठी है!”

सचमुच जगतनारायण ने शिवा से इस जवाब की कल्पना नहीं की थी। वह तो शिवा को श्रवणकुमार समझता था और उसी रूप में ही उसे देखना चाहता था। उसे शिवा के इस जवाब से थोड़ा धक्का लगा और उसने पेशीनगोई कर दी कि यह बेटा एक दिन ज़रूर गुल खिलाएगा।

पेशीनगोई करने का जगतनारायण को बड़ा शौक था। हाँ, वह पेशीनगोई न कर सका कि रोहतक से दिल्ली आने के बाद उसका यह हाल होगा। यह पेशीनगोई न कर सका कि जिस मकान को हथियाने के पीछे वह पड़ा था, वह उसे नहीं मिलेगा। न यह पेशीनगोई कर सका कि घर में इतने मुँह खड़ा कर देने से क्या-क्या दिक्कतें आ सकती हैं।

दिक्कतों और परेशानियों से घिरा जगतनारायण और भविष्य के सपनों में डूबा शिवा दोनों के स्वार्थ अलग-अलग हो गए। स्वार्थ जब अलग होते हैं तो व्यक्ति की सारी सोच भी वैसी ही बनती चली जाती है। वही बाप-बेटे में हुआ।

उनमें छोटी-छोटी बात पर बहस होने लगी। तर्क की जगह तकरार ने ले ली और एक दिन जगतनारायण को शिवा के स्कूल से रोज़-रोज़ भागने और एक झूठे बाप को प्रिंसिपल के सामने पेश करने की कहानी पता चली तो उसने शिवा से पूछा-”यह क्या हो रहा है?”

शिवा चूल्हे के सामने ही एक ईंट पर बैठा थाली लिए रोटी की इंतज़ार में था। शकुन्तला रोटी सेंक रही थी। ऐसे में पिता का यह सवाल सुनकर शिवा अचकचा-सा गया। असमंजित-सा बोला-”क्या?”

“यही कि तुम उन दो छोकरों के साथ रोज़ स्कूल से भाग जाते हो, इसलिए जाते हो स्कूल?”

तभी शकुन्तला ने थाली में रोटी परोसते हुए कहा-”खाना खा लो, फिर बात कर लेना,” पर जगतनारायण सारी बात सुनकर लबालब भरा बैठा था-”नहीं, बता पहले, कहाँ जाता है?”

“कहीं नहीं।” शिवा ने साफ झूठा बोल दिया।

“झूठ बोलना भी सीख लिया है! यही पढ़ाई होती है स्कूल में! यही लिखा है किताबों में, झूठ बोलो, माँ-बाप के सामने जवाब दो और ज़ुबान खोलो?”

“किसी ने आपसे झूठ कह दिया है।”

“अच्छा, और वो जो घई को बाप बनाकर ले गया स्कूल में, वो, वो भी झूठ है?”

शिवा सन्न रह गया, पर एक झूठ तो सौ झूठ।

“किसी ने झूठ कहा है।”

शकुन्तला ने दूसरी थाली में जगतनारायण के लिए रोटी-सब्ज़ी डाली। जगतनारायण ने थाली एक ओर सरकाते हुए कहा-”तेरे प्रिंसिपल से मिला हूँ मैं उल्लू के पट्ठे, ऐसे ही रहना है तो निकल जा घर से...”

इससे पहले की शकुन्तला यह कहे कि उसे खाना तो खाने दो, जगतनारायण ने थाली शिवा के सामने से उठाकर एक ओर फेंकते हुए कहा-”बंद करो इसका खाना” और “निकल जा” कहते हुए एक तेज़ थप्पड़ शिवा को जड़ दिया।

शिवा के साथ यह पहली झड़प नहीं थी। इससे पहले भी कई झड़पें हो चुकी थीं। पर सामने से रोटी की थाली उठाकर फेंकना शिवा से बर्दाश्त नहीं हुआ और सभी छोटे भाई-बहनों के सामने पड़े थप्पड़ से उसने इतना आहत महसूस किया कि इससे पहले कि पिता का दूसरा थप्पड़ गाल पर पड़ता, वह वही ईंट, जिस पर वह बैठा था, उठाकर पिता को मारने दौड़ा।

शकुन्तला ने देखा तो बीच में पड़कर चिल्लाई-”खत्म करो यह रोज़-रोज़ का स्यापा। ले मार, मुझे मार, पहले मुझे मार और तुम भी मुझे मारो, दोनों मारो। पता नहीं कैसे-कैसे घर चलाती हूँ, कैसे-कैसे ज़रूरतें पूरी करती हूँ सबकी, इसकी बात उससे छिपा, उसकी इससे छिपा कि घर में कलह न हो, शांति बनी रहे और तुम दोनों...और तू बाप को मारेगा...पैदा होते ही मर क्यों न गया..” कहते-कहते शकुन्तला फफक-फफककर रोने लगी।

