अनहद नाद / भाग-17 / प्रताप सहगल

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शेष सभी लड़के कक्षाओं में थे। उसने भी हिम्मत की, पर उसे कह दिया गया कि जब तक प्रिंसिपल साहब लिखकर न दें, वह कक्षा में नहीं बैठ सकता।

शिवा ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि उसे प्यार करने वाला प्रिंसिपल उसके खिलाफ इतना सख्त निर्णय ले सकता है। उसे अपना सारा भविष्य अंधकार में झूलता नज़र आया। विज्ञान-भवन उसके ज़हन में कौंधा और लुप्त हो गया।

प्रिंसिपल से मिलने की कोशिश की भी उसने। वे उससे मिलने को तैयार नहीं थे। अब वह क्या करे? उसने अपने साथियों से कहा कि वे अब भी उसका साथ दें, पर हाँ-हाँ के सिवा और कुछ नहीं।

शिवा बिल्कुल अकेला पड़ गया।

अगले दिन इतवार था। तब तक बात जगतनारायण तक भी पहुँच गई। उसे भी बड़ी हैरानी हुई कि शिवा को अचानक यह हुआ क्या है। उसे याद आया कि कितनी मुश्किलों से उसने शिवा को इस स्कूल में दाखिला दिलवाया था। आखिरी साल। तंगहाल। क्या करे क्या न करे!

वह सुबह ही शिवा को लेकर प्रिसिंपल के घर जा पहुँचा। वहाँ भी प्रिसिंपल ने मिलने से मना कर दिया। जब दोपहर तक भी बाप-बेटा नहीं हटे तो उन्होंने उन दोनों को बुलाकर खूब फटकारा। बाप-बेटे ने मिलकर क्षमा माँगी। लिखकर दिया कि भविष्य में शिवा अनुशासन नहीं तोड़ेगा-तो प्रिंसिपल ने आश्वासन देते हुए कहा-”कल सभी साथियों के सामने यह माफीनामा रख दूँगा, फिर जैसा वे कहेंगे, वैसा ही होगा।”

शिवा तो नहीं, पर जगतनारायण समझ रहा था कि यह मात्र एक नाटक है। वस्तुतः स्कूल में वही होता है, जो प्रिसिंपल चाहता है। शिवा अभी भी संशकित था, पर जगतनारायण के पास अपना अनुभव था।

स्कूल खुला। शिवा को माफ कर दिया गया, पर शिवा का मन टूट गया। पहले तो इस बात से कि प्रिंसिपल साहब ने उसकी बात तो नहीं ही मानी, इतनी सख्त कार्यवाही करके उसे सरेआम अपमानित किया और दूसरा इस बात से कि जिन लड़कों के लिए वह लड़ा, वक्त आने पर वे ही उसका साथ छोड़ गए। चूहे कहीं के!

इस अनुभव से शिवा ने यह सीखा कि जीवन में जो भी करना हो, अपने ही बूते पर करो, दूसरों के भरोसे नहीं।

शिवा धीरे-धीरे अपने ही खोल में घुसने लगा। स्कूल की गतिविधियों से हाथ खींचने लगा। एक दिन प्रिंसिपल ने उसे बुलाकर कहा-”शिवा, मुझे अनुशासनहीनता बेहद अप्रिय है तो यह बात भी पसंद नहीं कि तुम्हारी प्रतिभा का कोई उपयोग न हो। अगले सप्ताह के कान्फ्रेंस हो रही है और तुम्हें ही वहाँ जाना है।”

शिवा को समझ में नहीं आया कि वह हँसे या रोए, जाए या न जाए।

इस बार उसने किसी तरह का प्रतिकार नहीं किया।

विज्ञान भवन नया-नया ही बना था। अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर के सेमिनार वहीं होते थे। शिवा जैसे-तैसे पूछता-पाछता वहाँ तक पहुँच गया। वहाँ से एक फाइल और डेलीगेट का बिल्ला मिला। उसने इतनी भव्य इमारत अंदर से पहली बार देखी थी। वहीं उसे गुप्ता मास्टर भी मिल गए थे। जब उसने पूछा-”मास्साब! यहाँ करना क्या है?” तो उन्होंने दो हिदायतें दीं। पहली यह कि यहाँ उन्हें मास्टरजी नहीं, ‘सर’ कहकर बुलाए, दूसरी यह कि अंग्रेज़ी में बात करे।

