अनहद नाद / भाग-9 / प्रताप सहगल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इससे पहले कि माँ कुछ और कहे, शिवा तेज़ कदमों से नजफगढ़ रोड की ओर चल दिया। पहुँचा तो भूषण और दीपू पहले से ही खड़े थे। शिवा ने उन्हें दूर से ही देख लिया। सोचा, क्यों पड़े इस चक्कर में। न सही भूत, कोई साँप-वाँप तो हो ही सकता है। या फिर इनकी कोई चाल ही न हो। साले ऐसे ही मुझे मरवा दें। यह सोचते ही उसके सामने घई और बेली पहलवान के चेहरे घूम गए। फिर सोचा, डरना क्या। अब तो बात प्रतिष्ठा की है। उसे एकदम रोहतक के मंदिर के सामने वाला पीपल याद आया। वहाँ भी बैठे रहते थे। कितनी-कितनी देर तक। फिर उसे खँडहर याद आया, जिसमें भूत के डर के मारे रात में कोई घुसता नहीं था और वहीं तहमत सँभालती तोषी और पाजामे का नाड़ा बाँधते चोखा दिखे। भूतों की असलियत। उसका डरता हुआ मन सँभल गया। हिम्मत का संचार हुआ। तब तक वह भूषण के पास पहुँच चुका था-”बोल।”

“यह ले हथौड़ी, यह कील। हम चलते हैं। कल तक तू ज़िन्दा रहा तो मिलेंगे।” यह कहकर भूषण ने उसे हथौड़ी और कील पकड़ाई और दीपू को चलने का इशारा किया।

दीपू ने कहा-”क्यों ज़िद करते हो!”

“मैं वहाँ जाता हूँ, तुम देखो।” यह कह शिवा अँधेरे में पीपल के पेड़ की ओर बढ़ गया।

भूषण और दीपू शिवा से भी ज़्यादा भयभीत लग रहे थे। वे यह देखने के लिए भी नहीं रुकना चाहते थे कि शिवा ने पीपल के नीचे कील ठोका या नहीं।

शिवा अकेला पड़ा तो डरा। उसका मन दो टुकड़ों में विभाजित हो गया। तर्क-वितर्क होने लगा। रात का अँधेरा। सुनसान। कोई हादसा भी हो सकता है। डरा हुआ टुकड़ा बोला।

दूसरे टुकड़े ने जवाब दिया-”शिवा, यही तो मौका है अपनी हिम्मत परखने का। जब तुझे विश्वास ही नहीं तो फिर यह बहाने क्यों? आगे बढ़, ठोक दे। जो डरे हुए थे, वे चले गए। तेरा रास्ता इतना छोटा नहीं। ज़रा-सी बात से डरने लगेगा तो नहीं मिलेगी कोई भी मंज़िल।” साहसी टुकड़े ने अपना तर्क दिया।

“पिताजी को पता चला तो?”

“वे तुझे शाबाशी देंगे।”

“शायद।”

उसने मुड़कर देखा, भूषण-दीपू दूर-दूर तक कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे थे। और भी कोई नज़र नहीं आ रहा था। तभी दूर अँधेरे में दो चमकदार आँखें दिखाई दीं। शिवा ठिठका। उसके दिल की धड़कन तेज़ हो गई। हाथों में कम्पन-सा हुआ, पर जल्दी ही दो आँखों वाला ट्रक धड़धड़ाता हुआ निकल गया।

