अनहद नाद / भाग-5 / प्रताप सहगल
पर नारायण अब तक बहुत ही मँजा हुआ खिलाड़ी हो चुका था। उसकी नज़र पूरे बाज़ार पर थी और वह साइकिल इंडस्ट्री की नस-नस से वाकिफ था। साइकिलों की माँग इतनी थी कि इंडस्ट्री पूरा नहीं कर पा रही थी। हर घर में साइकिल, घड़ी और रेडियो बहुत ज़रूरी होता जा रहा था। नारायण की बातें रामस्वरूप की समझ में आ गईं। वह भी भाई के साथ जोखिम उठाने को तैयार हो गया।
तैयारियां शुरू हुईं। योजना बनने लगी। कागज़ों पर। कागज़ों से रेखाएँ उतरकर एक छोटे-से भूखंड पर आकर लेने लगीं। राम इंडस्ट्रीज़ की परिकल्पना हकीकत में बदलने लगी। साइकिल का ट्रेड मार्क ‘इन्डिपेन्डेंट’ ही तय किया गया। जब मशीनें लग गईं, उत्पादन शुरू होने को आया तो एक समस्या आ खड़ी हुई। डाई मेकर, डाई फिटर, फिटर, मशीनमैन, फोरमैन, सभी मिल गए, लेकिन ऐसा पेंटर उन्हें पूरे शहर में नहीं मिला जो नई साइकिलों के फ्रेमों, चिमटों और मडगाडों पर खूबसूरती से लाइनें लगा सके। दो-तीन पेंटर आए भी, पर किसी ने लाइन मोटी लगाई तो किसी ने टेढ़ी। दूसरी साइकिलों के सामने इन्डिपेन्डेंट साइकिल केवल इसी कारण फीकी लग रही थी। उधर उन्होंने अपनी साइकिल बाज़ार में उतारने की तिथि की घोषणा कर दी थी और इधर साइकिल आकर्षक नहीं बन पा रही थी। दोनों भाई जानते थे कि उनकी साइकिल की मज़बूती किसी भी दूसरी साइकिल से कम नहीं है। पर मज़बूती का पता तो तब चलेगा न, जब कोई खरीदेगा। तब रामस्वरूप को रायज़ादा पेंटर का ध्यान आया। उसने बात का खुलासा करते हुए नारायण के सामने प्रस्ताव रखा कि जगतनारायण को ही यहाँ लाया जाए। बाकी सभी साइकिलों की आकर्षक रंग-सज्जा का वही एक जवाब है। वही जो पुरानी साइकिल को हाथ लगा दे तो नई हो जाती है और उसे बेहतर बना देता है, फिर नई होगी तो कहना ही क्या? पर प्रश्न यह था कि जगतनारायण अपना जमा-जमाया काम छोड़कर आ जाएगा? फिर सोचा, दुकान तो रामस्वरूप की ही है। वह इस नाते और कुछ अपने संबंधों के नाते उस पर दबाव डाल सकता है। सो किसी भी कीमत पर जगतनारायण को दिल्ली लाने का विचार मन में बनाकर रामस्वरूप खुद रोहतक रवाना हो गया।
जगतनारायण के बड़े भाई सत्यनारायण ने जालंधर में काम शुरू किया ज़रूर, पर वह बहुत जमा नहीं। उसका बड़ा बेटा कारखाना चलाता और सत्यनारायण सामान के आदेश लेने के लिए छोटे-छोटे शहरों में घूमता। इसी सिलसिले में उसका कभी-कभी रोहतक भी आना होता तो वह भाई के साथ ही ठहरता।
शिवा को ताया जी बड़े अच्छे लगते थे। हालाँकि वे शिवा को सुबह जल्दी उठा देते, तब भी शिवा बुरा नहीं मानता। वे उसे अपने साथ शहर के बाहर खेतों में ले जाते। सैर भी हो जाती और जंगल-पानी भी। सुबह अक्सर किसान खेतों को पानी लगाते थे, सो कोई न कोई रहँट ज़रूर चलता मिल जाता। सर्दी हो या गर्मी, सत्यनारायण कुएँ के पाने से ही नहाते थे। शिवा को भी रहँट से निकलते पानी की मोटी धारा के नीचे बैठकर नहाना बहुत अच्छा लगता था।
