अनहद नाद / भाग-7 / प्रताप सहगल
दीपक शिवा और भूषण की बहस में अक्सर नहीं पड़ता था। कोई दिन ऐसा नहीं निकलता, जब भूषण और शिवा में यह बहस न होती हो कि आखिर जीवन का मकसद क्या है? शिवा भूषण को इतना पसन्द करता था कि उसकी दोस्ती छोड़ना नहीं चाहता था, या यह कहना चाहिए कि भूषण की दोस्ती की वहज से वह खुद को बहुत सुरक्षित महसूस करता था। भूषण से तमाम लड़के वैसे तो थोड़ा-बहुत पहले भी डरते थे, पर उस दिन से तो बहुत ही डरने लग गए, जिस दिन उसने क्लास के एक लड़के बल्लू को प्रैस की तार से पीट दिया था। भूषण कद में छोटा था, पर था गठीला, चुस्त और दिलदार। चार-छः लड़कों से वह अकेला ही निपट लेता। दो-चार पड़ भी जाएँ तो परवाह नहीं। बल्लू को पीटने की वजह सिर्फ इतनी थी कि उसने भूषण की शिकायत मास्टर जी से कर दी थी और मास्टर जी ने भूषण को पूरी क्लास के सामने बुरी तरह से अपमानित कर दिया था। बल्लू को पिटता देख शिवा बीच में कूदा और उसने भूषण का हाथ पकड़ लिया। घेरे में खड़े सभी लड़कों ने जब यह देखा तो उन पर भूषण के रौब के साथ-साथ शिवा और भूषण की गहरी दोस्ती का रौब भी पड़ गया। शिवा ने मोटी-सी गाली और चेतावनी देकर बल्लू को छोड़ दिया।
शिवा भूषण को पकड़कर एक ओर ले गया-”क्या किया तूने, नील पड़ गए हैं उसे।”
“मरने दे साले को, भूषी की शिकायत करेगा!”
“उसके भी माँ-बाप हैं।”
“अच्छा-अच्छा, तू अपना भाषण बन्द कर और यह रख अपनी जेब में,” कहते हुए भूषण ने प्रैस की तार शिवा को पकड़ा दी।
“मैं क्या करूँगा?”
“अरे रख, कभी काम आएगा...एक दीपू को भी ला दूँगा। रहना है तो शान से...क्या हिम्मत किसी की स्कूल मे जो...”
शिवा को गुस्सा तो इतना आया कि ज़ोर से एक थप्पड़ उसके मुँह पर मारकर कहे, ‘तू समझता क्या है अपने आप को, जो चाहे सो करेगा और कोई बोलेगा नहीं!’ पर वह बोला कुछ नहीं और तार को लपेटकर नेकर की जेब में रख लिया।
शिवा घर लौटते हुए बहुत परेशान था। उसके घर में कभी पता चल गया तो पिता जी तो चमड़ी ही उधेड़ देंगे। सोचने लगा, आखिर क्यों वह भूषी का साथ देता है? उसे तो पढ़ना है, आगे बढ़ना है, कुछ बनना है। कहाँ मूलशंकर का ईश्वर की खोज में घर से निकलकर संघर्ष करना, कहाँ विवेकानंद और कहाँ यह भूषी! फिर उसे लगा कि अब वह भूषी के साथ इतना घुल-मिल गया है, उन दोनों की दोस्ती! दूसरे कोने से आवाज़ आई, दीपू भी है...हाँ, तीनों की दोस्ती अपने-आप में एक मिसाल बनने वाली है। तब क्या बीच रास्ते दोस्ती तोड़ना ठीक होगा? जो करता है करे भूषण, वह ऐसा नहीं करेगा और उसने नेकर की जेब में पड़ा हंटर निकालकर बाहर फेंक दिया। थोड़ी देर रुका...उसे देखता रहा। फिर यह सोचकर बस्ते में रख लिया कि कल भूषी को ही लौटा देगा और उसे अपनी दोस्ती की कसम देगा कि वह कभी भी हंटर का इस्तेमाल नहीं करेगा। क्या हालत हो गई थी बल्लू की।
अगले दिन स्कूल में बल्लू के पिता के आने की खूब चर्चा थी। बल्लू के पिता ने प्रिंसिपल को बल्लू के शरीर पर पड़े हंटर के निशान दिखा-दिखाकर बहुत लताड़ा और शर्मिन्दा किया। प्रिंसिपल ने तुरन्त भूषण को बुलाया। भूषण उस दिन स्कूल आया ही नहीं। बल्लू ने शिवा का नाम ले दिया। शिवा की पेशी प्रिंसिपल के सामने हुई।
“शक्ल से तो अच्छे घर के लगते हो।” प्रिंसिपल ने शिवा को भेदक दृष्टि से देखते हुए कहा।
शिवा खामोश रहा। मन में आया, कह दे कि उसने कुछ नहीं किया, पर तब सारी बला भूषण पर आती और शिवा भूषण के साथ अपनी दोस्ती पर कोई आँच आने देने को तैयार नहीं था।
“तुम्हारे पिता जी क्या करते हैं?” दूसरा प्रश्न था।
“नौकरी।” शिवा ने कहा।
“कहाँ?”
