अनहद नाद / भाग-15 / प्रताप सहगल

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एक दिन दोनों सुबह ही कसरत करने पें लगे थे कि सुमन फैक्टरी जाने के लिए बाहर निकली। उसने शिवा को लँगोट कसे कनखियों से देखा और सुषमा की इंतज़ार के बहाने वहीं खड़ी रही।

शिवा के डंड पेलने की ताल गड़बड़ा गई। श्रीचंद ने देख लिया। वह भी सुमन और शिवा की कहानी से परिचित था। बोला-”अरे डंड पेल, छोड़ उस ससुरी को।” शिवा कुछ नहीं बोला। खड़ा हो गया। सुमन पहले से भी सुंदर हो गई थी। शरीर भर गया था। अरोजों के उठान चमकने लगे थे। उसे अपना पहला स्पर्श याद आया। वह आवेश-भरा दिन याद आया, जब उसने सुमन में प्रवेश किया था। उसे कुछ झुरझुरी-सी हुई।

सुषमा भी बाहर आ गई और उन दोनों ने ड्यूटी पर जाने की राह पकड़ी। श्रीचंद ने शिवा से कहा-”छोड़ दे उसे, वह तेरे लायक ना है। शरीर कमाने का वक्त है यह, गँवाने का ना है। ससुरी ने बिगाड़ के रख दिया लौंडे को। कितने डंड पेले?”

“पच्चीस।”

“बस, पच्चीस! और पेल, कैड़ा हो जा। औरत उसी की, जो कैड़ा हो...पेल डंड...सौ तक तो जा।” कहकर वह डंड पेलने लगा।

शिवा की समझ में श्रीचंद की यह बात नहीं आई कि सुमन उसके लायक नहीं है। क्यों भला? उसने पूछना चाहा, पर किसी अपरिचित उत्तर की आशंका से उसकी जुबान तालू से चिपकी ही रही।

ठीक ऐसी ही बात दो दिन बाद उसे चावला ने भी कही थी-”तफरीह के लिए ठीक होती हैं ऐसी लड़कियाँ, शादी के लिए नहीं।” शिवा ने सोचा तो यही था कि सुमन के साथ ही शादी करेगा, पर चावला ने ऐसी बात क्यों कही?

शिवा काफी देर तक सोचता रहा। श्रीचंद ने भी ऐसी ही बात कही। फिर चावला ने। श्रीचंद की तो नज़र भी उस पर हो सकती है, पर चावला तो दो बच्चों का बाप है, संजीदा है और उसे प्यार भी करता है। उसने पूछ ही लिया, “ऐसी क्या कमी है उसमें’?”

चावला हँस दिया।

शिवा ने उस हँसी के अर्थ को पकड़ने की कोशिश की। जब समझ में नहीं आया तो पूछा-”बताओ।”

“गश्ती हो गई है वो।” चावला ने कुछ आवेश में कहा था।

‘गश्ती’ शब्द ही शिवा ने पहली बार सुना था। प्रश्नवाचक मुद्रा में उसने दोहराया-”गश्ती?”

“हाँ, गश्ती...टैक्सी...”

शिवा ने सुना, समझा, एकदम खामोश हो गया। क्षण-भर बाद जैसे फट पड़ा-”आपको कैसे मालूम?”

“मालूम है...ज़िंदगी देखी है हमने...मालूम है...इसी कॉलोनी में रहते हैं, इसी इलाके में काम करते हैं, फिर भी यकीन न हो तो उसे बुलाकर दिखा सकता हूँ...थोड़े पैसे ही तो खर्च होंगे।”

