अनहद नाद / भाग-18 / प्रताप सहगल
“यह साहिल हैं, साहिल देहलवी...बहुत अच्छी ग़ज़लें और नज़्में कहते हैं...और यह है शिवा...शिवा साहनी।”
दोनों के हाथ मिल गए।
साहिल देहलवी की उम्र 30 से कम ही होगी। पतला बदन। तीखी नाक, तेज़ आँखें। सिर पर घने बाल। कुर्ता-पाजामा पहने साहिल शक्ल-सूरत से ही शायर लगता था।
शिवा कुलबुला रहा था कि वह अपनी कविता सुनाए, पर संकोच कर गया साहिल का। क्या सोचेगा कि मिलते ही...इतना भी सब्र नहीं।
“कुछ नया लिखा है क्या?” हांडा ने ही पूछा।
हांडा शिवा को इसीलिए अच्छा लगाता था। उसका उत्साह बढ़ा-”हाँ, आज ही।”
“सुनाइए।” साहिल ने कहा।
शिवा ने अपनी कविता सुनाई। साहिल ने भी अपनी एक ग़ज़ल पढ़ी। दोनों का मिज़ाज अलग-अलग था। उस दिन से साहिल और शिवा में दोस्ती की नींव पड़ी।
साहिल स्वतंत्र भारत मिल में ही मज़दूर था। कर्मपुरा में ही उसे एक क्वार्टर मिला हुआ था। वह शिवा को अपने घर ले गया। घर में उसकी पत्नी कमला। एक बच्ची थी कोई पाँच साल की। बूढ़ी माँ थी। क्वार्टर के ठीक सामने पीपल का पेड़ था। एक छोटा-सा मंदिर, एक चबूतरा। चाय पीते हुए ही साहिल ने शिवा को बता दिया कि यह मंदिर उसके पिताजी ने ही बनाया है और वे ही इसे चलाते हैं। उसकी अपने पिता से कतई नहीं पटती। झगड़ा होता था। रोज़। पड़ोस के चौधरी की शह पर उसने सामने ही मंदिर बना डाला। छाती पर मूँग दलता है। माँ उसके साथ ही रहती है। उसकी पति से इसीलिए नहीं पटती थी कि वह ऐयाश है। साठ की उम्र में भी छोटी-छोटी लड़कियों को मंदिर बुला लेता है। उन्हें बिगाड़ता है। एक बार पकड़ा भी गया। चौधरी ने मामला रफा-दफा करवा दिया। एक नंबर का हरामी है। माँ सीधी-सरल है। नहीं जाती उसके पास। और भी न जाने कितनी बातें वह बताना चाहता था कि कमला कोने से टूटे प्यालों में चाय ले आई। चाय के साथ ही साहिल अपना कलाम सुनाने लगा। शिवा ने भी अपने कुछ गीत सुनाए। शिवा को लगा, जैसे उनकी दोस्ती सालों पुरानी है।
शिवा बाहर निकला तो फैलते पीपल को देखकर खड़ा हो गया। वह साहिल के पिता को देखना चाहता था, उससे मिलना भी चाहता था। बात करना चाहता था। पीपल के नीचे चबूतरे पर उसे सत्तू, नट्टू और लोटा दिखाई देने लगे, बीच कहीं वह खुद और मंदिर का पुजारी। वैसा ही होगा यह भी। रोहतक जैसा। पीपल शिवा की शिराओं में लहराने लगा। यादें पीपल की जड़ों-सी फैलने लगीं। दूर-दूर तक। रस लेती हुई।
“जाना नहीं है क्या?” साहिल ने ही पूछा और शिवा खामोशी से अपने घर की ओर चल दिया।