“एक फैक्टरी में पेंटर हैं।”
“क्यों उनकी मेहनत की कमाई पर पानी फेर रहे हो। पढ़ना-लिखना नहीं, तो कहीं छोले-भठूरे बेचो...दादागीरी करने आते हो...क्यों मारा तुमने...बोलते क्यों नहीं?”
शिवा के मन में उथल-पुथल तेज़ हो गई। वह पढ़ने में बहुत अच्छा नहीं था तो बहुत बुरा भी नहीं था। थोड़ी देर पढ़कर ही अच्छे अंक प्राप्त कर लेता था और प्रिंसिपल साहब बिना यह सब देखे डाँटे जा रहे हैं। उसने अन्दर ही अन्दर अपमानित महसूस किया। उसके मन में आया कि सामने बड़ी-सी मेज़ पर पड़े दोनों फूलदान उठाए और एक प्रिंसिपल के सिर पर दे मारे और दूसरा बल्लू के पिता के सिर पर। पर वह निश्चल खड़ा रहा और ‘छोले-भठूरे’ शब्दों से उसके कान बजने लगे।
प्रिंसिपल ने बल्लू के पिता से कहा-”आप घबराइए नहीं, इन्हें सज़ा ज़रूर मिलेगी। भूषण की कई शिकायतें मैं पहले भी सुन चुका हूँ...” फिर शिवा की ओर देखते हुए कहा-”जाओ अपनी क्लास में...।”
शिवा जाने लगा तो उसे आदेश मिला-”कल अपने पिता जी को साथ लेकर आना।”
कमरे से बाहर निकलते-निकलते शिवा ने यह भी सुना-”यह लड़का इतना बुरा नहीं है...ग़लत संगत...” इससे आगे कुछ और सुनने से पूर्व ही वह कमरे से बाहर था।
शिवा को अपने पर गुस्सा आया, फिर भूषण पर। गुस्से की जगह डर को लेते बहुत देर नहीं लगी। अब वह इस उधेड़बुन में था कि घर जाकर पिता जी से क्या कहेगा। पहले तो कभी भी ऐसी कोई शिकायत नहीं हुई। शिवा मुँह लटकाकर अपनी कक्षा में पहुँचा। दीपू ने पूछा-”क्या हुआ?” शिवा ने सारी बात बता दी।
आधी छुट्टी होते ही वे भूषण के घर पहुँचे। पता चला कि वह तो घर से स्कूल के लिए ही निकला था। वे न चाहते हुए भी परेशान-से घई की रेहड़ी के पास पहुँचे। पूछा-”भूषी का पता है?”
“आता ही होगा।” घई ने इतना कहा ही था कि भूषण दूर से आता दिखाई दे गया। “लो आ भी गया।” पास आकर भूषण ने कागज़ में लिपटा गोल गेंद-सा कुछ घई को दिया। शिवा, दीपू को वहीं देखकर कहा-”स्कूल में सब ठीक है?”
“घंटा ठीक है।” दीपू ने थोड़े आवेश में कहा।
“क्या हुआ?”
“बल्लू का बाप आया था?”
