अनहद नाद / भाग-6 / प्रताप सहगल
शिवा का मन खिल उठा। वह दिल्ली से अभी लगाव महसूस नहीं कर रहा था। रह-रहकर उसे रोहतक और सत्तू की याद आती थी। लोटे और नट्टू से हुई लड़ाइयाँ अब बड़ी भली लगती थीं। कभी-कभी वह तोषी और चोखा को भी याद करता और ज़बरदस्ती उन्हें अपने दिमाग से बाहर धकेलता।
रमेश नगर का सरकारी स्कूल उसे अच्छा नहीं लगा। वैसे तो इमारत पक्की थी, पर छोटी कक्षाओं के बच्चों के लिए पक्की इमारत में जगह नहीं थी और उसे अभी टैन्टों में ही बैठना पड़ता गर्मी हो तो गर्मी ज़्यादा। उसे टैन्ट उसी दिन अच्छे लगते, जिस दिन ज़ोर की बारिश आती, क्योंकि उस दिन टैन्ट वाली कक्षाओं की छुट्टी हो जाती थी।
स्कूल के इई-गिर्द रिहायशी मकान थे। पिछवाड़े थोड़ा-सा दूर निकलते ही खेत शुरू हो जाते थे और आगे थोड़ा दूर निकलो तो बंजर ज़मीन थी। उस ज़मीन को देखकर साफ लगता था कि वहाँ कुछ अरसा पहले भट्ठे थे। भट्ठों की अनुपस्थिति में भी उनकी उपस्थिति थी। ज़मीन को जगह-जगह खोदकर छोड़ दिया गया था। खुदी हुई ज़मीन के आसपास भी एक जली हुई ललाई थी। खुदी हुई ज़मीन में उतरकर बैठ जाओ तो बाहर से कुछ भी पता नहीं चलता था।
नई जगह और नए परिवेश में आते ही व्यक्ति जल्दी से जल्दी अपनी पहचान बनाना चाहता है। शिवा भी कोई अपवाद नहीं था। रोहतक में उसकी अपनी पहचान थी, पर वहाँ वह दूसरों से और दूसरे उससे एकदम अपरिचित थे। किताबें एकदम नई थीं, और वह मध्य सेशन में एक प्रवेश से दूसरे प्रवेश में आ गया था, इसलिए बहुत जल्दी वह सब कुछ समझ नहीं पा रहा था। उसे दुकान पर जाने से तो मुक्ति मिल गई थी, पर छोटे भाई-बहनों को अब भी सँभालना पड़ता था। समय काफी जाता और वह कोशिश करके भी सारा नया पाठ्यक्रम जज़्ब नहीं कर सका। नतीजा यह कि अर्द्धवार्षिक परीक्षाओं में उसके अंक काफी कम आए। उस पर मुसीबत यह कि मास्टर जी ने कहा कि रिपोर्ट कार्ड पर पिता के हस्ताक्षर करवाकर लाओ।
जिस दिन शिवा को अपना रिपोर्ट कार्ड मिला, उसी दिन से वह परेशान रहने लगा। दो दिन बाद मास्टर जी ने पूछा तो शिवा ने बहाना बनाया-”पिता जी बाहर गए हैं।” मास्टर जी को साफ लगा कि शिवा झूठ बोल रहा है और उन्होंने कहा भी-”नम्बर कम हैं इसलिए न!” सारी कक्षा के सामने शिवा पानी-पानी हो गया। अब वह क्या करे!
आधी छुट्टी हुई। शिवा के पास एक लड़का आया। उसी की कक्षा का। छोटा कद, चुस्त, नैन-नक्श बहुत तीखे, आवाज़ भी कड़क, बिना किसी भूमिका के बोला-”मेरा नाम भूषण है, वैसे सब मुझे भूषी कहते हैं...डरता क्यों है?”
शिवा को समझ में नहीं आया, वह क्या जवाब दे। रोहतक में तो अपने दोस्तों के बीच वह समझदार माना जाने लगा था, पर भूषण के सामने वह खुद बहुत छोटा महसूस कर रहा था।
“एक रास्ता बताऊँ?” भूषण ने पूछा।
शिवा की समझ में कुछ नहीं आया कि वह हाँ कहे कि न।
फिर भूषण ने कहा-”कहाँ है रिपोर्ट?” शिवा क्लास में गया और अपने बस्ते से रिपोर्ट कार्ड निकालकर ले आया।
“चल!” भूषण ने कहा और चल दिया। शिवा भी उसके पीछे-पीछे। स्कूल के बाहर ही रेहड़ी, खोमचे वाले अपनी-अपनी दुकान सजाए सामान बेच रहे थे। सबके ग्राहक भी लगभग तय थे। भूषण सीधे एक रेहड़ी वाले पास पहुँचा। वह छोला बेचने में व्यस्त था। भूशण को देखते ही बोला-”खाएगा?”
