अनहद नाद / भाग-4 / प्रताप सहगल

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पिता की इस चेतावनी के साथ ही इस प्रकरण का अन्त हो गया। पर शिवा की समझ में नहीं आया कि उसको इतनी बहादुरी की बातें बताने वाले, सत्य पर अडिग रहने के लिए कहने वाले और भूत-प्रेत जैसे अन्धविश्वासों, टोनों-टोटकों का विरोध करने वाले पिता उसे शाबाशी देने के बजाय गुस्सा क्यों हुए? शुक्र था कि पिटाई नहीं हुई। माँ के एक तमाचे से ही काम चल गया, वरना ऐसे मौके पर तो छितरैल होने की पूरी-पूरी संभावना थी।

मुहल्ले-भर में तोषी-चोखा का यह प्रसंग खूब चर्चा का विषय बन गया और गली में बैठ कर रस ले-लेकर औरतें कहतीं-”अरे देखो तो शकुन्तला का छोरा, बित्ते-भर का, पर खबर कितनी ज़ोरदार लाया है।”

“बच्चा है, उसे क्या मालूम...वह तो भूत ढूँढ़ने गया था।”

“और मिल गई भूतनी।”

“भूत भी साथ।”

“भला कितना लम्बा होगा भूत,” आँख नचाकर जब कहा एक औरत ने तो सभी मुँह में पल्लू दबाकर खीं-खीं करने लगीं।

तीन-चार दिन बाद शिवा को तोषी टकरा गई। गुस्से से भरी। शिवा का कान पकड़ लिया, “रात को आना वहीं, तुझे भी भूत बना दिया तो मैं बाप की बेटी नहीं।”

तोषी की घर पर काफी पिटाई हो चुकी थी और वह तीन-चार दिन के बाद ही घर से निकल पाई थी। उस दिन के बाद चोखा को देखते ही शिवा भाग खड़ा होता है और घर पहुँचकर ही दम लेता। उसने एक दिन सत्तू से कहा-”मैंने क्या ग़लत कहा है?”

“भाऊ ने मना किया था न!”

शिवा ने हामी में सिर हिला दिया।

“फिर क्यों कहा, सबके सामने...मुझे भाऊ से इतनी डाँट पड़ी है, भाऊ को अब्बा, अम्मा दोनों ने डाँटा।”

“इसमें डाँटने की बात क्या है...मैंने वही तो कहा जो चोखा ने मुझे कहा था।”

“हाँ, पर कुछ चक्कर है।”

“यह चक्कर वाली बात है क्या?”

दोनों की समझ में कुछ आया और दोनों मुस्करा दिए। शिवा की आँखों में फिर गाय के पीछे भागता साँड घूम गया। सत्तू ने शिवा के गले में हाथ डाला और समझाकर अपने घर ले गया। वहाँ शिवा ने चोखा से माफी माँग ली। चोखा ने कहा-”तुम दोनों अभी बच्चे हो, बड़े होकर सब समझ जाओगे, ऐसी बात किसी से कहते नहीं।”

शिवा पूछना तो चाहता था कि ऐसी वह कौन-सी बात है, जिसे नहीं कहना चाहिए, पर पूछ नहीं सका। अगले दिन चोखा शिवा को अपने साथ कॉलिज ले गया। वह इन्टर कर रहा था। वहाँ शिवा ने देखा, बड़े-बड़े लड़के और बड़ी-बड़ी लड़कियाँ खूब हँस-खुलकर बातें कर रहे हैं। कोई किसी को न रोकता है, न टोकता है। चोखा ने भी किसी लड़की को रोका और कुछ हँसी-मज़ाक की बात की। वह हँसी और चली गई। शिवा को यह सब बड़ा अच्छा लगा। उसे लगने लगा कि कहीं-न-कहीं उससे कुछ भूल ज़रूर हुई है। उसके मन में चोखा के लिए बड़ा आदर भर गया। सारा दिन वह कॉलिज में ही रहा। शिवा बहुत खुश था। वह भी खुद को बड़ा-बड़ा-सा महसूस करने लगा। बैडमिन्टन खेलते लड़कों को पाले से बाहर गिरती शटल कॉक उठाकर देता या खुले मैदान में भागता या फिर यूक्लिपटस के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों को देखता। उसका कोई गिरा पत्ता उठाकर खाया उसने। उसे उसमें से छोटी इलायची जैसी सुगंध आई। उसने मन ही मन सोच लिया, ‘हो न हो यह छोटी इलायची के पेड़ हैं।’