शिवा कील ठोके या नहीं। ‘टू बी ऑर नॉट टू बी’। पीपल के पत्ते हवा से खड़कते। वह आशंकित हो उठा। उसे दूर खड़ा पीपल तरह-तरह के आकार लेता दिखाई देने लगा। सचमुच भूत रहता है यहाँ? उसने मन ही मन प्रश्न किया और फिर ‘हूँ’ कहकर प्रश्न को टाल दिया। उसे याद आया जब वह सात-आठ साल का था तो एक दिन पिताजी ने ठीक ऐसी ही एक घटना सुनाई थी कि एक बार दो दोस्तों में शर्त लगी। एक दोस्त कहता था, भूत होते हैं, दूसरा कहता था, नहीं होते। शर्त यही थी कि मानने वाला दोस्त अँधेरी रात में अकेले जाकर पीपल के नीचे कील ठोककर दिखा दे और उसे कुछ न हो तो वह भी मान जाएगा कि भूत-वूत कुछ नहीं होते। न मानने वाला दोस्त जोश-जोश में अँधेरी रात में कील-हथौड़ा लेकर पीपल के नीचे चला गया। उसने कील ठोक दिया। उठने को ही था कि उसे लगा, उसकी धोती को किसी ने पकड़ लिया है। उसने मन में बैठी भूत की दहशत इतनी तेज़ी से और इतनी नोकीली होकर पसरी कि मारे डर के वहीं लेट गया। अगली सुबह उसकी लाश मिली। हुआ यह कि कली ठोकते हुए उसकी धोती का एक सिरा भी कील के नीचे दब गया, जिसे वह अँधेरे में देख नहीं सका और उसे लगा, हो न हो धोती को भूत ने पकड़ लिया है। उसे भूत ने नहीं, भूत के डर ने, भूत की दहशत ने मार दिया। आदमी दहशत से जल्दी मरता है, और दहशत ज़्यादातर हमारी अपनी बनाई हुई होती है, जिसे व्यक्ति जन्म लेते ही परिवार से, समाज से, धर्म से धीरे-धीरे ग्रहण करता है और उसके संस्कारों का हिस्सा बनी दहशत जीवन-भर उससे जोंक की तरह चिपकी रहती है।

तब शिवा को यह बात ज़्यादा समझ नहीं आई थी। आज काम आ रही है। उसने फिर भी एहतियातन अपनी नेकर के पहुँचों को देखा, ठीक हैं। वह सीधा पीपल के नीचे गया। कील ठोक दिया। ठुके कील पर आवेश में मूत दिया और बिना पीछे देखे घर की ओर चला गया। घर पहुँचा और दीपू बाहर खड़े मिले। स्तब्ध।

“क्या?” बस इतना ही पूछा भूषण ने।

“ठोक दिया।” गर्व से फूली हुई छाती से शिवा ने जवाब दिया।

“झूठ।” भूषण ने कहा-”क्यों दीपू?”

“देख लो जाकर।”

पर उन दोनों की कहीं जाने की हिम्मत नहीं हुई।

अगले दिन यह सारा प्रसंग शिवा ने मिर्च-मसाला लगाकर खुद ही कुछ दोस्तों को स्कूल में सुनाया तो उन्हें यकीन ही नहीं हुआ। उनका मानना था कि शिवा शेखी बघार रहा है। उसने सचमुच पीपल के नीचे अँधेरी रात में कील ठोककर उस पर मूता होता तो ज़िन्दा नहीं लौट सकता था।

भूषण को तो ऐसा धक्का लगा जैसे उससे किसी ने उसकी दादागीरी छीन ली हो। विश्वास का संकट गहरा गया था।

शिवा का अपना विश्वास बढ़ा, आत्मविश्वास भी चौगुना हो गया, पर भूषण मानने वाला नहीं। भले ही शिवा उसका दोस्त हो, इस मामले में दोनों दुश्मन हो गए थे। देवी हनुमान, भूत भगवान, कोई भी दंडित नहीं कर रहा शिवा को। यह कैसे हो सकता है। वह सुबह उठकर खुद देख आया था कि कील ठुका है अैर उसके आसपास की ज़मीन अभी भी नम है। उससे नहीं रहा गया और उसने अगले ही दिन शिवा को दूसरी चुनौती दे दी-”भरी दोपहर श्मशान घाट जाकर सुलगती चिता पर मूतना, कंकड़ियों से खेलना और चने खाना। यह करके दिखा दे तो तेरा चेला बन जाऊँ।”