साहिल के साथ शिवा की बैठकें बढ़ीं। एक दिन भी मिलना न होता तो शिवा को कुछ अधूरा-अधूरा लगता। दोनों अपने दुःख-दर्द बाँटने लगे। साहिल का दायरा उर्दू वालों का था, इसलिए शिवा की मसरूर, मख़मूर, नादान, एजाज़ आदि कई शायरों से जान-पहचान हुई। उनकी अंदरूनी राजनीति और उठा-पटक का पता चला। हिन्दी वालों की परंपरा से उर्दू वालों की परंपरा अलग थी। हिन्दी में जहाँ कवि खुद-ब-खुद लिखने लगता था, वहीं उर्दू शायरी में उस्ताद की एक मखसूस जगह थी। साहिल के उस्ताद अख़्तर थे। बुज़ुर्ग थे। अच्छी ग़ज़लें कहते थे और शागिर्दों की एक बड़ी जमात उनके पास थी। बड़ी मुश्किल से उन्होंने साहिल को अपना शागिर्द स्वीकार किया था। साहिल जब भी ग़ज़ल कहता, किसी को भी सुनाने से पहले वह अख़्तर साहब से इस्लाह करवा लेता। अख़्तर देहलवी उर्दू शायरी में एक माना हुआ नाम था।
शिवा भी एक रोज़ साहिल के साथ अख़्तर साहब के घर गया। सब्ज़ी मंडी के बदनाम इलाके चंद्रावल में एक छोटा-सा कमरा। अँधेरा। उसी में उर्दू शायरी की यह अज़ीम शख्सियत रहती थी। साहिल ने शिवा का तआरुफ करवाया और अपनी ताज़ा ग़ज़लें अख़्तर साहब को दीं। शिवा इस मौके को हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। साहिल ने ही कहा-”उस्ताद जी, शिवा हिन्दी में शायरी करता है। कुछ सुनाना चाहता है।” अख़्तर साहब ने ज़रा-सी आँखें ऊपर उठाई, कहा-”इरशाद।”
तभी चाय के तीन प्याले आ गए। कई कोनों से टूटे हुए। शिवा थोड़ा परेशान हुआ कि इतने बड़े शायर की माली हालत इतनी खराब! वह कुछ विभ्रम की स्थिति में था कि अख़्तर साहब ने फिर कहा-”सुनाओ मियाँ।”
शिवा ने अपना एक गीत सुनाया और एक छंदमुक्त कविता।
अख़्तर साहब को हिन्दी के शब्द जहाँ समझ नहीं आए, उन्होंने उसके मायने पूछ लिए। शिवा अपनी कविताओं के बारे में उनसे कुछ सुनना चाहता था, पर वे खामोश रहे। अपने दूसरे शागिर्दों की बातें करने लगे। आखिर में यह भी कहा कि उनके सभी शागिर्दों में उन्हें साहिल से बड़ी उम्मीदें हैं। साहिल का सीना फूल गया। उन्होंने हिन्दी कवियों के बारे में कुछ मालूमात हासिल कीं और शिवा ने उर्दू शायरों के बारे में कुछ जाना। दो घंटे के बाद वे उठे।
शिवा के मन में अभी कहीं कुछ कौंच रहा था कि अख़्तर साहब ने उसकी कविताओं पर किसी भी तरह की टिप्पणी क्यों नहीं की? सोचा, शायद उन्हें मेरी कविताएँ समझ में न आई हों, या अच्छी ही न लगी हों। उसने साहिल से कहा-”यार! तुम्हारे उस्ताद तो कुछ बोलते ही नहीं!”