उस दिन भी शिवा ने ताया जी के साथ मिलकर स्नान किया और घर लौट पड़े। शिवा जानता था कि अब क्या होगा। और वही हुआ। इसीलिए तो ताया जी उसे बहुत अच्छे लगते थे। खेतों और शहर के बीच ही रेलवे स्टेशन था। रेलवे स्टेशन के आसपास खाने-पीने की अच्छी-खासी दुकानें थीं। उन्हीं दुकानों के बीच एक दुकान मंसा हलवाई की थी। शुद्ध दूध और बढ़िया लस्सी। मलाई वाली। सत्यनारायण ने बिल्कुल वही किया जो शिवा सोच रहा था। ताया-भतीजा दोनों मंसा हलवाई की दुकान में ऐसे घुसे, जैसे वहाँ जाना पहले से ही तय था।
शिवा बहुत प्रसन्न था। सुबह की सैर और रहँट पर हुआ स्नान। मन एकदम प्रफुल्लित था। शिवा को अपने ताया जी की कुछ बातें भी बड़ी अच्छी लगती थीं। मसलन उनकी बड़ी-बड़ी सफेद मूँछें, सिर पर तुर्रेदार पगड़ी और पाँवों में तिल्ले वाली जूती। झकाझक सफेद तहमत और लंबी-सी कमीज़। लंबा कद और गोरा रंग। कुल मिलाकर एक पठान। भव्य। जब भी आते शिवा के लिए कुछ न कुछ ज़रूर ले जाते थे। दूसरे भाई-बहनों को भी कुछ न कुछ मिलता था। शकुन्तला के लिए कुछ न कुछ लाते। सो घर में उनका बड़ा स्वागत होता था। सबसे अच्छा शिवा को यह लगता कि वे जब भी आते, कोई न कोई बात ज़रूर सिखाते। सुबह सैर को जाते तो बबूल के पेड़ की टहनी तोड़कर दातुन बना लेते, खुद भी करते, शिवा को भी करवाते। दातुन करने की आदत शिवा को तायाजी से ही पड़ी थी। फिर मेवे वाला गुड़, कभी शहद, कभी गन्ने का रस। जैसा मौसम, वैसा ही सामान।
पिछली बार जब वे आए तो शिवा मरते-मरते बचा था। वह उस दिन को याद करता है तो अब भी काँप जाता है। पिछली बार जब वह ताया जी के साथ सुबह-सवेरे खेतों की ओर गया तो दूर-दूर तक रहँट बंद थे। नहाना भी ज़रूर था। शिवा ने आव देखा न ताव अपने पूरे बल से रहँट का डंडा घुमाने लगा। दो-चार डिब्बे पानी निकला तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ। तभी उसे लगा, रहँट बहुत भारी हो गया है और उसका दबाव पीछे की ओर बढ़ रहा है। उसे कुछ समझ नहीं आया कि वह क्या करे। उसने ज़रा-सा हाथ ढीला किया ही था कि रहँट की गरारी पूरे वेग के साथ पीछे की ओर घूमी और शिवा डंडे पर लटक गया। क्षण-भर में धम्म से नीचे ज़मीन पर और रहँट पूरा चक्कर खाकर रुक गया। इसी बीच शिवा को लगा कि वह आज बचेगा नहीं। पहली बार मृत्यु से उसका साक्षात्कार तब हुआ था, जब वह सिंघाड़ों के लालच में तालाब में डूबते-डूबते बचा था, अब दूसरी बार...तब ताया जी ने उसे रहँट की सारी कार्य-शैली समझाई थी। ‘काश! पहले ऐसा ही किसी ने समझाया होता,’ उसने ठंडी साँस ली। सत्यनारायण ने पूछा-”क्या बात है बेटा, चुप क्यों हो? बोलो, क्या खाओगे?” तब तक एक लड़का उनके सामने लस्सी से भरे दो कड़े वाल गिलास और एक प्लेट में बर्फी रख गया।