“उस्ताद, यह शिवा है, यह इसका रिपोर्ट कार्ड। क्या नाम है तेरे बाप का...”
“जगतनारायण।” शिवा डरा हुआ-सा बोला।
“साइन मार दो...।”
“किसमें?”
“बोल यार!”
शिवा को बात समझ में नहीं आई। भूषण ने फिर पूछा-”किसमें करे, हिन्दी में, उर्दू में या अंग्रेज़ी में?”
“उर्दू...।” इतना ही निकल पाया शिवा के मुख से। रेहड़ी वाले ने रिपोर्ट कार्ड पकड़ा और पिता के हस्ताक्षर वाले कालम में उर्दू में जगतनारायण लिख दिया।
शिवा ने काँपते हाथों से कार्ड पकड़ा।
भूषण ने कहा-”डरता क्यों है, यह घई उस्ताद है। सबकी मदद करता है। छोले खाएगा?”
शिवा ने पता नहीं सिर ‘हाँ’ में हिलाया कि ‘ना’ में, पर घई छोलों के दो दोने बनाकर उन दोनों को देते हुए बोला-”नया लगता है।”
“आधी छुट्टी में कुछ भी खाना हो न तो इधर आ जाओ, घई उस्ताद के पास...छोले खाओ...हिसाब एक महीने बाद...।”
“और क्या!” कहते हुए घई उस्ताद ने अपने मैले-से कुर्ते की साइड वाली जेब से सिगरेट निकालकर सुलगा ली। भूषण और शिवा दोनों छोले खाते रहे। इस बीच और लड़के भी आए और अपना-अपना दोना बनवाकर चले गए। खाली दोना फेंकते हुए भूषण ने घई से कहा-”लिख लो।” घई ने लम्बा कश खींचने के बाद ‘खऊँ-खऊँ’ करते हुए सिगरेट की राख को झाड़ दिया। सिगरेट की राख झाड़ने का घई उस्ताद का अपना ही अन्दाज़ था। वह दाएँ हाथ की पहली दो उँगलियों में सिगरेट दबाता और मुट्ठी बाँधकर सिगरेट का लम्बा कश खींचता। इतना लम्बा कि दो कश में ही राख सिगरेट के मुहाने पर चमकने लगी। वह अपनी बायाँ हाथ आगे बढ़ाता और उस पर दायाँ हाथ मारकर राख झाड़ देता। शिवा को यह अन्दाज़ नया और रोबीला लगा। तभी घंटी सुनाई दी और सभी बच्चे पशुओं की तरह से अपने-अपने तबेलों में आ गए।
शिवा ने घई उस्ताद से भूषण के कहने का हस्ताक्षर तो करवा लिए, अब उसके पसीने छूट रहे थे। घर में पच्छी में पड़ी रोटी निकालकर उसमें घी-शक्कर मिलाकर चोरी-चुपके से खा जाना या छोटे भाई-बहन को चिकोटी काटकर माँ को न बताना, दूध की मलाई उतारकर खा जाना जैसी चोरियाँ तो उसने कई बार की थीं, उनके लिए माँ से मार भी खाई थी, पर उसे वह सब करते हुए इतनी घबराहट कभी नहीं हुई जितनी आज हो रही थी। इतनी घबराहट उसे तब भी नहीं हुई थी, जब उससे हनुमान की मूर्ति के सामने माथा टेकने के बहाने चवन्नी चुरा ली थी। सोचने लगा कि यह घई उस्ताद है क्या? उसने छोले भी मुफ्त में खिला दिए। अच्छा आदमी है। पिताजी हमेशा कहते हैं-”ऐसे कभी भी किसी से भी कुछ लेना नहीं चाहिए। यह भीख होती है।” तो क्या उसने आज भीख ली है? उसने हस्ताक्षर भी कर दिए। उसे अपनी इस चोरी पर रह-रहकर कुछ ग्लानि-सी हो रही थी, जिसे वह साफ तौर पर न तो समझ रहा था, न अभिव्यक्त कर पा रहा था। मन का दूसरा कोना यह भी