दोपहर बाद शिवा लौट आया। बड़ा उन्मुक्त, बड़ा प्रसन्न। बड़ा खुला हुआ। उसे अब तोषी की डाँट भी भूल गई। उसने यह सब सत्तू को बताया। सत्तू चुपचाप सब सुनता रहा।

दो महीने बाद ही तोषी की शादी किसी दूसरे शहर में कर दी गई थी। शिवा के मन में फैला रहस्य कुछ-कुछ कम होने लगा था, पर पूरी तरह से अभी भी कुछ समझ नहीं सका था।

इस बीच शिवरात्रि आ गई। शिवरात्रि का छोटा-मोटा मेला रोहतक में आर्य समाजी ज़रूर लगाते थे। एक सप्ताह पहले ही प्रभात-फेरी निकलना शुरू हो जाती थी। उस बार भी तैयारी ज़ोरों पर थी। जगतनारायण ने शिवा को भी तैयार किया। पहले दिन जगतनारायण ने काफी ज़ोर लगाया, पर रज़ाई से निकलने का मन शिवा का नहीं हुआ। शकुन्तला ने भी कहा-”सोने दो, बच्चा है।” जगतनारायण शिवा को अच्छे से अच्छे संस्कार देना चाहता था। दूसरा वक्त होता तो शिवा पिता की बात सुनने से मना भी नहीं करता, पर मीठी-मीठी नींद! कौन छोड़े प्रभात की नींद। जगतनारायण अकेले ही चला गया। शिवा सोया रहा। थोड़ी देर बाद उसे ढोलक और हारमोनियम की आवाज़ सुनाई दी। फिर पिता का स्वर-

‘ओ३म् नाम प्रभु तेरा प्यारा,

ऐहो नाम तेरा वेद उचारा।’

सोए-सोए ही शिवा को गीत बड़ा मधुर लगा। प्रभात-फेरी थोड़ी देर में आगे खिसक गई।

शिवरात्रि से पहले दिन प्रभात-फेरी का अन्तिम दिन था। शिवा भी जाने को तैयार हो गया। उसने शिवरात्रि का व्रत रखने का भी फैसला किया। व्रत शकुन्तला अक्सर रखती थी, पर कोई आर्य समाजी व्रत नहीं रखता था। हाँ, सारा दिन शिवरात्रि के मेले में गुज़रता। ‘बोध दिवस’ के रूप में उसे मनाया जाता। दयानन्द सरस्वती का महिमा-मंडन होता। ‘सत्यार्थप्रकाश’ पर विशेष प्रवचन। वेदों का महत्व और सब धर्मों से श्रेष्ठ और पुराना है वैदिक धर्म। आर्य होना सबसे बड़ा गौरव है। यज्ञादि करना हर आर्य का धर्म है, आदि-आदि बातें ही सभी प्रवचनों के केन्द्र में रहतीं। कई सालों से शिवा भी यह सब सुनता आ रहा था और अपने दोस्तों की संगत में सनातन धर्म के माहात्म्य को भी कई बार सुना था। दोनों ध्रुवों के बीच झूलता शिवा अन्तिम निर्णय कभी नहीं ले पाया कि वस्तुतः सत्य है क्या? ईश्वर है क्या? वह निर्गुण है या सगुण? सृष्टि का कर्ता ईश्वर का कर्ता कौन? आदि अनेक सवाल उसके दिमाग को झनझनाने लगे थे और वह इनका जवाब पाने के लिए किसी भी साधु-विद्वान या उपदेशक से उलझ जाता। पंडों-पुजारियों से तो लड़ ही पड़ता। प्रायः सभी उसे बच्चा समझकर उसकी बातों की अनदेखी कर देते या और पढ़ने की सलाह देते। चिन्तन-मनन की बात करते और कोई-कोई जब जगतनारायण को कहता-”महाशय जी, आपका बेटा है होनहार,” तो जगतनारायण का सीना फूलकर चौड़ा हो जाता।