साहिल का कहना था-”उनसे दाद लेना कोई आसान बात नहीं है।”
तो क्या किसी की शायरी की तारीफ करने से, उसे दाद देने से आदमी छोटा हो जाता है? इसके पीछे आखिर कौन-सी भावना काम कर रही है? शिवा के अंदर तक कहीं एक खामोश शायर उतर गया अख़्तर देहलवी। उसने सोचा कि दाद बड़ी कीमती चीज़ है और जो शायर दूसरों को जितनी कम दाद देता है, वह उतना बड़ा होता है। सचमुच उस दिन से शिवा दूसरों की कविताओं पर बहुत सोच-समझकर ‘वाह-वाह’करने का अभ्यास करने लगा।
1962 का साल और अक्तूबर का महीना। अचानक सारे देश में सनसनी फैल गई। चीन ने भारत पर हमला कर दिया था। चीन का कहना था कि शुरुआत भारत की तरफ से हुई। देश का कोई भी नागरिक चीन का तर्क मानने को तैयार नहीं था। न कोई राजनीतिक दल। केवल कम्युनिस्ट पार्टियों ने चुप्पी ओढ़ रखी थी। इस बात के खिलाफ लोगों में बड़ा रोष था। शिवा की कॉलोनी मज़दूरों की कॉलोनी थी। उनकी सहानुभूति कम्युनिस्टों के साथ ही होती थी, लेकिन इस कांड से मज़दूर भी आहत हो रहे थे कि उनके पक्ष की पार्टी चीन के हमले की निंदा क्यों नहीं कर रही। शिवा ने भी रोष महसूस किया। उसने अपने पिता से कांग्रेस की तेज़ निंदा सुनी थी। अब वह कम्युनिस्टों की निंदा भी सुन रहा था। जगतनारायण की नज़र में जनसंघ दल ही सही अर्थों में राष्ट्रवादी था। राजनीतिक दलों की रणनीति को समझने की कोशिश कर रहा था शिवा। वह भी और लोगों की तरह से ही बेहद डरा हुआ था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के रेडियो पर हुए भाषण से उनकी घबराहट और एक मित्र देश द्वारा पीठ में छुरा भोंकने वाले इस कृत्य से उपजी गहरी वेदना साफ झलक रही थी। ‘पंचशील’ और ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के परखच्चे उड़ रहे थे।
सारी कॉलोनी में जगह-जगह खाइयाँ और खंदकें खोद दी गईं। रात-भर ब्लैक आउट रहता। सायरन बजते ही घरों के दीये और मोमबत्तियाँ भी बुझा दी जातीं। रोज़ भारत की चौकियाँ गिरने की खबरें अंदर ही अंदर गहरी दहशत भर देतीं। अफवाहों का बाज़ार भी गर्म रहता। अजीब-अजीब खबरें मिलतीं। हमारे जवानों के पास न कायदे के कपड़े हैं न हथियार। न रसद ठीक से पहुँच रही है और ना ही कोई रणनीति बन पा रही है। भारत के मित्र देश रूस ने कबूतर की तरह आँखें बंद कर ली थीं। अमेरिका ने हथियारों की खेप भेजी तो लोगों और सेना का मनोबल थोड़ा बढ़ा। तब शिवा यह नहीं जानता था कि यह तो हर देश की अपनी-अपनी रणनीति है और दो बड़े देश अपने-अपने प्रभाव-क्षेत्र बनाने में लगे हैं। पर यह सच है कि तब शिवा को अमेरिका मित्र लगा। राष्ट्रपति कैनेडी की ओर वह अतिरिक्त रूप से आकृष्ट हुआ। शिवा का कवि तब तक प्रेम गीत लिखता था। कभी संयोग, कभी वियोग। कभी कुछ यथार्थ लिए हुए तो कभी कोरी काल्पनिकता। चीन के हमले ने हर भारतवासी को झकझोर दिया था। कवि और कलाकार भी अपनी तरह से सक्रिय थे। कुछ कवि तो नेफा और लद्दाख की बर्फानी ऊँचाइयों तक गए और अपने गीतों से जवानों का मनोबल बढ़ाया। भला शिवा भी इस दौड़ में पीछे कैसे रह सकता था। नारी-प्रेम की जगह देश-प्रेम ने