शिवा का हौसला बढ़ा हुआ था। वह अपने विश्वास को पूरी तरह से दृढ़ कर लेना चाहता था और इसके लिए कोई भी खतरा उठाने को तैयार था। वह फौरन मान गया। बात पूरी कक्षा में फैल गई। पहले पीरियड में हाज़िरी लगवाते ही आधी क्लाश शहर से बाहर थी। शिवा को चने लेकर दिए गए।

रमेश नगर के बीचोबीच एक नाला था। नाला नज़फगढ़ रोड़ को काटता हुआ उत्तर की ओर निकल जाता था। नाले पर पुल था। इस नाले और सड़क के क्रॉसिंग पर थोड़ा-सा हटकर श्मशान घाट बना था। आबादी कम थी, सो मुर्दे भी कम ही आते थे। उस दिन संयोग से दो चिताएँ जल रही थीं। पंद्रह-बीस लड़कों का जुलूस यह तमाशा देखने के लिए श्मशान से कोई पाँच सौ गज़ की दूरी पर ही रुक गया कि भूत आ जाए तो भागा जा सके। अकेला शिवा बाईं मुट्ठी में चने की पुड़िया दबाए श्मशान घाट में दाखिल हुआ। भरी दोपहर। कहने को सर्दी की शुरुआत थी, पर गर्मी महसूस हो रही थी। दूर खड़ा भूषण चिल्ला रहा था-”पहले जलती चिता पर मूतो,” शिवा को यह वीभत्स-सा लगा, पर क्या करता, उसने वही किया जो भूषण ने कहा।

फिर चीख सुनाई दी-”अब कंकड़ उठाओ, उनसे खेलो।”

शिवा खेलने लगा। लड़के हतप्रभ थे। कुछ डरे से पीछे देख लेते कि कोई आ तो नहीं रहा। शिवा खेलता रहा, फिर ज़ोर से चिल्लाया-”और,...”

“चने,” भूषण ने कहा।

शिवा को सुनाई नहीं दिया। उसे यह सब कौतुक करने में मज़ा आ रहा था।

लड़कों का समवेत स्वर आया-”चने खाओ।”

ज्यों ही शिवा ने चने खाने शुरू किए लड़के पीछे हटने लगे। हटते-हटते काफी पीछे हट गए और शिवा चने खाकर लौट आया। सभी की आँखें फटी-सी थीं।

शिवा विजयी नायक-सा उनके पास पहुँचा-”बस, कुछ और?”

भूषण, दीपू, शोकी, रीठा, गुल्लू, ठुल्लू आदि के पास कुछ भी नहीं था कहने को।

शिवा विजयी हुआ और बहुत उदास भी। वह उदास क्यों था, यह बात उसकी समझ में नहीं आई। कहीं वह भविष्य से सशंकित तो नहीं था? नहीं...नहीं...या फिर...या फिर...या फिर...

शाम को शिवा घर देर से पहुँचा। पिता को उसने दूर से ही देख लिया। उसने बस्ता एक ओर फेंका ही था कि पिता ने पास बुलाया, “इधर आओ।”

शिवा सहज भाव से पिता के पास पहुँचा कि ‘चटाख’, एक भरपूर थप्पड़ शिवा के बाएँ गाल पर पड़ा-”हरामज़ादे, किसने कहा था तुझे श्मशान जा? क्यों गया था वहाँ? बोल, क्यों गया था?” इससे पहले कि दूसरा थप्पड़ पड़ता, सहमी हुई बैठी माँ ने बीच-बचाव करते हुए कहा-”अब नहीं जाएगा।” दूसरे बच्चे सहम गए।

