अनहद नाद / भाग-14 / प्रताप सहगल
रात ढलने को आई। जगतनारायण की छाती में रह-रहकर हलका-हलका दर्द उठ रहा था। स्याही गहरी होती गई। मार्च का महीना। मौसम खुशगवार था, पर जगतनारायण को ठंड लग रही थी। रज़ाई डाल दी गई। शकुन्तला ने सोचा, मलेरिया होगा। तुलसी की चाय पिलाई, कड्बरीज़ कंपाउंड पिलाया। छाती को मला। थोड़ी देर जगतनारायण की आँख लगी, फिर वह कराहने लगा तो शकुन्तला को चिंता हुई। उसने शिवा को कहा-”बात मन को लगा गए हैं...ना सही यह नौकरी, और मिल जाएगी...मैं तो पहले ही कहती थी, अपना काम बादशाही होता है। जो होनी है, उसे कौन टाल सकता है...पिताजी का बाज़ू दबा दे।” शिवा पिता का बायाँ बाज़ू दबाने लगा। शकुन्तला भी पास बैठ गई। अशोक और सुभाष भी। उन्हें समझ नहीं आ रहा था, क्या करें। बस बैठे रहे। सुंदरी चौके में लगी थी। बाकी बच्चों के लिए यह कोई घटना थी ही नहीं। रात को जगतनारायण ने कुछ नहीं खाया। कराहता रहा। सोता-जागता रहा।
शकुन्तला सारी रात कभी जगतनारायण को देखती रही तो कभी दो घर छोड़कर ईशरी को। ईशरी का खाविंद एक फैक्टरी में जमादार था। उस रात ईशरी को बच्चा होने वाला था। मेहतरानी है, इसलिए कोई भी उसकी सेवा करने को तैयार नहीं था। शकुन्तला किसी की भी तकलीफ के मौके पर पीछे नहीं रहती थी। उसने रात-भर ईशरी की सेवा की और पति की भी, तो सोना कहाँ! मुहल्ले में शकुन्तला की इस प्रवृत्ति को लेकर कुछ लोग मुँह भी बनाते थे, पर वह परवाह नहीं करती। कहती-”वे आदमी नहीं हैं क्या?” जैसे-तैसे रात कटी।
अगले दिन जगतनारायण को डिस्पेंसरी ले जाया गया। डॉक्टर ने मुआयना करते ही कहा-”आप चलकर आ कैसे गए? इन्हें फौरन अस्पताल ले जाइए।
“हुआ क्या है?” शकुन्तला ने पूछा।
“दवा दे दी है...अस्पताल नहीं ले जाओगे तो कुछ हो ज़रूर जाएगा।”
किसी की समझ में कुछ नहीं आया। स्कूटर में जगतनारायण को डाला और विलिंग्डन पहुँचे। डॉक्टर ने देखा। तुरंत भर्ती कर लिया। इलाज चलने लगा। जगतनारायण को समझ नहीं आ रहा था कि उसे हुआ क्या है? शिवा ने विजयनारायण चाचा को फोन कर दिया। वह और रूपनारायण भी आकर मिल गए। चार दिन तो जगतनारायण अस्पताल में रहा। पाँचवें दिन फट पड़ा-”मुझे घर ले चलो।”
“इलाज यहीं ठीक होगा।” शकुन्तला ने कहा। पास शिवा भी खड़ा था।
“मुझे यहाँ नहीं रहना।”
शकुन्तला चुप रही।
“सुना नहीं तूने? शिवा! ले चल मुझे।”
शिवा को भी समझ में नहीं आया कि क्या कहे। इतने में ही एक नर्स आई ब्लड सैंपल लेने। जगतनारायण चिल्ला उठा-”यह क्या ठीक करेंगे। चार दिनों में पचास बोतल तो खून निकाल लिया है मेरा। मुझे ऐसे ही मार देंगे...”
