अनहद नाद / भाग-8 / प्रताप सहगल

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जगतनारायण चुप रहा। शिवा बड़ी देर तक सोचता रहा। क्या सचमुच इस भूचाल से पंडितों की भविष्यवाणी का कोई संबंध है? है तो भूचाल पहले क्यों नहीं आया? और अगर वे भविष्यवाणी कर ही सकते तो बताया क्यों नहीं कि फलाँ दिन भूचाल आएगा? फिर जब से वे कह रहे थे, प्रलय का खतरा टल गया है तो फिर भूचाल आया ही क्यों? इस तरह से कई सवाल उसके मन को मथते रहे और बार-बार डर का साया इन सवालों पर छाता रहा। वह इन सवालों से हटकर गायत्री का जाप करने लगता या भजन को मन ही मन गुनगुनाने लगता। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि यह कैसे हो सकता है कि सभी पापी एक ही जगह इकट्ठा हो जाएँ और फिर किसी प्रकोप से उन्हें ईश्वर मार दे! ईश्वर है भी? ईश्वर है भी?? ईश्वर है भी???

उसे कोई जवाब नहीं मिला। सो भी नहीं पाया। पौ फटने से पहले ही उसकी आँख लगी। उठा तो पिता काम पर जा चुके थे और माँ सबके लिए खाना बना रही थी।

पहला अवसर मिलते ही उसने यही प्रश्न पिता के सामने रखा-”ईश्वर है भी?”

“है बेटा, ज़रूर है।”

“क्या प्रमाण है?”

“यह पेड़ देखो, यह पत्ते, यह पक्षी, हम, तुम, आखिर किसने बनाए हैं?”

शिवा के पास इस बात का जवाब नहीं था, पूछा-”अच्छा, माना पिता जी कि ईश्वर ने पेड़, पौधे, पक्षी, झरने, नदियाँ, पहाड़ सब बनाए हैं, तो क्यों?”

“ईश्वर को भी कोई काम करना था कि नहीं!”

“या लीला करनी थी।”

“या फिर ईश्वर को अपना विस्तार करना था, ‘एकोऽहं बहुस्यामि’।”

“यह तुझे किसने बताया?”

“पढ़ा है।”

“पर एक बात समझ में नहीं आती।”

“क्या?”

“‘सत्यार्थ प्रकाश’ में ही लिखा है कि हर क्रिया का कर्ता और कारण ज़रूर होता है।”

“हाँ, यह तो है।”

“अब सृष्टि बनाने को ईश्वर की सत्ता का कारण मान लें तब उसका कर्ता कौन है?”

“समझा नहीं।”

“आपने कहा, मैं मानता हूँ कि हमारा कर्ता ईश्वर है तो फिर ईश्वर का कर्ता कौन है?” जगतनारायण असमंजस में पड़ गया-”यह तो मैंने कभी सोचा नहीं शिवा।”

“पर इसका जवाब तो होगा।”

“होगा, ज़रूर होगा, पर मुझे मालूम...। कभी रामचन्द्र देहलवी से मिलवाऊँगा तुझे, वही तेरे टेढ़े सवालों का जवाब दे सकते हैं...पढ़ाई तो ठीक चल रही है न?”

जगतनारायण ने बातचीत की पटरी बदली। शिवा का मन पढ़ाई में अब पहले से कम लगता था। स्कूल में शरारतें ज़्यादा करने लगा था। नहीं बता सकता था कि वह तो अपना एक झूठा बाप बनाकर प्रिंसिपल के सामने पेश कर चुका है। उसे लगा, वह आसमान से सीधा पाताल में जा गिरा है। बस, इतना ही बोला-”हाँ।” जगतनारायण सोने की तैयारी में लग गया। बहुत दिनों बाद बाप-बेटा बात कर सके थे। शिवा चाहता था कि पिता जी उससे पहले की ही तरह से रोज़ बात करें। रोहतक में जैसे रात को सोते समय कोई कहानी सुनाते या आज़ादी की लड़ाई के बारे में बताते, वैसे ही कुछ बताएँ, पर अब स्थितियाँ बदल चुकी थीं। जगतनारायण परिवार की बढ़ती ज़रूरतें पूरी करने के लिए पैसा कमाने में लगा था और शिवा उनके साथ, जिनके पास और राह ही नहीं थी। था तो सिर्फ आवेश, क्षोभ, संभ्रम।

