अनहद नाद / भाग-16 / प्रताप सहगल

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जवाब भीड़ में खड़े किसी व्यक्ति ने दिया-”शिवा है पंडितजी, महाशय जगतनारायण का बेटा।”

“कुतर्क बहुत करता है,” कोई दूसरा स्वर था।

“तुम्हारा सवाल क्या था बेटा?” देहलवी ने पूछा।

“ईश्वर का कर्ता...”

बात पूरी होने से पहले ही देहलवी बोले-”अच्छा-अच्छा...तुम्हारा प्रश्न ही निरर्थक है।”

“मेरा शंका का समाधान नहीं हुआ।”

“कौन-सी कक्षा में पढ़ते हो?”

“ग्यारहवीं में।”

“पढ़ लो...फिर आना।”

सब लोग चलने लगे थे। संयोजक को यह कतई अच्छा नहीं लग रहा था कि एक बित्ते भर का छोकरा पंडितजी से कहे कि वे उसकी शंका का समाधान नहीं कर सके। ऐसा कैसे हो सकता है! उससे नहीं रहा गया, बोला-”वेद पढ़ो, शास्त्र पढ़ो, तब बात करना।”

शिवा ने कहा-”मैं पंडितजी से ही जवाब चाहता हूँ।”

“पंडितजी से बात करने के काबिल तो बनो,” वही स्वर था।

पंडितजी मुस्कराते हुए चले गए। जाते-जाते इतना ही कहा-”मेरे उत्तरों का साक्ष्य शास्त्र ही है।”

शिवा कुछ और भी कहना चाहता था, पर भीड़ के रेले के साथ ही वह पीछे छूट गया। पिता ने उसका हाथ पकड़ा और घर ले गए।

शिवा सोचता रहा। शास्त्र ही साक्ष्य क्यों? यही स्वामी दयानंद कहते हैं और अपने ही ढंग से शास्त्र की व्याख्या भी करते हैं। शिवा को अपने प्रश्न का संतोषजनक उत्तर तो नहीं मिला। हाँ, एक और प्रश्न उसे मथने लगा कि अंतिम साक्ष्य शास्त्र ही क्यों?

हज़ारों सालों के बाद भी वही शास्त्र आज भी पूरी तरह से प्रासंगिक कैसे हो सकते हैं? साथ ही ध्यान आया कि अगर अंतिम साक्ष्य शास्त्र नहीं तो फिर क्या है? व्यक्ति? विज्ञान? समाज? या कुछ और? उसे समझ में नहीं आया, पर शास्त्र से उसे संतोष नहीं हो रहा था। शायद उसे कोई नया शास्त्र तैयार करना होगा? अपने समय के लिए।

घई की शर्बत की दुकान से चरस बेचने का धंधा भी आराम से चलता था। उसके ग्राहकों में रेहड़ी वाले, रिक्शा वाले और मज़दूर ही ज़्यादा थे। पुलिस वाले भी आते और अपनी-अपनी गोली लेकर चले जाते।


मौसम बदल रहा था। उमस धीरे-धीरे कम हो चुकी थी। शाम को थोड़ी ठंडक हो जाती। शिवा ने सोचा कि सर्दी शुरू होते ही यह दुकान तो बंद हो जाएगी। फिर वह क्या करेगा? उसे डर था कि उसने कमाना छोड़ दिया तो उसकी पढ़ाई भी कहीं बंद न करवा दी जाए। जगतनारायण को पढ़ाई वगैरह से ज़रूरी यह लगता था कि जैसे-तैसे पैसे घर में आते रहें और पेट भरते रहें। बाकी बच्चें अभी इस काबिल नहीं थे कि कोई काम कर सकें। सारा नज़ला शिवा पर ही गिरता।

तभी घई बोला-”काम ठंडा हो गया है शिवा!”

“हाँ उस्ताद।”

“मेरे साथ चलेगा?”

“कहाँ?” शिवा ने पूछा।

“हिमालय चलते हैं...”