भूषण को सारी बात समझते देर नहीं लगी। “अच्छा, तो बाबे ने बुलाया होगा।” भूषण प्रिंसिपल को इसी नाम से बुलाता था। उसने हर मास्टर की कोई न कोई छेड़ निकाली हुई थी और उसी नाम से उनके बारे में बात करता। स्कूल में यह एक दिलचस्प बात थी कि जब भी कोई नया मास्टर उनकी कक्षा में आता तो सभी उसे गौर से देखते, उसके पहनावे, पढ़ाने के ढंग, उसकी आदत या उसके व्यक्तित्व में कोई अजब-सी चीज़ ढूँढ़ निकालते और फिर वे मास्टर को उसी या उससे मिलते-जुलते किसी नाम से पुकारते यानी हर मास्टर का नया नामकरण यहाँ होता और नामकरण करने में भूषण सबसे ज़्यादा सिद्धहस्त था। कभी-कभी शिवा, दीपू या किसी और का दिया हुआ नाम भी मान लिया जाता, पर ज़्यादातर बात भूषण की ही चलती। हाँ, कई बार मतभेद होने की स्थिति में एक ही मास्टर के दो-दो नाम भी चल निकलते। जब यह नया प्रिंसिपल हाकिम राय आया तो उसके चौड़े माथे, ढले हुए मुँह, फैले हुए होंठ, सिर पर छोटे-छोटे खिचड़ी बाल और ढीले कपड़े तथा ढीली चाल देखकर उसे “बाबा’ नाम भूषण ने ही दिया था। जब नाम दिया तो यह नाम इतना चला कि लोग उसका असली नाम ही भूलने लगे। इतना ही नहीं, वह स्कूल भी ‘बाबे का स्कूल’के नाम से प्रसिद्ध हो गया। ‘बाबे का स्कूल’नाम इतना चला कि बाद में हाकिम राय के रिटायर होकर स्कूल छोड़ने और यहाँ तक कि उसके मरने के बाद भी स्कूल का नाम ‘बाबे का स्कूल’ही रहा। बाद में आई पीढ़ियों को तो यह मालूम भी नहीं था कि आखिर एक सरकारी हायर सेकेन्डरी स्कूल बाबे का स्कूल कैसे बन गया। ऐसे ही भूषण ने हिन्दी के मास्टर की अजीब छेड़ डाल दी थी। धनीराम धोती पहनते थे। पतले-दुबले, चश्मा नाक से खिसकता हुआ। सिर एकदम साफ मैदान। जब वे हिन्दी पढ़ाते तो हर वाक्य खत्म होने के बाद ‘ऐं! समझ गए न, ऐं!’ यह ‘ऐं’कहने का उनका अपना ही अलग अंदाज़ था, जिसे सभी ने पकड़ा। पकड़ा तो इतना पकड़ा कि एक दिन पढ़ाते हुए ज्यों ही वाक्य खत्म हुआ और ‘ऐं’ कहने का वक्त आया, इससे पहले कि धनीराम कहें ‘ऐं’, भूषण ने ‘ऐं’ दे मारा और सारी क्लास ठट्ठा मारकर हँस दी। धनीराम का चेहरा गुस्से से तमतमा गया। उन्होंने जानने की कोशिश की कि यह ‘ऐं’किसने कहा है, पर बोले कौन। सब लड़के जानते थे, यह शरारत भूषण की ही थी, पर डर ऐसा कि किसी की क्या हिम्मत जो उठकर उसका नाम ले दे। धनीराम ने सारी क्लास को बेंच पर खड़ा कर दिया। प्रिंसिपल से शिकायत करने की धमकी दी, जुर्माना लगाने का डर दिया, सभ्यता, संस्कार और संस्कृति पर भाषण दिया, पर कोई भी टस से मस नहीं हुआ तो धनीराम ने ही हथियार डाल दिए। पर पता तो लगाना था। कक्षा का अनुशासन खत्म हो रहा था। अलग से किसी लड़के से जैसे-तैसे धनीराम ने पता लगा ही लिया कि यह शरारत भूषण की है। धनीराम ने उस लड़के को न डरने की सलाह भी दी और भूषण को कक्षा में पकड़कर खूब प्रताड़ित किया। उस पर तब भी कोई असर नहीं हुआ और बीच-बीच में ‘ऐं’ की आवाज़ आ जाती तो धनीराम ने एक दिन भूषण की बेंत से पिटाई की।