उस रात शिवा ने खाना नहीं खाया।

“न खाए, बंद करो इसका खाना...बड़ा सुधारक बनता है।” जगतनारायण न जाने क्या-क्या बोलता जा रहा था।

शिवा, चौदह साल का शिवा। उसे समझ नहीं आया कि क्यों? ऐसा क्यो? उसे तो पिता जी की तरफ से शाबाशी मिलनी चाहिए थी। और मिला यह इनाम। थप्पड़। सारे भाई-बहनों के सामने। पर क्यों? इस क्यों का जवाब उसके पास नहीं था। उसने उस दिन वह सीखा-‘ज़िन्दगी में दोगलापन ज़रूरी है। सिद्धांत सिर्फ सिद्धांत हैं। कहने तक। जीवन में उन्हें व्यावहारिक रूप देने का अर्थ है थप्पड़।’

वह बड़ी रात देर तक चुपचाप रोता रहा। वह यह समझ नहीं पाया कि थप्पड़ के पीछे पिता का वात्सल्य था या उनका कोई डर...कुछ अमूल्य खो जाने का डर। नहीं, शिवा के सामने सिद्धांत और व्यवहार में फर्क आज तक नहीं था। आज से था। वह यह सोचता-सोचता न जाने कब सो गया कि घर तक यह बात पहुँची कैसे?

तनातनी। इससे पहले भी शिवा की तनातनी होती थी। कभी बहन के साथ, कभी भाई के साथ। पानी की लकीर की तरह। माँ से होती। दो-एक थप्पड़ खा लेता। उसे कभी भी नहीं लगा कि थप्पड़ खाकर वह कोई अलग शिवा हो गया। पर पिता का थप्पड़ सीधा उसके अहं पर पड़ा था। उसके उगते हुए व्यक्तित्व को चकनाचूर करता हुआ, जो पहले तनातनी के रूप में सामने आया और धीरे-धीरे उसने एक विद्रोही का रूप ले लिया। शिवा के अंदर एक विद्राही फलने-फूलने लगा और जब भी अवसर आता वह उसे मुखर करने से नहीं चूकता।

तनातनी उसकी भूषण के साथ भी बढ़ गई। भूषण ने शिवा को यह सब करवाने के बाद भी उसके पक्ष को स्वीकार नहीं किया। किसी न किसी बहाने उसे अपनी ही बात स्वीकार करने पर मजबूर करता। कभी-कभी नौबत गाली-गलौज तक आ जाती तो दीपू बीच-बचाव करता। शिवा में जन्मे नए-नए विद्रोह के बावजूद वह गाली नहीं दे सकता था। बड़ी हिम्मत करता तो उल्लू का पट्ठा या हरामज़ादा-भर कहकर रह जाता और भूषण! वह तो नई-नई गालियों की ईजाद करता।

इस घटना के फलस्वरूप शिवा और जगतनारायण यानी बाप और बेटे के बीच फासला और भी बढ़ने लगा। अब वे साथ कम बैठते। तर्क नहीं करते थे। करते तो झगड़े की नौबत आ जाती। शिवा इधर भूषण से खिंचा रहता तो उसका झुकाव दीपू की ओर ज़्यादा हो गया। उन्हें मिले तीन साल हो गए थे, पर दोस्ती सिर्फ स्कूल तक ही थी। दीपू पढ़ने में एकदम नालायक था। उसे शिवा की दोस्ती इसलिए भी अच्छी लगती थी कि वह उसकी कापी से नकल मारकर जैसे-तैसे अपना काम पूरा कर लेता। अपनी दोस्ती को और भी प्रगाढ़ करने के लिए दीपू शिवा को एक दिन अपने घर ले गया। घर पर सिर्फ दीपू की माँ थी। लम्बी, काली, तेज़ नैन-नक्श। शिवा को दीपू की माँ अपनी माँ से एकदम विपरीत लगी। शिवा की माँ गोरी थी और सरल, पर दीपू की माँ के चेहरे पर ही लिखा था ‘चालाक और चतुर’या आगे बढ़ें तो ‘कुटिल’। फिर भी शिवा को दीपू के यहाँ जाना अच्छा लगा।