शिवा का चेहरा एकदम लटक गया।

सुमन सचमुच ऐसी हो सकती है या उसे बदनाम किया जा रहा है! पर क्यों? यह धंधा...तो क्या उसकी बड़ी बहन भी गश्ती है...कितनी मासूम लगती है चेहरे से...मासूम तो सुमन भी लगती है...फिर...शायद तभी उसने शिवा की ओर देखना भी बंद कर दिया है...हरामज़ादी पैसे से बिकती है...नहीं लगता...मैं खुद उसे बुलाकर देखूँगा...मुझे किसी पर यकीन नहीं। श्रीचंद और चावला पर भी नहीं। सब झूठ बोलते हैं। पर वे मुझसे झूठ क्यों बोलेंगे...क्या लेना है उन्होंने मुझसे...वो तो मुझे सचमुच उससे बचाना चाहते हैं...क्यों किसी गश्ती को कोई अपनी बीवी बनाने की सोचे।...गश्ती यानी वेश्या। वेश्या और बीवी...पर क्यों नहीं...शिवा के मन में कई तरह के प्रश्न लटक गए...एक जाता, दूसरा आता...एक-दूसरे को काटते प्रश्न-एक मंथन, एक द्वंद्व चल रहा था शिवा के अंदर-पर ऐसा क्यों हुआ होगा? क्या इसका ज़िम्मेदार वही है...उसी ने सुमन को उस दिन अपने यहाँ बुलाया था। बर्तन मलती सुमन, उसके कमरे में आती सुमन...आवेश में उसे चूमती सुमन। शिवा को पूरी तरह से प्राप्त करती सुमन...

‘वही है इस सबका ज़िम्मेदार...उसी ने दी है उसे यह राह...उसी ने किया है यह पाप। वह पाप और पुण्य के व्यूह में फँसने लगा-उसका सुमन के साथ प्रेम का रिश्ता है, पैसे का नहीं, मन का है, शरीर का नहीं...फिर सोचना कैसा, वह जो भी है, जैसी भी है, तेरी ही है शिवा’ और शिवा ने निर्णय ले लिया कि वह जो भी है, जैसी भी है, उसी की है। वह उसे उस रास्ते से दूर ले जाएगा। कहीं बहुत दूर। उसे वह उस चक्र से निकालेगा, ज़रूर निकालेगा।’ उसे क्या मालूम था कि सुमन चक्र में नहीं, चक्रव्यूह में फँसी हुई थी।

जगतनारायण स्वतंत्र रूप से ही काम करने लगा था। दुकान तो उसके पास थी नहीं, आर्य समाज में मिलने-जुलने वालों से कोई काम मिल जाता। उन्हीं दिनों धनपत पेंटर ने मोतीनगर में अपनी दुकान खोली थी। खूब चलती थी। जगतनारायण को पता चला तो उसे ध्यान आया कि वह धनपत वही तो नहीं, जिसे उसने रोहतक में काम सिखाया था। संकोच भी था, डर भी और ज़रूरत भी थी। वह धनपत की दुकान पर पहुँचा। वह बोर्ड पेंट कर रहा था। देखा, यह तो वही धनपत है। मुड़ने को हुआ कि धनपत ने उसे देख लिया। वह सब काम छोड़कर झट से उठा और जगतनारायण के पाँव छुए। जगतनारायण ने भाव-विह्वल होकर उसे गले लगा लिया। बड़ी मुश्किल से आते आँसुओं को रोका।

“बैठो उस्ताद जी।” धनपत ने स्टूल साफ करते हुए कहा-”धन्यभाग जो आपके चरण इस दुकान में पड़े।”

“कब से?”

“दो महीने ही हुए हैं। मैंने रोहतक के पते पर आपको खत भी लिखा था...”

“रोहतक छोड़े अरसा हो गया।”

“आजकल...”