इन दोनों हिदायतों का पालन करना शिवा के लिए मुश्किल हो गया। उसे मास्टरजी को मास्टरजी ही कहने की आदत पड़ी हुई थी और बार-बार प्रयास करने के बावजूद उसकी जुबान से मास्टर जी निकल ही जाता। गुप्ताजी कभी उसे घूरते और कभी चिकोटी काटकर समझाने की कोशिश करते। तीन दिन की कान्फ्रेंस थी। पहले दिन तो मास्टरजी और सर में द्वंद्व चलता रहा, दूसरे दिन मास्टरजी सर हो गए तो गुप्ताजी के चेहरे पर बड़े गौरव का भाव उमड़ आया। दूसरी हिदायत का पालन शिवा तीन दिनों में भी नहीं कर पाया। छठी कक्षा से ए.बी.सी. शुरू करने वाले लड़के से यह उम्मीद कि वह पाँच सालों में ही फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोले और वह भी तब जब स्कूलों में अंग्रेज़ी पढ़ाने का माध्यम भी हिन्दी हो और जहाँ अंग्रेज़ी पढ़ने का अर्थ सिर्फ इम्तिहान पास करना हो।

कांफ्रेंस में विश्व-स्तर पर और भारतीय संदर्भों में स्कूलों की समस्याओं पर विचार-विमर्श होना था। हो रहा था। भाग लेने वालों में विभिन्न क्षेत्रों एवं देशों के स्कूली शिक्षक तथा छात्र भी थे।

शिवा के मन में कई बार प्रश्न कुलबुलाए, उन्हें उसने अंग्रेज़ी में अनुवाद करके पूछने की हिम्मत भी कई बार जुटाई, पर जब भी पूछने को होता, उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगता, हाथों में पसीना आ जाता। गुप्ता सर ने भी दो-तीन बार कहा-”आस्क समथिंग, स्पीक समथिंग।” बस, इतना ही। इससे ज़्यादा बोलना उनके बस में भी शायद नहीं था। हाँ, बातचीत के स्तर पर वे चार-छः वाक्य अंग्रेज़ी में बोल लेते। शिवा के लिए इतना भी मुश्किल था।

उसे अपने पर खीझ आने लगी कि वह यहाँ आया ही क्यों है। फिर सोचा, अनुभव ही सही। दोपहर का खाना भी कितना अच्छा मिलता है। चाय और कॉफी भी।

तीन दिन कान्फ्रेंस चली। शिवा ने इस बीच यह भी सोचा कि वह हिन्दी में ही क्यों न अपनी बात कहे, पर कोई भी तो हिन्दी नहीं बोल रहा था। सभी अंग्रेज़ी में बोलते हैं या नहीं बोलते।

सुब्रह्मण्यम मद्रास से आया था। उसी की उम्र का। क्या फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलता है। सभी उसे पूछते, उसे मंच पर बुलाते और वह धाराप्रवाह बोलता। शिवा भी मंत्रमुग्ध होकर सुनता।

तब उसे बड़ा गुस्सा आया कि वह क्यों ऐसे परिवेश में है, जहाँ अंग्रेज़ी को या तो हौआ बनाकर रखा हुआ है या उसे विदेशी भाषा मानकर छोड़ दिया गया है। यहाँ तो वह पीछे छूट गया न। उसे तब यह ध्यान ज़रूर आया कि जब वह अंग्रेज़ी-विरोधी आंदोलन में भाग ले रहा था, तब सुब्रह्मण्यम जैसे लड़के यही भाषा सीख रहे थे।

हाँ, स्कूल की वार्षिक रिपोर्ट में गुप्ता सर के साथ उसका नाम भी दर्ज हो गया। बस।

इम्तिहान हो गए। शिवा ने तैयारी अच्छी की थी। उसके साथ हरीश तथा कुछ और लड़कों की तैयारी भी अच्छी हो गई थी।

इम्तिहान होते ही शिवा ने चैन की साँस ली। सोचा कि अब वह कुछ दिन आराम करेगा। मस्ती मारेगा। फिल्में देखेगा। टेलीक्लब जाया करेगा।