दीपू के घर जाकर ही शिवा को दीपू के शौक का पता चला। उपन्यास पढ़ने का शौक। शिवा की उत्सुकता जगी। दीपू उसे उपन्यास की दुकान पर ले गया। एक दिन का किराया सिर्फ दस पैसे। शिवा के पास उतने पैसे भी नहीं थे। दीपू ने उसे इस शर्त पर उपन्यास दिया कि वह उसे एक ही दिन में पढ़कर लौटा देगा। गुलशन नंदा का नया-नया नाम चला था।

दीपू, शिवा की पीढ़ी के किशोर और कभी भी वयस्क न होने वाली महिलाएँ गुलशन नंदा के खास पाठक थे। उपन्यास था-‘सूखे पेड़ सब्ज़ पत्ते’। शिवा उपन्यास लेकर घर के एक कोने में दुबक गया। बड़ी मुश्किल से उसने तीस पन्ने पढ़े। उसे मज़ा नहीं आया। उसने जब दीपू को यह बात बताई तो उसे हैरत हुई। वह तो गुलशन नंदा का दीवाना था और उसका हर उपन्यास पढ़ता, अगले की इंतज़ार करता।

शिवा की न पढ़ पाने की मजबूरी को दीपू ने उसकी नासमझी माना। फिर भी उसने उसे एक और उपन्यास ले दिया। यह कुशवाहा कांत का ‘लाल रेखा’ था। ‘लाल रेखा’ शिवा ने पढ़ना शुरू किया तो खत्म करके ही उठा। उपन्यास की भाषा तो उसे अच्छी लगी ही, साथ ही ‘लाल रेखा’ का क्रांतिकारी, सस्पेंस और रोमांस का मिला-जुला रूप उसे बाँधे रहा। लाल रेखा पढ़कर उसने स्वयं एक ऐसा ही उपन्यास लिखने की बात सोची। इसके बाद तो उसने कुशवाहा कांत के सारे उपन्यास पढ़ डाले। इसी बीच प्रेमचंद का ‘निर्मला’ उसके हाथ लग गया तो बस प्रेमचंद पढ़ डाला। एक दिन हिन्दी की क्लास में उपन्यास पढ़ते-पढ़ते पकड़ा गया। हिन्दी मास्टर धनीराम ने जब देखा शिवा ‘ग़बन’ पढ़ रहा है तो उसने गुस्सा तो किया, साथ ही यह भी कहा-”क्लास के बाद मुझसे मिलना।” शिवा डर गया। उसे पहले की सारी प्रताड़ना याद थी। बाबे के पास अब शिकायत पहुँची तो वह स्कूल से ही निकाल देगा और अगर फिर बाप को बुलाकर लाने के लिए कहा गया तो किसे बुलाकर लाएगा? बार-बार कोई क्यों आएगा? फिर इन दिनों भूषण के साथ भी तनातनी चल रही थी। पिछली बार उसी ने तो नकली बाप की व्यवस्था की थी। चाहे शिवा को कितना ही बुरा लगा था, वह बच तो गया था। अब? अब वह क्यों करेगा?

न जाने कौन-कौन से खयाल शिवा के मन को कोंचते रहे। घंटा खत्म हुआ तो मास्टर जी ने इशारे से शिवा को कहा कि “बाहर आओ।”

मास्टर जी शिवा को स्टाफ रूम में ले गए। कहा-”बैठो।”

शिवा बैठ गया।

“उपन्यास पढ़ने का बहुत शौक है?”

शिवा ने हाँ में सिर हिला दिया।

“शौक है तो पढ़ो, पर क्लास में नहीं।”

“जी।” शिवा की जान में जान आई।

“कहाँ से मिला ग़बन?”