शिवा को बात समझ में नहीं आई। वह चुप रहा।

“वहीं से तो माल आता है,” घई ने समझाते हुए कहा-”सीधा वहीं से लाते हैं। थोड़ी मुश्किल तो होगी, पर पैसे की कोई कमी नहीं रहेगी।” शिवा थोड़ा सहम गया। वह घर से एक बार पहले भी भाग जाने के बाद अपना हश्र देख चुका था। फिर वह चरस बेचने के धंधे में घई के साथ इतना ही था कि शर्बत के ठिये पर चरस रहती और उसी में से गोलियाँ बना-बनाकर घई खुद ही ग्राहकों को पहुँचा देता, ग्राहक पहचाने हुए थे। कोई नया चेहरा चरस पूछता तो उसे मना कर दिया जाता।

शिवा डरता कि कहीं छापा पड़ गया तो? वह तो जेल में होगा ही, उसके माता-पिता की कितनी बदनामी होगी। “अरे, महाशय जगतनारायण का बेटा चरस का धंधा करता है।” अंदर ही अंदर सहम जाता, पर पैसे कमाना भी ज़रूरी था। करे तो क्या करे? इतनी पूँजी नहीं कि कोई छोटा-मोटा अपना काम ही कर सके। रोज़ शाम को सोचता-आज का दिन भी ठीक से निकल गया। अगले दिन जाने और न जाने के बीच द्वंद्व छिड़ जाता। पर सुबह ही माँ कहती-”जल्दी से नहा ले। काम पर जाना है।” उसे लगता, कोई बहुत बड़ी ताकत उसे अपरिचित दिशा की ओर धकेल रही है और वह चल देता।

दोपहर का शो शुरू होने वाला था कि उसे एक परिचित-सी आवाज़ सुनाई पड़ी-”एक गिलास स्पेशल।”

शिवा के नींबू काटते हाथ रुके। नज़रें ऊपर उठीं-”अरे भूषी, तू!” भूषी ने होंठों पर अपनी उँगली रखते हुए उसे चुप रहने का संकेत किया।

“घई कहाँ है?” भूषी ने पूछा।

“यहीं कहीं होगा।” कहते हुए शिवा ने शर्बत का गिलास बनाकर भूषी को थमा दिया। पहले से खड़े दो ग्राहक भी शर्बत पीकर चले गए तो शिवा ने धीरे से पूछा-”तू तो जेल में था।”

“हाँ!”

“फिर?”

“जेल तोड़कर आया हूँ, दो लड़के और भी थे...”

“खून क्यों किया था?”

“वो रंडी साली...फिर बताऊँगा कहानी...यह ले पचास टिकट...हाउस फुल है...सवा की पाँच में बिकेंगी...तेरे पास भेजूँगा...बेचता जा...”

“मुश्किल है यार...”

“चुप साला, यार कहता है और मुश्किल भी बोलता है...घई आएगा तो उसे समझा दियो। मैं ही बेच लेता, पर पुलिस मेरे पीछे पड़ी है।”

शिवा को लगा, आज तो वह ज़रूर पकड़ा जाएगा। वह मेहनत करना चाहता था। ईमानदारी से पैसा कमाना चाहता था, ‘और यह साला...भूषी...कितने सालों बाद...वैसा ही।’ सोचा, टिकटें फाड़ के फेंक दूँ और भाग जाऊँ, पर शिवा वहीं खड़ा ग्राहकों के लिए शर्बत बनाता रहा।

तभी घई वहाँ आ गया। बोला-”चिंता नहीं। मुझे मालूम है, शेर बच्चा आ गया है। अब तीनों चलेंगे हिमालय...थैले भरकर लाएँगे और कोई बड़ा काम करेंगे। शिवा...तेरे सारे कष्ट खत्म हो जाएँगे।” किताबों में ही पढ़ा था शिवा ने हिमालय का नाम। या फिल्मों में देखा था। नहीं, ऐसे पैसे का क्या करना...वह लेख लिखेगा...उपन्यास लिखेगा...फिल्मों के लिए गीत और संवाद लिखेगा...मौका मिला तो एक्टिंग भी करेगा...उसके ज़हन में राजकपूर, दिलीपकुमार, देवानंद और शम्मी कपूर एक साथ तैर गए। नहीं-नहीं, वह तो शिवा है और शिवा ही रहेगा...उसे सिर्फ शिवा साहनी ही बनना है...जो भी, जैसा भी। दिमाग़ में यह खलल चल रहा था और हाथ शर्बत बनाने में मशगूल थे।

तभी टिकट लेने वाले आने लगे। वह टिकट देता रहा। पैसे लेता रहा। अंदर ही अंदर दुखी होता रहा। भूषी को न भी तो नहीं कर सका था। पुरानी यारी थी। भूषी ने कई बार उसे बचाया था। मुश्किलों में उसका साथ दिया था। एक दिन उसने टिकटें ब्लैक करने में भूषी का साथ दे दिया तो क्या। देखते-देखते टिकटें बिक गईं।