दो दिन निकले न निकले कि दबी ज़ुबान से ताने शुरू हो गए। इसका असर शिवा पर नहीं हुआ तो ज़रा खुलकर बातें सामने आने लगीं कि जवान लड़का घर बैठा है और बूढ़ा होता बाप रात-दिन खटता रहता है। बेशर्मी और बेहयाई की हद तक बातें होने लगीं। शिवा का मन कहीं भी कुछ भी काम करने को नहीं होता। घई का ठिया अब भी था, पर उसे वहाँ जाने में अब डर लगने लगा था। वह भूषी को कहीं अंदर ही अंदर पसंद तो करता था, उससे मिलना नहीं चाहता था।

तानों की तेज़ी बढ़ रही थी। उसे लगने लगा कि वह सचमुच मुफ्त की रोटियाँ तोड़ रहा है। एक दिन वह चुपचाप उठा और योगेंद्र निटिंग मिल्स के दरवाजे़ पर जा पहुँचा। वहीं सुमन काम करती थी। वह सीधा सुमन की बड़ी बहन से मिला। उसे वहीं मशीनमैन की नौकरी मिल गई।

योगेंद्र निटिंग मिल्स बनियानें वगैरह बनाने की एक छोटी-सी फैक्टरी थी। कुल मिलाकर 70-80 लोग काम करते थे। फोरमैन ने शिवा को एक मशीन के सामने लाकर खड़ा कर दिया। मशीन पर कई स्पिंडल्स चढ़ी हुई थीं और घर्र...घर्र की तेज़ आवाज़ से धागा उन पर लिपट रहा था। वहाँ पहले से ही एक मज़दूर खड़ा था। फोरमैन ने उसे हिदायत देते हुए कहा-”यह शिवा है। काम सीखेगा,” शिवा ने मशीनों को चलते हुए मूनलाइट इंडस्ट्रीज़ में भी देखा था, पर यहाँ तो वह बिल्कुल मशीन के रूबरू खड़ा था।

काम करने की इस इच्छा के पीछे कहीं सुमन से मिलने की संभावना भी एक बड़ा कारण थी। आधी छुट्टी हुई तो वह रिटेल शॉप पर जा पहुँचा। सुमन ने उदासीनता का भाव दिखाया। शिवा की सुमन से मिलने की इच्छा और भी तेज़ हो गई। वह सुमन से सिर्फ इतना ही जानना चाहता था कि आखिर उसकी बेरुखी की वहज क्या है?

पूरी छुट्टी के बाद कुछ मज़दूर ओवरटाइम भी करते थे। शिवा ने मना कर दिया। वह जानता था कि रिटेल शॉप ठीक पाँच बजे बंद हो जाती है और सुमन घर चली जाती है। वह भी छुट्टी की घंटी बजने से पहले ही और मज़दूरों की तरह से हाथ-मुँह धोकर खड़ा हो गया।

ज्यों ही सुमन बाहर निकली वह उसके पीछे-पीछे चलने लगा। सुमन के साथ प्रभा और सुषमा भी थीं। थोड़ी दूर ही बस स्टैंड था। प्रभा ने तो वहीं से बस ले ली, पर सुमन और सुषमा पैदल ही चली जा रही थीं। शिवा को पहले कुछ संकोच हुआ, फिर तेज़ कदमों से सुमन तक पहुँचा-”सुमन!”

“क्या है?” चलते-चलते ही सुमन ने पूछा।

“रुको तो बात करूँ।” शिवा ने कहा।

सुमन रुकी नहीं। सुषमा भी खामोशी के साथ ही चलती रही।

“जो कहना है ऐसे ही कह दो।” सुमन ने कहा।

“पूछना है तुमसे।” शिवा ने कहा।

“क्या?”

“यही कि लोग जो बातें करते हैं तुम्हारे बारे में...”

“फिर...?”

“क्या यह सच है?”

“तुमने अपनी आँखों से कभी कुछ देखा है?” सुमन ने पूछा तो शिवा अंदर-अंदर ही कट-सा गया। खामोशी के साथ चलता रहा। थोड़ी देर बाद हिम्मत जुटाकर बोला-”फिर तुम मिलती क्यों नहीं?”