“यहीं फैक्टरी में था...राम इंडस्ट्रीज़ में...छोड़ दी है नौकरी।” जगतनारायण को सच कहने की हिम्मत नहीं हुई, ना ही उसकी यह हिम्मत हुई कि वह धनपत से कहे कि वह तो काम ढूँढ़ रहा है।

उसके दिमाग की फिरकी तेज़ी से घूमती रही। धनपत के यहाँ काम करेगा तो नौकरी ही होगी...अब वह नौकरी नहीं करना चाहता और फिर एक शागिर्द की दुकान पर...न जाने सारी इज़्ज़त कब धूल में मिल जाए।

तभी चाय आ गई। दोनों ने चाय पी। धनपत ने ही कहा-”उस्तादजी, काम बहुत है यहाँ...अच्छा पेंटर यहाँ था ही नहीं...”

जगतनारायण चुप रहा।

धनपत ने ही पूछा-”उस्तादजी! उर्दू मुझे नहीं आती, पंजाबी भी नहीं...ऐसा कोई काम हो तो आपके पास ले आऊँ?”

‘हाँ-हाँ’ के सिवाय वह और कुछ कह ही नहीं सका और चला आया।

शाम को शिवा बिजली के खम्भे के नीचे ही जमा हुआ था। तभी उसने देखा, कोई पतला-सा आदमी जगतनारायण ही का पता पूछ रहा है। शिवा ने कहा-”सामने ही तो रहते हैं...मेरे पिताजी हैं।”

“अरे शिवा! बहुत बड़ा हो गया है।” शिवा को धुँधला-सा याद आया धनपत का पुराना चेहरा। हाँ, यही तो आता था दुकान पर काम सीखने। धनपत के हाथों में एक स्टील की थाली थी। दूसरे हाथ में लिफाफा।

शिवा उठा और उसे घर की ओर ले गया।

जगतनारायण चारपाई पर लेटा था। धनपत को देखा। चौंका।

धनपत ने झट से लिफाफा में से कुर्ता-पाजामा निकाला, नारियल निकाला, मिठाई भी। उन्हें थाली में सजाया और ऊपर 51 रुपए भी रखकर जगतनारायण के कदमों पर झुक गया।

“जीते रहो, पर यह सब...”

“उस्ताद जी, आपसे ही सब सीखा...गुरुदक्षिणा आज तक नहीं दे पाया था।”

जगतनारायण को इतना सम्मान अपने काम ही की वजह से पहले कभी नहीं मिला था। आर्य समाज का काम मुफ्त करता था तो लोग प्रशंसा ज़रूर कर देते, पर यह...आज वह आँखों का पानी नहीं रोक पाया।

शिवा को भी यह देख अच्छा लगा। उसने जल्दी से माँ को चाय बनाने के लिए कहा और खुद बाहर से कुछ लेने भाग गया।

लौटते हुए धनपत ने जेब से कुछ पैसे निकाले और जगतनारायण को देते हुए कहा-”उस्ताद जी, छः बाई तीन का साइन बोर्ड बनाना है...उर्दू, हिन्दी, अंग्रेज़ी में। यह रहा मैटर...परसों लड़का भेज दूँगा, ले जाएगा।”

इस तरह से जगतनारायण को घर बैठे ही काम मिलने लगा और रायज़ादा पेंटर का नाम, जो रोहतक में फैलकर दिल्ली की राम इंडस्ट्रीज़ में सिमट गया था, अब फिर फैलने लगा। शिवा ने आज फिर महसूस किया कि हाथ में हुनर ज़रूर होना चाहिए। उसके हाथ में तो कोई हुनर है नहीं। न संगीत, न कोई कला और ना कोई और। हायर सेकेंडरी पास कर भी ली तो ज़्यादा से ज़्यादा क्लर्क की नौकरी मिलेगी। वह भी टाइप सीखेगा तब, वरना भूखों मरेगा। अगले ही दिन उसने घई के पास जाने से पहले टाइप सीखना शुरू कर दिया।

घई के पास शिवा आठ बजे ही आ जाता। दुकान सजाता। गर्मियों के दिन थे। इसलिए शर्बत की बिक्री जल्दी ही शुरू हो जाती थी। मॉर्निंग शो भी चलने लगा था। वह दोपहर का शो निपटाकर ही स्कूल जा पाता। इसी का उसको एक रुपया रोज़ मिलता था। घर का खर्च बहुत था। जितना भी पैसा घर में आता, उतना ही कम पड़ता।