ले ली। शिवा के गीतों में समय की आवाज़ सुनाई देने लगी। चीन को चुनौती देने वाली कविताएँ उसने लिखीं। वह नेफा या लद्दाख की सीमाओं तक तो नहीं जा सका, लेकिन स्थानीय स्तर पर होने वाले कवि सम्मेलनों में अपनी कविताओं का पाठ जमकर किया। बाद में तब उसने दिनकर के मुख से ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ सुनी तो उसे कहीं यह एहसास हुआ कि कविता तो ऐसी होनी चाहिए। लता ने ‘ए मेरे वतन के लोगो’ गीत गाया तो भी उसे लगा कि गीत में ऐसी तरलता और आम लोगों तक पहुँच होना बड़ा ज़रूरी है। लड़ाई लंबी नहीं खिंची। युद्ध-विराम हो गया। स्थिति ऊपरी तौर पर सामान्य होने लगी। प्रतिरक्षा केंद्रों, रक्षामंत्री तथा सुरक्षा के सामान का उत्पादन करने वाले कारखानों की कमज़ोरियाँ सामने आने लगीं। मैकमोहन रेखा की चर्चा ज़ोरों से होने लगी। रक्षामंत्री वी.के. कृष्णमेनन के सिर पराजय का सेहरा बँधा। उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। यह सब इतनी तेज़ी से और इतने अप्रत्याशित ढंग से घट रहा था कि शिवा घटनाओं की पेचीदगियों को बहुत गहराई से पकड़ नहीं पाया। हाँ, वह भी दूसरे नागरिकों की तरह कहीं शर्मिन्दगी अनुभव कर रहा था। परास्त होने की पीड़ा मन में गहरे उतर गई थी। दोषी कौन? नेहरू या मेनन? चाऊ-एन-लाई या कोई और? इन प्रश्नों का कोई सीधा-सरल जवाब उसके पास नहीं था। उसे यह ज़रूर लग रहा था कि चीन ने हमारे साथ छल किया है। हारी हुई मानसिकता लिए हुए शिवा कविताओं से संगीत और धीरे-धीरे अपनी किताबों में खो गया। आखिर इम्तिहान तो होने ही थे।
शिवा हायर सेकेंडरी के नतीजे का इंतज़ार कर रहा था। घर में ताने मिलते, पर शिवा ने ठान ही लिया कि अब वह जो भी करेगा, नतीजों के बाद ही। फिलहाल उसे सिर्फ कविताएँ लिखनी थीं। पढ़नी थीं। सुननी थीं।
पास ही एक इलाका था शकूर बस्ती। वहाँ उर्दू शायरों का छोटा-मोटा जमावड़ा था। उनकी एक संस्था भी थी ‘बज़्मे-अदब’। वे छोटी-छोटी महफिलें भी करते थे और कभी-कभी मुशायरा भी। तमाम उर्दू शायरों के बीच शिवा अकेला हिन्दी वाला था। वह अब मुक्त-छंद में ज़्यादा लिखने लगा था। गोष्ठियों में उसकी नज़्मों की काफी तारीफ होती। दो शायर ऐसे भी थे जो खामोशी से सुनते, दाद नहीं देते। शिवा उनको ग़ौर से देखता। दो-एक बार तो उसने टाल दिया, पर जब उन्होंने शिवा की अच्छी कविताओं पर भी दाद नहीं दी तो उसने भी उनके कलाम पढ़ने पर दाद देना बंद कर दिया। उसे सचमुच लगा कि वह औरों से थोड़ा अलग हो गया है। अपना कद भी थोड़ा बढ़ा हुआ महसूस करता। मुशायरे में भी पढ़ने का मौका मिला, पर उसकी कविताओं पर वैसी ‘वाह-वाह’ नहीं हुई जैसी उर्दू शायरों की ग़ज़लों के एक-एक शेर पर हुई थी। उस दिन साहिल ने तो मुशायरा ही लूट लिया था।