“मेरी मर्ज़ी।”

सुषमा और सुमन हलके से मुस्करा दीं।

“और मेरी मर्ज़ी कुछ नहीं?” शिवा ने पूछा।

“तुम जानो।”

“ ‘मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ।”

“अब तो यहीं काम पर लग गए हो, रोज़ ही मिलना होगा।”

“यहाँ नहीं, कहीं बाहर।”

“छुट्टी के बाद मैं सीधा घर जाती हूँ। माँ अकेली होती है।”

“तो छुट्टी ले लो।”

“नहीं, अब जाओ, कोई देख लेगा।”

शिवा सचमुच आज्ञाकारी बच्चे की तरह से रुक गया और अपने घर की ओर जाने लगा।

उसे यकीन हो गया कि चावला और श्रीचंद सुमन के बारे में जो कहते हैं, वह सच नहीं है। अगर सच है भी तो सुमन उसी की है, उसी से प्रेम करती है। बाकी कुछ भी नहीं...पर हो भी तो क्या...वह उसे हर हालत में स्वीकार करेगा। कुछ गड़बड़ होगी तो उसे ठीक कर लेगा। लोग तो वेश्या तक से शादी कर लेते हैं। क्या वह अपने सिद्धांत सिर्फ शब्दों तक ही रहने देगा?

कोई पंद्रह दिन बाद सुमन ने शिवा से मिलने की स्वीकृति दे दी। शिवा ने गोलचा की दो टिकटें एडवांस करवा लीं और शाम को सिनेमा से बाहर उसका इंतज़ार करने लगा। मैटिनी शो खत्म होने को था। शिवा ने सुमन को थोड़ी जल्दी आने के लिए कहा था ताकि फिल्म देखने से पहले कहीं बैठकर बातचीत कर सकें।

वह टिकटें हाथ में लिए गेट के बाहर सीढ़ियों पर खड़ा था। दूर-दूर तक देखता रहा। दूर से उसे कई बार सुमन नज़र आती जो पास आते ही किसी लड़की में बदल जाती। हाउस फुल था। दो-तीन लोग उससे पूछ भी चुके थे-”टिक स्पेयर है?” शिवा हर बार ‘ना’ में सिर हिला देता।

सुमन आएगी भी या नहीं! उसके दिमाग में यही हलचल हो रही थी। साथ ही उसके ज़हन में चावला और श्रीचंद की कही तरह-तरह की बातें घंटियों की तरह से बजने लगीं। शायद वे ठीक ही कहते हैं। वह मेरे काबिल है ही नहीं। मन टुकड़ों में बँटने लगा-‘अरे, इसी दम पर सुधारेगा तू उसे! बड़ा सुधारक बना फिरता है। झूठा!”

वह तो अक्सर देर से ही आती है। इससे पहले भी जब भी उनका मिलना तय हुआ, इंतज़ार करता-करता ही मर जाएगा?

स्पेयर टिकट माँगने वाले फिर आए।

“नहीं, इंतज़ार कर रहा हूँ।” कहकर उसे लगता जैसे वह अपनी झेंप मिटा रहा है। जबकि किसी ने उससे यह नहीं पूछा कि वह वहाँ क्यों खड़ा है। तभी शो छूट गया। अब क्या करे? मन में आया कि टिकटें फाड़कर फेंक दे और लौट जाए। फिर अपना ही गीत मन ही मन गुनगुनाने लगा। टिकटें फाड़े, क्यों, बेच दे। फाड़ दे। नहीं, पास ही रखे और कल उसी के सामने काउंटर पर दे मारे।

अभी भी वह आ सकती है। तब तक फिल्म शुरू हो जाएगी। बैठने का भी वक्त नहीं मिला। न कोई बात, न शिकवा-शिकायत सिर्फ फिल्म देखना ही उसका मकसद था क्या? नहीं मकसद तो मिलना था। सुमन की तकलीफों को जानना और समझना था। उन्हें दूर करने का कोई तरीका खोजना था।

सोचा, अब रुकना बेकार है। अभी तो विज्ञापन चल रहे होंगे। फिर डॉक्यूमेंटरी चलेगी। शायद कोई ट्रेलर भी हो। अभी इंतज़ार किया जा सकता है।

उसकी आँखों में थकान उतरने लगी। पास ही खड़े व्यक्ति ने कहा-”अब तो दे दो।”

शिवा ज्यों ही टिकटें उस व्यक्ति को देने लगा, उसे दूर से लहराता हुआ एक चेहरा दिखा-”एक मिनट।”