छह महीने निकलने ही वाले थे। क्वार्टर खाली करना था। इसी बीच सुदर्शन पार्क में जगतनारायण ने दो-तीन मकान देखे भी। कोई जँचा नहीं। वहाँ लोग भी अभी कम थे और कहीं मन में यह भी था कि छह महीने तो कहने की बात है। साल-दो साल तो निकल ही जाते हैं। उसने लेबर ऑफिस में और समय देने की अर्ज़ी भी लगा रखी थी। पर ठीक छह महीने और पंद्रह दिन के बाद लेबर ऑफिस से ही एक क्लर्क सुबह-सुबह आया और उसने शिवा से पूछा-”जगतनारायण कहाँ हैं?”

“वो तो समाज गए हैं।”

“कब आएँगे?”

“दस बजे तक।”

“उन्हें अभी बुलाकर लाओ।”

शिवा आशंकित हुआ-”बात क्या है?”

“क्वार्टर खाली करने के ऑर्डर कोर्ट से आ चुके हैं। आज शाम तक पुलिस कभी भी आकर मकान खाली करवा लेगी।”

शिवा ने सुन तो रखा था कि छह महीने में मकान खाली न करने पर पुलिस आती है और सारा सामान निकालकर सड़क पर फेंक देती है, पर उसके साथ ऐसा होगा, ऐसा उसने कभी सोचा नहीं था।

सोचने लगा-‘कैसा है हमारा संविधान! रहने की आज़ादी भी नहीं। अरे, किराया दे तो रहे हैं...अच्छी मुसीबत है मज़दूर की...एक तो उससे नौकरी छीन ली, साथ ही मकान भी...’

वह क्लर्क जा चुका था।

शिवा भागता गया पिता के पास। जगतनारायण ने पहले मज़ाक समझा। जब शिवा ने बताया कि ऐसा पहले भी हुआ है तो बात को गंभीरता से लिया और वहीं से वह शिवा को साथ लेकर सुदर्शन पार्क चला गया।

बाप-बेटे ने मिलकर मकान देखा। एक खुला प्लॉट, सिर्फ एक कमरा। एक कोने में संडास। बिजली नहीं थी। पानी का नल भी थोड़ी दूर तीसरी गली में था। किराया पंद्रह रुपया महीना। इतना ही किराया वे दे सकते थे। झट से तय कर लिया और पुलिस आने से पहले ही सारा सामान कर्मपुरा के क्वार्टर से सुदर्शन पार्क के मकान में शिफ्ट हो गया। दोपहर बाद सचमुच पुलिस से भरा ट्रक आया। तमाशबीनों का जमघट लगा। पुलिस क्वार्टर खाली देखा तो उनके चेहरे कुछ बुझ-से गए। क्लर्क ने ताला लगाया और सभी चले गए।

दूरी बढ़ गई थी। पहले शिवा अपने क्वार्टर के बाहर खड़ा होकर सुमन को आते-जाते देख लिया करता था। अब वह भी संभव नहीं था। सुबह टाइप, फिर घई की दुकान। दोपहर बाद स्कूल। स्कूल के बाद स्कूल का काम। शाम को समय मिला तो कल्याण केंद्र। समय ही कहाँ था इश्क करने का। फिर एक गश्ती के लिए प्रेम...नहीं गश्ती नहीं हो सकती वह। जो भी हो सुमन की बेरुखी ने शिवा का दिल तोड़ दिया था। सोलह की उम्र में दिल टूटे तो उसकी किरचें गीत बनकर निकलती हैं। शिवा का कवि भी जाग उठा और उसने लिखा :