शिवा के मन में आया कि असली मज़ा तो तभी है जब एक-एक मिसरे और एक-एक शेर पर दाद मिले। ‘वाह-वाह’ हो। ‘मुकर्रर-मुकर्रर’ हो। चुपके से उसने भी कुछ ग़ज़लें कह डालीं। कुछ गीत लिख मारे। सोचा कि ग़ज़ल की इस्लाह अगर ज़रूरी है तो वह किससे कहे? साहिल से या अख़्तर साहब से? साहिल अभी खुद ही इस्लाह लेता है तो वह उस्ताद तो हो नहीं सकता और अख़्तर साहब पता नहीं इस्लाह दें कि न दें। वह हिन्दीनुमा उर्दू लिखता भी देवनागरी में है। अख़्तर साहब देवनागरी नहीं जानते और वह फारसी लिपि नहीं जानता। क्या करे? फारसी लिपि सीखे? उसके पिता अच्छी उर्दू जानते थे, साहिल भी था। वह एक कायदा भी खरीद लाया और अलिफ, बे रटने लगा। कोशिश की पर मन जमा नहीं और लिपि-ज्ञान बीच में ही रह गया, पर उसकी उर्दू-लुग़त में ज़रूर इज़ाफा हुआ। धीरे-धीरे वह महसूस करने लगा कि उसकी भाषा में एक बदलाव आ रहा है। वह न पूरी तरह से ‘शुद्ध हिन्दी’ जैसी भाषा बन रही है, न फारसी से ठुँगी हुई उर्दू। कई बार उसे इसके लिए मज़ाक का केंद्र भी बनना पड़ा। उर्दू वाले कहत-‘यह उर्दू नहीं है, उर्दू का हिन्दी पर असर है’-हिन्दी वाले उसे शुद्ध हिन्दी लिखने की हिदायत देते। तर्क था-”हिन्दी की शब्द-संपदा बड़ी विशाल है। संस्कृत उसकी जननी है। जो वैष्णवपन हिन्दी में है, वह उसकी शक्ति है और ऐसा वैष्णवपन और किसी भी भाषा में कहाँ!’
शिवा अब भाषा की प्रकृति उसकी बनावट और बुनावट] शब्दों के स्रोत] भाषा पर सामाजिक दबाव] बदलाव के पीछे राजनीतिक एवं धार्मिक कारणों और शक्तियों को पहचानने और पकड़ने की कोशिश करने लगा था। उसके पास प्रश्न ज़्यादा थे] जवाब कम। उसके संपर्क में जितने भी लोग थे] उनके पास भी जवाब न होते। कोई शिवा का मज़ाक उड़ा देता] कोई उसे ‘पागल है’ कहकर टाल देता और कोई उसे फलाँ-फलाँ जी से संपर्क करने की सलाह देता।
भयंकर गर्मी के दिन थे। शिवा को धीरे-धीरे एक निष्क्रियता ने घेर लिया था। शिवा को धीरे-धीरे एक निष्क्रियता ने घेर लिया था। दिन में वह लगभग खाली रहने लगा था। घई का ठिया कारपोरेशन वालों ने तोड़ दिया। सिनेमा टिकट ब्लैक करने की उसने दो-एक बार कोशिश की, पर नाकाम रहा। निष्क्रियता क्यों थी, यह बात उसकी समझ में भी नहीं आ रही थी। पिता काम भले ही करने लगे थे, घर के खर्चे भी बढ़े थे। जैसे-तैसे मई खत्म। जून के पहले हफ्ते में ही हायर सेकेंडरी के नतीजे की घोषणा की अटकलें लगने लगीं। कई लड़कों के मुँह लटके हुए थे। रात-रात-भर नींद नहीं आती थी। सुबह रोज़ अखबारवाले का इंतज़ार करते, पर नतीजा था कि लटक ही रहा था। शिवा अपेक्षाकृत कम चिंतित था। नींद भी उसे ठीक से आ जाती थी। इन दिनों वह उर्दू शायरों के दीवान पढ़ने लगा था। ग़ालिब, ज़ौक़, दाग़, मीर जैसे शायरों के कलाम उसने पढ़े और समझने की कोशिश की। इन्हीं शायरों को पढ़ते हुए उसने महसूस किया कि उर्दू में उसका हाथ कितना तंग था। मुश्किल अल्फाज़ के मायने फुटनोट में होते। मायने देखता, तो पढ़ने का लुत्फ जाता रहता है, न देखता तो कई अशआर समझ में ही नहीं आते। ग़ालिब की कुछ ग़ज़लें उसे ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ फिल्म में सुनी थीं। सुरैया और रफ़ी का अंदाज़, ग़ालिब का कलाम। मंत्रमुग्ध कर देने वाला था। ‘कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े बयाँ और’ ने सचमुच उसे अपनी ओर खींचा था, पर उनकी ज़्यादातर ग़ज़लें और नज़्में शिवा की समझ से बाहर थीं। उसने सभी शायरों को पढ़ा है, इतना तो वह कह ही सकता था। कुछ को उसने साहिल के साथ पढ़ा। बहुत जगहों पर साहिल भी कानों को हाथ लगा लेता था।