भूषण ने मन में गाँठ बाँध ली कि वह इसका बदला ज़रूर लेगा। छुट्टी के बाद जब धनीराम घर जा रहे थे तो पीछे से भूषण ने आवाज़ लगाई-”गंजा बिंडू ऐं!” (यह ‘बिंडू’ शब्द उसने कहाँ से लिया और ‘गंजा बिंडू ऐं’ की सुर उसने कहाँ से ली, पता नहीं, पर उसके यह तीन शब्द कहने में एक लय ज़रूर थी। बच्चों की प्रतिभा के इस नकारात्मक स्वरूप को हम न समझकर या इसे ‘बदतमीज़ी’ मानकर उन्हें प्रताड़ित या अपमानित करते हैं। हम भूल जाते हैं कि इस प्रतिभा का सकारात्मक रूप भी हो सकता है, पर ऐसी समझ न तो हमें हमारी शिक्षा-व्यवस्था देती हे, न समाज।)
बहरहाल धनीराम स्कूल के अन्दर कक्षों में तो भूषण को कुछ सीमा तक रोक सकता था, पर बाहर कैसे रोकता। अगले दिन जब उसकी फिर पिटाई हुई तो शिवा ने भूषण को समझाया...
“क्यों छेड़ता है?”
“गंजा बिंडू है कि नहीं?” भूषण ने पूछा।
“उसे बुरा लगता है।”
“तभी तो मज़ा आता है।”
“मुझे नहीं अच्छा लगता।” शिवा का कहना था।
“तो तू मत कर।”
“तेरे साथ तो हूँ।”
“छोड़ दे मेरा साथ।”
तभी बीच में दीपू पड़ जाता और इन्हीं छोटी-छोटी बातों पर उनकी दोस्ती टूटते-टूटते रह जाती।
धनीराम के साथ छेड़छाड़ का यह सिलसिला इतना तूल ले गया कि एक दिन धनीराम ने जब किसी और बहाने से भूषण को कक्षा में मारा तो छुट्टी के बाद घर जाते धनीराम पर भूषण ने पत्थरों की झड़ी लगा दी। बहुत बचते-बचते भी एक नोकीला पत्थर धनीराम की टाँट पर जा ही लगा और खून बह निकला। धनीराम ने इधर-उधर बहुत देखा, पर उसे पता नहीं चली कि पत्थर आया किधर से। उसने अनुमान लगाया कि हो न हो यह काम भूषण का ही है। अगले दिन उसने प्रिंसिपल से भूषण की शिकायत की। भूषण को स्कूल से निकाल देने की बात चली तो मास्टर बेलीराम ने कहा-”एक बार भूषण के माता-पिता से बात कर लेनी चाहिए।” भूषण को आदेश हुआ कि वह अगले दिन पिता को साथ लेकर आए। भूषण ने घई के सामने यह समस्या रखी।
“घई उस्ताद, कुछ करो।”
“बड़े भाई को ले आ।”
“वो तो मेरी जान निकाल देगा।” भूषण जैसा भी था, अभी भी अपने बाप और बड़े भाई से कुछ डरता था। अब वह करे तो क्या करे। बड़ी बहस के बाद फैसला हुआ कि अगले दिन घई ही भूषण का बाप बनकर प्रिंसिपल से मिल लेगा। डर यह था कि घई पहचान न लिया जाए। यहाँ खतरा इसलिए कम था कि तब तक वह एक टीन के सिनेमा के सामने रेहड़ी ज़्यादा लगता था। वहीं से अपना धंधा करता। वहीं पर भूषण ने उससे दोस्ती गाँठ ली थी। भूषण घई के काम आता। भूषण को खर्चा वगैरह मिल जाता। छोले मुफ्त। मुसीबत में घई ही भूषण को बचा सकता था।