शिवा की समझ में बात आ गई, बोला-”पिताजी, टैस्ट तो होंगे।”
नर्स भी जगतनारायण की बात से थोड़ा-सा सहम गई थी, बोली-”हाँ, टैस्ट के लिए तो सैंपल लेने हैं।”
“शीशी भर-भरकर...दिन में चार-चार बार...कितने टैस्ट करने हैं...”
तभी विजयनारायण भी वहाँ आ गया। उसने जगतनारायण को समझाया कि टैस्ट होने के बाद ही ठीक इलाज शुरू होगा। जगतनाराया नहीं माना। बोला-”मुझे ज़िंदा देखना चाहते हो तो यहाँ से निकालो। यह अस्पताल नहीं, कसाईखाना है। रोज़ दो-चार ऐसे ही मरते हैं, कुत्ते-बिल्लों की तरह...विजय...बोल डॉक्टर को...”
नर्स की समझ में नहीं आया, वह क्या करे। उसने फिर खून लेने की कोशिश में सिरिंज निकाला तो जगतनारायण आवेश में काँपने लगा-”जाती है कि लगाऊँ उलटे हाथ।” नर्स हतप्रभ-सी चली गई। उसी वक्त डॉक्टर भी राउंड पर था। उसने भी यह सब देखा और विजय से कहा-”देखिए, ठीक इलाज तो टैस्ट के बाद ही शुरू होगा...”
“रिपोर्ट कब तक आएगी?”
“दो दिन में।”
डॉक्टर कहकर जाने लगा तो शकुन्तला भी उसके पीछे हो ली। डॉक्टर ने पूछ लिया-”अब क्या है?”
“इन्हें छुट्टी दे दो। जो भाग में होगा, सो भुगत लेंगे...यहाँ तो ऐसे ही मर जाएँगे।
“ऐसा करना ठीक नहीं है।”
विजय ने कहा-”आप दवाइयाँ लिख दीजिए। मेरी कैमिस्ट शॉप है, कोई दिक्कत नहीं होगी।”
“कहाँ...?” डॉक्टर ने पूछा।
“चाँदनी चौक...”
डॉक्टर ने क्षण-भर सोचा। फिर दवाइयाँ लिखने के साथ-साथ लामा डिस्चार्ज स्लिप बना कर दे दी। विजयनारायण ने देखा, एल.ए.एम.ए.-फिर भी उसने सभी को अपनी कार में बिठाया और घर ले आया।
जगतनारायण के चेहरे पर संतोष की छाया थी।
जिस दिन जगतनारायण को हलका-सा स्ट्रोक हुआ, ठीक उसी दिन सुमन के पिता नेकचंद को ड्यूटी पर ही दिल का तेज़ दौरा पड़ा और वह डॉक्टर के आने से पहले ही चल बसा।
जगतनारायण को कहीं यह आस थी कि उसे अगर कुछ हो भी गया तो शिवा जैसे-तैसे परिवार सँभाल लेगा, पर नेकचंद के घर में तो सिर्फ तीन लड़कियाँ ही थीं। अब क्या हो! सुमन की पढ़ाई पहले ही छूटी हुई थी। बड़ी बहन निर्मल दसवीं पास थी। उसे पिता की जगह नौकरी दे दी गई। साथ ही यह आश्वासन भी कि चाहे तो सुमन भी काम पर आ सकती है, पर नाबालिग होने के कारण उसका नाम फैक्टरी के मुलाज़िमों के रजिस्टर पर नहीं चढ़ेगा। निर्मल ने सुमन को भी फैक्टरी में साथ लगा लिया। बनियानें बनाने की छोटी-सी फैक्टरी में निर्मल ही सुपरवाइज़र हो गई और सुमन को फैक्टरी की खुदरा दुकान पर लगा दिया गया। शिवा ने सोचा, कहाँ नेकचंद की फैक्टरी का मालिक और कहाँ रामस्वरूप।
जगतनारायण बिस्तर पर था। प्रॉविडेंट फंड आदि जो मिला, उसका बड़ा हिस्सा बीमारी में खर्च हो गया। तिस पर मुसीबत यह कि क्वार्टर छः महीने के अंदर ही खाली करना था। नियमित आय न होने से घर में अंदर ही अंदर एक टूटन फैलती गई।
एक दिन विजयनारायण आया तो जगतनारायण ने पूछ ही लिया-”शिवा को कोई काम मिल सकता है?”