हाँ, एक ही मिनट में सुमन उस तक पहुँच गई थी। शिवा ज़ोर से उसे डाँटना चाहता था। उसी के सामने टिकटें फाड़कर फेंक देना चाहता था। कहना चाहता था-”अब आई हो, लौट जाओ...और कभी भी शक्ल मत दिखाना अपनी।’

“सॉरी, देर हो गई, जल्दी चलो अंदर।” सुमन ने कहा और शिवा एक हारे हुए सिपाही की तरह से सुमन के पीछे चल दिया।


रात सवा नौ बजे फिल्म खत्म हुई। दोनों ने एक-एक प्लेट रसगुल्ले और रसमलाई खाई। सड़कों पर ट्रैफिक बहुत कम था। वे दोनों राजघाट की ओर चल दिए। राजघाट का प्रवेशद्वार बंद हो चुका था। बैठने की जगह कहीं नहीं। वापस चलने लगे। दिल्ली गेट और इर्विन अस्पताल से होते हुए वे कनॉट प्लेस पहुँचे। कनॉट प्लेस का चक्कर लगाया। पूसा रोड और पटेल नगर से होते हुए मोती नगर तक आए। पैदल। रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे।


सड़कें सुनसान थीं। दोनों को किसी तरह का डर भी नहीं लगा। इस बीच उन्होंने क्या बातें कीं, इसका भी उन्हें ध्यान नहीं था। हाँ, कुछ बातें करते ज़रूर रहे। शिवा के लिए यह शाम उसे आश्वस्त करने वाली शाम बन गई। वह सुमन को पहले से भी ज़्यादा प्यार करने लगा। मज़दूरों की ज़िंदगी से शिवा वैसे तो पहले से ही वाकिफ था, लेकिन योगेंद्रा निटिंग मिल्स में उसने मज़दूरों को बहुत ही करीब से देखा। उनके दुःख-दर्द देखे, उनकी बदमाशियाँ भी सुनीं। काम के एवज़ में पर्याप्त तनख्वाह न मिलने के कारण मालिकों का नुकसान करते भी देखा। लाल झंडे के अंदर की राजनीति और उसके साथ जुड़े कामरेड रामसिंह के असली चेहरे को भी थोड़ा-बहुत पहचानने लगा। मिल के गेट पर ज़ोरदार नारे लगाने वाला और मालिकों को गालियाँ देने वाला रामसिंह कमरे के अंदर मालिकों के सामने कैसे घिघियाने लगता था या फिर कैसे टुच्चे समझौतों पर उतर आता था, इसकी जानकारी उसे बरास्ते सुमन की बड़ी बहन से मिलती। रामसिंह की खासियत यह थी कि यह सब करने के बावजूद वह मज़दूरों को कुछ रियायतें दिलवाकर उन्हें हमेशा यह विश्वास दिला देता कि वही मज़दूरों का सच्चा साथी है, वही उनका मसीहा है। वह न हो तो मज़दूरों को उनके हकूक मिलें ही नहीं। शिवा ने इस राजनीति को पकड़ने की कोशिश में अंदर घुसने की कोशिश की, लेकिन उसे कच्चा मज़दूर कहकर टाल दिया जाता था फिर यह हिदायत दी जाती कि कुछ अरसा कामरेड रामसिंह के बताए रास्ते पर चले, हाथ में लाल झंडा पकड़कर नारे लगाए, तब उसमें स्थितियों को समझने की अक्ल आएगी और फिर अभी उम्र ही क्या है। सिर्फ 17 साल। वह तो मिल में काम कर ही नहीं सकता। यह तो रामसिंह उसकी मजबूरी जानता और समझता है, इसलिए लेबर ऑफिस में मालिकों की बाल-मज़दूरी नीति के खिलाफ कुछ कहता नहीं वरना उसकी नौकरी एक दिन में ही खत्म।

शिवा सचमुच 17 का ही तो था। पर हमेशा अपने को एक पूरा आदमी महसूस करता था। कैशोर्य से यौवन के बीच थोड़ा-सा ही फासला तो था। सुमन के साथ अपने संबंध की याद करता तो उम्र का ध्यान ही मन में नहीं रहता। उसे बार-बार लोग उम्र की याद क्यों दिला देते हैं? शेर को कोई नहीं बताता कि तुम्हारी उम्र अभी इतनी नहीं कि शिकार कर सको। ‘तेजसां हि वयः न समीक्षते’। यह उसने किसी भाषण में सुना था और जो भी उसे उसकी उम्र याद दिलाता, उसी को वह संस्कृत में सुनाकर हिन्दी का अनुवाद भी कर देता। सामने वाला कालिदास के नाम से ही निरुत्तर हो जाता। तब शिवा मन ही मन सोचता, ‘उम्र की बात करते हैं। उम्र और वय में फर्क भी मालूम है इन्हें!’ वह मन ही मन अपनी मेधा पर रश्क करता।