भूषी ने पैसे सँभाले। तीन प्लेट भठूरे-छोले और गुलाब-जामुन मँगवाए। सभी ने खाया। शिवा को गुलाब-जामुन कुछ कसैले-से लगे। सोचने लगा कि फिल्म देखने के शौकीन ब्लैक में टिकट लेते ही क्यों हैं! तभी उसे एक वाकया याद आया। तब वह आठवीं क्लास में ही तो था।

शिवा, भूषी और दीपक रोज़ की तरह से हाज़िरी लगवाकर स्कूल से भाग लिए। सीधा लिबर्टी पहुँचे। ‘चार दिल चार राहें’ फिल्म लगी थी। हाउस फुल था। मैटिनी शो ही देख सकते थे। तब भी घर पहुँचने में देर हो जाती। ऐसे ही वक्त के लिए उन्होंने बहानों का भंडार पहले से ही तैयार किया हुआ था। यहाँ समस्या टिकट की थी। भूषी ही सबसे तेज़ था। उसने भी कोशिश की। मैनेजर के पास भी हो आया, पर टिकट नहीं मिली। अब क्या करें! पता चला गेट के बाहर ही पान वाले के पास टिकटें हैं। ब्लैक कर रहा था। सवा की दो। दो जमा दो जमा दो यानी छह रुपए चाहिए थे। एक रुपया लौटने के लिए। ऐसे में दीपू ही काम आता था, पर उसकी जेब में सिर्फ तीन रुपए निकले। एक रुपया भूषी ने डाला। शिवा के पास सिर्फ अठन्नी थी। तब भूषी नया-नया जेब साफ करना सीख रहा था। उसने सोचा, किसी की जेब पर अंगुलियाँ फेर दे। पर यह साथ देंगे? कुछ डर भी मन में रहा। पता नहीं किसका इलाका है। इसी उधेड़बुन में भूषी खामोश रहा। शिवा ने कहा-”स्कूल चलते हैं। मेरे पास होंगे तो भी ब्लैक में टिकट नहीं लूँगा।”

“चुप साले, हरिश्चंदर की औलाद, जब देखो भाषण मूतता रहता है...टिकट की सोच।” शिवा चुप हो गया। भूषी के लिए तो जैसे यह सम्मान का प्रश्न बन जाता था कि सिनेमा तक पहुँचे और फिल्म देखे बिना लौट आए-बड़े अपमान की बात है।

पर करें क्या?

सोचते रहे। शायद कोई स्पेअर टिकर बेचने वाला मिल जाए...कोई नहीं मिला। ज्यों-ज्यों शो का वक्त करीब आता गया, भीड़ बढ़ती गई। टिकटों की माँग भी। भूषी ने कहा-”जल्दी से ले लो, वरना रेट बढ़ जाएगा।”

“पैसे कहाँ हैं?” शिवा थोड़ा झुँझला गया।

“देख, सामने खड़ा है न सफेद सूट में...उसी से माँग ले।” भूषी ने शिवा से कहा और समर्थन के लिए दीपू से पूछा-”क्यों दीपू!”

“हाँ, हाँ।” दीपू ने इतना ही कहा।

“नहीं-नहीं, यह तो भीख माँगना हो गया।” शिवा ने कहा।

भूषी ने कहा-”ओ नहीं, भीख नहीं मदद...फाड़ अपनी पैंट की जेब..दिखा उसे...गिर गए हैं। पैसे-बता उसे...बस...मजबूरी में...भीख नहीं।”

“तू जा।”

“मेरी शक्ल देखकर ही समझ जाएगा, मैं झूठ बोल रहा हूँ।” भूषी कह रहा था-”और तू झूठ भी बोलता है तो सच लगता है।”

शिवा ने आव देखा न ताव, पैंट की जेब में पहले से ही हुए छोटे-से सुराख को बड़ा कर दिया और पहुँच गया सफेद सूट वाले के पास। वह सिगरेट पी रहा था। शिवा उसके पास ही जाकर खड़ा हो गया। उसे देखने लगा। सफेद सूट वाले व्यक्ति ने शिवा की ओर देखते हुए पूछा-”क्या है?”

“सर, मेरी मदद कीजिए।”

“क्या हुआ?”

अपनी जेब उलटते हुए शिवा ने कहा-”यह देखिए, फट गई है, पैसे गिर गए, घर जाना है।”

“फिर?”