वही हुआ। घई साफ-सुथरे कपड़े पहन, मूँछों पे ताव देता हुआ प्रिंसिपल के सामने हाज़िर हो गया और जो भी लानत-मलामत प्रिंसिपल ने की, उसने सुन ली और बोला-”बच्चा है, माफ कर दो। इसकी जगह मुझे माफी दे दो, अब ग़लती नहीं होगी, हुई तो मैं इसकी खाल खींच लूँगा।” कहते-कहते उसने एक ज़ोर का चाँटा भूषण के गालों पर जड़ दिया। भूषण को इसकी उम्मीद नहीं थी। उसका सिर चक्कर खा गया, पर बात बन गई। प्रिसिंपल पर इसका असर हुआ। धनीराम पर भी। भूषण को माफी मिल गई। इस सारी कहानी का पता जब शिवा को चला तो उसे अपने दाँतों के बीच किरकिरी महसूस हुई। उसने सोचा, वह भूषण का साथ छोड़ देगा। हुआ इसके विपरीत। उनकी दोस्ती प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होत गई और आज फिर समस्या पिता को लाने की खड़ी हो गई थी।
अब तो घई को मास्टर लोग भी पहचानने लगे थे। उसका बाप बन के जाना संभव नहीं था। घई ने ही रास्ता निकाला। उसने अपना एक साथी तैयार किया और अगले दिन उसने शिवा के बाप की भूमिका बखूबी निभा दी।
शिवा ऐसे बच तो गया, लेकिन उसके मन पर इतना दबाव पड़ा कि वह चुपके से स्कूल आता और चुपके से ही घर लौट जाता। उसे लगा कि जिनके चक्कर में पड़कर उसे झूठा बाप बनाना पड़ गया, वह राह ठीक नहीं।
जगतनारायण पर काम का दबाव इतना था कि उसे हर रोज़ ओवर टाइम लगाना पड़ता। पैसे भी डेढ़ गुणा मिलते थे। परिवार का खर्च पहले से बढ़ गया था। परिवार बढ़ने पर कोई पाबंदी उसने नहीं लगाई थी। ओवर टाइम करके उसे पैसे अच्छे मिल जाते पर बच्चों और बाप के बीच एक अनकही दूरी फैलती गई। वह मन से शिवा को और बच्चों की अपेक्षा ज़्यादा प्यार करता था। पहला बच्चा होने की वजह से भी और शिवा की कुशाग्र बुद्धि की वजह से भी। रात को थका-हारा जगतनारायण लौटकर आता तो बस रोटी और चारपाई। शिवा और जगतनारायण को आपस में बात किए हुए महीनों बीत जाते। रात देर से लौटने के कारण शिवा और दूसरे बच्चे भी सोए हुए मिलते तथा सुबह जल्दी ही फैक्टरी जाना होता। बाप और बड़े बेटे के बीच जो तालमेल रोहतक में बना हुआ था, वह टूट गया।
1957 का साल था और पूरी दिल्ली में चर्चा थी कि यह साल दुनिया पर भारी है। भूकंप आएँगे, महामारी होगी और दूर-दूर तक कोई दिया जलाने वाला नहीं मिलेगा। वह अनिष्ट क्यों होने वाला है? शिवा बार-बार सोचता। एक बार उसने अपनी मकान मालकिन से, जिसे वह मोटी माता कहता था, पूछा तो उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया-”कलियुग, धरती पर पापियों का भार बढ़ गया है।”
“पापी सिर्फ हिन्दुस्तान में ही है क्या? बाकी सारी दुनिया में नहीं?”
“दुनिया ही मिटेगी काका...फिर सतयुग आएगा।”
“सतयुग में पाप नहीं होते थे माता?”
“नहीं पुत्तर, कोई पाप करता तो उसे फल मिलता था, न्याँ होता था अब तो बेड़ा ही गरक है।”
“किसने देखा सतयुग माता, पापी होते तो हर युग में हैं।”
“अब तो धरती पापियों के बोझ से लदी है काका, शेषनाग इतना बोझ उठा नहीं सकता।”
“शेषनाग!”
“शेषनाग के सिर पर टिकी है यह धरती।”
“घूमती नहीं?”
“घूमेगी कैसे?”
“घूमती है माता, धरती घूमती है।”
“दो जमात पढ़ गया है न, ऐसी बात करता है।”
शिवा को बात में बड़ा रस आने लगा-”माता, फिर होगा क्या अब...”