विजयनारायण चाहता तो शिवा को काम दे सकता था, उसके पास बीच-पच्चीस आदमी काम करते थे, पर उसने कहा-”भाऊ! मेरी मानो तो इसे अभी काम में मत डालो, पढ़ाई चौपट हो जाएगी। यह पढ़ने में अच्छा है। इसे पंद्रह रुपए महीना मैं दूँगा। इसका खर्चा तो निकल ही जाएगा।” कहते-कहते उसने पर्स से पंद्रह रुपए निकालकर शिवा की ओर बढ़ाए।
शिवा की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। शकुन्तला भी खामोश थी। जगतनारायण ने ही कहा-”चाचा है, ले लो।” शिवा ने पैसे लेकर पिता के सिरहाने रख दिए। उसे समझ में नहीं आया कि यह वाकई चाचा की उदारता थी या कोई चाल। दया थी या भीख। प्रोत्साहन था या भविष्य में आने वाली कोई रुकावट। एहसान था या मदद।
शिवा के सामने समस्या थी कि वह ग्यारहवीं पास भी कर पाएगा कि नहीं। हालात से उसे यही लगता था कि यह उसकी पढ़ाई का आखिरी साल है। या शायद कोई रास्ता निकल ही आए...और अगर पिताजी को कुछ हो गया तो...इतना बड़ा परिवार...सभी छोटे...वह क्या कर लेगा। कोई पूँजी भी नहीं। न कोई जायदाद। उसके हाथ में तो कोई हुनर भी नहीं, न डिग्री।
रात देर तक शिवा जागता रहा। अपनी यह कशमकश उसने किसी के सामने ज़ाहिर भी नहीं की। उसे अपना भविष्य पूरी तरह से अंधकार में डूबा नज़र आया। अभी उसकी उम्र कम है। नौकरी भी कौन देगा? वह जानता भी क्या है? न कोई आदमी, न कोई काम। यहीं से उसके संघर्ष की दास्तान शुरू होती है। पहले वह लेता था पिता से। अब उसे देना है। पिता को। सबको...। पर उसके संघर्ष की शक्ल क्या होगी? वह नहीं जानता...बस, इतना जानता था कि इस मुश्किल का हल एक ही है-पैसा।
मोतीनगर में ही पैंसिलों की फैक्टरी थी ‘मूनलाइट इंडस्ट्रीज़’। हरीश का पिता वहीं सुपरवाइज़र था। गर्मियों की छुट्टियाँ सिर पर थीं। हरीश ने शिवा से पूछा-”छुट्टियों में क्या करोगे?”
“सोचा नहीं।”
“मैं तो पापा के साथ फैक्टरी जाऊँगा...।” यह बताते हुए हरीश आह्लादित हो रहा था।
“क्यों?” शिवा ने पूछा।
“कुछ काम करूँगा, पैसे भी मिलेंगे।”
शिवा उत्साहित हुआ, पूछा-”मुझे भी मिल सकता है यह काम?”