कहता कि अच्छा हुआ पिताजी रिपोर्ट कार्ड देखते तो क्या-क्या न सुनना पड़ता, दो-चार लगा भी देते। डाँट से छुट्टी, मार से छुट्टी। अगली बार वह ज़रूर अच्छे अंक लाएगा और रिपोर्ट कार्ड पिताजी को दिखा देगा। पर कैसे? यह तो उनके हस्ताक्षर हैं ही नहीं। गणित का अध्यापक लघुत्तम महत्व समझा रहा था और शिवा इसी उधेड़बुन में फँसा हुआ सोच रहा था, ‘आज वह चोर हो गया है और भिखमंगा भी। नहीं-नहीं, वह घई को पैसे दे देगा और एक दिन पिताजी को भी सब बता देगा।’ यही सोचकर उसने अगले दिन रिपोर्ट कार्ड मास्टर जी को दे दिया। उन्होंने बिना खोले, बिना देखे कि हस्ताक्षर हुए भी हैं या नहीं, कार्ड अपने रजिस्टर में रख लिया। तब तो शिवा का मन रोने को ही हो आया। उसने मन ही मन मास्टर जी को जी भरकर कोसा। गाली देना चाहता था, पर कोसकर ही रह गया।
दो ही दिनों में भूषण शिवा के लिए भूषी हो गया और शिवा भूषण के लिए शिब्बू। भूषण का घर स्कूल के पास ही था, पर वह आधी छुट्टी में भी घर जाना ‘पसन्द’ नहीं करता था। शिवा को जब पता चला तो उसी ने भूषण के घर जाने की इच्छा ज़ाहिर की। पहले तो भूषण दाँतों से अंगुलियों के नाखून काटने लगा, फिर तैयार हो गया-”चल।”
भूषण के घर में उसका बड़ा भाई मनोहर था। वह वकालत कर रहा था। बीच में एक छोटी बहन थी, जो आठवीं क्लास में पढ़ रही थी। माँ कुछ विक्षिप्त-सी थी। भूषण के पिता एक बस कंपनी में ड्राइवर थे। वे घर नहीं मिले। बाकी सब मिले। शिवा को मनोहर अच्छा लगा। कुछ-कुछ चोखा जैसा। तब उसे सत्तू का ध्यान आया। कहाँ होगा? रोहतक में ही। कैसा होगा? वहीं पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर सभी खेलते होंगे, बेर तोड़ने भी जाते होंगे। उसे रह-रहकर मुंढालिया स्कूल याद आता। झज्झर रोड याद आता। भरतू याद आता। स्मृति-चक्र घूमते-घूमते सत्तू पर आकर ही रुकता। सत्तू और वह दोनों लँगोटिया यार थे। वैसे तो नट्टू और लोटा भी उसी श्रेणी के मित्र थे, पर शिवा की पटरी सत्तू के साथ ही ज़्यादा बैठती थी। दोनों ने कई बार एक-दूसरे के लिए झूठ बोला था, मार खाई थी। मिलकर रोऐ भी थे और बड़े होकर न जाने क्या-क्या करने के सपने बुने थे। शिवा यह सब भूषण के पास ही बैठा हुआ सोच रहा था। उसके मन में ऐसा उद्रेक हुआ कि उसने भूषण का हाथ कसकर पकड़ लिया।
“क्या हुआ?” भूषण ने पूछा।
“नहीं भूषी...कुछ नहीं।”
मनोहर ने उन्हें खाने के लिए गजक-पट्टी दी। तभी उन्हें स्कूल की घंटी सुनाई दी। आधी छुट्टी खत्म। वे दोनों गजक-पट्टी खाते-भागते स्कूल पहुँते। भागते-भागते उसे लगा भूषी भी सत्तू जैसा है। नहीं, सत्तू जैसा नहीं, भूषी भूषी है। यहाँ का मेरा दोस्त। सत्तू रोहतक का दोस्त है। जो भी हो शिवा को सत्तू का जो अभाव खल रहा था, वह कुछ सीमा तक भूषण के मिलने से दूर हो गया। सत्तू जहाँ खामोशी से शिवा का साथ देता था, वहीं भूषण थोड़ा बड़बोला था। घर में छोटा होने के कारण थोड़ा लाडला और बिगड़ा हुआ भी। माँ विक्षिप्त थी, इसलिए उसकी सही देख-रेख करने वाला घर में कोई था नहीं, सो वह घई उस्ताद के सम्पर्क में आया तो उससे जुड़ता ही चला गया।