नतीजा निकला। शिवा सारे स्कूल में ही नहीं पूरे ज़ोन में भी प्रथम आया था। हालाँकि उसके मास्टरों ने उस पर इतनी उम्मीदें बाँध रखी थीं कि बोर्ड में टॉप करेगा और अखबारों में उसका फोटो छपेगा। उनका और स्कूल का नाम रोशन होगा, पर ऐसा नहीं हुआ। शिवा से ज़्यादा उसके मास्टर निराश हुए।
शिवा ने आगे के मंसूबे बाँधे। घर में बात की तो पिता ने छूटते ही कहा-”बहुत हो गई पढ़ाई। अब कोई नौकरी ढूँढ़ो।” शिवा परेशान हो गया। मास्टर सीसराम से उसने बात की तो वे भी हैरान हुए। कहा-”शिवा घबराना मत। घर की परेशानी है तो उसे भी देखो, पर पढ़ाई छोड़ना मत। जैसे भी हो हिन्दी में एम.ए. ज़रूर करना।”
शिवा में निष्क्रियता पहले से ही आ गई थी, पिता के आदेश की प्रतिक्रियास्वरूप और भी बढ़ गई। शिवा कॉलिज जाना चाहता था। उसे रोहतक में चोखा के साथ कॉलिज में गुज़ारा एक-एक दिन आज भी याद था, लेकिन पिता के लिए ग्यारहवीं काफी थी। मज़दूर बाप शायद अपने बच्चों के लिए इससे ज़्यादा सोच ही नहीं सकता था। आर्थिक अभाव ने उसके दिमाग़ की खिड़कियाँ बंद कर दी थीं। शिवा के सामने प्रश्न अपने कैरियर का था, पिता के सामने प्रश्न पूरे परिवार का। आखिर परिवार की ही जीत हुई। बहसें हुईं, झड़पें हुईं, नतीजा यही निकला कि शिवा और पढ़ना भी चाहता है तो कहीं नौकरी करता हुआ पढ़े। जगतनारायण ने पूरी तरह से अपने हाथ खड़े कर दिए थे।
सुदर्शन पार्क से कर्मपुरा कोई एक-डेढ़ किलोमीटर की ही दूर पर था, सो शिवा का आना-जाना नियमित ही रहा। पिता की टूटी-फूटी साइकिल मिल जाती तो उसी पर चला आता, वरना ग्यारह नंबर की बस का ही इस्तेमाल करता।
शिवा ने कई जगह अर्ज़ियाँ दीं। कोई जवाब नहीं। हांडा ने भी कोशिश की, कामयाबी नहीं मिली। चावला ने कहा कि शिवा चाहे तो मिल में दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम पा सकता है। यह शिवा को मंजूर नहीं था। शिवा लगभग खुद को अकेला महसूस करने लगा। सुमन से मिलने की बात तो दूर, उसे देखे हुए भी महीनों गुज़र जाते थे।
शिवा का दिल सुमन की तरफ से बिल्कुल टूट चुका था। उसने टूटे हुए आशिक की तरह से कई गीत लिखे, साहिल को सुनाए। कभी-कभी साहिल की पत्नी कमला भी साथ आ बैठती थी। उसे लिखने का तो नहीं, सुनने का बेहद शौक था। कमला साँवले रंग की बंगालन थी। कद छोटा था। बाल लंबे। शरीर छरहरा। आँखें बड़ी-बड़ी और आकर्षक। कुल मिलाकर वह एक सौम्य महिला कही जा सकती थी। साहिल का भी असली नाम जगदीश था। शिवा जब अपने घर की कहानियाँ सुनाता, सुमन की बात करता, संघर्ष शुरू करने की बात करता तो कमला भी साथ ही सुनती। साहिल भावुक हो उठता-”शिवा! हम-तुम अब दाँत-काटी रोटी हैं। मुझसे जो बन सकता है, करूँगा, पर तुम ज़रूर एक दिन इस संघर्ष से निकलकर उबरोगे। सोना लोहे में तपकर ही तो कुंदन बनता है।” कमला चाय बनाकर ले आती।
एक दिन साहिल ने पूछा-”अब इरादा क्या है?”