“दुकान से।”

“ऐसा करो, तुम दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी के सदस्य बन जाओ। दूर तो है, पर उनकी वैन भी आती है हर मंगलवार को।”

“जाओ, फार्म ले आना, मैं भरवा दूँगा।”

शिवा ने तीन ही महीने से इतना पढ़ा, जितना बाद में उसने तीन साल में नहीं पढ़ा होगा। रोज़ एक नई किताब। किसी-किसी दिन दो-दो, तीन-तीन उपन्यास, कहानी, कविता जो भी मिलता-बहुत कुछ उसकी समझ में नहीं भी आया, फिर भी वह पढ़ता रहा। बच्चन, पंत, प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा, नीरज, नेपाली, जो भी हाथ लगा वह पढ़ता गया। साथ ही वह ओम प्रकाश शर्मा और वेद प्रकाश काम्बोज़ के जासूसी उपन्यास भी पढ़ता। देवकीनंदन खत्री के भी, और इसी बीच मस्तराम आवारा की ‘भाँग की पकौड़ी’ भी उसके हाथ लग गई, जिसे उसने तीन बार पढ़ा और स्खलित हुआ।

हर बार कहीं उसे आत्मग्लानि का बोध भी हुआ। फिर भी पढ़ता।

पढ़ने की लत उसे लग गई। वह नशेड़ी हो गया। घर पर माँ से डाँट खाता, पर पढ़ता रहता। एक-दो बार तो एक्सीडेंट होते-होते बचा।

एक दिन उसने एक पढ़ी हुई कहानी से मिलती-जुलती एक कहानी लिख डाली। उसे एक अखबार के दफ्तर भेज दिया। वह छप भी गई। शिवा साहनी। उसने पहली बार अपना नाम अखबार में छपा हुआ देखा। अखबार उसने पिता को दिखाया। पिता को हिन्दी कम आती थी, पर उन्होंने पढ़कर पूछा-”कब लिखी?”

“पिछले महीने।”

“अच्छी है।” पिता खुश थे। उन्होंने वह अखबार अपने सभी साथियों को दिखाया।

इधर शिवा ने अपने सभी मित्रों को और मास्टर जी को।

मास्टर जी बड़े प्रसन्न हुए। वे उसे प्रिंसिपल के पास ले गए। प्रिंसिपल ने शाबाशी देते हुए कहा-”माँ-बाप और स्कूल का नाम रोशन करो।” शिवा को न जाने क्या हुआ, वह फफक-फफककर रोने लगा।

मास्टर जी और प्रिंसिपल हैरान हुए कि अचानक शिवा को क्या हो गया! उसे तो खुश होना चाहिए था! रोने क्यों लगा!

“क्या हुआ शिवा?” मास्टर जी ने पूछा।

शिवा से नहीं रहा गया और उसने प्रिंसिपल के सामने सब बता दिया कि वह कैसे एक झूठा बाप बनाकर ले आया था। उसने न भूषण का नाम लिया, न दीपू का, सारा दोष अपने ही सिर लिया और कहा-”जो भी सज़ा देनी है, दें, मुझे दें, मेरे पिता को नहीं।”

प्रिसिंपल और मास्टर जी कुछ क्षणों तक अवाक् एक-दूसरे को देखते रहे।

“यह बात स्वीकार करने के लिए बड़ी हिम्मत की ज़रूरत है शिवा, तुम तो बड़े बहादुर हो। अपनी इस हिम्मत का सही इस्तेमाल करना। जीवन बहुत लम्बा है शिवा! जाओ क्लास में।” प्रिंसिपल ने कहा।

शिवा रोकर, कहकर इतना हल्का हुआ, जितना उसने पहले कभी महसूस नहीं किया था।

शिवा के अंदर का लेखक जाग गया था। उसमें सच कहने की हिम्मत आई ज़रूर, पर सिद्धांत और व्यवहार का द्वंद्व उसके मन से, जीवन से निकला नहीं। उसके मन में यह भी आया कि यह तो अच्छा तरीका है। पहले जो भी करना है, करो! फिर रो लो, कह दो, बात खत्म। ऐसे बात खत्म होती है क्या?