शिवा दो दिशाओं में-दो विपरीत दिशाओं में फैल रहा था और दोनों ही दिशाओं में वह एक ही शिद्दत के साथ फैलता गया।

बचपन में सुने बहादुरी के किस्से। भगतसिंह और राणा प्रताप की कहानियाँ। स्वामी दयानन्द सरस्वती की खोज और विवेकानन्द की कुछ कहानियाँ किशोर शिवा के मन में अब भी थीं, पर उन्हें कहीं, घई, कहीं भूषण, कहीं दीपू तो कहीं आसपास के माहौल ने ढक दिया था। शिवा अपने शरीर में तनाव महसूस करने लगा था। तनाव माँगता था कोई दिशा और दिशा को रोकता था ब्रह्मचर्य पर सुना हुआ बार-बार का भाषण।

शिवा के घर भी तनाव छा रहा था। माँ फिर ढीली-ढीली नज़र आने लगी थी। मोटी माता का मकान छोड़कर वे एक नए मकान में आ गए थे। जगतनारायण को जब पता चला कि मकान की मालकिन मर चुकी है और उसे किराए पर चढ़ाने वाला व्यक्ति उसका पुत्र नहीं है, तो कहीं दूर मन में एक हिरण कुलाँचें भरने लगा। वह मकान मुआवजे़ में मिला हुआ था और कई दिनों से खाली था। हालाँकि मकान के नाम पर उसमें सिर्फ एक बड़ा-सा कमरा था, और बाकी खुली जगह, पर जगतनारायण को यह इसलिए पसन्द आया कि वह वहाँ स्वतंत्र रूप से रह सकता था। सोचा, पैसा हाथ लगे तो एकाध कमरा और डाल लेगा। लेकिन फैक्टरी की नौकरी में इतने पैसे हाथ कहाँ लगते थे। बढ़ते परिवार के साथ उसने महँगाई भी महसूस की। जीवन-भर शुद्ध घी खाने वाले जगतनारायण को अब यह सब महँगा लगने लगा तो वह एक दिन डालडा घी का एक किलो का डिब्बा थैली में ऐसे छुपाकर लाया, जैसे कोई चोरी कर के ला रहा हो। तब वह घर आकर खिसियाना-सा होकर हँसा भी था। उसने शकुन्तला से कहा-”बच्चे पकौड़े, पूरी बहुत माँगते हैं न, इसी में तल लिया कर।” उस दिन से हर चीज़ डालडा में तली जाने लगी। पहले-पहल तो शकुन्तला को उबकाई-सी आई। पर वह जानती थी, इस तनख्वाह में इतने बड़े परिवार का गुज़ारा मुश्किल है। उसने उसे भी जैसे-तैसे गले से नीचे उतारा। बाद में सूखी सब्ज़ी बनाने के लिए सरसों का तेल आने लगा और दूध में भी कटौती होने लगी तो शकुन्तला ने एक दिन पूछा-”रामस्वरूप को तनख्वाह बढ़ाने को क्यों नहीं कहते?”