“खा।” ताया जी की आदेशात्मक आवाज़ सुनते ही शिवा का हाथ प्लेट की ओर बढ़ा। उसने बर्फी का टुकड़ा उठाया। मुँह में जाने से पहले ही शिवा के हाथ से फिसल गया। शिवा ने फर्श पर गिरे उस बर्फी के टुकड़े को उठाकर फिर मुँह की ओर बढ़ाया ही था कि फिर आदेशात्मक आवाज़ सुनाई दी-”नहीं बेटा!” शिवा का हाथ वहीं रुक गया। आवाज़ ने फिर समझाया-”ज़मीन पर गिरी कोई भी चीज़ उठाकर खाते नहीं।” शिवा को यह बात बड़ी अच्छी लगी। उसने देखा, फर्श तो साफ है, बर्फी गंदी भी नहीं हुई, फिर भी उसने जीवन-भर कभी भी कोई नीचे गिरी चीज़ नहीं उठाई। उसे ताया जी के ऐसे आदेश अच्छे लगते थे। उसे लगता था कि इन आदेशों के साथ ताया जी प्यार बहुत करते हैं। कितनी अच्छी लस्सी। मलाई वाली। शिवा का मन प्रसन्न हो गया। उसने देखा, लस्सी की झाग और मलाई ताया जी की मूँछों में अटकी पड़ी है, जिसे मूँछों पर हाथ फेर-फेरकर साफ कर रहे हैं। रेवले स्टेशन के पास लस्सी पीने के बाद सत्यानारायण और शिवा घर पहुँचे तो वहाँ एक नवागन्तुक मौजूद था। जगतनारायण ने बड़े भाई से मिलवाया-”यह रामस्वरूप है।”
सत्यनारायण को समझते देर नहीं लगी। बोले-”हाँ-हाँ!” रामस्वरूप अपनी सारी योजना जगतनारायण के सामने रख चुका था और वह बड़ी उलझन में पड़ा था कि क्या करे, क्या न करे। ऐसे में उसे अपने बड़े भाई की उपस्थिति बड़ी अच्छी लगी। जगतनारायण सत्यनारायण की बड़ी इज़्ज़त करता था। शेष दो छोटे भाई और एक बहन उसके पिता की दूसरी पत्नी से थे तो सगेपन और सौतेलेपन का झीना-सा भाव हमेशा उसके मन में बना रहता, जिसे वह कभी-कभी कह भी देता। शिवा यह सब सुनता, पर उसके लिए यह बातें निरर्थक थीं। उसने दो-एक बार चाचों को देखा था। उन्होंने उसे प्यार भी किया था, पर उसका ज़्यादा प्यार ताया जी के साथ ही था।
जगतनारायण ने अपनी उलझन बड़े भाई के सामने रख दी। रामस्वरूप बोला-”भाऊ जी, मैं कह रहा था, बच्चों का भी सोचना चाहिए रायज़ादा साहब को...यहाँ क्या करेंगे बच्चे...दिल्ली बड़ा शहर है, राजधानी है, कुछ बन जाएँगे।”
“वो तो फिक्र की बात नहीं है। कॉलिज तो यहाँ भी हैं।” सत्यनारायण ने कहा और पूछा-”और क्या फायदा होगा?”
“डेढ़ सौ तनख्वाह कही है, बोनस भी देंगे और फंड भी। दवा-दारू भी मुफ्त समझो...।”
“तनख्वाह कम है।”
“नया काम है भाऊ जी, तीन-चार महीने बाद दो सौ रुपए कर देंगे, यह आपके साथ वायदा रहा।”
“पेंटर नहीं मिलते दिल्ली में?”
“हैं तो, पर ऐसी सफाई नहीं है किसी के हाथ में।”
“सोचो तो फिर, जमा-जमाया काम है, अपना काम अपनी बादशाही होती है।”
पास ही शकुन्तला घूँघट निकालकर बैठी थी। सत्यनारायण ने उसी को मुखातिब होकर कहा-”क्या कहती हो शकुन्तला!”
“अपना काम है तो बादशाही, हम यहीं अच्छे हैं।”
“बड़ी आस लेकर आया हूँ रायज़ादा...पुरानी दोस्ती है...समझो तो...मैं दुकान दे गया तुम्हें बिना किसी हीन-हवाले के। छोड़ो...छोटी बात लगती है, पर देखो न, दिल्ली जाकर दो ही साल में मैंने कितनी तरक्की कर ली है। तुम्हें तो 6-7 साल हो ही गए हैं, वहीं के वहीं तो हो।”
“चलने की बात है रामस्वरूप।” सत्यनारायण ने कहा।
“भाऊ जी, यहाँ तो सारा झंझट, जोखिम मेरा ही है। इन्हें क्या परेशानी है!”
तभी घूँघट का पल्ला दाईं ओर से ज़रा-सा हिलाकर शकुन्तला ने आँख में इशारे से ही पति को समझा दिया, “हमें नहीं जाना।”
जगतनारायण ने भी कह दिया-”हम ऐसे ही अच्छे हैं। क्यों भाऊ!”