शिवा आदर्श और यथार्थ, सिद्धांत और व्यवहार, सच और झूठ, कथनी और करनी के द्वंद्व में फँसा जा रहा था। फँसता गया।

सच-झूठ का भयंकर रूप उसने अपने ही घर में तब देखा, जब मकान को लेकर झगड़ा बढ़ गया।

जगतनारायण ने मकान अपने नाम करवाने के लिए क्लर्क को काफी पैसा खिलाया। कोर्ट में बात पहुँची, नोटिस लगा दिया गया। जगतनारायण को पूरी आशा थी कि जिस मकान में वह रह रहा है, वह उसी का हो जाएगा और एक चिंता से मुक्ति मिलेगी। इस बीच पासा पलटा और न जाने कैसे उसे पता चल गया। उसका नाम बाबू मनसुख था। उसी को किराया दिया जाता था। बिना रसीद के। बाबू मनसुख का कहना था कि वह मकान-मालकिन का दत्तक पुत्र है और वह इसे साबित कर सकता है। जब उसे साबित करने को कहा गया तो वह साबित नहीं कर सका। कुछ जाली कागज़ उसने प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत ज़रूर किए। उसे लग गया कि मकान हाथ से निकल जाएगा। उसके पास एक ही रास्ता था। पुलिस...

उसने पुलिस में रपट की कि जब मैं किराया लेने पहुँचा तो जगतनारायण और उसके बेटे शिवा ने मुझे जान से मारने की कोशिश की। पुलिस बीच में पड़ी। पुलिस ने कितना पैसा खाया, यह न तो जगतनारायण को मालूम था, न शिवा को। अलबत्ता जगतनारायण ने सारी बात अपने छोटे भाई विजयनारायण के सामने रखी तो उसने छूटते ही कहा-”भाऊ, घबरा नहीं, तुझे दुनिया की कोई ताकत वहाँ से हटा नहीं सकती।”

“पर वह तो वहाँ कल से ही दूसरा कमरा डाल रहा है।”

“जबरदस्ती?”

“हाँ।”

“यह कैसे हो सकता है?”

“पुलिस है न उसके साथ।”

“उसकी तो माँ की...तू चल मेरे साथ।”

“कहाँ?”

“चल तो।”

विजयनारायण उसे एक नेता के पास ले गया। कांग्रेस का एक स्थानीय नेता दया प्रकाश। विजयनारायण कांग्रेस को अच्छा-खासा चंदा देता था सो उसके स्थानीय नेताओं से अच्छी दोस्ती थी। खास तौर पर दया प्रकाश से। उसने सारी बात दया प्रकाश को बताई। दया प्रकाश तैश में आकर बोला-”अँधेरगर्दी है। कोई कानून भी है कि नहीं! कैसे करवाएगा खाली रायज़ादा साहब! चिंता मत करो, अपने हाथों से उसकी एक-एक ईंट न गिरा दी तो मेरा नाम दया प्रकाश नहीं...।”

जगतनारायण बड़ा आश्वस्त हो गया। दया प्रकाश के पास आने से पहले उसके मन में दुविधा थी कि एक कांग्रेसी नेता के पास जाए कि नहीं। उसे कांग्रेस से नफरत थी। उसी ने देश का बँटवारा करवाया, उसी के नेताओं ने उसे बेघर कर दिया था। अब उसी कांग्रेसी नेता के पास जाए शिकायत के लिए। नहीं। पर स्थिति ऐसी विकट थी कि वह अपने भाई विजयनारायण के इस प्रस्ताव को ठुकरा नहीं सका।