घई उस्ताद यों छोले बेचने की रेहड़ी लगाता था, पर इस रेहड़ी के बहाने वह धन्धा चरस बेचने का करता था। शिवा को यह बात तब मालूम हुइ्र जब दस-पन्द्रह दिन मुफ्त छोले खिलाने के बाद एक दिन घई ने उससे कहा-”शिवा, एक काम कर।”
शिवा प्रश्नचिह्न बनकर खड़ा रहा।
“यह ले यह पुड़िया, उसे दे दे और उससे चवन्नी ले लेना।” उसने रेहड़ी से लगभग दो सौ गज़ की दूरी पर खड़े एक आदमी की तरफ इशारा करते हुए पुड़िया शिवा के हाथ में रख दी। शिवा ने पुड़िया ली और उस आदमी के पास चला गया। उस आदमी ने पुड़िया ली और चवन्नी का सिक्का शिवा के हाथ में रख दिया। शिवा ने चवन्नी देखी, फिर उस आदमी को देखा। वह सिर पर मैला-कुचैला साफा बाँधे हुए था। कपड़े भी मैले। पाँव में पुरानी टूटी चप्पल। फिर उसने घई उस्ताद की तरफ देखा, उसने भी शिवा को देखा और छोले बेचने में व्यस्त हो गया, जैसे कि शिवा को उसने देखा ही न हो। शिवा के बालमन में उत्सुकता और जिज्ञासा का मिला-जुला भाव जाग उठा। वह बन्द मुट्ठी में चवन्नी थामे क्षण-भर वहीं खड़ा रहा। वह आदमी बोला-”क्या है?”
“कुछ नहीं!”
“फिर, जाता क्यों नहीं!”
शिवा पूछना चाहता था, ‘इस पुड़िया में क्या है?’ पर उसने डर के मारे पूछा नहीं। वहीं खड़ा रहा। “पिएगा,” कहते हुए उस आदमी ने जेब से एक सिगरेट निकाली और दाएँ हाथ के अँगूठे एवं दो अंगुलियों से उसे ढीला किया और सिगरेट का सारा तम्बाकू निकालकर बाएँ हाथ की हथेली में रख लिया।
इधर शिवा यह सब देख रहा था और उधर घई उस्ताद परेशान हो रहा था। उसने दो-एक बार इशारे से शिवा को बुलाना चाहा, पर शिवा ने देखकर भी अनदेखा कर दिया। उस आदमी ने तब पुड़िया खोली। उसमें एक गोली थी। बोला-”इधर आ।” शिवा तो जानना ही चाहता था कि इतनी महँगी गोली आखिर है क्या?
“ले पकड़, तीली जला।” कहते हुए उस आदमी ने उस गोली को दो तीलियों के बीच में दबा लिया...। शिवा ने एक तीली जला दी। उस आदमी ने उस जलती तीली पर उस गोली को थोड़ा-सा गरम किया और उसे सिगरेट से निकाले हुए तम्बाकू में रखकर मसल दिया। जब तम्बाकू और गोली एकाकार हो गए तो उसे फिर सिगरेट में भर लिया।
“सुलगा।”
शिवा ने फिर एक तीली जलाकर उस आदमी को सिगरेट सुलाग दी। उसने एक लम्बा कश खींचा और ज़ोर-ज़ोर से खाँसने लगा। वह इतनी ज़ोर से खाँसा कि शिवा घबरा गया। पर उस सिगरेट से निकले धुएँ की गन्ध उसे अच्छी लगी।
“पिएगा?”