दुनिया ने ठुकराया मुझको,

नहीं बताया किसी से मैंने,

मगर तुम्हारी इक ठोकर ने,

मेरे अधरों को खोला है।


मुखड़ा हुआ तो अंतरा भी हुआ और उसने पूरा गीत हांडा को सुनाया। हांडा भी शायद कहीं चोट खा चुका था। उसने शिवा का हाथ ही चूम लिया। अगले दिन गीत जौली के पास पहुँचा। उसने उसे संगीत में बाँध दिया। गीत पूरे केंद्र में गूँजने लगा। शिवा को केंद्र में एक कवि के रूप में पहचान मिली। इससे पहले उसने कुछ कहानियाँ लिखी थीं, कुछ कविताएँ भी। पर पहचान उसे इस गीत के साथ मिली। जौली ने संगीत में बाँधा और गाया भी पूरी तन्मयता के साथ :

तुमने समझा मूक रहूँगा,

मैं इक जलती हूक बनूँगा,

देख रहा है जल-थल सारा,

तुमने पलड़ों पर तोला है,

मेरे अधरों को खोला है।


धीरे-धीरे उसकी गूँज कॉलोनी की नाटक मंडली तक भी पहुँची। मंडली का निर्देशक और लेखक सीताराम मज़दूरों की समस्याओं को लेकर ही नाटक लिखता था। मज़दूरों के साथ ही उसी कॉलोनी में खेलता। नाटकों में ज़्यादातर सरमायेदार को कोसा जाता, उसे पत्थरदिल दिखाया जाता और मज़दूर को पिसते, पिटते और शोषित होता। मज़दूर की लड़की के साथ बलात्कार नाटक का महत्वपूर्ण हिस्सा होता। किसी नाटक में तो सेठ को मरवा दिया जाता और किसी में उसका हृदय-परिवर्तन दिखाया जाता। यह दोनों ही अंत मज़दूरों में बड़े लोकप्रिय थे। काम करने वाले कलाकार शम्मी कपूर, धर्मेन्द्र या राजकपूर बनने के सपने देखते। इसलिए नाटक की प्रस्तुति में फिल्मों का असर काफी रहता। यह बात दीगर है कि नायिका की भूमिका भी कोई लड़का ही करता। पार्श्व संगीत के लिए काँसे की थाली का इस्तेमाल तरह-तरह से बजाकर किया जाता।

शिवा का गीत उस मंडली में पहुँचा तो शिवा भी पहुँचा और उसे अगले ही नाटक में नायिका की भूमिका के लिए चुना गया। शिवा को पहले तो बड़ा संकोच हुआ कि वह लड़की बनेगा। कैसे लगेगा वह? कोई और भूमिका क्यों नहीं? पर सीताराम का कहना था कि शिवा के अभी दाढ़ी-मूँछ उतर ही रही है, इसलिए लड़की की भूमिका में दिक्कत नहीं होगी। फिर यह तो किस्मत की बात है कि सीताराम ने उसे इतनी जल्दी मुख्य भूमिका दे दी, वरना वहाँ तो सालों से कलाकार रगड़ा खा रहे हैं और छोटी-मोटी भूमिका से ही उन्हें संतोष करना पड़ता है। सीताराम का दबदबा पूरी मंडली पर था, यह बात शिवा ने अच्छी तरह से समझ ली थी। अब या तो उसे वही भूमिका करनी होगी जो सीताराम कहेगा, या फिर कोई भी नहीं।

शिवा को स्कूल में नाटकों में अभिनय करने के कारण कुछ तजुर्बा भी था। उसने एक नाटक में हत्यारे की भूमिका बहुत अच्छी की थी और दूसरे नाटक में अफसर की बीवी के रूप में अपना कमाल दिखाया था, पर यह तो बड़ा मंच है। सीताराम की नाटक मंडली का मंच। कितने लोग उसे देखेंगे यहाँ। सुमन भी आएगी...उसने भूमिका स्वीकार कर ली।