“पापा से पूछूँगा।”
अगले ही दिन हरीश ने पापा से पूछकर शिवा की भी हामी भर दी।
छुट्टियाँ शुरू होते ही दोनों दोस्त, पैंसिलों की उस फैक्टरी के पैकिंग विभाग में चले गए। न्यूनतम आय 52 रुपए महीना। शिवा खुश था कि 52 रुपए से कुछ तो काम चलेगा। फैक्टरी को अंदर से उसने पहली बार ही देखा था। पिता को कभी-कभी खाना देने जाता था तो बाहर ही खाना पकड़ाकर लौट आता। आज वह खुद एक बाल-मज़दूर की हैसियत से काम कर रहा था।
पैकिंग डिपार्टमेंट बहुत बड़ा नहीं था। कुल दस-बारह लोग, दो बुजुर्ग, तीन लड़कियाँ, बाकी बच्चे। सबके ऊपर फोरमैन।
शिवा यहाँ भी पैकिंग करते-करते ईश्वर-चर्चा करने लगा। दो बुज़ुर्गों में एक समाजी था। वह देखता कि शिवा काम करते-करते भी दूसरों के साथ धर्म, ईश्वर, कर्म-फल को लेकर बहस में उलझा रहता। तभी उस बुज़ुर्ग ने यह देखकर कि कुछ सवालों के जवाब में शिवा कुतर्क पेश कर रहा है, कहा-” ‘सत्यार्थप्रकाश’ पढ़ लो, इन सब सवालों के जवाब मिल जाएँगे।”
“वह तो मैंने पढ़ा है।” शिवा ने थोड़े गर्व से कहा।
“अच्छा...!” उस बुजुर्ग को हैरत हुई-”तो कुछ भूल गए हो, फिर से पढ़ो, चिंतन-मनन भी करो।”
शिवा को फिर से पढ़ने वाली बात अच्छी नहीं लगी हाँ, चिंतन-मनन करने की बात उसे पसंद आई।
शिवा बात भी करता जाता। पैंसिलों के मुट्ठे भी बनाता जाता। हरीश कभी काम करता, कभी उठ के बाहर घूम आता। सुपरवाइज़र का बेटा था। कमाने थोड़े ही आया था, वह तो तफरीह के लिए आया था। ऐसा ही सोचकर शायद उसे कोई कुछ न कहता।
दो महीने कैसे निकले, शिवा को पता ही नहीं चला, हाँ, एक मज़दूर होने का अनुभव और कुछ पैसे ज़रूर मिले।
जगतनारायण ने देखा कि शिवा काम कर सकता है। आश्वस्त हुआ। दवाओं का भी असर हुआ। वह पहले से चंगा होने लगा, पर हृदय-शूल का रोग तो उसे लग ही गया था।
उन दिनों दिल्ली धीरे-धीरे महानगर की शक्ल लेने लगी थी। बँटवारे के कई साल बाद सरहद के उस पार से आए लोग पूरी दिल्ली में फैल चुके थे। अगली पीढ़ी खड़ी हो रही थी। वह पीढ़ी जिसने बँटवारे और उससे पहले के माहौल को देखा तो नहीं, पर उसकी दहशत-भरी दास्तानें ज़रूर सुनी थीं।
जिन्हें मुआवज़े में सरकारी मकान या प्लॉट मिले, उनकी ज़िंदगी व्यवस्थित हो गई थी। जिन्हें नहीं मिले, उन्होंने इधर-उधर कब्ज़े किए और जमे रहे। इसी दौर में ग़ैरकानूनी बस्तियों की फसल तेज़ी से उगी और इन बस्तियों ने दिल्ली का नक्शा ही बदल दिया। सरकारी ऐजेंसियाँ अयोग्य साबित हो रही थीं। राजनीति अपना खेल खेल रही थी। बेतरतीब फैलाव, बेतरतीब विकास।
ऐसी ही एक कॉलोनी कर्मपुरा से थोड़ी दूर हटकर बन रहा था-सुदर्शन पार्क। नाम सुदर्शन। बस। खुली गंदी नालियाँ, टूटी सड़कें और नागरिक सुविधाओं के नाम पर बिजली के खंभे थे। बिजली कहीं नहीं। उसी कॉलोनी में जगतनारायण ने मकान ढूँढ़ना शुरू किया। दो महीने की बीमारी के बाद वह चलने-फिरने लायक हो गया, पर शारीरिक, मानसिक और आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह से टूट चुका था। ऐसे में ईश्वर-भक्ति भी काम नहीं आई, न आर्य समाज में सुने प्रवचन ही उसे याद रहे।