शिवा ने सिर हिलाकर ना कर दी और चलने लगा।
“एक कश लगा ले।”
शिवा की उत्सुकता बढ़ी और उसने झट से सिगरेट लेकर कश लगाने की कोशिश की। कुछ नहीं हुआ। वह बजाय साँस अन्दर खींचने के बाहर फेंक रहा था।
“अरे कश खींच, अन्दर...” लम्बी साँस खींचते हुए उस आदमी ने करके बताया।
इस बार शिवा ने लम्बी साँस अन्दर की ओर खींची तो...बस...खऊँ...खऊँ...से उसका बुरा हाल हो गया। आँख-नाक में पानी, चेहरा मुर्ख हो गया। मुट्ठी में बन्द चवन्नी गिरते-गिरते बची।
“कोई बात नहीं, पहले-पहल होता है।” कहते हुए वह आदमी लम्बे कश खींचता हुआ चल दिया। खाँसता-खाँसता शिवा घई उस्ताद के पास लौटा। वह गुस्से से भरा हुआ बोला-”अरे गाँडू, चरस पीनी है तो मुझे बोल, उस चूतिए के पास क्या रखा है।”
“गाली मत दो उस्ताद!” हिम्मत करके शिवा ने कह दिया। तब तक उसकी खाँसी थम चुकी थी और हलका-सा नशा उसके दिमाग पर छा चुका था। उसने छन्न से चवन्नी घई के गल्ले पर मारी और स्कूल के अन्दर भाग आया। वहीं भूषण से टकरा गया। उसने सारा किस्सा सुना दिया। भूषण सिर्फ हँस दिया-”छोले मुफ्त ऐसे ही नहीं खिलाता। हरामी का पिल्ला नंबर एक है।”
“मुझे नहीं खाने। सब पैसे दे दूँगा। तूने पी है कभी चरस?” शिवा ने पूछा।
“चल, चलकर कुछ खाते हैं।”
वाकई शिवा को ज़ोरों की भूख लग आई थी। चरस के एक कश के बाद इतनी भूख। उसका गला भी खुश्क हो रहा था। भूषण उसे स्कूल की कैन्टीन में ले आया और पकौड़े खिलाए। शिवा ने जमकर पकौड़े खाए तो उसे कुछ शान्ति मिली।
शाम को छुट्टी के बाद घर लौटते हुए उसने भूषण से कहा-”भूषी, यह घई अच्छा आदमी नहीं है।”
“मत जा उसके पास।”
“तू क्यों जाता है?”
“कौन देता है मुझे पैसे...घर देखा है न तूने मेरा, चिड़ियाखाना, न माँ को पता मैं कहाँ हूँ, न बाप का मुझे मालूम...।”
छोटे-छोटे दो लड़के अपनी उम्र से बढ़कर बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे। कभी घर की, कभी परिवार की, कभी स्कूल की, कभी मास्टरों की, कभी प्रिंसिपल की। कभी भूतों की, कभी भगवान की। कहीं-कहीं दोनों के विचार मिलते, कहीं नहीं भी मिलते और कहीं कोई विचार होता ही नहीं। उन दोनों की दोस्ती बढ़ती गई। प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर। इस बीच उनकी दोस्ती दीपक उर्फ दीपू से भी हो गई और दोस्तों की यह तिकड़ी पूरे स्कूल में जल्दी ही मशहूर हो गई। उनके कारनामे ही कुछ ऐेसे थे। भूषण मरने-मारने के लिए के तैयार रहता, खाने-पीने के लिए पैसे की व्यवस्था ज़्यादातर दीपक करता और बदले में वह शिवा की कापी की नकल कर लेता। शिवा भी कभी भूषण के साथ ही मरने-मारने को तैयार हो जाता, पर उसकी कोशिश हमेशा लड़ाई टालने की रहती।
लड़ते-झगड़ते, छोटी-बड़ी बातें करते-करते शिवा, भूषण और दीपक वक्त के साथ सचमुच बड़े हो गए। एक छोटा त्रिकोण फैलकर बड़ा त्रिकोण बन गया। अब वे तीनों आठवीं क्लास में थे।
आतंक कभी भी एक पल में नहीं फैलता। उसकी जड़ें पहले से ही हमारे दिलो-दिमाग में कहीं न कहीं मौजूद होती हैं। कभी पिता के रूप में, कभी माँ के रूप में, कभी बड़े भाई के रूप में, कभी दोस्त तो कभी किसी पड़ोसी के रूप में। आतंक जब जड़ पकड़ लेता है तो उसे समूल नष्ट करना भी मुश्किल हो जाता है। छोटे-छोटे भय, छोटे-छोटे डरावे ही धीरे-धीरे आंतक के रूप में बदल जाते हैं। पिता सोचता है मैं बच्चे को अनुशासित कर रहा हूँ, माँ सोचती है यह उसके स्नेह का ही एक रूप है, परिवार सोचता है यह सब संरक्षण का ही हिस्सा है, शिक्षक सोचता है वह बच्चे को शिक्षित कर रहा है, समाज सोचता है वह मर्यादा दे रहा है। इस तमाम शब्दों और आतंक के बीच की रेखा इतनी सूक्ष्म है कि पता ही नहीं चलता कि कब उस ओर से आदमी इस ओर निकल आता है।
ढर्रे पर चलता आदमी, परिवार, समाज, राज्य अपने अंदर आतंक की बेल लिए हुए है। यही बेल वह किसी न किसी बहाने दे देता है हर जन्म लेने वाले को। धीरे-धीरे बेल इतनी उलझकर फैलती है कि पता ही नहीं चलता उसका कौन-सा सिरा कहाँ है, सिरा है भी या नहीं। नहीं चलता पता कि कौन किसने कब आतंकित हो जाता है और क्यों?