शिवा का खुले में पहला मंचन था। रिहर्सल की वजह से रात से घर लौटता। पिता कलपते, गालियाँ देते। वह नहीं रुका और मंचन का दिन भी आ गया। शिवा बहुत उत्साहित था। तरह-तरह के पर्दे, पर्दों पर ही दृश्य। उन्हीं से सेट लगे होने का एहसास होता था। लोकनाट्य और पारसी रंगमंच का मिला-जुला रूप।

शिवा का मेकअप भाटिया ने किया। भाटिया दो दृश्यों के बीच में होने वाले अंतराल में अक्सर नाचता था, किसी फिल्मी धुन पर। उसे बाहर के लोग भी बुलाने लगे थे, पर यहाँ वह काम मुफ्त ही करता। कभी-कभी छोटी-मोटी भूमिका भी कर लेता और गंभीरता में हास्य की ऐसी सृष्टि होती कि बस। इसी नाटक में ही मज़दूर की लड़की की एक छोटी-सी भूमिका उसे दी गई। बीच राह में उसे सरमायेदार के दो गुंडे आ दबोचते हैं। तय है कि उसके साथ बलात्कार होना है। उसे शोर मचाना है-”छोड़ दे...छोड़ दे...कोई बचाओ!” मुसीबत यह थी कि भाटिया जब बोलता तो छ का उच्चारण च में और ड का उच्चारण द में बदल जाता...बस, करुणा और क्रोध की जगह अट्टहास ले लेता। रिहर्सल में उसे सुधारने की बड़ी कोशिश की गई, पर वह नहीं सुधरा। मेकअप करने में वह सिद्धहस्त था। मंच से थोड़ी दूर ही एक क्वार्टर उनका ग्रीन रूम था। वहाँ से शिवा जब तैयार होकर निकला तो दो लड़के उसके पीछे लग लिए। सीटियाँ भी बजीं। उन्होंने शिवा को कॉलोनी में आया कोई नया शगूफा ही समझ लिया था। शिव को बाद में पता चला कि दोनों लड़कों में चाकू चलने की नौबत आ गई तो उन्हें बता दिया गया कि यह लड़की नहीं लड़का है। शिवा को अपनी सुंदरता पर बड़ा मान हुआ।

जगतनारायण काम तो करने लगा, पर काम ज़्यादा नहीं मिलता था। शिवा पर दबाव धीरे-धीरे बढ़ने लगा। घई के पास भी काम ज़्यादा से ज़्यादा सितंबर तक था। मौसम बदलते ही शर्बत की माँग नगण्य हो जाती थी। उधर शिवा के इम्तिहान करीब आ रहे थे। हायर सेकेंडरी का आखिरी साल था। सारे कैरियर का दारोमदार इस इम्तिहान के परिणाम पर ही निर्भर था।

जगतनारायण के पास खाली वक्त काफी था। वह खाली वक्त या तो आर्य समाज में गुज़ारता या किसी समाजी की दुकान पर। वहीं उसे गप्प लगाना अच्छा लगता। ऐसे ही एक दिन वह महाशय चूनीलाल की दुकान पर था। महाशय चूनीलाल की देसी घी की दुकान थी। जगतनारायण को देसी घी खाने का बड़ा शौक था। घर के लिए देसी घी उसी दुकान से जाता था। शिवा को भी पसंद था देसी घी, पर हाथ तंग होने के साथ-साथ देसी घी भी तंग होता गया। वनस्पति की खपत बढ़ गई थी।