शिवा बैठा सब सुन रहा था। दूसरे बच्चे इतने छोटे थे कि उन्हें बात बहुत समझ नहीं आ रही थी। शिवा कुछ-कुछ समझने लगा था। उसे तो दिल्ली जाने की बात सुनकर ही रोमांच हो गया था, पर दूसरे ही क्षण लोटा, नट्टू और सत्तू याद आ गए। मुहल्ले की वे लड़कियाँ और लड़के याद आए, जिनके साथ वह रोज़ शाम को छुपन-छुपाई खेलता है, जिनके साथ पीपल के नीचे बैठकर भविष्य के सपने बुनता है, झगड़ता है। वह पहलवान जिसकी कुश्ति देखना उसे अच्छा लगता है, रेतीले मैदान, जहाँ वह खुम्भी और पदबेड़ों की पहचान करता हुआ खुम्भी निकालकर खा जाता है, वह मैदान जहाँ गुल्ली-डंडा खेलता है, लट्टू चलाता है, कंचे बजाता है, पतंग उड़ाता है...यह सब भी दिल्ली में होगा क्या? वह सुभाष टाकीज़ जिस पर अभी पिछले ही महीने उसने पिता के साथ ‘संसार’ फिल्म देखी है। मुंढालिया स्कूल की दीवारें, दूर-दूर तक फैली बेरियाँ और झाड़ियाँ, यह सब भी दिल्ली में होंगी क्या? वह चुप मायूस-सा बैठा रहा। बोला नहीं। उससे कोई पूछ भी तो नहीं रहा।
रामस्वरूप तो जैसे तय करके आया था कि हर कीमत पर वह जगतनारायण को अपने साथ ले जाएगा। जब जगतनारायण किसी भी कीमत पर राज़ी नहीं हुआ और सत्यनारायण ने भी कोई खास ज़ोर नहीं डाला तो रामस्वरूप ने हारकर बीच का रास्ता निकाला। उसका काम अटका पड़ा था। वह चाहता था कि पहली बार बाज़ार में उसकी साइकिल जाए तो अपनी चमक-दमक में सबसे अव्वल हो, वरना तो पिट जाने का खतरा था। उसे नारायण ने भी पूरी हिदायत देकर भेजा था कि रायज़ादा को किसी भी कीमत पर लेकर आना है। काम शुरू हो। बाकी बाद में देखा जाएगा। रामस्वरूप कहने लगा-”अच्छा, नहीं मानते तो मेरी दूसरी तजवीज़ यह है कि...”
जगतनारायण की उत्सुकता बढ़ गई।
“तुम इतवार को बन्द रखते हो न! दो दिन और छुट्टी कर दो। शनिवार शाम को हमारी कार तुम्हें लेने आएगी। दो घंटे का तो रास्ता है। इतवार, सोम, मंगल तीन दिन काम करो। मंगल शाम को ही हमारी कार छोड़ भी देगी। देखा तो सही, अच्छा लगे तो हाँ करना, नहीं तो न तो है ही।”
सत्यनारायण भी सोचने लगा तो रामस्वरूप ने कहा-”क्यों भाऊ जी, क्या कहते हो...तीन दिन में कोई कयामत तो नहीं होने वाली।”
शकुन्तला ने भी हिचकिचाहट के साथ ‘हाँ’ कर दी। और तय हुआ कि आते शनिवार को जगतनारायण कार से दिल्ली जाएगा। उसे अन्दर कहीं अच्छा भी लगा कि वह अपने हुनर के कारण कितना महत्वपूर्ण है। यही बात शकुन्तला को भी अच्छी लगी।
शिवा अब खुद को पहले से ज़्यादा आज़ाद महसूस करने लगा। कम से कम तीन दिन तो उसे यही लगा कि अपना ही राज है। जब चाहता घर से निकल जाता, जब चाहता लौटता। माँ से गालियाँ खाता, पिटता, पर कोई असर उस पर नहीं होता। करता वही जो उसे अच्छा लगता। कभी कम्पनी बाग, कभी परैड मैदान, कभी बड़ा बाज़ार, कभी खेत और कभी शहर से बाहर के रेतीले मैदानों में घूमता रहता। कभी सत्तू और नट्टू के साथ, कभी लोटे के साथ और कभी निपट अकेला। घर देर से लौटता। शकुन्तला उसे रोज़ ढूँढ़ती। दूसरे बच्चों को सँभालते-सँभालते परेशान हो जाती शकुन्तला और अपनी सारी खीझ शिवा पर उतार देती। पीटती भी रहती, कहती भी रहती, “आने दे बाप को, हड्डी-पसली चूर न करवाई