हाँ, तो शिवरात्रि के दिन ही प्रभात-फेरी अपने अन्तिम चरण में थी। शिवा भी उस दिन उठ गया हिम्मत करके। बाकी भाई-बहन सोए रहे। वह पिताजी के साथ हो लिया। उसने देखा, तीन-चार गायक हैं जो बदल-बदलकर भजन गाते हैं और शेष लोग उसे दोहराते हैं। हारमोनियम, चिमटा, ढोलक और छैनों के साथ बड़ा मधुर संगीत पैदा किया जाता। दो-चार गज़ की दूरी पर रुकते और फिर ‘जो बोले सो अभय, वैदिक धर्म की जय’, ‘भारत माता की जय’, ‘गौ माता की जय’ और ‘आर्य समाज, अमर रहे’ के नारे लगने के बाद वैदिक ध्वनि होती तथा शिवरात्रि के कार्यक्रम की घोषणा की जाती। इसके बाद प्रभात-फेरी आगे चलती। शिवा सुस्ती से उठकर आया था, पर पिता की चुप्पी देखकर वह भी चुस्त हो गया। सभी भजन गाते, बजाते अलमस्त हुए चले जा रहे थे कि अचानक ब्रेक लग गई। शिवा ने देखा, सामने एक गुरुद्वारा था और प्रभात-फेरी के तमाम लोगों में अतिरिक्त जोश आ गया। एक जाने-समझे अन्दाज़ में सभी वहीं रुक गए और ज़ोर-ज़ोर से गाने-बजाने के पीछे भक्ति-भाव कम और उपहास वाला भाव अधिक था। ऐसा वे गुरुद्वारे के सामने क्यों कर रहे थे, यह शिवा की समझ में उस समय नहीं आया। ऐसा ही उन लोगों ने सनातन धर्म के एक छोटे-से मंदिर के सामने भी किया। तब भी शिवा नहीं समझ पाया कि सनातनी मंदिर या गुरुद्वारे के सामने इन लोगों की तन्मयता उपहास का चोला क्यों पहन लेती है? यह तो उसे बहुत बाद में पता चला कि आर्य समाज की स्थापना के मूल खंडन अधिक है। सनातन धर्म का खंडन, इस्लाम और ईसाई धर्म का खंडन। आर्य समाज में खंडन पक्ष इतना प्रबल कि हर आर्य समाजी को किसी भी बात का खंडन करके एक विशिष्ट आनंदानुभूति होती थी और कोई भी उस आनंदानुभूति से वंचित नहीं होना चाहता था।

शिवा को भी खंडन करने में आंनद मिलता था। फिर भी उसे इस रूप में अपने पिता का व्यवहार कुछ अच्छा नहीं लगा, जिसे उसने बाद में पिता से कहा भी। उन्होंने हँसकर टाल दिया।

शिवा ने अब सोचा, जो भी हो, वह भी ईश्वर की तलाश स्वयं करेगा। सच क्या है, इसे स्वयं जानेगा। पर कैसे? इसका जवाब उसके पास नहीं था। माँ के साथ उसने भी शिवरात्रि का व्रत रख लिया और रात को मुहल्ले के ही मंदिर में जाकर बैठ गया। लोग आते रहे, जाते रहे, शिवा वहीं जमा रहा। रात के दस बजे तो पंडित ने कहा-”जाओ बेटा, सो जाओ।”

शिवा ने कहा-”नहीं, मैं रात-भर यहीं बैठूँगा।”

“मंदिर बन्द करने का समय होने वाला है।”

“शिवरात्रि है, मंदिर बंद क्यों होगा?”

“बड़े मंदिर चलेंगे, सब।”

शिवा के मन में कुछ और था। वह उस स्थिति से स्वयं गुज़रना चाहता था, जिस स्थिति से मूलशंकर गुज़रा था। गणेश जी की मूर्ति के सामने खूब सामान सजा था। मिठाई, फल, चूरमा। पंडित शिवा से परिचित था। वह जानता था, शिवा महाशय जी का बेटा है तो उसे मंदिर में शिवरात्रि का व्रत रखे हुए बैठा देख विशेष आनंद हो रहा था। मन ही मन बड़ी-सी गाली भी दी जगतनारायण को-‘बाप कट्टर समाजी और बेटा!’ उसने शिवा को बैठे रहने दिया।