“तीन बार कह चुका हूँ, इस कान सुनता है, उस कान निकाल देता है। अब लगता है, रोहतक छोड़कर बड़ी भूल की।”

शकुन्तला को मौका मिला-”मैं तो पहले ही कहती थी, अपना काम बादशाही होता है।”

शिवा भी सुनता यह सब, पर खामोश रहता। वह क्या कर सकता था। उसकी ज़रूरतें भी पूरी नहीं होती थीं। फिल्म देखने का उसका बड़ा मन करता था, पर कैसे? पिता तो वैसे भी फिल्मों के सख्त खिलाफ थे। कभी कोई फिल्म दिखानी हो तो पहले खुद देखते और उसे बच्चों को दिखाने लायक समझते तो उन्हें ले जाते। ऐसा मौका सालों में एकाध बार ही आता। दीपू भी फिल्मों का बहुत शौकीन था उसे माँ से पैसे भी मिल जाते। वह देखकर आता और शिवा को कहानी सुना देता। शिवा इतने में भी संतोष कर लेता।

जगतनारायण ने पुनर्वास मंत्रालय में जाकर पता लगाया तो उसे एक क्लर्क ने आश्वासन दिया कि यह मकान उसके नाम हो सकता है। काम टेढ़ा है, सो खर्च भी बड़ा होगा। क्लर्क ने तीन हज़ार माँगे। जगतनारायण के लिए यह रकम बहुत बड़ी थी। फिर भी उसने तय कर लिया, जैसे भी हो वह इस मकान को हासिल करके रहेगा और खानाबदोशों की ज़िदगी से मुक्ति पाएगा। उसने काम करवाने के लिए अग्रिम राशि के तौर पर क्लर्क बाबू को एक हज़ार बतौर रिश्वत दे भी दिया। वह आश्वस्त भी था और आशंकित भी।

नौकरी, मकान और परिवार के झंझट में फँसा जगतनारायण काम से रात देर को लौटता, सुबह जल्दी चल देता। शिवा के साथ उसके वार्तालाप लगभग बंद हो गए थे। रविवार को सत्संग में भी जाना अनियमित हो गया। एक रविवार, हज़ार काम।

शिवा को संस्कार जैसे भी मिले अब उसकी दुनिया भूषण और दीपू के साथ थी। तीनों किशोर और तीनों के एक-से रंगीन सपने। तीनों में से दीपू की आर्थिक स्थिति थोड़ी बेहतर थी। माँ के साथ शिवा का लगाव पहले ही कम था, अब और भी कम हो गया। माँ छोटे भाई-बहनों को उसके हवाले करके खुद काम में जुटी रहती। शिवा को यह अच्छा नहीं लगता था। इसलिए वह घर पर कम से कम रहने की कोशिश करता। शिवा पढ़ने में तेज़ था, पर था भूषण और दीपू की संगत में। दोस्ती पर कुरबान-झूठ-सच, जो भी था, पर था। नतीजन तीनों की योजनाएँ एक साथ बनतीं।

हिन्दी के मास्टर धनीराम को मारने के बाद भूषण तो जैसे भयमुक्त हो गया था। स्कूल में बल्लू तथा दो-चार और लड़कों को मारने के बाद और यह देखकर कि बल्लू के बाप के आने के बाद भी उनका कुछ नहीं बिगड़ा, किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि उनकी कोई शिकायत करता। मास्टर भी देखते जब भूषण क्लास में नहीं तो उन्हें अच्छा लगता और वे आराम से पढ़ा लेते।

पहले ही पीरियड में हाज़िरी होती और हाज़िरी लगवाकर भूषण खिसक जाता। पीछे-पीछे दीपू भी। शिवा अभी डरता था। शिवा कभी दूसरे पीरियड तो कभी तीसरे तो कभी आधी छुट्टी के बाद खिसकता। कभी नहीं भी खिसकता। भूषण ने एक दिन डाँटा-”आया क्यों नहीं?”

“स्कूल का काम कैसे करोगे?”