तो तेरी माँ नहीं।” पर ऐसा होता नहीं। तीन दिनों बाद जगतनारायण लौटा तो शकुन्तला और सब बातें करती पर शिवा की शिकायत कभी नहीं। शिवा डर के मारे दुबका रहता। घर से बाहर भी कम रहता। इन दिनों माँ उसे बड़ी अच्छी लगती। शिकायत जो नहीं की। शिवा को पिटाई से बड़ा डर लगता था। माँ की पिटाई तो वह मंगलवार का प्रसाद समझकर खा लेता था, पर पिता की पिटाई! जानता था जब भी हुई, बड़ी भयानक होगी। वैसे भी वह धीरे-धीरे पिता से दूरी अनुभव करने लगा था। जगतनारायण भी दुविधा में फँसा था। जिन दिनों वह दिल्ली में होता, उस पर रामस्वरूप और नारायण बराबर दबाव डालते रहते कि वह जल्दी फैसला कर ले और फैसला वही ले जो वे चाहते हैं।
दिल्ली में जगतनारायण अपने भाइयों-विजयनारायण और रूपनारायण से भी मिला। अपनी माँ से भी...पिता तो था नहीं और सौतेली माँ के प्रति जगतनारायण के मन में कोई मोह नहीं था। माँ का भी अपने दोनों बेटों और लड़की फूलवती के प्रति ही विशेष स्नेह था। वह विजयनारायण के पास ही रहती थी। विजयनारायण बँटवारे के बाद दिल्ली चला गया था और उसने अपने जीवन की नई शुरुआत दवाइयाँ बेचने से की थी। पूँजी तो पास थी नहीं सो उसने और रूपनारायण ने डिब्बे में दवाइयाँ भरकर कैमिस्टों की दुकानों पर बेचना शुरू किया। भाग्य कहें या संयोग, श्रम कहें या समझदारी, जो भी कहें, हुआ यूँ कि विजयनारायण ने जल्दी ही चाँदनी चौक में एक छोटी-सी दुकान खरीद ली और वहीं से दवाइयों का कारोबार शुरू कर दिया...कुछ पुराने संपर्क काम आए, कुछ नए बने और उसका काम चल निकला। कारोबार चल निकले तो पीछे लौटकर देखने का समय ही नहीं मिलता। यही विजयनारायण के साथ भी हुआ। रूपनारायण वैसी तरक्की नहीं कर पाया तो उसने मजबूरी में अपने भाई के पास ही नौकरी कर ली। उसने माँगी तो साझेदारी थी, पर विजयनारायण ने यह कहकर टाल दिया-”नया-नया काम है, चलने के बाद साझेदारी भी हो जाएगी।” पर वह दिन कभी नहीं आया और रूपनारायण नौकरी के चंगुल में ऐसा फँसा कि न बड़े भाई को छोड़ सकता था, न बोल सकता था।
जगतनारायण दिल्ली आने लगा तो वह एक दिन विजयनारायण से मिलने चला गया। विजयनारायण को यकीन ही नहीं आया कि जगतनारायण उसके पास आ सकता है। वह जानता था कि वह और जगतनारायण दो अलग-अलग छोर हैं। वह सनातनी था और जगतनारायण समाजी। इसी बात पर दोनों की खूब ठनती थी। फिर सौतेलापन भी बीच में था तथा जगतनारायण को हमेशा यह शिकायत रही कि माँ जैसी भी थी, उसे उसके और सत्यनारायण के खिलाफ करने में विजयनारायण का बड़ा हाथ था। विजयनारायण ने माँ पर अकेले ही कब्जा किया हुआ था और सामाजिक दृष्टि से उसे इसका लाभ भी मिलता था। सत्यनारायण ही बीच में ऐसी कड़ी थी जो सभी भाइयों को किसी न किसी मुकाम पर जोड़ देती, और बड़े भाई की बात सभी छोटे भाई मान लेते थे। अब जब दिल्ली आना हुआ तो जगतनारायण को लगा कि इस शहर की असली टोह विजय से ही मिल सकती है। इसीलिए वह उसके पास पहुँचा था। विजयनारायण अपनी छोटी-सी दुकान के कांउटर पर बैठा टेलीफोन का डायल घुमा रहा था कि जगतनारायण को देखते ही हर्ष और उपेक्षा के मिले-जुले भाव के साथ ही बोला-”भाऊ! तू यहाँ! सब ठीक तो है न?”