“यही समझ में नहीं आता।”
“तुम तो पढ़-लिख गए हो, मुझे देखो, सिर्फ पाँचवीं पास हूँ। मज़दूरी करता हूँ, घर चलाता हूँ। तुम तो कहीं अच्छी नौकरी पा सकते हो।”
“जो भाग में होता है, ज़रूर मिलता है।” पास ही बैठी कमला ने कहा।
भाग्य के नाम से शिवा भड़क उठा-”भाग, कौन-सा भाग? भाग से नहीं, पुरुषार्थ से ही कुछ मिलता है।”
“किस्मत में न हो तो मेहनत करके भी कुछ हाथ नहीं लगता।”
“और बिना पुरुषार्थ के?”
“तब भी किस़्मत ज़रूरी है और मैं जानता हूँ तुम किस्मत के धनी हो।” साहिल ने कहा।
“ज्योतिष भी जानते हो?”
“पता नहीं, पर तुम्हारे मस्तक की रेखाएँ बोलती हैं।”
शिवा को याद आया, उसे ऐसी ही बात किसी चलते-फिरते बाबा ने भी कही थी। वह तब भी तदबीर और पुरुषार्थ की ही बात करता रहा। उसे ज़्यादा महत्व देता।
“क्या बोलती है?” शिवा ने उत्सुकतावश पूछा।
“तरक्की। बहुत तरक्की होगी मेरे यार की। इसीलिए तो जुड़े हैं तुम्हारे साथ कि लकड़ी के साथ पत्थर भी तर जाएगा।” साहिल और भी भावुक हो गया था। कहने लगा-”बहुत दिनों से तुमसे एक बात करना चाहता हूँ।”
शिवा नज़रें गड़ाकर साहिल को देखता रहा।
“तुमसे कुछ भी नहीं छिपाया है मैंने,” साहिल कह रहा था-”आज तुम्हें मैं वह बताने जा रहा हूँ, जो यहाँ कोई भी नहीं जानता। यह सुनकर या तो तुम मुझसे नफरत करने लगोगे या और भी प्यार करोगे।”
शिवा थोड़ा सकते में आ गया कि आखिर क्या बात हो सकती है जो एक छोर पर नफरत पैदा कर दे और दूसरे छोर पर प्यार। बोला-”नफरत और प्यार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।”
“तुम भी ऐसा सोचते हो?”
“सुना यही है, पर अनुभव के स्तर पर कुछ भोगा नहीं, देखा नहीं, सो कह नहीं सकता, तुम वो बताओ।”
साहिल ने शिवा का हाथ अपने हाथ में ले लिया। कमला भी पास बैठी रही। शायद वह जानती थी, साहिल क्या बात करने जा रहा है।
“बात यह है मेरे दोस्त! तुम जो मुझे समझते हो, मैं वो नहीं हूँ और जो हूँ, वो भी मैं नहीं हूँ।”
“यह तो पहेली बन गई भाई।” शिवा ने कहा।
“हाँ, पहेली ही समझो शिवा! बात खोलता हूँ। जब बँटवारा हुआ, तुम शायद एक साल के रहे होंगे, मेरी उम्र दस साल की थी। मेरा बाप, जिसे तुम मिल चुके हो, और जो आज भी मेरी छाती पर चढ़ा बैठा है, तब जवान था। हम लोग कानपुर में थे। दंगे हुए। बहुत-से मुसलमान मारे गए। बहुत-से पाकिस्तान चले गए। हमारे जैसे जो न तो वहाँ रह सके, ना ही पाकिस्तान जा सके-इधर-उधर भटकते रहे। हम ‘47’ में ही दिल्ली आ गए थे। दिल्ली तब वीरान-सी थी। नई दिल्ली का इलाका तो कोई सल्तनत-सा लगता था। मैं, मेरी माँ और मेरा बाप। बस, तीन ही बचे थे। मुझसे एक बड़ा भाई था, जिसका कत्ल हो गया। हम जैसे-तैसे बच निकले।”
शिवा सुन रहा था। थोड़ा चौंका भी। साहिल उर्फ जगदीश उर्फ क्या...पूछ ही लिया-”तो तुम्हारा असली नाम...?”