“बड़ा आया, बड़ गया काम भांडे में।” भूषण ने दाँतों से नाखून काटते हुए कहा।

दीपू ने बीच-बचाव किया-”ठीक तो है...इसकी कापी देखकर तो कर लेंगे।”

“वड़ेवें...क्या होगा पढ़ के घई को देख, साला अब ऐश करता है और वो बेली पहलवान!” कहते हुए भूषण ने रैड लैंप मार्का सिगरेट की डिब्बी निकाली। एक सिगरेट अपने मुँह में लगाई। एक-एक दोनों को दी। शिवा ने पहली बार चरस-भरी सिगरेट का कश लगाया था। अब...जब यार पी रहे हैं तो वह इन्कार कैसे कर सकता है! बोला-”चरस है इसमें?”

“नहीं ओए...पिएगा चरस...चरसी...”

“नहीं, पूछा है।”

“खाली है।” कहते हुए भूषण ने अपनी और दोनों को सिगरेट सुलगा दी। तीनों ने मिलने के लिए स्कूल के पास ही भट्ठों वाली जगह चुनी थी। भट्ठे तो अब वहाँ नहीं थे, पर मिट्टी निकालने की वजह से वहाँ गहरे खड्डे हो गए थे। वे वहाँ बैठकर खुद को बड़ा सुरक्षित अनुभव करते। पहला कश खींचते ही शिवा को फिर ज़ोर की खाँसी हुई। “नहीं सीखेगा बाँगड़ू।” भूषण ने कहा, “अरे आराम से सूटा मार।” इस बार शिवा ने कश खींचा, धुआँ मुँह में रखा। कुछ देर मुँह में रखा तो नाक से साँस निकलने के साथ ही धुआँ भी निकला। “अरे वाह प्यारे!” शिवा की पीठ पर हाथ मारते हुए कहा भूषण ने।

“कभी किसी ने देख लिया तो,” शिवा का डर बोला।

“कौन...कौन देखेगा...देखेगा तो देख ले...दीपू लाया है।”

तभी दीपू ने ताश निकाली और फ्लैश खेलने लगे।

शिवा पास बैठा देखता रहा।

छुट्टी से पहले वाले पीरियड में वे ज़रूर लौट आते और छुट्टी होते ही अपना-अपना बस्ता उठाकर घर की राह लेते।

उस दिन सिगरेट फूँकने, किसी रईस को लूटने की योजनाएँ बनाने और ताश खेलने के बाद से सातवें पीरियड में लौटे। आठवें के बाद छुट्टी हुई। बस्ता उठाया, चल दिए। रास्ते में भूषण ने शिवा से कहा-”चल माता के मन्दिर चलते हैं।”

“मुझे नहीं जाना।” शिवा ने कहा।

“चल न!” दीपू ने भी आग्रह किया।

“तुम जाओ।”

“नास्तिक, स्साला।” भूषण बोला।

“नास्तिक नहीं हूँ मैं।”

“चल फिर।”

“मूर्तियों में नहीं है भगवान।”

“माता में भी नहीं?”

“नहीं।”

भूषण और दीपू के विश्वास को ठेस लगी। कोई और होता तो शायद दोनों मिलकर उसे पीट देते, पर यहाँ बात और थी। भूषण और दीपू जानते तो थे कि शिवा समाजी है, पर वे अपने आराध्य के खिलाफ कुछ सुन भी नहीं सकते थे। वैसे भी चोर-उचक्कों में भक्तिभाव अपेक्षाकृत अधिक होता है। भूषण के सामने घई और बेली पहलवान आदर्श थे। एक माँ वैष्णों देवी का भक्त, दूसरा हनुमान का। भूषण दोनों का भक्त था। दीपू भी वैष्णो देवी हो आया था। उसमें उसकी अगाध आस्था थी। उसी ने पूछा-”कभी वैष्णो देवी गया है?”