जगतनारायण विजय के इस मिले-जुले भाव को समझ गया और अन्दर ही अन्दर कटा, पर अब तो आ ही गया था। सोचा, लौट जाऊँ, पर नहीं, यह ठीक नहीं और फिर आया तो अपने ही काम से है। वह काम तो करना ही है। उसने अपने स्वर को बहुत संयमित करते हुए कहा-”हाँ, ठीक है।”
“बैठ। ओ लड़के, चाय ले आ, बिस्कुट भी।”
जगतनारायण खामोश बैठा रहा। विजयनारायण ने नंबर मिलाकर बात की और चोगे को फोन पर रखते हुए पूछा-”भरजाई कैसी है?”
“अच्छी है।”
“और शिवा?”
“ठीक है।”
जगतनारायण ने देखा, विजय ने अपने बाएँ हाथ की तीन अगुंलियों में चमचमाती अँगूठियाँ पहनी हुई है। गले में भी सोने की चेन थी। टेलीफोन भी लगा है। दुकान तो छोटी-सी है, पर लगता है काम अच्छा है। तभी उसे अपनी रोहतक वाली दुकान का ध्यान आया, जो इस दुकान से चार गुना बड़ी होगी।
“शादी कर ली?”
“हाँ।” संक्षिप्त-सा जवाब था।
“भाऊ ने बताया तो था, पर...।”
“हाँ, हालात ही कुछ ऐसे थे...भाऊ तब यहीं था, तो सब ठीक हो गया।”
“चलो जो हुआ सो ठीक हुआ।” जगतनारायण ने कुछ ऐसे अंदाज़ में कहा कि जैसे उसने विजय के हर्ष और उपेक्षा वाले अंदाज़ में हुए अपने स्वागत का बदला ले लिया।
इस बार विजयनारायण अन्दर से थोड़ा कटा, पर उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया। बात बदलते हुए पूछ-”दिल्ली कब आए?”
“हफ्ते में तीन दिन यहीं रहता हूँ।” उसने सारी बात खोलकर विजय के सामने रखने के बाद पूछा-”बोलो, क्या ठीक रहेगा, यहाँ की नौकरी या रोहतक में अपना काम?”
“भाऊ से बात कर लो।”
“भाऊ तो तब वहीं थे, जब यह बात हुई...पर साफ तौर पर उन्होंने भी कुछ कहा नहीं।”
“भरजाई क्या कहती है?”
“वह तो नौकरी के लिए मना करती है।”
तभी चाय आ गई। रूपनारायण भी कहीं से ऑर्डर लेकर वहीं आ गया। तीनों भाइयों ने मिलकर चाय पी। काफी बातें भी कीं, पर नतीजा गोल!
जगतनारायण की उधेड़बुन और भी बढ़ गई। इस छोटी-सी मुलाकात ने उसे परेशान कर दिया था। भाई की दुकान छोटी-सी थी, पर उसने एक प्लॉट भी खरीद लिया था और उसके सामने ही जब एक फोन आया तो वह पूछ रहा था-”चार पहियों वाली कब दिलवाओगे?” यानी स्कूटर के साथ कार लेने की हैसियत भी उसकी हो गई है और वह ज़रूर मन से वही चाहता है कि मैं दिल्ली न आऊँ। दिल्ली आकर मैं भी कहीं इतनी तरक्की करके उसकी बराबरी पर न आ जाऊँ। उसने दो फैसले तुरन्त ले लिए। पहला यह कि वह दिल्ली आएगा। इसी में उसकी और बच्चों की भलाई है। दूसरा यह कि कुछ समय तक नौकरी करने के बाद वह यहीं कहीं अपना काम शुरू करेगा और विजयनारायण को ज़रूर पछाड़ देगा। मकान भी बनाएगा...दुकान भी। अब शकुन्तला जो भी कहे, वह दिल्ली में ही काम करेगा। और अगली बार जब जगतनारायण दिल्ली आया तो वाकई वह बच्चों और ज़रूरी सामान को भी साथ ले आया। फैक्टरी के करीब ही रमेश नगर में उसने एक कमरा किराए पर ले लिया।