शिवा घर नहीं पहुँचा देर रात तक। उसकी खोज शुरू हुई। जगतनारायण को बच्चों ने फौरन बता दिया-‘शिवा मंदिर में बैठा हुआ है।’ जगतनारायण थोड़ा परेशान हो गया। उसने शिवा को बहुत समझाया, पर शिवा एक ही रट लगाए हुए था कि वह मूलशंकर की चूहे वाली कहानी की सच्चाई स्वयं जानना चाहता है। जगतनारायण समझ नहीं पाया-सख्ती करे या शिवा को समझने दे। कोई डर तो वहाँ था नहीं। उसने पंडित जी से कहा-”पंडित जी! बच्चा है, नासमझ है, ज़िद कर बैठा है। थोड़ी ही देर में यहीं सो जाएगा तो बता देना।”

पंडित जी ने भी हाँ कह दी और जगतनारायण असमंजस की स्थिति में घर लौटा। वह मन ही मन चिन्तित हो उठा। कहीं शिवा भी बालक मूलशंकर की तरह से घर से चला गया तो? उसे शिवा की ज़िद कोई शुभ लक्षण नहीं लगी। वह इसी सोच में डूबा लेट गया। सुन्दरी, सुभाष और अशोक गहरी नींद में थे। शकुन्तला बेहद परेशान थी-”मैं जाकर ले आती हूँ उसे...भिड़ओया, क्या सोच के बैठा है वहाँ।” पर जगतनारायण ने उसे यह कहकर मना किया-”वह जानना चाहता है सच तो जानने दो।”

और उस रात वही घटना घटी। पंडित जी एक कोने में बैठे-बैठे ही खर्राटे ले रहे थे। शिवा की आँखों में नींद नहीं थी। उसने देखा, दो चूहे कूदते-फाँदते आए और गणेश जी की प्रतिमा के सामने रखे लड्डुओं को कुतरने लगे। एक प्रतिमा के ऊपर भी चढ़ गया। शिवा ने कुछ देर देखा, देखता रहा। फिर उसने खर्राटे लेते पंडित की ओर देखा और चिल्लाया-”पंडित जी, चूहे!” पंडित की नींद टूटी तो वह भी ‘शी...शी...’ करने लगा। शिवा ने लगभग चिल्लाते हुए कहा-”यही, यही है तुम्हारा भगवान, चूहे से तो अपनी रक्षा कर नहीं सकता, हमारी क्या करेगा।” और बिन कोई जवाब सुने विक्षुब्ध शिवा घर चला गया। उसे लगा, वह भी मूलशंकर है। वह भी ईश्वर की खोज करेगा। उसे भी कोई स्वामी विरजानंद खोजना होगा और न जाने कितने ही सवाल उसके दिमाग में लटक गए। उसने सोच लिया कि रात को जब सब सो जाएँगे, तो वह ईश्वर की खोज में आज ही घर छोड़कर कहीं दूर चला जाएगा। पर कहाँ? मास्टर अंगुलीराम! नहीं! शरर, हाँ, वह अच्छा है, पर नहीं। हरिद्वार! ऋषिकेश, काशी और न जाने वह कहाँ-कहाँ जाने की बात सोचता-सोचता सो गया।

सुबह उठा तो शकुन्तला अँगीठी सुलगा रही थी।

शिवा अब पहले से भी ज़्यादा अन्तर्मुखी हो गया। कई बार उसका यह अन्तर्मुखीपन हठ की सीमा तक पहुँच जाता। एक अनवरत उधेड़बुन मन में चलती रहती। स्कूल, खेल, पढ़ाई, छोटे भाई-बहनों की देख-रेख, दुकान पर छोटा-मोटा काम, सब कुछ शिवा पहले की ही तरह करता रहा। बस, अन्तर यही था कि वह अब पहले से सोचता ज़्यादा। कई प्रश्न उसके मन में उठते, जवाब नहीं मिलता और वह मन ही मन उस प्रश्न का कोई भी जवाब सोचकर प्रश्न से छुटकारा पाने की कोशिश करता। कई बार वह अपने प्रश्न के अपने ही खोजे हुए उत्तर पर आह्लादित भी होता, पर प्रश्नों का सिलसिला रुका नहीं। एक बार उसने आर्य समाज के विद्वान शरर से अपने प्रश्नों का उत्तर जानना चाहा तो उसने कुछ विस्तार से समझाने के बजाय उसे ‘सत्यार्थप्रकाश’ की प्रति दे दी और कहा-”पहले इसे पढ़ो, समझने की कोशिश करो। आज नहीं तो कल समझोगे, तुम्हें तुम्हारे हर प्रश्न का जवाब इसमें मिलेगा।” जगतनारायण बहुत प्रसन्न हुए थे कि एक विद्वान ने उसके छोटे-से बेटे को इस योग्य समझा। जगतनारायण को हिन्दी बहुत कम आती थीं बँटवारे से पहले तो उर्दू का ही बोलबाला था और वह उर्दू अच्छी जानता था। कभी-कभी कोई नज़्म या भजन भी लिख लेता। उसके इस लेखन में उर्दू शब्दों का ही बोलबाला रहता था। आर्य समाज आंदोलन के सम्पर्क में आने से उसने टूटी-फूटी हिन्दी और थोड़ी-बहुत अंग्रेज़ी भी सीख ली थी। बाद में पंजाबी होने का एहसास कुछ ज़्यादा गहराया तो गुरुमुखी लिखना भी सीखा। वह भी ‘सत्यार्थप्रकाश’ पढ़ना चाहता था, पर उसका भाषा-ज्ञान इतना अच्छा नहीं था कि उसे पढ़ पाता। हाँ इन लिपियों को सीख लेने का उसे एक बड़ा लाभ हुआ। वह यह कि पूरे शहर में और एक भी पेंटर ऐसा नहीं था जो चारों जुबानों में साइन बोर्ड वगैरह बना सके। इस बात के लिए जगतनारायण की बड़ी शोहरत थी कि फलाँ पेंटर महाशय किसी भी ज़ुबान में साइन बोर्ड तैयार कर सकता है।