“नहीं।”

“जाकर देख, मन में अपने-आप श्रद्धा जागती है।”

“सब ढोंग है।” शिवा ने आक्रोश-भरे स्वर में कहा-”किसी गरीब की सेवा तो करते नहीं हो तुम और इन पंडों को खिलाते हो हराम की।” बात ज़रा तीखी और सीधी होने लगी।

“क्या कहता है शिबू! माता तो सबकी जननी है।” भूषण ने कहा।

“यह माता नहीं है, ढोंग है।” लगभग चिल्लाया शिवा-”करोड़ों देवता, कभी यह भगवान, कभी वो भगवान, भगवान सिर्फ एक है-निर्गुण, निराकारी, सर्वव्यापी, अन्तर्यामी,” और भी शिवा ने वह सब कहा, जो उसने आर्य समाज में वर्षों सुना था। अब वही उसके संस्कार बन गए थे। कुछ समझा, कुछ नासमझा, कुछ पका, कुछ अधपक्का ज्ञान।

“तू किसी देवी-देवता को नहीं मानता?”

“नहीं”

“किसी आत्मा को नहीं मानता?”

“मानता हूँ, पर देखा नहीं।”

“देखा नहीं तो क्यों मानता है?”

“देखो तो ईश्वर भी नहीं, पर मानता हूँ। हाँ, देवी-देवता का ढोंग नहीं मानता।”

“आत्मा मरती नहीं, फिर जन्म लेती है, मानता है कि नहीं?”

“मानता हूँ।”

“जो आत्मा मुक्त नहीं होती, जन्म नहीं लेती वह भटकती है, मानता है?”

“नहीं, आत्मा या तो जन्म लेती है, या मुक्त होती है, भटकती नहीं।”

“तो तू भूत-प्रेत नहीं मानता?”

“नहीं।”

“तू झूठ बोलता है।”

“यह मेरा विश्वास है।”

“तू भूतों से डरता नहीं?”

“नहीं। तूने कभी देखा है?” इस बार शिवा ने पूछा।

“हाँ, मैंने देखा है भूत।” कह गया भूषण।

भूषण से अब यह बर्दाश्त नहीं हो रहा था कि उसकी आराध्य-देवी माता वैष्णों की कोई अवमानना करे, चाहे वह शिवा जैसा कोई दोस्त ही क्यों न हो। उसे भूत भले ही न देखा हो, पर वह आज अच्छी तरह शिवा को बता देना चाहता था कि जो वह सोचता है, वह सही नहीं है। इसलिए तर्क कम और अपने-अपने विश्वास का आग्रह अधिक झलक रहा था उनकी बातचीत में।

“तू मरेगा शिवा, माँ को न मानने वाला ज़रूर मरता है।”

“मरते तो सब हैं।”

दीपू जो इतनी देर तक खामोशी से बैठा उनकी बातें सुन रहा था, बोला-”छोड़ भूषी, जब माँ बुलाएगी न, यही भागा-भागा जाएगा। वहाँ बड़े-बड़े अविश्वासी, नास्तिक माँ के चरणों में लेट जाते हैं। सबकी जुबाव से अपने-आप निकलता है-‘जय माता दी’।”

नहीं दीपू, पहले भी बात हुई है, आज कुछ फैसला होना चाहिए...तू मंदिर चल और मन न करे तो मत्था मत टेकना, पर चल।”

शिवा को जाने क्या हुआ, वह भूषण और दीपू के साथ चल दिया। तीनों एक मंदिर में पहुँचे। वैष्णों देवी का मंदिर। शेर पर सवार वैष्णों देवी की बड़ी-सी तस्वीर। पाँव में दबा पड़ा राक्षस। भूषण और दीपू ने पूरी श्रद्धा से मत्था टेका। शिवा खड़ा रहा। उसे रोहतक मंदिर याद आया...वह तो कितना बड़ा मंदिर था, जहाँ उसने कई मंगलवार प्रसाद खाया। हनुमान की मूर्ति के सामने चवन्नी उठाई। आज तक तो कुछ नहीं हुआ। मन ही मन यह तर्क देखकर शिवा ने अपने-आप को आश्वस्त कर लिया। दोनों ने देखा, शिवा न झुका, न उसने मत्था टेका। भूषण को अब गुस्सा आ गया-”क्या समझता है अपने-आप को? ईश्वर है, देवता है, क्या है तू जो माँ के सामने मत्था नहीं टेकता!”