“एक रुपया दे दीजिए।”

सफेद सूट वाले आदमी ने सिगरेट का कश खींचकर अधबुझी सिगरेट को नीचे फेंका और पैरो तले कुचलते हुए बोला-”बेटा! क्या नाम है तुम्हारा?”

“शिवा।”

दीपू और भूषी दूर से ही देख रहे थे कि यह वार्तालाप कैसा शुरू हो गया है।

“कौसी-सी क्लास में पढ़ते हो?”

“आठवीं।”

“फिल्म देखने आए हो?”

शिवा ने हाँ में सिर हिला दिया। उसे लग रहा था कि उसका झूठ पकड़ा गया है। वह वहाँ से भागना चाहता था। उधर दीपू, भूषी खड़े थे इंतज़ार में कि कितने पैसे लाता है शिवा। एक जगह से काम नहीं चला तो दो-एक असामियाँ और पकड़नी पड़ेंगी।

“देखने में तो अच्छे परिवार के लगते हो।”

“जी।” शिवा और क्या कहता।

“स्कूल से भागकर फिल्म देखते हो...कहाँ रहते हो?”

शिवा डर गया। उसे लगा, लेने के देने पड़ गए। फिर भी खड़ा रहा।

“अकेले हो?”

“दो दोस्त भी हैं मेरे साथ।”

“हूँ, यह तो अच्छी बात नहीं बेटा...जाओ, स्कूल जाओ...भीख माँगना ठीक नहीं।”

उस व्यक्ति ने यह बातें पूरे संयत भाव से कुछ ऐसे अंदाज़ में कही थीं कि हर बात शिवा के अंदर उतरती चली गई और वह वहीं फफक-फफककर रोने लगा। दूर खड़े दीपू-भूषी ने उसे रोते देखा तो हैरान हो गए। सोचने लगे-ऐसी क्या बात हुई होगी? तभी उस व्यक्ति ने जेब से अपना टिकट निकाला और शिवा की ओर बढ़ाते हुए कहा-”यह लो, देखना चाहो तो देखो यह फिल्म...मेरी तरफ से...मैं फिर देख लूँगा, पर इस वायदे के साथ कि आगे से कहीं हाथ नहीं फैलाओगे।”

तभी दीपू-भूषी भी वहीं आ गए। भूषी ने पूछा-”क्या हुआ?” फिर सफेद सूट वाले व्यक्ति की ओर संबोधित हुआ-”पैसे नहीं देने तो मत दो साहब, हमारे दोस्त को रुलाते क्यों हो?”

उस व्यक्ति ने कोई जवाब नहीं दिया और हलका-सा मुस्कराकर हॉल के प्रवेश द्वार की ओर चल दिया...

भूषी-दीपू ने बहुत पूछा कि क्या बात हुई, पर उसने इतना ही कहा-”स्कूल चलो।”

उस दिन शिवा ने ब्लैक में टिकट नहीं खरीदे। लौट आया। पर भूषी-दीपू उसके साथ नहीं लौटे, और आज फिर...शायद इसीलिए उसे गुलाब-जामुन भी कसैले लग रहे थे। पर वह करे भी क्या! जब-जब भी वह इस चक्र से निकलना चाहता है, कोई न कोई सिरा उसे इसी चक्र में धकेल देता है। जैसे भी हो, इम्तिहानों तक तो उसे वक्त निकालना ही होगा।

जगतनारायण को काम पहले से ज़्यादा मिलने लगा था। इसलिए शिवा की पढ़ाई बंद होने की नौबत नहीं आई। हाँ, उसे पढ़ने के लिए समय पहले से कम मिलता था। बोर्ड के इम्तिहानो से पहले स्कूल में इम्तिहान होने थे। जो भी इन इम्तिहानों में फेल होता, उसे बोर्ड की परीक्षा के लिए रोक दिया जाता।

दिसंबर का महीना था। खूब सर्दी पड़ने लगी थी। प्रिंसिपल ने इम्तिहानों की घोषणा कर दी तो कुछ लड़कों ने इसका विरोध किया। विरोध करने वालों में एक काउंसलर का बेटा भी था। दरअसल उसी ने औरों को उकसाया था, पर उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि यह बात वह प्रिंसिपल से कहे। किसी ने सुझाव दिया, “शिवा को कहो, वह बात करे।”

शिवा भी फौरन तैयार हो गया। उसकी तैयारी भी अच्छी नहीं थी। वह अकेला ही प्रिंसिपल के पास चला गया-”सर, अंदर आ जाऊँ?”