“जावेद था...पूरी बात सुनो...दिल्ली में भी हालात कुछ अच्छे नहीं थे। यहाँ हमें एक हिन्दू ने ही शरण दी। धीरे-धीरे मामला ठंडा हुआ। मोतिया खान में हमने एक झोंपड़ी डाल ली। उन दिनों अपना नाम बताते हुए सचमुच डर लगता था, इसलिए ज़्यादातर हम खामोश ही रहते थे। अब्बा चुपके से नमाज़ अदा कर लिया करते थे।” कहकर साहिल ने ठंडी साँस ली और शिवा के दिमाग़ में कौंध गए पिता द्वारा सुनाए सैकड़ों किस्से। हिन्दुओं का कत्लेआम...लाशों से पटी पाकिस्तान से आई गाड़ी, जवान लड़कियों और औरतों का ग़ायब होना, बच्चों का अनाथ होना, आगज़नी, लूटपाट, न जाने कितने-कितने किस्से उसके दिमाग़ में तैर गए। साथ ही उसने यह भी सोचा-तो वहशत का एक पक्ष यह भी है... “फिर...?”
“फिर क्या...मुश्किलें बढ़ती गईं। वो हिन्दू...उनका नाम लुभायाराम था, अक्सर आते और उन्होंने ही एक दिन अब्बा को सलाह दी कि वक्त खराब है। हालात बदल चुके हैं और अगर उन्हें हिन्दुस्तान में रहना है तो यहीं का होके रहना पड़ेगा। अब्बा ने पूछा था-‘मतलब?’ ‘मतलब यही कि या तो आप पाकिस्तान चले जाएँ या फिर हिन्दू हो जाएँ। सुरक्षा की गारंटी मेरी।’
“अब्बा का चेहरा तमतमा गया था, पर वे खामोश रहे। बिना पलक झपकाए शून्य में देखते रहे। मैं भी पास ही बैठा था। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा। अम्मा को देखा और ‘ठीक है’ कह दिया।
“तीन दिन बाद हमें हनुमान रोड ले जाया गया। वहीं आर्य समाज में हमारी शुद्धि हुई। मैं जावेद से जगदीश हो गया और अब्बा का नाम उन्होंने असलम से अविनाश कर दिया तथा अम्मी का नाम पाकीज़ा से दमयंती हो गया। बस, तब से हम हिन्दू हो गए। मुझे नहीं मालूम मेरे पुरखे कौन हैं। हम पहले भी हिन्दू से मुसलमान बने या जब यहाँ आए तो मुसलमान ही थे, सचमुच मुझे कुछ नहीं पता...पर यह ज़रूर लगता है कि हम ज़मीन के नहीं गमले के पौधे हैं। कभी भी मुरझा सकते हैं। हमारी जड़ें बहुत गहरी नहीं हैं। दो अतियों के बीच कहीं झूलते हैं, पता नहीं कब किसके पाले में जा गिरें!” शिवा थोड़ा हतप्रभ हुआ। खुद को व्यवस्थित करते हुए कहा-”मेरे लिए तुम न जावेद हो, न जगदीश, सिर्फ साहिल हो। मेरे यार। एक अज़ीम शायर।”