दो महीने की छुट्टियों के बाद एक आशंका ने शिवा को घेर लिया। पढ़ाई जारी रहेगी या नहीं। जगतनारायण कहने को तो कहता था कि जैसे-तैसे हायर सकेंडरी कर ले, अंदर से उसकी इच्छा यही थी कि गोली मारो पढ़ाई को, काम-धाम करो, बड़े हो, घर सँभालो। छोटों की देखरेख करो। कमाकर लाओ। खुद भी खाओ, हमें भी खिलाओ। शिवा पढ़ाई छोड़ने को तैयार नहीं था। 52 रुपए की नौकरी भी नहीं रही। घर में फिर तंगी महसूस की जाने लगी।
स्कूल दोपहर को शुरू होता था। शिवा ने सुबह काम करके कुछ कमाने की ठान ली। उसने जैसे-तैसे एक बड़ा पतीला खरीदा। माँ से छोले बनवाए, कुछ कुलचे खरीदे। अशोक और सुभाष को लिया और मूनलाइट इंडस्ट्रीज़ के बाहर जा बैठा। डर भी लगा, कोई देखेगा तो क्या कहेगा। फिर सोचा, कौन आकर पैसे दे जाता है। काम ही तो कर रहा है, चोरी तो नहीं।
आधी छुट्टी के वक्त मज़दूर लोग बाहर निकले। देखा, यह तो वही शिवा है, जो कल तक हमारे साथ ही काम करता था। कुछ ने ठिठोली भी की, पर शिवा के छोले बिक गए। उसे दो रुपए बच गए। उसे यह काम जँचा, पर ज़्यादा दिन चला नहीं। दो दिन पूरा माल नहीं बिका। नुकसान भी हुआ।
उन्हीं दिनों मोतीनगर में नया-नया सिनेमा बना था। नटराज। लोग खुश थे। उससे पहले वहीं पास ही टीन का सिनेमा ज्योति था। वह साल में 6 महीने चलता, 6 महीने शहर के किसी दूसरे हिस्से में चला जाता। शिवा को फिल्में देखने का शौक वहीं से हुआ था।
जब वह रमेश नगर में था, तो कई बार वह भूषी और दीपू के साथ वहाँ फिल्म देखने आता। स्कूल से भागकर उसने नादिरा की बहुत सारी फिल्में देखी थीं। ‘हातिमताई’, ‘हंटरवाली’, वहीं उसने कई सामाजिक फिल्में भी देखी थीं। यहीं उसे फिल्म देखने का ऐसा चस्का लगा कि पैसे न होते तो टीन के किसी सुराख में वह अपनी आँख गड़ा देता। तीन-चार सुराख और भी थे जिसमें आँख गड़ा वे फिल्में देखते। दूसरे लड़के भी। चौकीदार डंडा बजाता आता तो भाग जाते। उसके जाते ही पुनः सारी आँखें अपने-अपने निश्चित सुराखों में गड़ जातीं। इस तरह शिवा ने कई फिल्मों को चार-चार, पाँच-पाँच बार देखा। बड़ी भीड़ होती थी। फिल्में पुरानी ही चलती थीं। नई फिल्में पक्के हॉलों पर लगती थीं। शिवा ने जब नटराज बनते देखा तो दूसरे लोगों की तरह उसके मन में उमंग जगी कि अब वह भी नई फिल्में देख सकेगा।
यही सोचता हुआ नटराज के सामने से निकल ही रहा था कि उसे एक आवाज़ सुनाई दी-”ओ मुंडे!”
शिवा को आवाज़ पहचानी हुई लगी। उसने मुड़कर देखा। सिगरेट का कश लगाता घई नज़र आया।
शिवा की जुबान पहले से तेज़ हो चुकी थी। थोड़ा-थोड़ा शातिरपन भी उसके अंदर उगने लगा था। पहले वाला वक्त होता तो टालकर चला जाता या बुत बना खड़ा रहता, पर आज झट से बोला-”अरे उस्ताद, तुम...इधर कैसे?”
“तू कैसे?”
“मैं तो यहीं रहता हूँ, पास ही।”
“अच्छा, क्या कर रहा है...”
“पढ़ रहा हूँ...भूषी मिलता है उस्ताद?”
“तुझे नहीं मालूम...”
“क्या?”