शिवा को लगा जैसे उसे यकायक एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह पर रोप दिया गया हो, जहाँ के हवा-पानी से उसकी कोई पहचान नहीं थी। इससे पहले वह कभी भी दिल्ली नहीं आया था। उसे सबसे अच्छी बात यह लगी कि जिस कमरे में वे अब रह रहे थे उसका फर्श पक्का था। पाखाना था। शकुन्तला को भी लगा कि चौका लीपने से अब छुट्टी हुई। और तो और पानी की टोंटी भी घर के अन्दर ही थी। बाहर से पानी लाने की झिकझिक से भी निजात मिली। शिवा तब पाँचवीं क्लास में था और उसे साथ के ही एक सरकारी स्कूल में भर्ती करवा दिया गया। सुन्दरी तब दूसरी क्लास में थी।
दिल्ली धीरे-धीरे फैल रही थी। एक कॉलोनी और दूसरी कॉलोनी के बीच कई मील लम्बा सुनसान फासला था। कई कॉलोनियों में सरकार ने प्लॉट काट दिए थे, कहीं-कहीं एक कमरा भी बना दिया और बँटवारे के बाद आए ‘शरणार्थियों’ को अलॉट कर दिए थे। इसी घपले में कुछ लोग, जिनके पास बँटवारे से पहले मकान था ही नहीं, मकान वाले हो गए और कुछ के पास बड़ा मकान था तो उन्हें 100-100 गज़ के प्लॉट बहुत छोटे लगे। पर उनके पास कोई और रास्ता नहीं था। जिसे जहाँ जैसा और जो भी मिला उसने खुशी या मजबूरी में स्वीकार कर लिया...जगतनारायण और दूसरे सभी भाइयों ने मुआवज़े का काम बड़े भाई सत्यनारायण पर छोड़ा हुआ था। सत्यनारायण ने रिहायशी ज़मीन न लेकर खेती की ज़मीन लेना स्वीकार किया। इसके पीछे सत्यनारायण की पटवारी वाली मानसिकता थी। बँटवारे से पहले सत्यनारायण पटवारी था, सो वह तमाम अवरोधों एवं विपरीत हालात के बीच भी गाँव से अपना रिश्ता बनाए रखना चाहता था। सभी भाइयों के नाम ज़मीन का मुचलका गोहाना में हुआ था। ज़मीन को उसने बटाई पर दे दिया था। सारा हिसाब-किताब सत्यनारायण ही रखता। शेष भाई साल-दो साल में एकाध बार जाकर ज़मीन देख आते। साल बाद अनाज या धान के रूप में जिसे जितना मिलता, वह उसे विश्वासपूर्वक स्वीकार कर लेता।
शिवा ज़मीन की बात अपने पिता के मुँह से सुनता था। शकुन्तला कई बार कहती-”जाओ, देख आओ।” जगतनारायण हमेशा टाल जाता। साल में एक बार सत्यनारायण ज़रूर आता, और कभी गेंहूँ की दो-तीन बोरियाँ, कभी गुड़, कभी गन्ने के रस से बनी खीर और कभी घी दे जाता। एक दिन ताऊ जी की चिट्ठी आई। चिट्ठी उर्दू में थी। जगतनारायण के नाम चिट्ठियाँ अक्सर उर्दू में ही आती थीं, सो शिवा पढ़ नहीं सकता था। उत्सुक ज़रूर रहता कि चिट्ठी में लिखा क्या है। उस रोज़ शाम को जब जगतनारायण लौटा तो उसने चिट्ठी पढ़ी। पता चला कि सत्यनारायण का जालंधर वाला काम बहुत जमा नहीं और उसने फिर से पटवारी की नौकरी करने का फैसला कर लिया है। पंजाब के ही एक गाँव में उसे पटवारी की नौकरी मिल भी गई। वह परिवार समेत अब चला जाएगा। कारखाना अभी बेचेगा नहीं, उसके बारे में फैसला बाद में किया जाएगा। साथ ही यह भी लिखा था कि उसने अपनी बड़ी बेटी संतो की शादी तय करने का फैसला कर लिया है और प्रस्तावित एक लड़के के बारे में जगतनारायण की राय भी माँगी थी। यह भी संकेत था कि जल्दी ही सपरिवार गुराया आने के लिए जगतनारायण तैयार रहे।