भूषण, दीपक और शिवा आतंक की इसी उलझी हुई बेल का हिस्सा बन गए थे। खासकर भूषण। घई उस्ताद के ज़रिए इन रिश्तों का ज़िक्र शिवा से कभी नहीं करता था, लेकिन उड़ते-उड़ते शिवा के कान भनक ज़रूर पड़ी कि जब बेली बदमाश ने एक वेश्या का कत्ल किया, तब भूषी उसके साथ था। शिवा ने भूषण से पूछा भी, पर वह टाल गया।
शिवा और भूषण दो विपरीत ध्रुव थे। शिवा जहाँ आदर्शों की बात करता, कुछ बनकर दिखाने की बात करता, वहीं भूषण पैसा-वैसा कमाने की बात करता, मौज-मस्ती की बात करता। एक दिन शिवा ने भूषण और दीपक से कहा भी-”हम बस ऐसे ही रहेंगे?” भूषण के सामने जब भी कोई प्रश्न आता, वह अपनी अंगुलियों के नाखून दाँतों से कुतरने लगता।
“कैसे?”
“ऐसे ही, कीड़ों की तरह।”
“कीड़े हैं हम?”
“और क्या, कौन जानता है हमें...अरे आदमी वो, जिसका नाम मरने के बाद भी रहे।”
दीपक साथ ही बैठा उनकी गुफ्तगू सुन रहा था।
“मरने के बाद, किसने देखा है?”
“तुम्हीं तो कहते हो, मरने के बाद स्वर्ग, नरक...।”
“वो तो ठीक है, पर देखा किसने है?”
“मैं कहता हूँ, स्वर्ग, नरक, जो है यहीं है। अपना जीवन चाहे स्वर्ग बना लो, चाहे नरक।”
“कहना क्या चाहता है?”
“तू छोड़ दे सब चक्कर।”
“कोई चक्कर-वक्कर नहीं है यार।”
“घई के साथ क्यों घूमता है?”
“वही है, जो हर मुसीबत में साथ देता है, और कौन है...”
“हम दोनों नहीं हैं?”
“मेरा मतलब तुमसे नहीं है।”
“फिर?”
“बाप देखा तो हमेशा घर से गायब। मिलता भी है तो सिर्फ डाँटता है। माँ पागल, बड़ा भाई अपने में मस्त, बहन हुई न हुई एक-सी, बता कौन है?”
“ऐसा तो कुछ न कुछ सबके साथ है, तो हर आदमी बदमाश बन जाए?”
“बदमाश नहीं हूँ मैं।” लगभग चीखते हुए बोला भूषण।
“चल न सही, पर कुछ करना तो है कि नहीं! क्यों दीपू!”
दीपक को यह सब बहुत समझ में नहीं आता था। वह तो यह बता सकता था कि बढ़िया मलाई वाली लस्सी किस हलवाई की दुकान पर मिलती है...रसगुल्ले फिल्मिस्तान के सामने वाली दुकान के अच्छे हैं और छोले-भठूरे खाने हों तो करोलबाग चलो। दीपक का बाप एक स्मगलर गैंग में था और वह तभी मारा गया, जब दीपक छोटा था। तीन बहनों के बाद दीपक पैदा हुआ, इसलिए घर में सबका लाडला था और बड़े लाड से ही उसे माँ ने पाला था। पिता की कमी महसूस न हो, इसलिए वह दीपक की हर इच्छा पूरी करने कोशिश करती, जिसे वह अपनी ज़रूरतों की कीमत पर ही कर सकती थी। दीपक की जेब में अक्सर इतने पैसे होते थे कि वह अपने साथ शिवा और भूषण को भी लस्सी पिला सकता था। उसका एक शौक और था। जासूसी, ऐयारी या रोमानी नॉवल पढ़ना।