“अरे उसने तो सहजोबाई का खून कर दिया।”
शिवा क्षणभर सकपका-सा गया। हिम्मत जुटाकर बोला-”कौन सहजोबाई?”
“रंडी थी, और कौन...हरामी साला, सोलह का है अभी, डंडी साले की ऐसे हिलती है, जैसे पच्चीस का हो...है दिलदार...तेरा तो पक्का यार है। तुझे पता ही नहीं...”
शिवा को समझ नहीं आया कि वह क्या जवाब दे। खिसियाना-सा बोला-”हाँ, हाँ...वो मेरे पिताजी हैं न, बीमार हो गए थे।”
“फिक्र न कर, वह जल्दी छूट जाएगा, बच्चा है न। कानून की नज़र में तो बच्चा ही है।” कहकर घई ज़ोर से हँसा-”कुछ काम करेगा?” शिवा तो काम की खोज में था ही। काम क्या करना होगा, यह न जानकर चुप रहा। “घबरा नहीं, कोई गड़बड़ नहीं, साफ-सुथरा काम है। वो सामने देख, वह ठिया मेरा ही है। वहीं पर...”
शिवा ने देखा, एक बड़ी मेज़ पर चाशनी की बोतलें थीं। नींबू थे। बर्फ थी। शिकंजी बेचने की दुकान। गर्मी तो तेज़ पड़ ही रही थी। ऐसे में सिनेमा के ठीक सामने शर्बत की दुकान। खूब भीड़ थी। शिवा ने सोचा, उसे यह अक्ल क्यों नहीं, वह खुद अपना ठिया बनाता, पर इसके लिए पैसे कहाँ से आते। एक बार बना लेता तो सब ठीक हो जाता। वह कुछ और भी सोचता, घई ने सोच तोड़ दी-”बोल!”
“स्कूल जाता हूँ।”
“कोई गल्ल नहीं। दोपहर तक वहाँ रह। बाद में मैं देख लूँगा। एक रुपया रोज़ मिलेगा। रोज़ का रोज़। दो गिलास शर्बत फ्री...नई फिल्म लगेगी तो उसके पास भी दिला दूँगा।” शिवा के लिए यह बड़ा आकर्षण था। उसने हाँ कर दी।
फिर ध्यान आया कि पिताजी मानेंगे कि नहीं, पर पैसे तो घर में चाहिए। तीस रुपए महीने का जुगाड़ तो हुआ। बाकी देखा जाएगा।
शिवा सुबह घई की दुकान पर जाता, दोपहर स्कूल और शाम को कल्याण केंद्र। वहाँ आकर भी उसने हांडा एंड कंपनी से मिलना नहीं छोड़ा था। कभी-कभी हारमोनियम के सुर भी छेड़ता, पर सरगमों के आगे वह नहीं बढ़ सका। रियाज़ कब करे? जब बहुत दुखी होता तो हारमोनियम पर ज़ोर-ज़ोर से अंगुलियाँ चलाता। सुरों की फिक्र किए बिना। दो-तीन फिल्मी गाने जो उसने जौली से बजाने सीख लिए थे, उन्हें ही कई बार बजाता। जौली को गुस्सा आता था, वह कहता भी-”शिवा, संगीत सीखना है तो ठीक से सीखो, वक्त दो, वरना छोड़ दो।” शिवा के पास अब वक्त ही तो नहीं था।
नेकचंद की मृत्यु के बाद सुमन के पास भी समय नहीं रहा। आठ से पाँच काम। फिर ओवर टाइम भी। शिवा कभी-कभी सुबह-सुबह आकर सुमन से मिलने की कोशिश करता। वह हमेशा दो और लड़कियों के साथ होती। सुषमा तो उसकी चचेरी बहन ही थी, जो कानपुर से आई थी। उसी के साथ रहती थी और साथ ही काम करती थी। दूसरी लड़की का नाम प्रभा था। भारी, कुछ बेडौल-सी। सुनती ऊँचा थी। वे तीनों साथ ही फैक्टरी में जातीं। इसलिए शिवा को सुमन से बात करने का अवसर नहीं मिलता। बस, दूर से देखता और लौट आता। सुमन भी देख