जगतनारायण को यह आशा नहीं थी कि बात इतनी बढ़ जाएगी। वह तो शिवा को थोड़ा डराकर, थोड़ा समझाकर सही रास्ते पर लाना चाहता था। यह स्थिति तो हाथ से बाहर हो गई। ‘शिवा ने मुझे मारने के लिए ईंट उठा ली! मारना और मारने के लिए हाथ या हथियार उठा लेना, क्या फर्क है दोनों स्थितियों में...कुछ नहीं...कुछ भी नहीं...’ और न जाने क्या-क्या सोचता जगतनारायण घर के सामने ही बिछी चारपाई पर जाकर लेट गया। उसे लगा कि वह चारपाई से ही लगा रहेगा। कभी भी उठेगा नहीं। चारपाई पर पड़े-पड़े ही उसकी मुक्ति हो जाएगी और उसका अंतिम संस्कार कौन करेगा? शिवा! कभी नहीं। शिवा को मैं यह अधिकार नहीं दूँगा। सुभाष, अशोक कोई भी करे, पर शिवा नहीं।

यह बात उसने रात को शकुन्तला से कही तो उसने उसके मुँह पर हाथ रख दिया।


गाड़ी की रफ्तार बहुत तेज़ हो चुकी थी और डिब्बे में शौचालय के पास शिवा बैठा था। विमूढ़-सा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसने घर से भागकर ठीक किया या नहीं। पीछे माँ-बाप का क्या हाल होगा? छोटे भाई-बहन क्या सोचते होंगे? लोक क्या कह रहे होंगे?

वह घर से भागना चाहता था। ऐसा उसने तब भी सोचा था, जब वह बहुत छोटा था। पर तब वह घर से भागना चाहता था-सत्य की खोज में, ईश्वर की खोज में। किसी विरजानंद को ढूँढ़ने, मूलशंकर बनकर। या शिवा शिवा बनकर ही निकलता। इस तरह से घर से भागने का अर्थ और पूरा घटनाचक्र उसके दिमाग में हिंडोलाकार होकर घूमने लगा।

बात-बात में तनातनी। किसी के पास चप्पल नहीं तो किसी के पास चड्ढी नहीं। किसी के पास कापी नहीं तो किसी के पास पेंसिल। छोटी-छोटी ज़रूरत पर कहा-सुनी कि अभी कल ही पैसे दिए थे तो पेंसिल के लिए, एक महीने में ही तोड़ दी तूने। ज़रा-ज़रा-सी बात पर तनाव। न अपना कुछ, न अपनी कुछ सोचा।

यह तनाव कई दिन से चलता-चलता लावा बन फूटा था शिवा के हाथ में ईंट बनकर।

तभी भूषण ने सिगरेट सुलगाई और शिवा को कश लगाने के लिए कहा।

घर से भागने की योजना तो वे पहले भी कई बार बना चुके थे। भूषण तो दो-तीन बार घर से भाग भी चुका था। उसके माता-पिता उसके चले जाने या लौट आने को कोई ज़्यादा महत्व नहीं देते थे। पर दीपू कभी नहीं भागा था। वह तो इकलौता था। माँ उसे प्यार भी खूब करती थी और पैसे भी देती थी। फिर वह क्यों भागा? शायद एडवेंचर के लिए, या यूँ ही, जस्ट फॉर दि हैस्क ऑफ इट या फिर रोज़-रोज़ स्कूल जाने के झंझट से मुक्ति और शिवा! वह क्यों भागा? भले ही यह घटना जीवन की एक ऐसी घटना थी जिसने उसे आत्मरक्षा का आत्मविश्वास-सा दिया। साथ ही तर्क को छोड़ अराजकता की ओर ढकेला। झूठ बोलने की कला की ओर अग्रसर किया।

शिवा शायद घर में व्याप्त तनाव से मुक्ति पाना चाहता था। वह यह भी सोचता कि क्या वास्तव में यह तनाव, यह घटना इतना बड़ा कारण थी कि वह बिना बात किए घर से भाग लेता? या फिर उसके अंदर दबी बैठी पलायनवादिता ने अपना सिर उठा लिया था कि सब समस्याओं का एक ही हल-उनसे टकराओ मत, भागो। शुतुरमुर्ग बन जाओ।

शिवा ने कश लगाकर सिगरेट दीपू को दे दी। डिब्बे में बैठे लोग अपने-अपने में व्यस्त। दो-एक लोगों का ध्यान उस तीन लड़कों की तरफ गया भी तो अनदेखा-सा कर दिया। तीनों घर से भागे हुए हैं-यह तो उनके चेहरों पर लिखा था। न उनके पास कोई अतिरिक्त कपड़ा, न कोई आसन। जाएँगे कहाँ? रहेंगे कहाँ? करेंगे क्या? यह सारे प्रश्न शिवा के दिमाग में आ रहे थे। उसने अपने पाजामें की जेब में हाथ डाला। उसमें एक अठन्नी अभी भी सुरक्षित पड़ी थी। वह घर से अठन्नी लेकर गन्ना लेने निकला था। शकुन्तला कुछ औरतों के साथ बाहर धूप में बैठी सिवैयाँ काट रही थी, तभी भूषण और दीपू वहाँ पहुँचे। बुलाने का कोड था-‘दो सीटी’। दो सीटियाँ बजीं और शिवा बाहर।

बाहर आकर उसने पूछा-”क्या बात है?”