“क्या होना है, परलो होएगी, परलो, सब खतम।”
“यह बात तो खराब है न!”
“की खराब है?”
“आप तो जी लिए 70 साल, हमने तो अभी शुरू किया है जीना, परलो होएगी...क्यों होएगी?”
“हो सकदा है काका, परलो टल वी जाए, इतने बड़े-बड़े यग हो रहे हैं।”
“यह यज्ञ, यह अनुष्ठान, सब खाने के धंधे हैं माता, पंडितों ने इस देश को लूटा है, लूट रहे हैं। सत्यानास कर दिया है देश का, पर अभी भी चैन नहीं।”
“तूँ, मैंनूँ पता है काका, तूँ नास्तिक है, पर ए गल्ल ठीक नहीं, ईश्वर का ही आसरा है, हरिओ३म्, ओ ही बेड़ा पार करेगा।”
“नास्तिक नहीं हूँ माता, पर यह जो ढोंग होता है, धर्म के नाम पर, उसे नहीं मानता।”
“तो क्या परलो नहीं होएगी?”
“नहीं होएगी।” शिवा ने वैसे ही विश्वास के साथ कहा, जैसे कि पूरे विश्वास के साथ कुछ लोग कह रहे थे, प्रलय ज़रूर होगी।
शिवा ने मोटी माता से बड़ी बातें कीं। मसखरी भी की। पर दोनों ही अपनी-अपनी बात पर डटे रहे। दिन, महीने गुज़र गए, कुछ नहीं हुआ। नियत दिन भी निकल गया। सबने राहत की साँस ली।
जगतनारायण भी वैसे तो इन बातों पर विश्वास नहीं करता था, पर कहीं अंदर से आशंकित ज़रूर रहता था, जबकि शिवा अपने अतिशय आत्मविश्वास या फिर उम्र के भोलेपन की वजह से इन बातों से घबराता नहीं था। जब भी मौका मिलता वह इन सवालों के व्यावहारिक रूप से टकराने की कोशिश भी करता।
प्रलय नहीं हुई। इसका सारा श्रेय पंडितों ने अपने किए हुए यज्ञों, अनुष्ठानों और प्रार्थनाओं को दिया और अपने यजमानों पर यह भी एक अहसान लाद दिया कि हम न होते तो तुम लोग बचते नहीं।
धरती के गर्भ में क्या छिपा है? ब्रह्मांड की गति क्या है? इस ब्रह्मांड के अतिरिक्त और कितने ब्रह्मांड हैं, उनकी गति क्या है और इन सबका मिला-जुला प्रभाव किसी व्यक्ति पर क्या होता है, इसे जानना अभी तक नामुमकिन है। खगोलशास्त्र जितना निश्चित है, फलित ज्योतिष उतना ही भ्रामक।
पंडितों का अन्तर्ज्ञान, वैज्ञानिकों का गणित आदि मिलाकर भी यह नहीं बता पाए कि वस्तुतः घटना कब घटेगी और एक घटना घटी अगले साल। एक रात ज़ोर का भूचाल आया। ऐसा भूचाल कि चारपाइयाँ हिल गईं, रसोइयों के बर्तन गिर गए। कुछ पुराने मकान भी गिरे, पर जान-माल का कोई नुकसान नहीं। उसी रात शिवा ने पहली बार भूचाल के झटकों को महसूस किया और वह कहीं अंदर तक हिल गया। उसने कसकर पिता का हाथ पकड़ लिया। कुछ ही क्षणों में घरघराहट तेज़ गति से निकल गई। पृथ्वी स्थिर हुई। जगतनारायण ने गाना शुरू कर दिया-
अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में,
है जीत तुम्हारे हाथों में, है हार तुम्हारे हाथों में।
शिवा भी साथ-साथ गाने लगा, शकुन्तला भी। बाकी बच्चे भी भजन का स्वर सुनकर उठ गए। मोटी माता भी आ गई। भजन समाप्त हुआ तो तीन बार गायत्री मंत्र का जाप किया गया। फिर क्वेटा में आए भयंकर भूचाल की तुलना होने लगी। भजन से, बातचीत से सभी का मन स्थिर हुआ।
मोटी माता बोली-”लगता है परलो टल गई।”