लेती। बस। अचानक सुमन का रुख बदल गया। शिवा परेशान था। पहले सुमन उसे देखकर मुस्करा दिया करती थी। मिलना भले ही नहीं होता, फिर भी दोनों के बीच फैली मुस्कराहट ही उन दोनों के प्रेम-संबंध को ताज़ा बनाए रखती थी। पर अब मुस्कराना तो दूर, सुमन उसकी ओर देखती तक नहीं थी। शिवा ने काफी कोशिश की कि वह उससे मिलकर पूछे कि सबब क्या है? उसने सुषमा के हाथ संदेश भिजवाया, पर सुषमा ने भी यही जवाब दिया कि वह शिवा से मिलना नहीं चाहती। शिवा ने दो लंबे-लंबे पत्र भी लिखे। सुमन ने उनका भी कोई जवाब नहीं दिया।
ऐसे में हरीश ही उसके दुख का साथी था। उसने हरीश से सारी बात कही। उसकी बात सुनकर हरीश इतना भावुक हो गया कि उसकी आँखें छलछला आई। शिवा ने ही कहा-”बात रोने की नहीं। मुझे पता तो लगना चाहिए कि मेरा कसूर क्या है?”
शिवा और सुमन के संबंधों की चर्चा कॉलोनी में कई लोगों के बीच होने लगी थी। अलग-अलग तरह से। बाप सिर पर नहीं तो लड़की का यही हाल होता है कि सुमन की बड़ी बहन अपने मालिक के बड़े लड़के से फँसी हुई है। सोचती है, उसी से शादी करके मिल की मालकिन बन जाएगी तो छोटी भी उसी राह पर जाएगी। और समाजी के छोरे शिवा को देखो, बाप कैसा देवता और बेटा! और भी कई तरह की बातें।
शिवा के पास वाले क्वार्टर में ही तीन भाई एक साथ रहते थे। बीच वाला श्रीचंद शिवा को बड़ा प्यार करता था। श्रीचंद का एक ही शौक था। खूब कसरत करना और देशी घी खाना। वह शाम को शिवा को भी अपने पास बुला लेता और उसके हाथ में तेल की शीशी पकड़ाकर कहता-”कर मालिश।” लँगोट बाँधकर श्रीचंद खड़ा होता तो पहलवान लगता। कभी बहुत बचपन में शिवा ने दारासिंह को देखा था। गामा पहलवान की चर्चा सुनी थी। बिजली पहलवान को भी पास से देखा था। उसे श्रीचंद उन सबसे अलग लगता।
पहले दिन शिवा ने श्रीचंद की मालिश की तो पसीना छूट गया। तब श्रीचंद ने उसे भी अपनी ओर से एक लँगोट भेंट किया और कहा-”कस लो, अभी कसोगे तो सारी उम्र अच्छी निकलेगी। यही उम्र है शरीर कमाने की...” कहते हुए उसने बायाँ हाथ शिवा के पुट्ठे पर मारा तो वह गिरते-गिरते बचा।
शिवा पहलवान तो नहीं बना, पर मालिश करने लगा। डंड पेलने लगा। वेट लिफ्टिंग करने लगा। इससे उसके शरीर में भी कुछ कटाव उभरने लगे, जिन्हें देखकर वह प्रसन्न होता और श्रीचंद भी। जगतनारायण हमेशा यही कहता-”अरे, कसरत के लिए खुराक भी चाहिए” शिवा एक न सुनता। श्रीचंद ने समझा रखा था, “कुछ भी खाओ बच्चे! चने बादाम से ज़्यादा ताकतवर हैं। घोड़ा यही खाता है। खाया-पीया शरीर को लगना चाहिए। बस।”
श्रीचंद शिवा से लगभग दस साल बड़ा था, पर शिवा की दोस्ती हो गई। जब दोस्ती हो गई, तो शिवा ने सोचा क्यों न वह सुमन के बारे में श्रीचंद से ही बात करे। हरीश की भावुकता तो उसकी समस्या का हल नहीं हो सकता।