“आज चलना है।” भूषण ने कहा।

“कहाँ?”

“बस चलो, बाकी देखा जाएगा।”

“कुछ भी...चलता है कि नहीं?”

“पैसे हैं?”

“हैं, दीपू के पास।”

“मेरे पास नहीं हैं।” शिवा ने बताया।

“कोई बात नहीं। हम डाकघर के पास इंतज़ार कर रहे हैं।” यह कह वे दोनों चले गए।

थोड़ी देर बाद शिवा ने माँ के सामने गन्ना चूसने की इच्छा प्रकट की तो शकुन्तला ने बड़े प्यार से एक अठन्नी शिवा की हथेली पर रख दी।

शिवा डाकखाने के पास पहुँचा। भूषण और दीपू वहीं खड़े मिले।

दिन का तीसरा पहर। ढलती धूप। तीनों निरर्थक इधर-उधर भटकते रहे।

शिवा ने मन ही मन कई बार सोचा, आखिर वह घर से भाग क्यों रहा है? उसे कोई निश्चित जवाब नहीं मिला।

उसने जवाब गढ़ लिया-”रोज़-रोज़ पिता जी से तकरार, छोटी-छोटी बात पर डाँट। जैसे उसकी कोई इज़्ज़त ही न हो’।

शिवा ने सोचा और अन्यमनस्क भाव से वह दोनों दोस्तों के साथ घूमता रहा। संभवतः शिवा अपने अस्तित्व की परख कर लेना चाहता था।

किशोर वय में घर से भागने के साथ ही आँखें में एक शहर तैरने लगता है। सपनों का शहर। चकाचौंध से भरा शहर। ठाठें मारता समुद्र, किनारे एक शहर। भूषण ने ही प्रस्तावित किया-”यहाँ घूमते रहेंगे तो पकड़े जाएँगे, कहीं दूसरे शहर चलना चाहिए।”

“कहाँ?” दीपू ने पूछा।

“बंबई।” शिवा ने कहा।

उन्हें तय करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। शिवा ने अभी पिछले सप्ताह ही तो एक फिल्म देखी थी-‘दुनिया न माने’। दीपू ने ही दिखाई थी फिल्म। फिल्म में प्रदीपकुमार उसे बड़ा भाया था। बँधे हुए मूल्यों और संस्कारों के खिलाफ लड़ता हुआ। यही तो शिवा भी सोचता था, यही करना चाहता था। वह सब पर्दे पर था और शिवा वास्तविक जीवन में संस्कारों से मुक्ति चाहता था, मूल्यों के चौखटे को तोड़ देना चाहता था। ऐसा कुछ सीमा तक उसने किया भी। अन्यथा जान जोखिम में डालकर वह पीपल के नीचे कील ठोकने रात को क्यों जाता? क्यों श्मशान घाट में जाकर भूषण द्वारा प्रस्तावित हर बात पूरी करता और भूतों के मिथ को तोड़ता? पर जीवन यही तो नहीं। ये बातें वह अकेला कर सकता था, अपने संस्कारों से वह कुछ सीमा तक अकेले ही मुक्त हो सकता था, पर मूल्यों की लड़ाई का कुरुक्षेत्र तो आदमी के अंदर ही नहीं, बाहर भी चलता है। पूरे समाज के खिलाफ गांडीव उठाना होता है और यह काम कोई आसान नहीं था। इसीलिए आदमी जब पर्दे पर ही किसी पात्र को गांडीव उठाकर घिसे-पिटे मूल्यों की कोई आँख फोड़ते देखता है तो उसका तादात्म्य हो जाता है। उसे एक खास किस्म की तृप्ति मिलती है और वह सोचता है कि जो काम वह करना चाहता था, वह हो गया।

शिवा ने भी प्रदीपकुमार को अपना प्रतिरूप समझा और तादात्म्य उससे हो गया। फिर माला सिन्हा भी उसकी थी। माला सिन्हा का मासूम सौंदर्य उसे बहुत भाया था। दो बार वह उसे सपनों में देख चुका था। उससे प्रेम कर चुका था। उसे अपनी बाँहों में ले चुका था। वही माला सिन्हा और वही प्रदीपकुमार का शहर बंबई।

शिवा बंबई जाने को उत्सुक था। वह भी एक बड़ा नायक बनेगा। अपने मन में पल रहे विद्रोह को पर्दे पर उतारकर सारी दुनिया को बताएगा कि वह चाहता क्या है।

भूषण के लिए घर से भागना अब मात्र एक क्रिया थी। इस बीच वह जेबकतरों की संगत में आ चुका था और उसने जेब तराशने की कला सीख ली थी। उसने दोनों दोस्तों को आश्वासन भी दे दिया था कि ‘पैसे की कोई चिंता नहीं’ फिर उसने अपने दाएँ हाथ की पहली दो अंगुलियों के कमाल की बात बताई तो शिवा डर गया था। सोचा, यह ज़रूर मरवाएगा। पकड़े गए तो खैर नहीं।