जब शिवा को शरर ने ‘सत्यार्थप्रकाश’ दिया तो जगतनारायण के मन की यह इच्छा फिर प्रबल हो उठी कि वह उसे पढ़ें। पर ऐसा हुआ नहीं। हाँ, शिवा ने पढ़ने की कोशिश ज़रूर की। बहुत-सी बातें उसकी समझ में नहीं आईं। उसका जब भी मन होता, वह कोई भी समुल्लास खोलकर बैठ जाता और समझने की कोशिश करता। उसे खंडन की भाषा बड़ी अच्छी लगती। मांस आदि खाने के विरोध में तथा ब्रह्मचर्य-पालन, गृहस्थाश्रम आदि से संबोधित बातें उसे विशेष रूप से आकृष्ट करतीं। अन्य धर्मों के खंडन को समर्पित समुल्लास उसे स्वयं को कुछ विशिष्ट होने का एहसास देते। पर उसकी समझ में यह कभी नहीं आया कि यह एहसास प्राप्त करने के लिए सनातनी मंदिर या गुरुद्वारे के सामने खड़े होकर ज़ोर-ज़ोर से भजन-कीर्तन और भाषण-नारों की ज़रूरत क्या है! यह तो वहाँ आसपास कोई मस्जिद या गिरजाघर नहीं था। उन्हें तो वे ध्वस्त ही कर देते। खंडन प्रवृत्ति अच्छी लगने के बावजूद इस तरह की आक्रामकता शिवा को निरर्थक लगती थी। पर वह कुछ कर नहीं पाया। हाँ, एक प्रभाव उस पर हुआ। उसने भविष्य में प्रभात-फेरी में जाना छोड़ दिया। पिता बहुत कोंचते, वह कोई न कोई बहाना बना ही देता। तंग होकर जगतनारायण यही कहता-”अरे, आर्य होना गौरव की बात है, बेवकूफ, नहीं समझता कुछ भी...नास्तिक! सो रहा है।”

उसे नट्टू के माध्यम से पता चला कि उसके पिता ने भी शिवा के बारे में ठीक यही कहा था। पर नट्टू के पिता और शिवा के पिता की सोच में बड़ा फर्क था। फिर भी दोनों एक ही बात कह रहे हैं। शिवा कुछ संभ्रम की स्थिति में था कि एक दिन जगतनारायण ने कहा-”शिवा, आज जुलूस है, बड़े बाज़ार के आर्य समाज से निकलेगा और परेड मैदान में रुकेगा।”

शिवा को बड़े बाज़ार जाना बड़ा अच्छा लगता था। वहाँ की चहल-पहल, खाना-पीना, रंग-बिरंगापन। रविवार को अक्सर वह आर्य समाज वहीं जाता था। उस दिन बाज़ार बन्द रहता। सुनसान। उसे बहुत मज़ा नहीं आता था। शिवा का मन तो हुआ झट से साथ चल दे, पर पूछ बैठा-”कैसा जुलूस?”