शिवा विचलित नहीं हुआ-”अपनी-अपनी श्रद्धा की बात है।”

“कहाँ है तेरी श्रद्धा?”

“तुझमें, दीपू में, आदमी में...।”

इससे पहले कि शिवा कुछ और कहता भूषण यह कहता हुआ मंदिर से बाहर आ गया-”आज रात को ही तू मरेगा। माता रानी तुझे माफ नहीं करेगी।”

शिवा अंदर ही सशंकित भी था, कहीं वास्तव में ही उसके साथ कुछ हो न जाए, पर अब वह यह प्रयोग भी कर लेना चाहता था।

शिवा के इस व्यवहार से भूषण स्वयं को पराजित अनुभव करने लगा। दीपू भी अचंभित तो हुआ, पर उसमें ऐसी तीव्र प्रतिक्रिया नहीं हुई। भूषण अब करे तो क्या करे। वह यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था कि शिवा मत्था भी न टेके और उसका कुछ अनष्टि भी न हो।

नज़फगढ़ रोड के किनारे-किनारे तीनो दोस्त यही बहस करते हुए चले आ रहे थे। दोनों ओर नीम के पेड़ लहलहा रहे थे। नीम के पेड़ों के बीच ही एक पीपल का बड़ा-सा पेड़ था जो सबसे पहले भूषण को ही दिखाई दिया। उसने पीपल के पेड़ को देखते ही शिवा से पूछा-”तू पीपल देवता को भी नहीं मानता?”

शिवा अब तक भूषण के ऐसे कई सवालों का जवाब दे-देकर तंग आ चुका था। बोला-”तू चाहता क्या है? तैंतीस करोड़ देवता हैं तुम्हारे। नाम तुम तैंतीस का नहीं बता सकते। मानते सबको हो। अंधविश्वासी।”

भूषण के पास जो गोली थी, उसने दाग दी-”नहीं मानता तो इस पर पेशाब कर सकता है? इसके नीचे रात को आकर कील ठोक सकता है?”

शिवा भी तैश में था-”हाँ, कर सकता हूँ।” और उसने आव देखा न ताव, नेकर के बटन खोलकर पीपल पर मूत दिया।

भूषण और दीपू कटे से देखते रहे।

भूषण अब तो पूरी तरह आश्वस्त हो गया था कि आज शिवा के साथ कोई न कोई दुर्घटना ज़रूर होगी।

तीनों ने तय किया कि रात आठ बजे के बाद वे फिर वहीं आएँगे और शिवा अकेले जाकर पीपल के नीचे कील ठोकेगा। भूषण ने यह भी चेतावनी दे दी-”मर गया तो हमारा ज़िम्मा नहीं।”

“देखा जाएगा,” कहकर शिवा दोनों को वहीं छोड़कर घर की ओर चला गया।

उन दिनों नज़फगढ़ रोड़ शाम 6 बजे के बाद ही सुनसान हो जाती थी। बत्तियाँ दूर-दूर थीं। ट्रैफिक नगण्य। लोग कम। शिवा के लिए रात आठ बजे घर से निकलना समस्या थी। पिता के आने का वक्त भी लगभग यही था। न जाए तो कच्ची होती है और जाए तो बहाना क्या बनाए। सर्दियाँ अभी शुरू हो रही थीं। आठ बजे तो सन्नाटा ही गूँजता था। वह साढ़े सात बजे ही खाना खाकर घर से बाहर निकलने लगा तो माँ ने पूछा-”कहाँ जा रहा है?”

“बस यहीं।”

“कहाँ यहीं?”

“कहा न यहीं।”

“शिवा, पिताजी आने वाले हैं।”

“मेरी कापी रह गई है भूषण के पास, ले के आता हूँ।”