आत्ममुग्ध होता है हर आदमी अपने कैशोर्य पर। अपनी भीगती मसों पर, अपने फूटते अंगों पर, अपने अंदर बहते खून के नशे पर। शिवा भी था। तमाम अवरोधों, तमाम कामों और तमाम आलोचनाओं के बावजूद शिवा आत्ममुग्ध था। जब भी ऐसी कोई बात जो उसकी आत्ममुग्धता को तोड़ती, उसे गहराई तक ज़ख्मी कर जाती थी। तब वह कोई गीत लिखता। गुनगुनाता। कभी जौली और कभी चावला को सुनाता। कभी हरीश को अपना श्रोता बनाता तो कभी सुमन को। उसे सुनाकर बड़ी राहत मिलती।

मिल में काम करते हुए उसे लगा कि उसके एहसास कुछ बदलने लगे हैं। प्रेम की जगह मज़दूरों का दुःख आने लगा है। कुछ गीत भी उसने ऐसे ही पढ़े थे। कुछ कविताएँ भी उसने ऐसी पढ़ी थीं। नए अनुभवों के दबाव में छंद टूट रहे थे। वह अंदर ही अंदर धीरे-धीरे बदलने लगा था। सोचने लगा था कि दुनिया सिर्फ सुमन तक ही है क्या? क्या जीवन में सिर्फ प्रेम ही ऐसा विषय है जिस पर कविता लिखी जा सकती है। क्यों? उसके आसपास फैला मज़दूरों का संसार क्या उसकी कविता का विषय नहीं हो सकता? यही सोचता हुआ शिवा एक दिन मशीन के सामने खड़ा स्पिंडिल्स को नाचते हुए देख रहा था। मिल का मालिक कब राउंड लगाकर चला गया, उसे पता ही नहीं चला। उसके दिमाग़ की मशीन स्पिंडिल्स से भी तेज़ दनदना रही थी। सामने की मशीन भूल गया। भागा हुआ बाहर निकला। एक फटा कागज़ उसके हाथ लगा, पैन उसने सुमन की बहन के हाथ से खींचा और लौटकर मशीन के सामने बैठ गया...

घर्र...घर्र...ठक...ठक...शोर...गालियाँ, सब कुछ तिरोहित हो गया। शिवा को कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। कविता उसके रोम-रोम से फूट रही थी। कुत्तों के बहाने मज़दूरों पर कविता। अपने हित साधने के लिए कुत्तों की तरह से लड़ते मज़दूरों पर कविता। उन्हीं में से निकलकर एक कुत्ते द्वारा क्रांति का उद्घोष और फिर सभी कुत्ते मिल गए तो उस दिन क्या होगा? इसी आधारभूमि पर लिखकर शिवा को असीम संतोष हुआ। “अरे क्या कर रहा है, सामने देख...।” फोरमैन ने शिवा के सिर पर हाथ मारते हुए कहा। शिवा ने देखा, एक स्पिंडिल का धागा उलझ गया था। फोरमैन ने मशीन बंद की। शिवा को डाँटा और फैक्टरी से बाहर कर देने की धमकी दी।

शिवा ने सब चुपचाप सुन लिया। फोरमैन ने सब ठीक-ठाक करके मशीन चालू कर दी-”अब ध्यान रखना।”

शिवा ने फोरमैन को मन ही मन में धन्यवाद दिया।

छुट्टी होते ही वह सुमन की ओर नज़र फेंकत हुआ बाहर निकल गया। घर जाने के बजाय वेलफेयर सेंटर पहुँचा। वहाँ हांडा मौजूद था। पास ही कोई नया चेहरा बैठा था। उसे देखते ही हांडा ने कहा-”आओ, तुम्हारे लिए ही इन्हें रोक रखा है।”

शिवा ने आँखों से ही अपनी उत्सुकता ज़ाहिर की।