उसी दिन महाशय चूनीलाल ने जगतनारायण को अखबार दिखाया, जिसमें शिवा का एक लेख छपा था। पहले वह रायज़ादा शिवा साहनी आर्य के नाम से लिखता था, पर रायज़ादा जिलेसिंह ने हटवा दिया। अब सिर्फ शिवा साहनी के नाम से ही लिखता। छपता। लेख फिल्मों में चुंबन पर था। बड़े तार्किक तरीके से शिवा ने फिल्मों में चुम्बन के साथ जुड़ी अश्लीलता का खंडन किया था। साथ ही भारतीय संस्कृति और परंपरा के संदर्भ में सेंसर बोर्ड की धुनाई की थी। चूनीलाल को लेख बड़ा पसंद अया था। उसने कहा-”महाशय जी, तीसरी लेख है यह शिवा का। आपके लड़के की कलम में ताकत है। एक दिन बड़ा लेखक बनेगा...देख लेना...।”

जगतनारायण को पता तो था कि शिवा कुछ लिखता रहता है, पर इतना अच्छा लिखता है, ऐसा ज्ञान उसे नहीं था। जगतनारायण ने भी धीरे-धीरे उस लेख को पढ़ा। उस पर असर पड़ा। कुछ सोचने लगा।

तभी शिवा दुकान पर आ पहुँचा। चूनीलाल ने शिवा को बड़ी शाबाशी दी। जगतनारायण के चेहरे पर विषादमिश्रित संतोष का भाव था।

अगले दिन रामचंद्र देहलवी आर्य समाज में सालाना जलसे के उपलक्ष्य में आने वाले थे। जगतनारायण ने शिवा से कहा-”जो शंका है उसका समाधान कर लो।”

रामचंद्र देहलवी की वक्तृता की धाक समूचे आर्य जगत में ही नहीं, दूसरों पर भी थी। शास्त्रार्थ में भी उन्हें महारत हासिल थी और अच्छे-अच्छे लोग उनसे शास्त्रार्थ करते हुए डरते थे। शिवा ने उनका प्रवचन बड़े ध्यान से सुना। उसे कई नई बातों का पता भी चला, पर उसके अंदर तो एक कीड़ा कुलबुला रहा था-‘ईश्वर का कर्ता कौन?’

प्रवचन के अंत में संयोजक ने घोषणा की कि जो भी कोई प्रश्न पूछना चाहते हों, जल्दी से चिट भेज दें। पंडितजी जवाब देंगे। अक्सर ऐसा ही होता। वे हर शंका का समाधान कर देते। प्रश्न का उत्तर देते।

आठ-दस चिटें संयोजक तक पहुँचीं। शिवा ने भी अपना प्रश्न एक चिट पर लिख भेजा। एक-एक कर पंडितजी ने सभी प्रश्नों के तार्किक एवं शास्त्र-सम्मत उत्तर दिए। लोग संतुष्ट भी थे। तभी शिवा की चिट पर लिखा प्रश्न रामचंद्र देहलवी ने पढ़ा और छूटते ही कहा-”यह प्रश्न ही अप्रासंगिक है। ईश्वर तो स्वयं प्रकाशित है, इसलिए उसके कर्ता का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता और कारण-कार्य संबंध की तार्किक अन्विति का प्रश्न भी इस संदर्भ में नहीं उठता। जिसने भी यह प्रश्न किया है, वह तर्क नहीं, कुतर्क करता है...।” कहकर पंडितजी ने अगला प्रश्न ले लिया।

शिवा को इस जवाब से संतोष नहीं हुआ। उसने उठकर बोलने की कोशिश की। पिता ने कंधा दबाकर बिठा दिया-”अभी नहीं, बाद में पूछ लेना।”

सभा विसर्जित होते ही शिवा ने पंडितजी के पास पहुँचने की कोशिश की। वह जानना चाहता था कि उसका तर्क कुतर्क क्यों है?

पंडितजी को संयोजकों साहित कई लोगों ने घेर रखा था। किशोर शिवा ने घेरे को चीरा और पंडितजी के ठीक सामने जाकर बोला-”पंडितजी, आपके उत्तर से मुझे संतोष नहीं हुआ।”

“तुम कौन हो बेटे?” देहलवी ने संयमित स्वर में ही पूछा।