“अरे वही...बनाया है राष्ट्रभाषा हिन्दी को और लागू करते नहीं...सारा काम वही अंग्रेज़ी में...या उर्दू में...अंग्रेज़ गए, छोड़ गए अपनी औलाद’।” बड़ी ही वितृष्णा से कहा जगतनारायण ने।

“उर्दू तो आपको आती है।”

“हाँ, वो तो ठीक है...पर है तो वह मुसलमानों की भाषा...पाकिस्तान ने बना ली अपनी जुबान उर्दू और हम हिन्दुओं को शर्म आती है हिन्दी अपनाने में...”

शिवा की समझ में कुछ ज़्यादा नहीं आया। वह तो अब सिर्फ हिन्दी पढ़ता था। न उर्दू, न अंग्रेज़ी। अंग्रेज़ी तो छठी जमात से शुरू होती थी और पंजाबी पाँचवीं जमात से...तब जुलूस किस बात के लिए...?

जगतनारायण बोले चले जा रहा था-”यह सब नेहरू की देन है-खुद उसे हिन्दी नहीं आई, तो दूसरे भी क्यों काम करें...जैसे वह...वैसे ही उसके पिट्ठू...बेड़ा गर्क कर दिया देश का...हमें तो बर्बाद ही कर दिया न...चल...लड़ना पड़ेगा, वरना यह अंग्रेज़ों की औलाद कभी नहीं छोड़ेगी हुकूमत...चल...”

शिवा तैयार हो गया। उसे लगा, कोई बड़ी बात है, जिसके लिए लड़ना चाहिए। और वाकई बड़े बाज़ार में आकर उसे लगा कि कोई बड़ी बात ज़रूर है। हज़ारों की संख्या में लोग ठेलों पर, ट्रकों पर और पैदल जुलूस में शामिल थे। वहीं जाकर उसे पता चला कि हिन्दी माँ को उसकी उचित जगह दिलवाने के लिए पूरे देश में आंदोलन छिड़ा हुआ है। इस आंदोलन का अगुआ आर्य समाज था। कुछ दूसरे दल भी साथ थे। शिवा को किसी राजनीति की समझ नहीं आई। उसे तो लहराते झंडे और नारे लगाते लोग अच्छे लग रहे थे। उनके चेहरों पर फैला आक्रोश उसे भी क्षुब्ध कर रहा था कि अपने ही देश में अपनी ही भाषा दासी क्यों? ‘भारतमाता की बिन्दी : हिन्दी-हिन्दी-हिन्दी है’ जैसे नारे पूरे वातावरण को उत्साह, विक्षोभ और उल्लास के मिले-जुले भाव से भर रहे थे।

शिवा भी पिता के साथ एक ट्रक पर सवार हो गया। जगतनारायण को देखते ही लोगों ने उन्हें पकड़ लिया। एक ने कहा-”महाशय जी, महाशय जी आ गए...महाशय जी...गाओ कोई भजन।” भजन तो नहीं, जगतनारायण ने ‘वंदे मातरम्’ इतने उत्साह और जोश से गाया कि शिवा को अपने छोटे-छोटे बाज़ू भी फड़कते हुए लगे। वह भी ज़ोर-ज़ोर से ‘वन्दे मातरम्’ गाने लगा। फिर देश और आर्य देश और हिन्दी के समर्थन में नारे लगने लगे। गीत गाए जाने लगे। जुलूस सारा दिन चला। रास्ते में खाने के लिए कुछ लोगों ने केले दिए, कुछ ने संतरे। कई लोगों ने आंदोलन को और तेज़ करने के लिए रुपया-पैसा भी दिया। शिवा को लगा कि बस अगले ही दिन अंग्रेज़ी का नामो-निशान नहीं रहेगा और उसे भी छठी कक्षा में जाकर ए.बी.सी. रटनी नहीं पड़ेगी। उसने चोखा से सुन रखा था अंग्रेज़ी बेवकूफों की भाषा है। स्पैलिंग याद करते-करते आदमी की जान निकल जाती है। बस, स्पैलिंग रटते रहो, रटते रहो और जो पढ़ना है, वह रह जाता है। उसे लग रहा था कि उसे इस मुसीबत से ज़रूर निजात मिलेगी। वह भी ज़ोर-ज़ोर से हिन्दी आंदोलन में शामिल हो गया। कुछ जलसों में भी गया। पर वह आंदोलन कब, कैसे बन्द हो गया, उसे कुछ भी पता नहीं चला। उसने पिता से पूछा था-”पिताजी, अंग्रेज़ी हट गई?”