“यस।”

तभी प्रिंसिपल ने ड्राअर में से एक निमंत्रण-पत्र निकाला और शिवा की ओर बढ़ाते हुए कहा-”यह निमंत्रण-पत्र है। वर्ल्ड स्कूल ऑर्गेनाइज़ेशन की एक कान्फ्रेंस विज्ञान भवन में हो रही है-तुम हमारे स्कूल को रिप्रेज़ेंट करोगे...साथ गुप्ताजी होंगे...उम्मीद है, तुम वहाँ अपने स्कूल का नाम रोशन करोगे...कोई और बात?” शिवा को क्षण-भर समझ में नहीं आया कि जो बात वह कहने आया है, कहे कि न कहे। हिम्मत जुटाकर बोल ही पड़ा-”सर, कुछ लड़के कह रहे थे कि...परसों से शुरू होने वाला इम्तिहान न लिया जाए।”

“क्यों...क्यों...?” प्रिसिंपल को ऐसी बातें बिल्कुल पसंद नहीं थीं और जब ऐसी बात शिवा जैसा लड़का कहे तो बिल्कुल नहीं, बोले-”इम्तिहान होंगे, जो भी फेल होगा, उसे यहीं रोक दिया जाएगा, समझे-जाओ क्लास में। हाँ, गुप्ताजी को कहो मुझसे मिल लें।”

शिवा की और बात करने की हिम्मत नहीं हुई।

विज्ञान भवन का नाम तो उसने सुना था, पर देखा कभी नहीं, फिर ऐसा अवसर कब-कब आता है और किसे मिलता है ऐसा अवसर जो इतनी छोटी उम्र में विश्व-स्तर की कान्फ्रेंस में हिस्सा ले सके।

बाहर निकला तो सभी लड़कों का दबाव बढ़ा। “अरे शिवा की बात भी प्रिंसिपल साहब ने नहीं मानी।” किसी ने कहा।

यह सच भी था कि शिवा की लगभग हर बात प्रिंसिपल सुनते ही नहीं, पूरी भी करते थे। शिवा ने सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया। राष्ट्रपति की कविता का दृश्यीकरण कर दिया था। राणा प्रताप का ज़िक्र आया तो सचमुच घोड़े पर जब एक लड़का राणा प्रताप बना हुआ दनदनाता हुआ रंगभूमि में आ गया तो सभी हैरत में पड़ गए थे और दो-तीन मिनट तक तालियाँ बजती रही थीं। शिवा हीरो हो गया था।

शिवा ने कहा कि खेलने के बाद लड़कों को दूध मिलना चाहिए तो डी.एम.एस. का मीठा दूध अगले ही दिन से आने लगा।

शिवा ने कहा, स्कूल की पत्रिका होनी चाहिए तो पत्रिका निकली। और भी न जाने कितनी बातें...और आज शिवा की बात भी...अब क्या करें!

लड़कों ने शिवा को ही कहा कि वह कुछ भी करे, पर इम्तिहान नहीं होने चाहिए। शिवा तैयारी में जुटा रहा और जब दो दिन बाद इम्तिहान देने पहुँचा तो 15-20 लड़के गेट पर ही खड़े मिले-”शिवा, तुम चाहो तो इम्तिहान नहीं होगा।” शिवा की अपनी तैयारी नहीं थी या फिर वह प्रिंसिपल द्वारा मना करने के कारण कहीं अंदर ही अंदर आहत महसूस कर रहा था या कि खून का उबाल था, उसने कह दिया-”बायकाट।”

बस, उसकी जुबान से एक शब्द निकलते ही लड़के नाच उठे। जो लड़के अंदर थे, वे भी बाहर आ गए और पूरी ग्यारहवीं क्लास शिवा के इर्दगिर्द खड़ी हो गई।

“बायकाट...बायकाट” कहते हुए वे सभी सड़क पर फैल गए।

इससे पहले कि कोई मास्टर या प्रिसिंपल आएँ, वे सभी नटराज की ओर बढ़ चले। वहाँ टिकट नहीं मिला तो ‘ज्योति’ पर चले गए और सबने मिलकर ‘हंटर वाली’ देखी।

अगले दिन शिवा जब स्कूल पहुँचा तो उसे स्कूल से बाहर निकाल देने का प्रिंसिपल का आदेश नोटिस बोर्ड पर चिपका हुआ था। आरोप अनुशासनहीनता और दूसरे छात्रों को भड़काने का था।

शिवा स्तब्ध रह गया।