“कहाँ...देखा, कुछ तो होगा।”

बाद में शिवा जब बड़ा हुआ तो उसे पता चला कि उस आंदोलन से अंग्रेज़ी तो नहीं हटी, अलबत्ता दक्षिण भारत से हिन्दी ज़रूर हट गई। तब उसे बड़ा पछतावा हुआ कि उसने उस आंदोलन में हिस्सा क्यों लिया था। तब तक भाषा की भूमिका बदल चुकी थी, भाषा भी राजनीति का एक मोहरा बन चुकी थी।

बँटवारे के बाद उधर से आए ज़्यादातर लोग या तो पंजाब के विभिन्न शहरों में फैल गए थे या दिल्ली में। जिन लोगों के रिश्तेदार उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश या महाराष्ट्र के शहरों में थे, वे वहाँ चले गए। आए तो शरणार्थी बनकर थे, पर अपनी मेहनत, लगन और ज़रूरत से उन्होंने जल्द ही अपने को स्थापित कर लिया। सरकार की ओर से बरायनाम मदद ही मिली। यह बात और है कि कुछ लोगों ने राजनेताओं से मिल-मिलाकर पैसा, लाइसेन्स या ज़मीनें हड़प लीं और दिनोदिन अमीर होते गए। जो संकोची थे, शर्माते थे, बहुत ईमानदार थे, वे पीछे छूट गए।

रामस्वरूप और उसका भाई नारायण संकोची नहीं थे। नारायण ने दिल्ली में आते ही पश्चिमी दिल्ली के इंडस्ट्रियल एरिया में ज़मीन खरीदी और इधर-उधर से जुगाड़ करके साइकिलों की चेन बनाने का छोटा-सा कारखाना लगा लिया और जल्दी ही जम गया। बँटवारे से पहले भारत में अगर बुल्लक-कोर्ट का युग था तो बँटवारे के दस साल बाद ही भारत साइकिल-युग में पहुँच गया। इसी वजह से नारायण का चेन बनाने का कारखाना भी तेज़ी से तरक्की कर गया और उसने रोहतक में बसे भाई रामस्वरूप को दिल्ली बुलवा लिया था। रामस्वरूप जब दिल्ली आया तो नारायण ने उसके सामने पेशकश रखी, “देखो, चेन बना रहा हूँ। इधर फ्री व्हील की माँग बहुत बढ़ी है। मुझे चेन बनाने से फुर्सत नहीं, तुम फ्री व्हील का कारखाना लगा लो।”

“मुझे टट्टू पता है।” रामस्वरूप ने कहा।

“उसकी फिक्र तू मत कर...साथ की ही ज़मीन बिकाऊ है, मैंने बात कर ली है...यहीं खरीद लेते हैं...तू शुरू कर...बाकी मैं देख लूँगा।”

दरअसल चेन बनाने की वजह से नारायण के संपर्क साइकिल बनाने वाली कम्पनियों से बहुत बढ़ गए थे और वे ही अब फ्री व्हील की माँग भी कर रहे थे।

ज़मीन खरीद ली गई। शैड पड़ गए। मशीनें लग गई। डाइयाँ बन गई और दिनो-दिन रामस्वरूप का नया कारखाना इन्डिपेन्डेंट इंडस्ट्रीज फ्री व्हील बनाने लगा। काम एक शिफ्ट से दो और दो से तीन शिफ्ट में होने लगा। दो सालों में ही रामस्वरूप ने पास ही कीर्ति नगर में एक बहुत बड़ा मकान खरीद लिया। नारायण तो पहले से ही संपन्न था। अब दोनों भाई नहले पर दहला और दहले पर गोला हो रहे थे।

एक दिन नारायण ने रामस्वरूप को बुलाकर कहा-”मुझे एक बात सूझी है।”

“क्या?” रामस्वरूप की उत्सुकता जगी।

“सोचता हूँ, हम दोनों मिलकर साइकिल इंडस्ट्री शुरू करें।”

रामस्वरूप पहले तो थोड़ा अचकचाया। पूँजी की बात थी। उत्पादन कितना हो, खपत कहाँ होगी, नई साइकिल न चली तो? जैसे कई सवाल उसने नारायण के सामने रखे।